मार्गदर्शक सत्ता ने गुरुदेव को प्रथम जन्म “संत कबीर के दर्शन कराए”

20  अक्टूबर 2022 का ज्ञानप्रसाद-

चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 6    

सप्ताह का चतुर्थ  दिन वीरवार , ब्रह्मवेला के दिव्य समय में आपके इनबॉक्स में आज का ऊर्जावान ज्ञानप्रसाद आ चुका  है। परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन में लिखा गया यह ज्ञानप्रसाद हमारे समर्पित सहकर्मियों को  रात्रि में आने वाले शुभरात्रि सन्देश तक अनंत  ऊर्जा प्रदान करता रहेगा,ऐसा हमारा अटूट विश्वास है।

आने वाले तीन लेखों का उद्देश्य तभी पूर्ण होगा जब हम अंतर्मन से स्थिर होकर आंवलखेड़ा स्थित कोठरी में पूज्यवर के सानिध्य में बैठेंगें। दादा गुरु द्वारा चलचित्र की भांति वर्णन किया गया तीन जन्मों का वृतांत बहुत ही आलौकिक था। इस वृतांत में  दादा गुरु तीन जन्मों की, तीन गुरु-शिष्यों की, तीन क्षेत्रों  की कथा तो वर्णन कर ही रहे थे, साथ में अन्य कई और गुरुओं के रिफरेन्स भी दे रहे थे। रामानंद और संत कबीर, समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी, तोतापुरी और रामकृष्ण परमहंस -तीन गुरु-शिष्यों का वर्णन “बलिहारी गुरु आपुनो” को सार्थक करता है। उत्तर प्रदेश,महाराष्ट्र और बंगाल में घटित 600 वर्ष का यह जीवन चलचित्र दर्शाने में दादा गुरु को लगभग 6 घंटे का समय लगा, गुरुदेव अचेत से बैठे सब कुछ देखते रहे। इस वृतांत के बाद मार्गदर्शक सत्ता ने गुरुदेव को  कैसे वापिस लाया,कठोर निर्देश देकर पालन करने को कैसे कहा, उस दिन ताईजी की क्या प्रतिक्रिया थी इत्यादि सभी प्रश्नों के उत्तर आने वाले लेखों में मिलने का सम्भावना है। गुरुदेव के मार्गदर्शन में हम अथक परिश्रम  करके एक ऐसा कंटेंट लाने का प्रयास करेंगें जिससे आपकी आत्मा तृप्त हो जाएगी। 

अगर आप  यह सोच रहे हैं कि गुरुदेव के तीन जन्मों का कथा बहुचर्चित है, हम तो  इसे कई बार पढ़ चुके हैं, ऑडियो में सुन चुके हैं ,वीडियो में देख चुके हैं, तो शायद उचित न हो। हमने इन्ही पन्नों को browse करके कितनी ही बार देखा तो पता चला कि अभी बहुत कुछ जानने को बाकी है। आप से निवेदन है कि हर लेख का भूमिका portion अवश्य पढ़ा करें जिसमें लेख की summary का वर्णन होता है। 

तो चलते हैं दादा गुरु और बालक श्रीराम के दिव्य सानिध्य में उस कोठरी में और जानते हैं संत कबीर जी के बारे में।   

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दादा गुरु ने बालक श्रीराम को दिव्य जगत में प्रवेश कराया। उस जगत् में प्रवेश करते ही श्रीराम अपनेआप को वाराणसी में उपस्थित अनुभव करते हैं। उस क्षण को “अनुभव” कहना भी शायद गलत हो। वे वाराणसी में ही थे। पूजा की कोठरी में जिस रूप, अवस्था और वेश में थे, उससे सर्वथा भिन्न।अपनेआप को एक अनजाने रूप में पाया, लेकिन ऐसा नहीं लगा कि किसी आश्चर्यलोक में हों। अपरिचित होते हुए भी वह समय, स्थिति और स्वरूप जाना पहचाना सा  लग रहा था, जैसे अपनी चेतना में ही घट रहा हो या स्वयं उस स्थिति के नायक हों।

एक दृश्य में स्वामी रामानंद काशी के घाट पर स्नान करने जा रहे हैं। कोई व्यक्ति रामानंद से रामनाम की दीक्षा लेने की आस लिए हुए सीढ़ियों पर लेटा हुआ था । पहले प्रयत्न कर देखा था, लेकिन गुरु के सहयोगियों ने यह कह कर मना कर दिया कि शूद्रों को रामनाम की दीक्षा नहीं दी जाती। वे अपनेआप चाहे जप कर  लिया करें, गुरु मुख से सुनने की योग्यता उनमें नहीं है। वह शूद्र  संत कबीर थे और पूजा की कोठरी में सिर पर हाथ का स्पर्श पाकर जो श्रीराम यह सब अनुभव कर रहे थे,वही थे। वह अपनेआप को सीढ़ियों पर लेटा हुआ देख भी रहे थे। ब्रह्ममुहूर्त में स्वामी रामानंद गंगा स्नान के लिए आए। सीढ़ियों पर कबीर ने अपने आपको इस तरह समेट लिया कि दिखाई न दें। घाट की सीढ़ियाँ उतरते ही उनका दाहिना पाँव कबीर के शरीर पर पड़ा और बोध हुआ कि किसी को चोट लगी है। इस बोध के साथ स्वामी जी के मुँह से ‘राम-राम’ की ध्वनि निकल आई। कबीर ने तत्क्षण उठ कर स्वामी जी के पाँव पकड़ लिए और कहा मैं धन्य हुआ पूज्यवर। मुझे गुरुमंत्र मिल गया।

इस घटना के बाद स्वामी रामानंद ने कबीर को विधिवत् अपना शिष्य स्वीकार किया। काशी के विद्वानों, आचार्यों, साधुओं और महामण्डलेश्वरों ने इसका घोर विरोध किया। उन्हें धर्मद्रोही तक करार दिया। रूढ़ियों और पंरपरा के प्रति अत्यधिक विद्रोह करने  वाले स्वामी रामानंद पर इसका जरा भी असर नहीं हुआ।

कबीर कपड़ा बुन कर अपना निर्वाह चलाते थे। काम करते हुए ही वे साधकों और जिज्ञासुओं को धर्मोपदेश देते थे। बालक श्रीराम को  दिखाई दे रहा है कि दसियों लोग उन्हें घेरे बैठे हैं। चर्चा के विषय अध्यात्म तक ही सीमित नहीं हैं;  घर, परिवार, समाज और समकालीन घटनाओं पर भी बातचीत होती है। निर्वाह होने योग्य कपड़ा तैयार हो जाने के बाद कबीर खुद उसे बेचने जाते। कोई मोल भाव नहीं, जिसने जो मूल्य आँका और देना चाहा, वह ले लिया। फिर घर आ गए। इस तरह के सौदे में कभी घाटा नहीं हुआ। ज्यादा होशियारी बरतने वालों ने एकाध बार चालाकी की होगी, लेकिन आमतौर पर सभी ग्राहक ईमानदारी ही बरतते हैं। सत्संग में आने वालों ने कभी पूछा तो कबीर का उत्तर था:  हमारे मन में फायदा उठाने की बात ही नहीं आती। हमें क्या नुकसान होगा? नुकसान तो उसे ही है जो लाभ कमाने निकला हो।

एक सत्संग में किसी ने पूछा कबीर साहब आपका परिवार बड़ा खुश है। सुखी दाम्पत्य का क्या रहस्य है? सुनकर कबीर कुछ क्षण तक चुप रहे। फिर पत्नी को पुकारा, ‘लोई बड़ा अंधेरा है दीपक जलाकर लाना’। (लोई उनकी पत्नी का नाम था) सुनने वालों को भारी असमंजस हुआ। भरी दोपहरी का समय था बीच आसमान में सूरज चमक रहा था। जिस जगह कबीर सत्संगियों के साथ बैठे थे, वहाँ भी पर्याप्त रोशनी थी। अबूझ स्थिति में पड़े लोगों को तब और आश्चर्य हुआ जब लोई दीपक जलाकर लायी और कबीर के पास रखी एक चौकी पर रख कर चली गई। कबीर ने कहा पति-पत्नी में इस तरह का विश्वास हो तो दांपत्य बड़े मजे से चलता है। लोई भी जानती है कि भरी दोपहरी हैं और दीपक की जरूरत नहीं है, फिर भी जब कबीर ने कहा तो उसने संदेह नहीं जताया। वह कहे अनुसार चुपचाप अपना काम कर चली गई।

परिवार की आमदनी सीमित थी और आगंतुकों का तांता लगा रहता था। आने वालों की आवभगत भी होती। घर में हमेशा तंगी बनी रहती। पुत्र कमाल बड़ा हुआ। परिवार में बनी रहने वाली तंगी का अच्छी तरह ख्याल था। उसने व्यापार व्यवसाय में ध्यान दिया। कबीर का ज़ोर  वहाँ भी शुद्धता और न्याय की कमाई पर रहता था। पुत्र को व्यावहारिक अध्यात्म की दीक्षा दी। वैसे ही संस्कार भी दिये।

कबीर की काया पर विवाद :

एक अन्य दृश्य में कबीर हिन्दू और मूसलमान दोनों को फटकारते दिखाई दिए। सब धर्मों की एकता पर नहीं, उनके अनुयायियों में सामंजस्य पर उनका जोर था। बाहरी स्वरूप, कर्मकाण्ड, प्रतीक और आचरण आदि में ज़मीन आसमान का अंतर होते हुए भी सब धर्म एक ही सत्य का उद्घोष करते हैं। वह सत्य अपने भीतर बैंठा परमात्मा और बाहर उसी की अभिव्यक्ति का उद्घोष है। कबीर का निधन मगहर में हुआ या काशी में इस पर इतिहास के जानकारों में मतभेद है। मगहर उत्तर प्रदेश की संत कबीर डिस्ट्रिक्ट में एक कस्बा है। कहते हैं उनका निधन हुआ तो हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों ने अपने रिवाज के अनुसार अंतिम संस्कार करना चाहा । इस पर विवाद भी हुआ। हिन्दू शव का दाह संस्कार करना चाहते थे और मुसलमान दफनाना। यह कहानी ही होगी कि दोनों पक्ष के लोगों ने शव पर पड़ा कफन हटाया, तो वह मृत काया के स्थान पर फूलों का ढेर था। आधे फूल हिन्दुओं ने लिए और आधे मुसलमानों ने। दोनों संप्रदाय के लोगों ने अपने अपने विधान के अनुसार दाह और दफन किया। पंच तत्वों से बना शरीर अलग-अलग प्रक्रिया से अपने मूल रूप में पहुँच गया। कथा इस सत्य की घोषणा करती है।

एक वर्ग की मान्यता है कि अंतिम समय निकट जानकर वे स्वेच्छा से काशी छोड़कर मगहर चले गये। उद्देश्य इस अंधी धारणा को तोड़ना था कि काशी मोक्षनगरी है, वहाँ जो भी कोई मरता है, वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इस अंध विश्वास के कारण ही लोग काशी में आत्महत्या तक कर लेते थे। मगहर में मरने वालों को नरकगामी बनना पड़ता है। इस अंधविश्वास को तोड़ने के लिए कबीर ने अपना अंतिम समय वहीं बिताया। मगहर में ही शरीर छोड़ा। कौन कहता है कि मगहर में मरने से कबीर को कर्मबंधनों ने जकड़े रखा होगा।

कबीर का जीवन ऐतिहासिक वर्णनों की अपेक्षा मिथकों और किंवदन्तियों में ज्यादा झलकता है। मुसलमान जुलाहे ने उनका पालन-पोषण किया। कहते हैं वे किसी ब्राह्मण कन्या से जन्मे थे। उनके जन्म और लालन-पालन में हिंदू तथा मुस्लिम दोनों ही धर्मों की छाया थी। हिन्दू और इस्लाम दोनों ही धर्मों में छाए पाखण्डों और अंधविश्वासों का जैसा कड़ा विरोध उन्होंने किया, वह सभी जानते हैं। इन प्रयासों की प्रतिक्रिया भी कम नहीं हुई। कुछ संप्रदाय वालों ने उन्हें जान से मरवाने की कोशिश की, तो कुछ ने उन्हें काशी से निष्कासित करा दिया।

कबीर के जीवन से सबंधित अनेक घटनाएँ श्रीराम के मानस पटल पर उमड़ आईं। वे आती-जाती रहीं। शरीर छूटने के दृश्य के साथ समाप्त हुई और यह अंर्तदृष्टि जगा गई कि विद्या, विवेक का स्रोत अपना अंतस है । शास्त्र कितने ही पढ़ लिए जाएँ, अपने भीतर प्रज्ञा का जागरण न हो, तो सब व्यर्थ है। इसके विपरीत अंतश्चेतना जाग्रत हो जाए, तो कुछ पढ़ा-लिखा है या नहीं, अंतर्दृष्टि अपनेआप सब कुछ जानने, समझने में समर्थ हो जाती है, समझ ही लेती है। कबीर की स्मृतियाँ पूरी हईं। उनका जीवन क्रम चलचित्र की भाँति घूम गया और अगला सीन समर्थ गुरु रामदास जी का था जिसे हम सोमवार के ज्ञानप्रसाद के लिए सुरक्षित रखते हैं। आप तैयारी कीजिये लखनऊ के 108 कुंडीय यज्ञ में शामिल होने की। 

हर लेख की भांति यह लेख भी बहुत ही ध्यानपूर्वक कई बार पढ़ने के उपरांत ही आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा  है, अगर फिर भी अनजाने में कोई त्रुटि रह गयी हो तो हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से निवेदन है कि कोई भी त्रुटि दिखाई दे तो सूचित करें ताकि हम ठीक कर सकें। धन्यवाद् 

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आज की  24 आहुति संकल्प सूची में लगभग  34 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है, 12 सहकर्मियों ने तो 50 अंक प्राप्त किये हैं जो  गोल्ड मैडल विजेता हैं  और लगभग 1100 को छूती कमैंट्स संख्या है जो कि एक रिकॉर्ड है। इतनी लम्बी लिस्ट प्रकाशित करना शायद उचित न हो जिसके लिए हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी है। जिन्होंने भी इस रिकॉर्ड को प्राप्त करने में सहयोग दिया है उनका धन्यवाद् करना हमारा कर्तव्य और धर्म है। हमारा  विश्वास है सभी 34 सहकर्मियों को 110 (1 /10 ) आहुतियों का पुण्य प्राप्त हुआ है।  हार्दिक बधाई और भविष्य के लिए शुभकामना।    

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