श्रीराम ने उत्तर दिया,“गंतव्य तो सभी का एक ही  है लेकिन जाना कैसे है, किसी को पता नहीं है।”

12  अक्टूबर  2022 का ज्ञानप्रसाद-

चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 5   

सप्ताह का तीसरा दिन बुधवार,ब्रह्मवेला  का दिव्य समय,अपने गुरु की बाल्यावस्था- किशोरावस्था  को समर्पित,परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन में आज का ऊर्जावान ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत है। आशा करते हैं कि हर लेख की भांति यह लेख भी  हमारे समर्पित सहकर्मियों को  रात्रि में आने वाले शुभरात्रि सन्देश तक ऊर्जा प्रदान करता रहेगा ।

कुछ सहकर्मियों ने कल वाले लेख पर आधारित अपनी अनुभूतियाँ भेजी हैं, उनका धन्यवाद् करते हैं। कृपया पिक्चर भेजने की कृपा भी  करें। 

कल वाला  लेख एक दुःखद परन्तु दिव्य अध्याय का अंत था; नहीं, नहीं इन लेखों का कोई अंत नहीं है, यह अनंत हैं। शायद मध्यांतर कहना उचित रहेगा। हमारे परिवार के वरिष्ठ सहकर्मियों को याद होगा कि 50 वर्ष पूर्व, मध्यांतर के उपरान्त थिएटर में प्रवेश करते हुए आगे की स्टोरी जानने की कितनी जिज्ञासा होती थी, किसी के हाथ में पॉपकॉर्न तो किसी  के हाथ में आइस क्रीम, एक दृष्टि स्क्रीन की ओर, दूसरी सीट की ओर, अँधेरे में  एक दूसरे  के साथ टकराते अपनी सीट पर पहुँचते थे। ऐसा ही दृश्य हमारे मस्तिष्क पटल पर  दस्तक दे रहा है। 

वही जिज्ञासा है  कि  आगे क्या  होने वाला है। तो बिना किसी विलम्ब के चलते हैं मथुरा की बगीची में जहाँ श्रीराम का साक्षात्कार कठिया बाबा से हो रहा है।

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पिताश्री  के श्राद्ध कर्म के बाद एक दिन श्री राम ने ताईजी से कहा, “माँ अगर मैं आपको वचन दूँ कि वापस आ जाऊँगा, तो क्या आप मुझे मथुरा जाने की अनुमति देंगी?”  जिस तरह अनुमति मांगी गई थी, इंकार का तो कोई प्रश्न  ही नहीं उठ सकता था।ताईजी ने सहर्ष अनुमति दी लेकिन इतना अवश्य पूछा कि कितने दिन में वापस लौटोगे। श्रीराम  बोले यही कोई 8-10  दिन में वापिस आ जाऊंगा। 

उस समय, 1923 में आज से लगभग 100 वर्ष पूर्व  यातायात के पर्याप्त साधन नहीं थे। आँवलखेड़ा से मथुरा आने-जाने में तीन-चार दिन लग जाते। मात्र  बारह वर्ष की अबोध आयु का विचारआते  ही एक बार तो ताईजी का  मन हुआ कि मना कर दें लेकिन फिर सोचा कि  बेटे का मन टूट जायेगा। ताईजी ने किसी को साथ ले जाने के लिए कहा लेकिन श्रीराम अकेले जाना चाहते थे। उन्होंने वैसा ही व्यक्त किया और अनुमति मिल गई। अगले दिन तीन-चार जोड़ी कपड़े और ओढ़ने-बिछाने के लिए दरी, चादर के अलावा आने-जाने, रहने आदि के लिए खर्च का इंतजाम कर दिया। गाड़ी, घोड़े और रेल से यात्रा करते हुए श्रीराम दूसरे दिन मथुरा पहुंचे। वहाँ कुछ रिश्तेदार रहते थे लेकिन उनके घर न जाकर “श्याम जी की बगीची” में पड़ाव डाला। द्वारकाधीश के दर्शन कर विश्राम घाट आदि होते हुए श्रीराम  वृंदावन मार्ग पर स्थित एक बगीची में आ गए। छोटा सा कुआँ जिसे वहाँ कुइया कहा जाता था, नहाने और विश्राम करने की सुविधा के साथ पास ही बने दो-चार खुले-खुले से कमरे वाली बगीचियाँ मथुरा वृंदावन के रास्ते में थीं। ब्रज क्षेत्र में इस तरह की बगीचियों की भरमार रही है। संपन्न लोग यहाँ शाम का समय बिताया करते थे। इन जगहों पर कुछ पेड़ और फूलों के पौधे भी लगे होते थे। सब मिल कर मनोरम वातावरण बना देते। कुइया के पास किसी देवी-देवता की मूर्ति भी होती है। मूर्ति प्रायः हनुमान की हुआ करती लेकिन कहीं कहीं राधा-कृष्ण, दुर्गा या किन्हीं संत-महात्माओं की भी होती। 

जिस बगीची में श्रीराम  ठहरे वहाँ कोई “देवी प्रतिमा” लगी थी। नियमित आने जाने वालों से पूछने पर कि यह प्रतिमा किस देवी की है तो कोई भी स्पष्ट उत्तर न मिला।  कोई दुर्गा की तो कोई लक्ष्मी,राधा,सीता आदि की बता कर रह गए  लेकिन श्रीराम के ह्रदय को यह प्रतिमा छू सी गयी।  

श्रीराम इस बगीची में लगभग एक सप्ताह रहे। प्रातः स्नान करके  निकल जाते और तीसरे पहर लौटते। मथुरा-वृंदावन में जगह-जगह भंडारे चलते हैं। आज भी बहुत से लोग  भंडारा खाकर गुज़ारा चला लेते हैं। श्रीराम इन आश्रमों में तो जाते लेकिन भंडारों  में उन्होंने कभी कोई  रुचि नहीं ली। आंवलखेड़ा  से चलते हुए ताई  ने जो सत्तू और भुना हुआ दलिया बाँधा था, उसी का आहार करते। बदलाव के लिए द्वारकाधीश मंदिर के पास बनी फूलचंद पेड़े वाले की दूकान या चौक से कुछ हल्का-फुल्का खाद्य खरीद लेते थे। बाकी समय भ्रमण में व्यतीत करते। भ्रमण में मंदिर आदि स्थानों पर तो एकाध बार ही गए। कुंज,आश्रम और यमुना के किनारे ही उनका समय ज्यादा बीता। ऐसा लग रहा था जैसे कुछ खोज रहे हों।  बगीची में जितनी देर रहते, देवी-प्रतिमा पर बार-बार ध्यान देते, उठकर उसे देखने जाते और जो भी आता जाता मिलता  उससे पूछते, “यह प्रतिमा किसकी  है?” एक दिन बहुत ही विचित्र  ढंग से श्रीराम को अपने जिज्ञासाभरे प्रश्न का उत्तर मिला। 

आइये ज़रा इस  विलक्षणता का analysis करें: 

हुआ यह कि कोई संत महात्मा बगीची में आए। उनका नाम तो बाबा रामदास था  लेकिन लोग उन्हें काठिया बाबा कहते थे। उन्होंने कौपीन (लंगोट) की जगह लकड़ी का बनाया लंगोट जैसा आवरण पहन रखा था। बाबा ने उसे खास ढंग से तैयार कराया था कि वह कमर में अटका रहता था और जरूरत पड़ने पर उतारा या ढीला भी किया जा सकता था। काठ का कौपीन पहनने के कारण ही लोग उन्हें काठिया बाबा कहते थे। काठिया बाबा वृंदावन में रहते थे लेकिन उन्होंने अपना कोई आश्रम नहीं बनाया था। उस दिन वह सुबह पांच बजे बगीची में आये और ‘जय अंबे’ का उद्घोष करना आरम्भ कर दिया। कुइया पर स्नान कर बाबा पास ही स्थित माँ भगवती के दर्शन के लिए गए। देर तक बैठे रहे। पूजा पाठ तो करते दिखाई नहीं दिए, स्पष्ट था कि बाबा  ध्यान कर रहे थे। श्रीराम बाबा को  कौतूहल से देख रहे थे। ध्यान करके उठे तो लपक कर उनके चरण छूने लगे। काठिया बाबा ‘न  बाबा न’ कहते हुए दस कदम पीछे हट गए और  सहज होकर बोले, “कहां से आए हो?” श्रीराम ने अपना सामान्य परिचय दिया। बाबा ने पूछा, “कहाँ जाना है?” श्रीराम ने उत्तर दिया, “गंतव्य तो सभी का एक ही  है लेकिन जाना कैसे है यह किसी को पता नहीं है।” उत्तर सुनकर काठिया बाबा के चेहरे पर प्रसन्नता फूट पड़ी। बाबा कहने लगे, “लेकिन तुम तो अपनी दिशा में ठीक जा रहे हो, फिर कैसे कहते हो कि मार्ग मालूम नहीं है ?” 

दोनों में चर्चा छिड़ गई, बहुत देर तक बातचीत चलती रही। काठिया बाबा ने अपनी साधना और अब तक की यात्रा के बारे में विस्तार से बताया। उन्हीं बाबा से यह समाधान हुआ कि देवी प्रतिमा माँ गायत्री की है। 300-400 वर्ष पूर्व यहाँ एक आश्रम हुआ करता था जिसमें   एक संन्यासी के सान्निध्य में बीस-पच्चीस साधक रहते थे, वे गायत्री जप करते और वेद शास्त्रों के अध्ययन में निरत रहते। बाबा ने ही बताया कि सैकड़ों वर्ष पूर्व  इस स्थान पर भागवत प्रवचन भी हुआ करते थे। 

अपने बारे में बाबा ने जो बताया उसके अनुसार बचपन में सहज ही प्रेरणा उठी कि गायत्री मंत्र का जप किया जाए। यज्ञोपवीत के समय मंत्र दीक्षा ले ही रखी थी, साधना शुरु हुई। बाबा का जन्म कहाँ हुआ या उनके परिवार में कौन है, इसके  बारे में कुछ नहीं बताया। संन्यासी के लिए अपने पूर्व आश्रम का परिचय देना वर्जित है। साधक जब संन्यास लेता है, तो प्रतीकात्मक रूप से उसकी अंत्येष्टि भी कर दी जाती है। विधिवत उसकी अर्थी सजाई जाती है, उसे चिता पर लिटाया जाता है और आग लगाने के बाद वापस उतार लिया जाता है। इन क्रियाओं का उद्देश्य यह बोध जगाना है कि अब नया जन्म हो रहा है। पिछले या अब तक के लौकिक जीवन को भूल जाना ही श्रेयस्कर है। वह जीवन समाप्त हुआ। मृत्यु जिस तरह समूचा व्यक्तित्व, पहचान और उपलब्धियाँ छीन लेती है, उसी तरह अब तक का जीवन भी समाप्त  हुआ समझा जाता है ।

माँ भगवती से साक्षात्कार :

काठिया बाबा ने इतना ही बताया कि विद्या पढ़ते थे। बाद में घर वापस आये तो इच्छा क्षण-प्रतिक्षण बलवती होने लगी कि गायत्री अनुष्ठान किया जाए। घर के पास ही एक बगीचा था। बगीचे में एक बड़ा वटवृक्ष था। उसके नीचे आसन जमाने की ठानी और कवच आदि विधि-विधान के साथ अनुष्ठान आरंभ कर दिया। विधि-विधान गुरु के घर मे भलीभाँति सीखा हुआ था। कोई कठिनाई नहीं हुई। अनुष्ठान का एक भाग पूरा होते-होते प्रेरणा उठी कि शेष जप ज्वालामुखी जाकर पूरा किया जाए। प्रेरणा का स्वरूप ऐसा था जैसे कोई सामने खड़ा होकर कह रहा हो या वटवृक्ष से आवाज आ रही हो। पूर्व आश्रम में बाबा का जहाँ निवास था, वहाँ से ज्वालामुखी लगभग 70  किलोमीटर दूर था। वटवृक्ष के नीचे से उठकर बाबा घर नहीं गए। सीधे ज्वालामुखी की ओर रवाना हो गए। बाबा के साथ उनका एक भतीजा भी जप-तप किया करता था। वह भी पीछे-पीछे चल दिया। दोनों अविराम चलते रहे। रास्ते में एक महात्मा के दर्शन हुए। किसी भूमिका या परिचय का आदान प्रदान किए बिना उन्होंने पूछा वैराग्य लोगे? काठिया बाबा ने भी आगा-पीछा नहीं सोचा और कह दिया हाँ । वैराग्य की तैयारी चलने लगी, भतीजे ने रोका, रोया और हठ भी किया कि संन्यासी मत बनो। कोई असर नहीं हुआ। वह उलटे पाँव दौड़ा गया और अपने दादाजी को बुला लाया। काठिया बाबा के पिताजी आए लेकिन  तब तक देर हो गई थी। उनके हस्तक्षेप जैसी स्थिति  रह नहीं पाई थी। पिताजी ने आकर देखा तो बेटा संन्यासी हो चुका था। वे दुःखी हुए। पुत्र को मनाने लगे। घर वापस चलने के लिए कहा। बेटे ने कहा कि अब वैराग्य धारण किया जा चुका है। इस आश्रम से वापसी नहीं होती। पिता ने समझाया कि किसने देखा है , मुंडन ही तो हुआ है। गाँव चलकर कोई दूसरी वजह बता देंगे, किसने देखा है कि तुम संन्यासी हो गए। काठिया बाबा पर तनिक  भी असर नहीं हुआ। नए आश्रम के अनुसार उन्होंने पिता को पहचानने से भी मना कर दिया। थक-हारकर वे वापस चले गए। जहाँ संन्यास लिया था, वहीं वटवृक्ष के नीचे काठिया बाबा ने आसन लगाया। देर रात तक ध्यान करते रहे। आधी रात बीत गई। कुछ देर सो गए और सुबह उठकर फिर जप ध्यान में लग गए। ध्यान समाधि के इसी क्रम में भगवती का साक्षात्कार हुआ। काठिया बाबा ने बताया कि माँ ने वरदान माँगने के लिए कहा। अपनी कोई कामना शेष नहीं रह गई थी। कह दिया कि वैराग्य ले चुका हूँ। अब कोई कामना नहीं रही। इसका उदय ही न हो, ऐसा आशीर्वाद दीजिए। 

काठिया बाबा को कई तरह की सिद्धियाँ प्राप्त थीं। वह जो कह देते, वही हो जाता था। 

हर लेख की भांति यह लेख भी बहुत ही ध्यानपूर्वक कई बार पढ़ने के उपरांत ही आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा  है, अगर फिर भी अनजाने में कोई त्रुटि रह गयी हो तो हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से निवेदन है कि कोई भी त्रुटि दिखाई दे तो सूचित करें ताकि हम ठीक कर सकें। धन्यवाद् 

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आज की  24 आहुति संकल्प सूची में 8  सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है। अरुण जी   गोल्ड मैडल से सम्मानित किये जाते हैं  ।

(1 )अरुण वर्मा-36 ,(2 )सरविन्द कुमार-33,(3)संध्या कुमार-27,(4)सुजाता उपाध्याय-28 ,(5 )रेणु श्रीवास्तव-27,(6)मंजू मिश्रा- 24,(7)अरुण त्रिखा-24,(8)वंदना k-40     

सभी को  हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।  सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय  के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव,  धन्यवाद।

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