पिताश्री ने कहा, “अब  तुम भगवान् के हुए।”

6 अक्टूबर  2022 का ज्ञानप्रसाद

चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 4

बालक श्रीराम ननिहाल से वापिस आ गये, पिताश्री के साथ teaching session में व्यस्त हो गए,अपनेआप को भगवान् को समर्पित कर दिया और एक बहुत  ही मार्मिक घटना- यही है आज का ज्ञानप्रसाद। 

शब्दसीमा न तो भूमिका और न ही संकल्प सूची की आज्ञा दे रही है,  तो सीधे चलते हैं आज के ज्ञानप्रसाद अमृतपान की ओर। कल की वीडियो की प्रतीक्षा कीजिये

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आंवलखेड़ा आगरा की जिस हवेली में हमारे परम पूज्य गुरुदेव  रहते थे, उसमें तीन चाचा उनकी संताने और भाई बहिन भी निवास करते थे। बीस पच्चीस लोगों का भरा पूरा परिवार था। चाचाओं के  ससुराल पक्ष के लोग भी आते जाते रहते थे। इस संयुक्त परिवार में सदैव  हँसी-खुशी का माहौल रहता था । पिताश्री भागवत के प्रकांड विद्वान थे इसलिए  पास पड़ोस  की बस्तियों से आए लोगों से बैठक भरी रहती थी। 

ननिहाल-मथुरा आदि की यात्रा से  लौटकर आये पिताश्री को एक दिन सीने में दबाव महसूस हुआ। अच्छी तरह बैठे बात कर रहे थे कि दबाव और पीड़ा से दोहरे होकर लेट गए। उनके मुँह से “नमः भगवते वासुदेवाय” मंत्र का उच्चारण हुआ और बोली बंद हो गई। घर में कोहराम मच गया। हँसी-खुशी का माहौल चिंता में बदल गया और लोग अपनी तरह से पंडित जी की सार संभाल करने लगे। यह घटना दिन में ही घटी थी इसलिए  चिकित्सा सहायता तुरंत उपलब्ध हो गई और कुछ ही  देर में होश आ गया। तीन-चार दिन बाद पिताश्री  सामान्य दिखाई देने लगे लेकिन स्वस्थ होने के बावजूद वैद्यों ने सावधान रहने के लिए कहा। उन्होंने बताया कि हृदय रोग का आक्रमण हुआ है और संभल कर रहना चाहिए। यात्रा आदि से बचें, काम का बोझ कम लें और जहाँ तक हो सके लोगों से मिलना जुलना भी सीमित कर दें। पिताश्री ने सबकी सलाह सुनी। कामकाज का दबाव और मिलना जुलना तो क्या कम किया, भजन पूजन में ज्यादा समय देने लगे। श्रीराम, जो किशोर अवस्था में ही थे,पिताश्री की बीमारी और उसके बाद उनमें आए बदलावों को बड़ी बारीकी से देख रहे थे। रोग बीमारी का शिकार होते हुए उन्होंने दूसरे लोगों को भी देखा था लेकिन पिताश्री  इलाज के बाद बहुत शीघ्र  ठीक हो जाते थे और रोजमर्रा का जीवनक्रम अपना लेते। हमेशा की तरह सहज होने में उन्हें ज़रा  भी देर नहीं लगती। खानपान, रहन-सहन व्यवहार और दिन भर के कामकाज पहले की तरह चलने लगते। बीमारी के कारण  कमज़ोरी तो आती लेकिन ऐसा नहीं होता था कि स्वभाव और प्रवृत्तियाँ ही बदल जाए। ह्रदय रोग के आक्रमण के बाद पिताश्री में  विलक्षण परिवर्तन आया। उनके कामकाज से ऐसा लगा जैसे कुछ समेटने में लगे हुए हों। जिस प्रकार यात्रा का समय निकट आने पर व्यक्ति सामान समेटने और उस अवधि के काम निपटाने की जल्दी मचाने लगता है, उसी तरह की आतुरता पिताश्री  के व्यवहार में दिखाई देने लगी। वह बच्चों की ब्याह शादी, छोटे भाई बहिनों की ज़रूरतों  और परिजनों  की जिज्ञासाओं का समाधान करने में ज्यादा समय लगाने लगे।

पिताश्री ने पुत्र श्रीराम को एक दिन बुलाया और कहा कम से कम नौ दिन तक मेरे पास दो घंटा रोज बैठा करो और जो मैं कहूं  उसे ध्यान पूर्वक सुना करो। पिता की आज्ञा शिरोधार्य तो होनी ही थी, जिस दिन से पिताश्री ने अपने पास बैठने के लिए कहा था, उसके एक दिन पहले क्षौरकर्म कराया। 

क्या होता है क्षौरकर्म ? 

पूरी तरह  केश साफ़ करवाने को  “क्षौरकर्म” कहा जाता है।  कुछ लोगों का प्रश्न होता है कि क्षौरकर्म करना आवश्यक क्यों है? असल में जब भी हम कोई पुण्य कर्म करते हैं, कोई व्रत रखते हैं, अनुष्ठान वगैरह करते हैं तो देह शुद्धि करके ही करते हैं। हम जाने-अनजाने में अपने कार्यस्थल पर अथवा बाहर की दुनिया में अनेक प्रकार के पाप करते हैं और सभी पाप कर्म इस देह में बालों से मजबूती से चिपक जाते हैं।  

पुत्र से कहा कि अगले सात दिन तक व्रत नियम से रहना है। दिन में एक समय भोजन और एक समय फलाहार करते हुए एकाशन व्रत की व्यवस्था बता दी। पिता पुत्र दोनों के लिए भूमि  पर बिस्तर बिछा कर सोने की व्यवस्था की गई। अगले दिन प्रातः  पिताश्री ने भागवत की कथा सुनाना आरंभ किया। यह सिर्फ श्रीराम के लिए one-on-one  शिक्षण सत्र (teaching session ) था, अन्य किसी को भी  भाग लेने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था। भागवत का कथा-भाग और सिद्धांत पक्ष इस प्रकार कहना शुरू किया कि उस दिन का विश्राम स्थल दो घंटे पूरे होते तक आ जाए। भागवत सुनाने का उद्देश्य पिताश्री ही भलीभांति जानते होंगे। इस विषय में उन्होंने अपने किशोर चिरंजीव को भी नहीं बताया। संभवतः भागवत शास्त्र के मूल भाव, जीवन और जगत के सत्य से परिचित कराना हो। भागवत का मूल भाव क्या है? विषम परिस्थितियों में भी धर्म का साधन। अपनी उन्नति के लिए  निष्ठापूर्वक प्रयत्न करना और प्रभु समर्पित जीवन जीना। भागवत कथा का आरंभ पृथ्वी पर कलियुग के अर्थात विषम परिस्थितियों, जटिलताओं और आत्मिक उन्नति में बाधाओं के आधिपत्य से होता है। इन स्थितियों का अंत  करने के लिए जब उच्च आत्माएं  निकलती  हैं तो कलियुग भी क्षमा माँगने लगता है। भागवत शास्त्र के अनुसार कलियुग अशुभ का नाम है और पृथ्वी को मुक्त करने के लिए कलि को पहले चार और फिर पाँच स्थानों पर रहने की छूट देते हैं। इन पाँच स्थानों में पहले चार असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता में वास करने के लिए कहते हैं। याचना  करने पर पाँचवा स्थान रजस भी छोड़ देते हैं। रजस अर्थात् लोभ, दिखावा,अकड़,संकीर्ण भाव। जहाँ भी ये विकृतियाँ होगी, वहीं कलि के दुष्प्रभाव अर्थात् शोक-संताप होंगे। 

भागवत का एक ही संदेश है “संतापों से बचने का एकमात्र मार्ग  है, प्रभु समर्पित जीवन।”  श्रृंगी ऋषि के शाप से परीक्षित का जीवन एक सप्ताह भर शेष रह गया तो वे चिंतित नहीं हुए क्योंकि वह  प्रभु समर्पित जीवन जी रहे थे, इसलिए उन्होंने शेष दिनों के श्रेष्ठतम उपयोग की योजना बनाई। स्थितियाँ और संयोग ऐसे बने कि सातों दिन अध्यात्म चर्चा में व्यतीत हए। कथा पूरी होने के बाद उन्होंने मृत्यु का अतिथि की तरह स्वागत किया और उत्सव की तरह उसे अपनाया।

सप्ताह भर के सान्निध्य में पिता पुत्र ने कथा प्रसंगों का आस्वाद लिया जिनके  माध्यम से अध्यात्म और तत्वज्ञान की चर्चा की। ज्ञान, कर्म और भक्ति के सागर में स्न्नान किया । भागवत का एकादश स्कंध शुद्ध तत्वज्ञान का प्रतिपादन करता है। मुक्ति की प्राप्ति के विविध उपायों की विवेचना करते हुए इस स्कंध में भगवान वेदव्यास ने ललित ललाम भाषा का उपयोग किया है। तत्वज्ञान की चर्चा प्राय: गूढ़ गंभीर हो जाती है। वह पंडित प्रवर लोगों के लिए ही बोधगम्य होती हैं। जैसे वेदांत, योग, सांख्य मीमांसा आदि शास्त्र । इन शास्त्रों में दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन गणित के सूत्रों की तरह किया गया। भागवत कथा के एकादश स्कंध में सभी दार्शनिक मतों को काव्य में निरूपित कर दिया है। 

तुम भगवान के हुए- बहुत ही रोचक प्रसंग है: 

कथा सुनने के दिनों में भी एकांत में जाने और ध्यान में लीन रहने का क्रम जारी था। अंतिम दिन की कथा सुनने  के बाद एक विचित्र घटना घटी। पिता कहानी कहने या पाठ पढ़ाने की तरह ही भागवत कह रहे थे। कथा सुनने के बाद पुत्र श्रीराम ने पिताश्री से पूछा:

“श्रवण के बाद दक्षिणा दी जाती है । मैं आपको क्या भेंट करूं?”  पिता अपने लाड़ले का मुँह देखते रह गए। श्रीराम ने फिर वही प्रश्न किया। पंडित जी ने बेटे की बाहें पकड़ कर खींच लिया और सीने से लगा लिया। इस बार भी कुछ नहीं बोले। तीसरी बार फिर वही प्रश्न किया तो उत्तर आया, “अपनेआप को भेंट कर दो।” श्रीराम ने कहा कि  मैं तो पहले ही  आपका हूँ । आपका आशय यदि अपनेआप को भगवान के लिए भेंट चढ़ा देने से है तो उसके लिए संकल्प ग्रहण कराइए। पिताश्री ने हाथ में जल लेकर संकल्प कराया। फिर कहा अब तुम भगवान के हुए। आशीर्वाद लेने के बाद श्रीराम हमेशा की तरह एकांत में चले गए। 

गुफा वाली घटना के बाद वे जंगल में नहीं जाते थे। लेकिन कहाँ जाते हैं यह ताई  के सिवाय किसी को पता नहीं था। उस दिन एकांत में गए तो घंटों बीत गए। शाम होने लगी फिर भी वापस नहीं आए। माँ को चिंता होने लगी। उन्होंने पंडित जी से पूछा कि बेटे को कहाँ भेज दिया है, अभी तक नहीं आया। पिता भी चिंतित हुए। हिमालय जाने वाली घटना याद आ गई। परेशान होकर वे बोले, “कहीं हिमालय तो नहीं चला गया ?” ताई  को भी आशंका हुई। फिर अपनेआप को ढाढ़स बंधाते हुए बोली, “गौरी बाग के शिवालय में एक बार दिखवा लीजिए। कहीं वहाँ भक्ति में न रमा हो।” गौरी बाग गाँव से डेढ़ मील दूर एक छोटा सा बगीचा था । वहाँ आम अमरूद और नीम के कुछ पेड़ थे। बारहों महीने सन्नाटा रहता था। सोमवार, पूनम या शिवरात्रि के दिन लोग शिवालय में आते थे। बाकी समय सन्नाटा रहता था। इसी जगह श्रीराम ने अपना ठिकाना बना रखा था।

पिता खुद दौड़े चले गए। साथ में दो तीन व्यक्ति और थे। वहाँ जाकर देखा श्रीराम एक पेड़ के नीचे पालथी मारकर ध्यान मुद्रा में बैठे हैं। पंडित जी ने उन्हें पुकारा। कोई उत्तर नहीं आया, श्रीराम निश्चल बैठे ही रहे। उन्होंने दूसरी, तीसरी, चौथी बार पुकारा फिर भी कोई असर नहीं हुआ तो हाथ पकड़ कर हिलाने की कोशिश की। थोड़ा सा धक्का लगते ही श्रीराम आगे की ओर सिर के बल लुढ़क गए। ध्यान के समय गोदी में रखे हाथ हिलाने डुलाने के कारण प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गए थे। लुढ़कते हुए उनकी स्थिति ऐसी थी जैसे सिर से प्रणाम करने के लिए आगे की ओर झुके हों और माथा टेक दिए हों। लुढ़कने के बाद वे उसी स्थिति में पड़े रहे। पंडित जी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी। उन्होंने बेटा-बेटा कहा और नाम लेकर दसियों बार पुकारा, हिलाने डुलाने की कोशिश की, पकड़ कर बिठाना चाहा लेकिन शरीर निढाल ही रहा। अनहोनी अनिष्ट आशंका से घिर कर उन्होंने नथुनों के पास अंगुली रखकर देखा, नब्ज टटोली और हृदय की धड़कन देखी। जीवन के लक्षण हैं या नहीं, फिर भी निष्कर्ष पर पहुँचने की स्थिति नहीं आई। पिताश्री की  ज़ोर से चीख निकल गई। साथ आए लोगों के चेहरों का भी  रंग उड़ गया। चीख का ही  शायद कुछ भान हुआ कि श्रीराम की ध्यान समाधि खुली। वे अपनेआप उठकर बैठ गए और अपने आपको संभालने से पहले पिताश्री का अभिवादन किया। पुत्र के प्रणाम से पंडित जी आश्वस्त हुए कि उनका बेटा सकुशल है। कहने लगे, “मैं तो डर ही गया था कि तुम चले गए।” श्रीराम ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया। घर आकर पिता ने फिर वही बात दोहराई और भगवान को धन्यवाद देने लगे तो श्रीराम बोले, “आप उन्हें क्यों धन्यवाद देते हैं। आप मुझे भगवान को सौंप चुके हैं। आशीर्वाद दीजिए कि मैं अब उन्हीं का काम करूं।” ताई जी भी वहीं उपस्थित थीं। उन्हें ये बातें  अच्छी नहीं लग रही थी। पति से कहने लगी, “आपने श्रीराम को पता नहीं क्या क्या पढ़ा सिखा दिया है,मुझे बहुत डर लगता है।”

गुरुवर के इस रोचक प्रसंग को यहीं पर विराम करना  कठिन  तो लग रहा है लेकिन क्या करें अपने साथियों के समय और यूट्यूब की शब्द सीमा का पालन तो करना ही पड़ेगा। ध्यान की अवधि में घटी एक अद्भुत आंतरिक अनुभूति से सोमवार का ज्ञानप्रसाद आरम्भ करेंगें। धन्यवाद् जय गुरुदेव    

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