5 अक्टूबर 2022 का ज्ञानप्रसाद
चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 4
सप्ताह का तृतीय दिन बुधवार , मंगलवेला-ब्रह्मवेला का दिव्य समय, अपने गुरु की बाल्यावस्था- किशोरावस्था को समर्पित,परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन में आज का ऊर्जावान ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत है। आशा करते हैं इस लेख की दिव्यता, रात को आने वाले शुभरात्रि सन्देश तक आपको ऊर्जा प्रदान करती रहेगी।
कुछ दिन पूर्व जब परम पूज्य गुरुदेव के बाल्यकाल की “श्रीराम-लीला” का शुभारम्भ किया था तो हमने कहा था कि हमें कोई अनुमान नहीं है कि इस विषय पर हम कब तक लिखते रहेंगें,कितने लेख लिखेंगें। स्थिति आज भी वैसी ही है।
सोमवार को आरम्भ की गयी बालक श्रीराम की ननिहाल यात्रा को आगे बढ़ाते हुए आज के लेख में हम देखेंगें कि यात्रा के साथ-साथ उस जिज्ञासु संवेदनशील 13 वर्षीय बालक ने भगवान् कृष्ण की भूमि के बारे में कैसे कैसे प्रश्न किये और पिताश्री ने इन प्रश्नों को स्वामी दयानन्द जी की गाथा के साथ कैसे कनेक्ट किया और कैसे “पाखंड खंडिनी पताका” ही उनकी मृत्यु की कारण बनी।
आशा करते हैं कि सभी सहकर्मी पूरी तरह involve होकर इस लेख को भी पूरी तरह रोचक बनायेगें। हम सबने देख लिया है कि एक-एक लेख में कितनी प्रेरणा और शिक्षा भरी पड़ी है, इस शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के एक-एक सदस्य का परम कर्तव्य है।
तो आइये आनंद लेते हैं 13 वर्षीय बालक श्रीराम की ननिहाल यात्रा का आगे का विवरण
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जिन लोगों को मथुरा वृन्दावन की पावन भूमि के सेवन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है वह जानते हैं कि यहाँ की हवाओं में आज भी कृष्ण भक्ति का रस घुला हुआ है। लेकिन यह भी सत्य है जहाँ संवेदनशील चित्त इस पावन भूमि पर पांव रखते ही भक्ति की तरंगों को पकड़ने लगता है वहीँ पर यात्रियों को पुरोहितों और पण्डों के कारण अत्यंत कठिनाई का सामना भी करना पड़ता है। चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1 के अनुसार इन दिनों स्थितियाँ कुछ थोड़ी बहुत सुधरी तो हैं लेकिन किसी समय यह स्थान कुछ शरारती, उपद्रवी और लोभी पण्डों के कारण बहुत बदनाम था।
श्रद्धेय डॉक्टर प्रणव पंड्या जी एवं आदरणीय ज्योतिर्मय जी की इस अद्भुत पुस्तक माला का प्रथम पार्ट 2001 की गीता जयंती 26 दिसंबर वाले दिन प्रकाशित हुआ था। इस पार्ट में वर्णित श्रीराम-लीला लगभग 100 वर्ष पुरानी हैं और उन्ही दिनों का एक किस्सा निम्नलिखित पंक्तियों में दर्शाया गया है। हमारे पाठक स्वयं ही निर्णय कर सकते हैं कि अगर 100 वर्ष पूर्व ऐसी सुधरी हुई दशा थी तो उससे पूर्व क्या होगी।
आइये देखें बालक श्रीराम की संवेदनशीलता को दर्शाता यह किस्सा।
परम पूज्य गुरुदेव के पिताश्री मथुरा वृन्दावन के पंडों से अच्छी तरह परिचित थे, इसलिए उन्हें तो कोई परेशानी नहीं हुई लेकिन दूसरे यात्रियों को सताए जाने के किस्से बालक श्रीराम एवं माता पिता को देखने को मिल ही गए ।
पंडों से घिर जाने पर एक यात्री कह रहा था कि आप लोग यहाँ आने वाले भक्तों और यात्रियों के दान दक्षिणा के भरोसे ही क्यों रहते हैं। आप भक्तों को दक्षिणा देने के लिए मजबूर करते हैं, कोई काम धंधा क्यों नहीं करते। यात्री के इर्द-गिर्द घेरा डाले पंडों में से एक ने कहा, “क्या काम धंधा करें लाला?” यात्री ने कहा, “कुछ भी काम,आप ठीक ठाक हैं, स्वस्थ हैं कोई भी काम कर सकते हैं।” पंडे ने यात्री के सुझाव का उपहास उड़ाते हुए कहा, “एक मेहनत तो हम कर ही सकते हैं कि अगर तू मर जाए, तुझे यमुना जी में फेंक दें, तो तेरे पास से जो कुछ भी मिलेगा वह हमारी मेहनत की कमाई होगी।”
यह उत्तर सुनकर आसपास खड़े पंडों समेत दूसरे लोग भी खी-खी कर हँस दिए। बालक श्रीराम ने पिताश्री की ओर आश्चर्य से देखा। पिताश्री ने पुत्र की बाँह पकड़ी और चलने के लिए इशारा किया। श्रीराम ने कहा कि वे लोग यात्री को परेशान कर रहे हैं, कोई कुछ करता क्यों नहीं? पिताश्री ने कहा, पुत्र,पंडे संख्या में बहुत ज़्यादा हैं, अगर कोई कुछ कहेगा तो वह सब एक हो जाएँगे। इन लोगों से लड़ना बहुत ही कठिन है” श्रीराम ने बाल सुलभ सहजता और निराशा से कहा, “यह भगवान कृष्ण की नगरी है या कंस की ?” ताई जी ने कहा, “है तो भगवान कृष्ण की ही नगरी लेकिन कंस का प्रभाव यहाँ हमेशा ही रहा है।” श्रीराम ने प्रश्न का दूसरा भाग एक बार फिर कहा, “क्या यह इसी तरह चलता रहेगा, कोई सुधार नहीं होगा ?” पिता ने आश्वस्त करते हुए कहा,”ऐसी बात नहीं है पुत्र, परिस्थितियां सदा एक जैसी नहीं रहती, वह बदलती भी हैं।
विश्रामघाट के सती बुर्ज की ओर मुड़ते हुए उन्होंने एक गली की ओर इशारा किया और कहा, “आज से पचास साठ वर्ष पूर्व इस गली में एक प्रज्ञाचक्षु संन्यासी रहते थे प्रज्ञाचक्षु ऐसे बुद्धिमान व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता जो नेत्रहीन होते हुए भी अपनी बुद्धि से सब कुछ जान लेता है। यह सन्यासी वेदशास्त्रों के प्रकाण्ड विद्वान थे, वह भी मथुरा की इन परिस्थितियों से दुःखी थे। धर्मक्षेत्र में और भी कई बुराइयाँ है उन सभी बुराइयों से लड़ना चाहते थे, लेकिन उन्हें दिखाई नहीं देता था इसलिए ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे।”
पिताश्री ने बालक श्रीराम को स्वामी दयानंद के गुरु स्वामी विरजानंद कीएक कथा सुनाई। स्वामी विरजानंद जी के पास एक दिन गुजरात का एक ब्रह्मचारी आया। उस ब्रह्मचारी ने कहा मैं वेदशास्त्रों का अध्ययन करना चाहता है ताकि सत्यधर्म की शोध कर सकूँ। स्वामी जी ने कहा दक्षिणा क्या दोगे? ब्रह्मचारी ने कहा, आप जो भी आदेश देंगें । स्वामी जी ने कहा, “पाखंड का नाश, धर्म के नाम पर चल रहे अधर्म का विरोध । कुरीतियों का उन्मूलन ।” शिष्य ने यह दक्षिणा देना स्वीकार किया और गुरु के पास रहकर समस्त विद्या पढ़ी। विद्या ग्रहण करने के बाद शिष्य,स्वामी दयानन्द ने पूरे देश का भ्रमण किया। धर्म का आवरण ओढ़े अधर्म के प्रति लोगों को जागृत किया और धर्म के असली स्वरूप से परिचित कराया।
बालक श्रीराम ने उत्सुकता जताई कि यह सब अकेले व्यक्ति ने कैसे कर लिया? पिताश्री ने कहा, “साहस और संकल्प हो तो असंभव दिखने वाले काम भी सहज ही संपन्न हो जाते हैं।” गुरु विरजानन्द से शिक्षा ग्रहण करके स्वामी दयानंद भ्रमण करते हुए हरिद्वार के कुंभ में गये। जहाँ भी जाते जगह-जगह लोगों से वैदिक धर्म की चर्चा करते। उसके मर्म को समझ कर प्रथा परंपराओं के पालन की बात करते। कुंभ में जाने का उनका उद्देश्य यह था कि वहाँ हज़ारों की संख्या में लोग इकट्ठे होते हैं। गाँव-गाँव घूमने पर सौ पचास लोगों से ही संपर्क हो पाता। कुंभ में सैकड़ों व्यक्तियों से एक साथ भेंट हो जाती। हरिद्वार पहुँच कर स्वामी दयानंद ने एक छोटा सा शिविर लगाया और बाहर एक झंडे पर “पाखंड खंडिनी पताका” लिखकर गाड़ दिया। उस पताका ने भी लोगों का ध्यान आकर्षित किया। स्वामी जी शिविर के बाहर खड़े होकर मूर्तिपूजा, श्राद्ध, अवतार, पुराण, कर्मकाण्ड आदि के नाम पर चलने वाले ढकोसलों की पोल पट्टी खोलने लगे। जातपात, छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा और वैवाहिक कुरीतियों, अंधविश्वासों के बारे में भी बोलने लगे। उनकी बातों में नयापन था और वे तर्कसंगत भी थीं। लोगों के गले उतरने लगीं। उनका विरोध भी हुआ और समर्थन भी मिला। कुंभ और बाद की यात्राओं में मिले समर्थकों को लेकर स्वामी जी ने ‘आर्यसमाज’ नामक संगठन की नींव रखी। उन्होंने आजीवन यात्राएँ कीं। राजाओं और सामंतों से लेकर पंडितों, विद्वानों तक हर वर्ग के लोगों से मिले। उन्होंने दूसरे धर्म के अंधविश्वासों और कुरीतियों पर भी चोट की। उनकी बातों और कामों से जिन लोगों के स्वार्थ पर चोट पहुँचती, वही उनका विरोधी हो जाता लेकिन साथ देने वालों की भी कमी नहीं थी। उनका कार्य हर जगह फैल गया। आर्य समाज उन्हीं के सिद्धांतों का प्रचार करती है। आज भी उनके अनुयायी सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों से लड़ रहे हैं।
पिताश्री ने बालक श्रीराम को विस्तार से बताते हुए यह जानकारी भी दी कि स्वामी दयानंद के खिलाफ हमेशा षड्यंत्र रचे जाते थे। उनकी मृत्यु भी एक षड्यंत्र में ही हुई। आइये देखें क्या था यह षड्यंत्र।
जोधपुर में कुछ लोगों ने मिलकर उनके रसोइये को अपनी तरफ मिलाया और उसके हाथों स्वामी जी को विष दिला दिया। स्वामी जी ने विष की दारुण पीड़ा झेली और उसी से उनकी मृत्यु हो गई। मरते-मरते भी उन्होंने रसोइये को अपने पास से भगा दिया। उन्हें डर था कि अगर लोगों को इस बात का पता चलेगा तो रसोइये को जिंदा नहीं छोड़ेंगे। स्वामी जी ने उसे क्षमा कर दिया और उसके भाग जाने की व्यवस्था की।
बालक श्रीराम यह वृतांत बड़े ध्यान से सुन रहे थे। उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। पिताश्री से मथुरा के अन्यान्य स्थानों का विवरण और कथाएँ सुनते हुए वापस लौट आए।
ननिहाल और मथुरा होते हुए संपन्न हुई इस यात्रा ने पिता के सान्निध्य में एक संस्कार दिया। वह संस्कार भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रति एक दृष्टिकोण के रूप में था। नियति ने उनके लिए जो दायित्व चुन रखा था उसके बाहर से किसी विशेष सहयोग की आवश्यकता नही थी लेकिन शुकदेव जैसी मुक्त आप्तकाम आत्मा को भी अपने पिता वेदव्यास से भागवत कथा सुनना पड़ी थी।
इन्ही शब्दों के साथ हम आज के ज्ञानप्रसाद को यहीं पर विराम करने की आज्ञा लेते हैं लेकिनआप प्रतीक्षा कीजिये कल वाले प्रसंग की जिसमें बालक श्रीराम अपने पिताश्री को गुरु दक्षिणा भेंट करने का आग्रह कर रहे हैं। क्या थी यह “गुरु दक्षिणा ? ” विश्वास कीजिये बहुत ही अद्भुत थी हमारे गुरुदेव युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा जी की गुरु दक्षिणा और वह भी केवल 13-14 वर्ष की नन्ही सी आयु में।
हर लेख की भांति यह लेख भी बहुत ही ध्यानपूर्वक कई बार पढ़ने के उपरांत ही आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है, अगर फिर भी अनजाने में कोई त्रुटि रह गयी हो तो हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से निवेदन है कि कोई भी त्रुटि दिखाई दे तो सूचित करें ताकि हम ठीक कर सकें। धन्यवाद्
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आज की संकल्प सूची में 7 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है। सरविन्द पाल जी गोल्ड मैडल से सम्मानित किये जाते हैं ।
(1 )अरुण वर्मा-25 ,(2 )सरविन्द कुमार-40 ,(3)संध्या कुमार-26,(4) प्रेरणा कुमारी-27,(5 ) सुजाता उपाध्याय-27,(6)नीरा त्रिखा -25,(7)पूनम कुमारी-25
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव, धन्यवाद।