गुरुदेव के पिताश्री के महाप्रयाण में “मृत्यु के दर्शन” 

11 अक्टूबर  2022 का ज्ञानप्रसाद

चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 4  

सप्ताह का दूसरा  दिन मंगलवार, मंगलवेला-ब्रह्मवेला  का दिव्य समय, अपने गुरु की बाल्यावस्था- किशोरावस्था  को समर्पित,परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन में आज का ऊर्जावान ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत है। आशा करते हैं कि हर लेख की भांति यह लेख भी  हमारे समर्पित सहकर्मियों को  रात्रि में आने वाले शुभरात्रि सन्देश तक ऊर्जा प्रदान करता रहेगा ।

12 वर्ष की बाल्यावस्था में पूज्यवर के पिताश्री का महाप्रयाण उनके जीवन का प्रथम अवसर था। महाप्रयाण के दुःखद वर्णन के साथ इस सीन का पर्दा तो गिरता है  लेकिन अभी बाल्यास्था-किशोरावस्था के बहुत ही रोचक प्रसंग आने वाले हैं। अगले पन्नों के टोटलते हुए हमने देखा कि इन  प्रसंगों को जितना भी पढ़ा जाये, जाना जाये, कम है। हमारे लिए तो यह किसी भी भागवत कथा से कम नहीं है। 

हमारे सूझवान साथी  अपने अंतर्मन से देख सकेंगें कि आज के लेख में “मृत्यु के दर्शन” का क्या अभिप्राय है। आशा करते हैं कि कमैंट्स से बहुत कुछ जानने को मिलेगा। 

शुक्रवार को आने वाले वीडियो सेक्शन में लखनऊ 108 कुंडीय यज्ञ की एक बहुत ही छोटी सी  वीडियो बना रहे हैं, इसका विवरण उसी समय देंगें , अब आरम्भ करते हैं आज का liveshow आंवलखेड़ा की हवेली से। बहुत से परिजनों ने इस हवेली के दर्शन किये हैं लेकिन यह दृशय लगभग 100 वर्ष पुराना है। 

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कल वाले लेख में हमने देखा था कैसे गुरुदेव के पिताश्री,पंडित रूप किशोर शर्मा जी ने  भागवत विसर्जन और प्रवचन से विराम लेने का निश्चय किया। हमने यह भी देखा कि जिस दिन  भगवान् से निवेदन किया कि अब शास्त्र प्रवचन से विराम लेते हैं, उसी दिन बल्कि उस निवेदन के बाद ही पिताश्री की वाणी ने भी विराम ले लिया। उनका बोलना बंद हो गया। लोगों ने कहा कि पंडित जी की वाचा भगवत  गुणगान के लिए ही खुली थी। कथा से विराम लिया तो स्वर भी चले गए।

कई बार ऐसा भी होता है कि शरीर से अस्वस्थ होने पर, वृद्धावस्था में, वैराग्य होने पर, परिव्राजक संन्यासी बन जाने के बाद कई शास्त्री कथा आयोजन से मुक्ति पा लेते हैं। शरीर इस योग्य नहीं रहता अथवा कथा आयोजकों के लिए आवश्यक तामझाम नहीं जुटता इसलिए वे साधनों और विधियों का त्याग कर देते हैं।

भागवत विराम प्रक्रिया में यज्ञ सम्पन्न होने की ही देर थी कि उसी रात को पंडित जी की हालत बिगड़ी। बोली बंद होने के बाद उनका चलना-फिरना भी बंद हो गया। वे बिस्तर पर ही पड़े रहने लगे। इशारों से बात करते और होठों में कंपन होता रहता, जैसे द्वादश अक्षर मंत्र का जप कर रहे हों। अगले दिन उन्होंने भोजन लेने से मना कर दिया। स्वजनों ने आग्रह किया तो इशारे से कहने लगे कि अब वक्त आ गया है। भोजन के द्वारा शरीर को जबर्दस्ती आगे नहीं खींचना है। दो एक दिन में ही पंडित जी के बीमार होने और देह त्याग का संकल्प लेने की सूचना स्वजन संबंधियों में फैल गई। वे कुशलक्षेम जानने के लिए आने लगे। घर में लोगों की भीड़ रहने लगी। पंडित जी सबको देखते,हाथ जोड़कर उनका अभिवादन करते। कुछ कहना तो संभव नहीं था  लेकिन चेहरे के भाव कह रहे थे कि जाने-अनजाने में अब तक जो भी गलतियाँ हुईं हों, अपने किसी व्यवहार से किसी को भी कोई दुःख  हुआ हो, तो उसके लिए क्षमा माँगता हूँ। भावों की इस अभिव्यक्ति के बाद आगंतुक भी अभिवादन का उत्तर देते तो पंडित जी का चेहरा जैसे खिल उठता। शुक्ल पक्ष की दशमी का उदय होते ही पंडित जी ने  दुलारे पुत्र श्रीराम को बुलाया और संकेत से ही कहा कि उठा कर बिठा दे। पुत्र श्रीराम ने सहारा देकर बिठाया और फिर पंडित जी ने अपनेआप ही  पालथी लगाई, आसन लगाया, दोनों हाथ गोद में रखे, आँखें बंद की और कुछ पल निश्चल बैठे रहे। 5-7  मिनट तक ध्यान मुद्रा में बैठे रहने के बाद उनके मुँह से ‘नमो भगवते वासुदेवाय’ का मंत्र निकला। पुत्र से उन्होंने कहा कि मूल भागवत का पाठ करें। श्रीराम ने मूल चार श्लोकों  का पाठ शुरू किया-‘अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत्सदसत्परम्। पश्चादहं यदेतच्च…. ॥ पाठ के बाद वहाँ उपस्थित लोगों को समझाने के लिए अर्थ भी सुनाया। 

“भगवान् कहते हैं कि सृष्टि के आदि में केवल मैं ही था। सत्, असत्, स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण प्रकृति भी नहीं थी। सृष्टि के पश्चात् भी मैं ही हूँ। वह विश्व जो दृष्टिगोचर हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ। प्रलय में जो शेष रहता है, वह भी मैं ही हूँ। यह ब्रह्म का स्वरूप कहा गया है। आत्मा में असत, दुर्बलता और दुःख  की जो प्रतीति होती है सत्-चित् और आनंद आदि की प्रतीति नहीं होती, उसे भी मेरी (भगवान् की) ही माया जानो।’ ‘पंच महाभूत जिस तरह छोटे बड़े सभी जीवों में प्रविष्ट होते हैं और कारण रूप से पृथक रहने के कारण अप्रविष्ट भी है, वैसे ही मूल भौतिक पदार्थों में मेरा प्रवेश है भी  और नहीं भी । आत्मा को जानने वाले  जिज्ञासु पुरुष को जानना चाहिए कि जो सब जगह और सर्वदा रहे वही आत्मा है।” 

अर्थ और भाव पूरा होते होते तक पंडित जी ने शरीर से व्यतिरेक कर लिया यानि उनकी आत्मा का शरीर से संबंध टूट गया, उनकी आत्मचेतना विराट् चेतना में लीन हो गई। जिस तरह पंडित जी पद्मासन लगा कर वे बैठे थे, इसके बारे में शास्त्रों में  कहा गया  है कि साधक अपने इष्ट में ही लय होता है। 

महाप्रयाण के समय पंडित जी की आयु  67 वर्ष थी।महाप्रयाण होते  ही घर में रोना-धोना मच गया लेकिन पुत्र श्रीराम गंभीर थे, जैसे कुछ सोच रहे हो या समझने का प्रयास कर रहे   हों। उस समय पुत्र श्रीराम (हमारे परम पूज्य गुरुदेव) की आयु केवल 12 वर्ष की थी, शरीर और आत्मा का संबंध विच्छेद होते देखना उनके लिए पहला अवसर था । रोना धोना आरम्भ होते  ही श्रीराम पिताजी  के पार्थिव शरीर के पास  आसन लगाकर बैठ गए ठीक  उसी तरह जिस तरह कुछ समय पूर्व पंडित जी बैठे थे। ताई जी ने बेटे को इस तरह बैठते देखा तो वह  ज़ोर  से रो उठीं। उन्हें न जाने क्यों लगा कि पुत्र भी पिता का अनुकरण कर रहा है उन्हें छोड़कर जा रहा है। वह  विधवापन को स्वीकार करने वाले प्रतीकात्मक क्रियाएँ संपन्न करने के स्थान पर पुत्र को झिंझोड़ने लगीं। श्रीराम फिर भी अविचल बैठे रहे। ताई जी को घर के लोगों ने समझाया। बाकी क्रियाएँ संपन्न करने के लिए कहा। घर वालों के हिसाब से श्रीराम अपनी सहज वृत्ति (Natural instinct) के अनुसार मृत्यु की इस घटना को अपने ढंग से समझ रहे थे। करीब बीस मिनट तक अविचल ध्यान मुद्रा में बैठे रहकर श्रीराम स्वयं उठ गए और परिवार के लोगों के साथ पिताजी के पार्थिव शरीर की विदाई में जुट गए। अंत्येष्टि और मरणोत्तर संस्कार के बाद परिजनों में विचार चला कि पिताजी की विरासत को कौन संभाले। ज़मीन जायदाद की जिम्मेदारी से श्रीराम ने अपनेआप को तुरंत यह कहते हुए अलग कर लिया कि 

“वह  केवल  पिता की भागवत परंपरा का पालन करेंगे। स्वयं को भगवान् के लिए ही रखेंगे और उन्हें ही अपना बनाएँगे।”

जब स्वजनों ने श्रीराम को ऐसा कहते सुना तो  समझ लिया कि महाप्रयाण  के पूर्व पंडित जी ने सात दिन तक जो कथा सुनाई थी यह  उसी का प्रभाव है। जिम्मेदारियाँ सिर पर आएँगी तो सब संभल जाएगा। परिवार की वर्तमान पीढ़ी में सबसे बड़े ज्योतिप्रसाद के सिर पर पगड़ी बंधी। श्रीराम अंत तक यही कहते रहे कि वह  घर-गृहस्थी और भूमि जायदाद संभालने के लिए नहीं बल्कि धर्म कर्त्तव्य का पालन करने के लिए हैं ।

पिताश्री  के नहीं रहने के बाद श्रीराम अपनेआप को अकेला अनुभव करने लगे। घर में और भी बहुत सारे सदस्य थे लेकिन उनकी रुचि खाने कमाने की विद्याओं में ज्यादा थी। खेतीबाड़ी, व्यापार और लगान वसूली के अलावा वे कोर्ट कचहरी के कामों में भी व्यस्त रहते। उन सदस्यों की ज्योतिष, आयुर्वेद, प्रशासन और समाज सेवा के क्षेत्र में अच्छी पैठ थी। योग, ध्यान, अध्यात्म आदि में श्रीराम की ही विशेष गति थी।

पंडित जी के महाप्रयाण के साथ ही नाटक के इस  सीन का पटाक्षेप होता है, अगले सीन के लिए आप कल ब्रह्मवेला तक की प्रतीक्षा कीजिये।

हर लेख की भांति यह लेख भी बहुत ही ध्यानपूर्वक कई बार पढ़ने के उपरांत ही आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा  है, अगर फिर भी अनजाने में कोई त्रुटि रह गयी हो तो हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से निवेदन है कि कोई भी त्रुटि दिखाई दे तो सूचित करें ताकि हम ठीक कर सकें। धन्यवाद् 

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आज की  24 आहुति संकल्प सूची में 11  सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है। अरुण जी   गोल्ड मैडल से सम्मानित किये जाते हैं  ।

(1 )अरुण वर्मा-52,(2 )सरविन्द कुमार-25,(3)संध्या कुमार-31,(4) सुजाता उपाध्याय-26,(5 )नीरा त्रिखा -24,(6 )पूनम कुमारी-36 ,(7 )रेणु श्रीवास्तव-29 ,(8) प्रेमशीला मिश्रा-24, (9 )कुमोदनी गौरहा-24,(10 )मंजू मिश्रा- 24,(11) पुष्पा सिंह-24     

सभी को  हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।  सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय  के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव,  धन्यवाद। 

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