दादा गुरु सर्वेश्वरानंद  जी के साक्षात्कार पर आधारित लेखों की पृष्ठभूमि।

18 अक्टूबर 2022 का ज्ञानप्रसाद

चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 6    

सप्ताह का दूसरा  दिन मंगलवार, ब्रह्मवेला के दिव्य समय में आपके इनबॉक्स में आज का ऊर्जावान ज्ञानप्रसाद आ चुका  है। परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन में लिखा गया यह ज्ञानप्रसाद हमारे समर्पित सहकर्मियों को  रात्रि में आने वाले शुभरात्रि सन्देश तक ऊर्जा प्रदान करता रहेगा,ऐसा हमारा अटूट विश्वास है।

परम पूज्य गुरुदेव जैसे विशाल व्यक्तित्व के बारे में कुछ भी लिखने का प्रयास करना एक अति कठिन कार्य है। पिछले  कुछ दिनों से हम सब इक्क्ठे होकर इस महान व्यक्तित्व की बाल्यावस्था को समझने का प्रयास कर रहे हैं इसी दिशा में आज हम उस क्षण की  पृष्ठभूमि को संक्षेप में वर्णन करेंगें जब दादा गुरु ने आंवलखेड़ा स्थित हवेली की कोठरी में 1926 की वसंत पंचमी को  दिव्य दर्शन दिए थे।  गुरुदेव इस दिन को  अपना आध्यात्मिक जन्म मानते हैं। हमारा सौभाग्य होता कि  चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1 के चैप्टर 6 के  26 पृष्ठों में दिए गए वर्णन के चित्रण के लिए आधुनिक high definition special effects का प्रयोग हो सकता लेकिन हमें अपनी limitation का भलीभांति ज्ञान है इसलिए जो हमारे पास उपलब्ध है उसी से रोचक बनाने का प्रयास किया है। आशा करते हैं कि पाठक एक एक शब्द को अच्छी तरह पढ़कर आने वाले लेखों को अंतःकरण में उतारेंगे। 

आशा करते हैं कि इसी संकल्प का पालन ओडिशा में सम्पन्न हुए युग सृजेता 2022 पर आधारित आने वाली  वीडियोस के  लिए भी होगा।  हमने  लगभग 20 घंटे के वीडियो कंटेंट को कई बार देखकर, एडिट कर कुछ भाग सेव तो किये हैं लेकिन कितना आपके समक्ष रख पायेंगें ,आने वाले वीडियो सेक्शन ही बता पायेंगें। 

तो प्रस्तुत है आज का ज्ञानप्रसाद :

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आज का ज्ञानप्रसाद कबीर से सुप्रसिद्ध दोहे “गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागू पाय| बलिहारी गुरु आपने , गोविन्द दियो बताय।” से आरम्भ होता है। कबीर जी कहते हैं कि जीवन में कभी ऐसी परिस्थिति आ जाये कि गुरु और गोविन्द (ईश्वर) एक साथ खड़े मिलें तो  पहले किसे  प्रणाम करना चाहिए। गुरु ने ही गोविन्द से हमारा परिचय कराया है इसलिए गुरु का स्थान गोविन्द से भी ऊँचा है। आज यह दोहा हमें परम पूज्य गुरुदेव के अपने हिमालयवासी गुरु  सर्वेश्वरानन्द जी, जिन्हे हम सब दादा गुरु के नाम से जानते हैं,  के दिव्य साक्षात्कार की पृष्ठभूमि का स्मरण करा रहा है। 

18 जनवरी 1926,वसंत पंचमी  का वह पावन दिन था  जब ब्रह्म मुहूर्त में दादा गुरु ने  15 वर्षीय बालक श्रीराम  की पूजास्थली में आकर दर्शन देकर दिव्य निर्देश दिए थे। आज का लेख आने वाले लेखों के लिए पृष्ठभूमि बनाने के उद्देश्य से लिखा गया है।     

पूर्व दिशा में तारों की चमक हलकी-सी फीकी होने लगी थी। अंधेरा कुछ उठता दिखाई दिया और अपने घोंसले में सोए पक्षियों का चहचहाना सुनाई देने लगा। तभी श्रीराम ने  अपनी पूजा की कोठरी में आसन बिछाया और प्रातःकालीन संध्या का उपक्रम आरम्भ किया। पवित्रीकरण मन्त्र का उच्चारण किया: 

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः” 

इस मन्त्र का अर्थ है कि यदि कोई अपवित्र है, पवित्र है या किसी अन्य स्थिति में है तो वह पुंडरीकाक्ष (भगवान विष्णु का दूसरा नाम) का स्मरण करता है तो वह अंदर बाहिर दोनों से पवित्र हो जाता है,शुद्ध हो जाता है। पुंडरीकाक्ष का  शाब्दिक अर्थ है,कमल जैसी आंखों वाला।  

एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान विष्णु शिवजी की पूजा  करने के लिए काशी गए। वहां के मणिकार्णिका घाट पर स्नान कर विष्णु जी ने एक हजार स्वर्ण कमल फूलों से भगवान शिव की पूजा का संकल्प लिया। भगवान विष्णु जी की आंखों को कमल के समान सुंदर माना जाता है इसीलिए उन्हें कमलनयन और पुण्डरीकाक्ष भी कहा जाता है। 

गाँव में वैसे भी लोग जल्दी उठते हैं। गायों का रंभाना, मुर्गे की बांग आदि सुनकर लोगों को अनुमान हो जाता है कि रात का चौथा प्रहर ( यानि सूर्योदय से 3-4 घंटे का समय)  ढलने लगा है। दिन और रात के 24 घंटों को 8 प्रहरों में बांटा  गया है,इस प्रकार एक प्रहर 3-4 घण्टे के लगभग होता है। 

सूर्य देवता का रथ पूर्व दिशा  में उतरने को तैयार है क्योंकि  उसके आगमन की सूचना दूर क्षितिज में हलकी-सी लालिमा के रूप में मिलने लगती है। लोग उठकर कुल्ला करते हैं, खाली पेट पानी पीते हैं और दिन में किए जाने वाले कार्यों के बारे में सोचते हैं । सामान्य लोग जिस समय उठ कर अंगड़ाई लेते हुए यह सब करते थे, उस समय श्रीराम ऋषियुग से चले आ रहे संध्यावंदन  का क्रम शुरू कर चुके होते थे। 6-7 वर्ष  की आयु  से ही सुबह जल्दी उठ जाते और ध्यान धारणा के अभ्यास में लग जाते थे। मंत्र दीक्षा के बाद इसमें और भी क्रियाएँ जुड़ीं। महामना मालवीय जी ने मंत्र दीक्षा के समय विधि-विधान समझाया था और साथ में  यह भी कहा था कि संध्यावंदन दोनों समय होना चाहिए। मालवीय जी के  मार्गदर्शन में संध्यावंदन  के उपक्रम, स्थान और समय का निर्देश भी था। उनके कहे हए शब्द स्मृति में हमेशा रहते थे और कुछ महीनों के अभ्यास से तो स्वभाव में ही घुलमिल गए थे। शास्त्रों में संध्या-वंदन  के लिए जिन स्थानों को उत्तम बताया गया है, उनमें पुण्य क्षेत्र, नदी तट, पवित्र जलाशय, पर्वत का शिखर, एकान्त बगीचा, देव मंदिर या अपना घर प्रमुख हैं। श्रीराम पहले तो गाँव से बाहर देवमंदिर में बैठकर संध्यावंदन करते थे लेकिन  पिताश्री के महाप्रयाण के बाद घर में ही बैठने लगे। विशाल हवेली के एक कमरे में पूजा स्थान बना लिया। कमरे का द्वार पूर्व दिशा में खुलता था। द्वार के बाहर तुलसी का पौधा था। संध्यावंदन के लिए बैठते समय मुँह पूर्व दिशा की ओर होता था। अर्घ्य देना होता तो वे बाहर आ जाते और पौधे के पास खड़े होकर सूर्य नमस्कार करके इस तरह जल चढ़ाते कि वह ज़मीन पर न गिर कर तुलसी की क्यारी में ही गिरे।

जब श्रीराम मंदिर में संध्यावंदन करते थे तो अर्घ्य के लिए उठकर कहीं जाना नहीं पड़ता था क्योंकि जिस जगह बैठते, वहीं सामने एक पात्र रख लेते और खड़े होकर जल चढ़ा देते। माँ के कहने पर घर में ही उपासना शुरू की तो अर्घ्य के लिए बाहर जाना ज़रूरी  हो गया। जिस सावधानी से स्थान का चुनाव किया, वैसी ही सावधानी समय के निर्धारण में भी बरती उसे पूरी तरह निभाने का भी प्रयत्न किया यानि  प्रात:- संध्या सुनहरा सूर्य उदय होने से पहले और सायंकाल की संध्या सूर्यास्त से पहले आरम्भ हो जानी चाहिए ।

श्री राम सुबह चार बजे उठ जाते। स्नान आदि से निवृत होने और संध्यावंदन के लिए बैठने में एक घंटा समय लगता। हवेली परिसर में बने कुँए से वह अपने हाथ से पानी निकलते।   बाहर लालटैन  की रोशनी फैली रहती जिसके कारण कोई कठिनाई नहीं होती। हवेली के अन्य  लोग भी  हाँलाकि जगे ही होते थे लेकिन फिर भी श्रीराम इस बात की पूरी सावधानी बरतते  कि बाल्टी  रखने या पानी गिराने की आवाज न हो। चुपचाप स्नान से निपट जाते और  किसी को आहट तक भी नहीं होती थी। संध्यावंदन  आरंभ करने के बाद श्रीराम जप और ध्यान में पूरी तरह तन्मय हो जाते थे। अवधि की दृष्टि से उनकी संध्या 40 मिंट  में संपन्न हो जाती थी लेकिन इस अवधि में भी उनकी तन्मयता पूरी तरह से  होती थी। गायत्री मंत्र की एक माला और सूर्योदय के स्वर्णिम प्रकाश का ध्यान करने में 6 मिंट का समय लगता है। अभ्यास हो  जाने पर 4 मिंट  ही लगते है। इस स्थिति में गणना में थोड़ी चूक की संभावना रहती है। गायत्री दीक्षा लेने के बाद श्रीराम 5  माला सुबह और 2  माला शाम के समय जपते थे। तन्मयता इतनी रहती थी कि भूलचूक की गुंजाइश  ही नहीं बचती। प्रातः और  सायं के संध्या में कुल मिलाकर एक घंटा समय लग जाता । ध्यान धारणा का क्रम जप के बाद भी यथासमय चलता रहता।

वसंत पंचमी का दिन था और श्रीराम संध्यावंदन कर रहे थे। गायत्री जप करते हुए एकाग्र अवस्था थी। सुखासन से बैठे श्रीराम के केवल  होंठ ही  हिल रहे थे, मुख से  से कोई ध्वनि नहीं हो रही थी। जप की उपांशु अवस्था थी, जिसमें होठ तो हिलते हैं, मुँह के भीतर स्वर यंत्रों में भी कंपन  होता रहता है, लेकिन ध्वनि नहीं होती। मुँह बंद कर मानस जप में अधिक समय लगता है और विस्मरण की आशंका भी रहती है। मालवीय जी ने इसीलिए उपांशु जप का चयन किया था । इस जप के साथ पूर्व दिशा में उग रहे सविता देवता का ध्यान । बंद नेत्रों से भृकुटि में जो क्षितिज दिखाई दे रहा है, वहीं जैसे उदयाचल है। भ्रूमध्य की आकृति भी ऐसी ही बनती है, जैसे पर्वतों के दो गोलार्ध मिल रहे हों और उनके संधि स्थल पर नए आलोक का उदय होता हो। उदित हो रहे आलोक के समय चेतना जगत् में स्वर्णिम आभा फैलने लगी। प्रकाश की चादर बिछती चली जा रही है। अपना अस्तित्व निसर्ग के इस विस्तार से अभिभूत हो रहा है। शरीर, मन, बुद्धि, चित्त और उससे आगे सत्ता के जितने भी लोक हो सकते हैं, सबमें उस प्रकाश से जीवन चेतना व्यापती जा रही है। भोर होते ही रात की नींद जैसे स्वयं ही  उचटने लगती है, वैसे ही चेतना में छाई थकावट  दूर हो रही है और नया उत्साह आ रहा है। सुबह की ताज़गी अस्तित्व के रोम-रोम में फैलती जा रही है। स्वर्णिम प्रकाश का ध्यान करते हुए यह अनुभूति और भी प्रगाढ़ होती जाती थी। जिस क्षण की घटना का उल्लेख आगे की पंक्तियों में किया जा रहा है, उस क्षण में जप और ध्यान की क्या अवस्था चल रही थी, कहना कठिन है लेकिन  जिस तरह के उल्लेख मिलते हैं, उनमें वह अवस्था मनोमय की ही कही जा सकती है। इस अवस्था में चित्त संकल्प-विकल्प से मुक्त  हो जाता है। योगशास्त्रों में ‘निर्वात निष्कम्प दीपशिखा’ कहते हुए ही ऐसे चित्त का वर्णन किया गया है। वायु रहित स्थान में जलते हुए दीपक की लौ जिस तरह नहीं काँपती, उसी तरह हमेशा काँपते और डोलते रहने वाला चित्त भी संकल्प-विकल्प की आंधी  का अभाव हो जाने से स्थिर हो जाता है। कुछ योगियों के अनुसार यह ध्यान में गहरे उतरने और समाधि के समीप पहुँच जाने की अवस्था है। 

संकल्प-विकल्प को इंग्लिश में resolutions and options कहते हैं। इन शब्दों का संबध मन से है यानि संकल्प में हम अपने मन को कण्ट्रोल करते हैं और संकल्प किया हुआ कार्य पूर्ण करते हैं। दूसरी अवस्था में हम लिए हुए संकल्प से डर कर  तरह तरह के विकल्प ढूंढते हैं और मन हमें कट्रोल करता  है।

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आज की  24 आहुति संकल्प सूची में 7  सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है और  अरुण जी   सबसे अधिक 41  अंक प्राप्त करते हुए गोल्ड मैडल विजेता हैं। 

(1 )अरुण वर्मा-41,(2)संध्या कुमार-27,(3 )सुजाता उपाध्याय-24,(4 )वंदना कुमार-28 ,(5 )प्रेरणा कुमारी-24 ,(6 )  पूनम कुमारी-32 ,(7 ) नीरा त्रिखा-24      

सभी को  हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।  सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय  के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव,  धन्यवाद।  

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