छपको अम्मा का बहुचर्चित प्रसंग पार्ट 1    

28 सितम्बर 2022 का ज्ञानप्रसाद

चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 3 

सप्ताह का तृतीय  दिन बुधवार, मंगलवेला-ब्रह्मवेला  का दिव्य समय, अपने गुरु की बाल्यावस्था- किशोरावस्था  को समर्पित,परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन में आज का ऊर्जावान ज्ञानप्रसाद प्रस्तुत है। आशा करते हैं इस लेख की दिव्यता, शुभरात्रि सन्देश तक आपको ऊर्जा प्रदान करती रहेगी।

आज का लेख परम पूज्य गुरुदेव के जीवन के उन दिनों को समर्पित है जब उनकी आयु केवल 12 वर्ष की थी। निम्नजाति की महिला छपको अम्मा की प्रेरणादायक कथा से गायत्री परिवार का बच्चा-बच्चा परिचित है।  शायद ही कोई ऐसा साधक होगा जिसने कभी न कभी उद्बोधनों में इस कथा का अमृतपान न किया होगा। चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1 के चैप्टर 3 में इस  विषय की आठ पन्नों में विस्तृत चर्चा की गयी है। अगर हम अपना analysis न करें, अपने विचारों की आहुतियां न प्रदान करें (जो कि हमारी आदत सी बन चुकी है),फिर भी इस कथा को तीन ज्ञानप्रसाद लेखों से कम में सीमित नहीं किया जा सकता। क्या होगा इन विस्तृत कड़ियों में, उसे तो अभी के लिए suspense ही बनाये रखते हैं लेकिन लेख का आरम्भ करने से पूर्व व्हाट्सप्प पर प्राप्त हुए  मैसेज का विवरण देते हैं जिसने हमें इतना गर्व प्रदान किया है कि स्नेह से अश्रुधारा बह निकली थी। 

हमारी सबकी वरिष्ठ और आदरणीय बहिन रेनू श्रीवास्तव जी ने लिखा:

 “जयगुरूदेव,आप अथक परिश्रम और समय लगाकर ज्ञान प्रसाद compile करते हैं। एक आग्रह है भाई जी,यदि उचित लगे तो गुरु साहित्य जो ज्ञान प्रसाद रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं….(सहकर्मियों के चरणों में प्रस्तुत)हम गुरु चरणों में अपने को समर्पित करते हैं।गुरुदेव के साहित्य  सर्वोपरि है उसे चरणों में कैसे समर्पण कर सकते हैं। आपको जितना धन्यवाद दे कम है भाई जी।कल के ज्ञान प्रसाद में आपका सहयोग सराहनीय है।आपके प्रयास से ही 24 आहुतियों का संकल्प पूरा हुआ।हार्दिक धन्यवाद ।”

अवश्य ही यह बहुत बड़ी त्रुटि थी जो अनजाने में हमसे हो गयी थी। गुरु का साहित्य सहकर्मियों के चरणों में – हमने जब इस पंक्ति को पढ़ा तो अपनेआप को ऐसे डांटा-फटकारा जैसे हम चार-पांच वर्ष के शिशु हों और हमारे अभिभावक हमें डांट रहे हों। बहिन जी एवं आप सबसे बार-बार क्षमा याचना की और अपनी गलती सुधारने  का संकल्प लिया। 

जो परिजन सिख धर्म से परिचित है वह गुरु ग्रन्थ साहिब ( The Holy Book ) को केवल एक दिव्य पुस्तक न मान कर “गुरु ग्रन्थ साहिब” कह कर सम्मान प्रदान करते हैं। जब भी अखंड पाठ का आयोजन होता है तो गुरु ग्रन्थ साहिब को सिर के ऊपर रखकर बड़े सम्मान से स्थापना होती है। हमारे गुरुदेव का साहित्य भी अति सम्मानीय है और इसीलिए इसका नियमित अध्ययन करना गुरु के प्रति श्रद्धा प्रकट करना है। 

अक्सर हम अपने लेख के अंत में लिखते हैं कि अगर कोई गलती रह गयी हो तो हमें बता दें, इसे correct करने का प्रयास करेंगें क्योंकि प्रकाशन से पहले हमने इन लेखों को इतनी बार पढ़ा होता है कि “ठीक होना” लगभग “taken for granted” ही समझा जाता है। 

एक बार फिर आप से क्षमाप्रार्थी होकर छपको अम्मा की कथा आरम्भ करते हैं। 

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घटना 1923 की  है, लगभग 100 वर्ष पुरानी, इस एक शताब्दी में हम कितना बदल पाए हैं शायद किसी से छिपा नहीं है । आँवलखेड़ा गांव  के एक कोने में, जिसे गाँव से बाहर कहना ही ठीक होगा, चार-पाँच झोंपड़ीनुमा घर बने हुए थे। इन घरों में जमादार और डोम जाति के परिवार रहते थे। इस तरफ कोई झाँकता नहीं था, मझली जाति के लोग, उच्च जाति (स्वर्ण) के लोग सभी घृणा करते  थे। दलित बस्ती की एक स्त्री छपको गुरुवर  की हवेली की सफाई करने आया करती थी। बड़ी उम्र के लोग उसे नाम से बुलाते थे और छोटे बच्चे चाची या अम्मा कहते थे। छपको नियमित रूप से दरबार लोगों के घरों में जाती थी। स्वर्णों  को तब ये लोग दरबार ही कहते थे। हारी बीमारी में भी वह नहीं चूकती थी। एकाध  दिन का  नागा हो जाय तो दरबार लोग हाय तौबा मचा देते थे, दस बातें सुनाते और अधिक  हो तो काम छुड़वाने की धमकी देते थे। धमकी और सज़ा  के डर से सर्दी, खाँसी और हाड़ बुखार के समय भी छपको की जाति बिरादरी के लोग कभी नागा नहीं करते। किसी की तबियत अधिक  खराब होती तो उसकी जगह दूसरा (substitute)  कोई आता।

छपको  को कभी किसी ने बीमार पड़ते नहीं देखा था। उसके मुँह से किसी ने सिरदर्द की शिकायत भी नहीं सुनी थी। एक दिन छपको हवेली नहीं पहुंची। शाम तक इंतजार किया, वह नहीं आई। अगले दिन भी यही हाल था। वह सफाई के लिए नहीं पहुँची। पास-पड़ोस में पूछा तो वहाँ भी नहीं गई थी। चार-पाँच दिन बीत गए। छपको के परिवार में कोई और नहीं था कि अपनी जगह दूसरे को भेज देती। लोगों ने सोचा कि दूसरा इंतजाम किया जाय। किसी को यह नहीं सूझा कि वह बीमार भी हो सकती है। घर में छपको की जगह किसी और को बुलाने की बात चलने लगी तो श्रीराम के कान में भी पड़ी। उन्हें लगा कि हो न हो छपको अम्मा की तबियत खराब हो गई होगी। उन्हें कोई दवा दारू देने वाला नहीं है इसलिए वे नहीं आ पा रही हों। ताई जी से उन्होंने कहा भी कि छपको अम्मा को दवाई देनी चाहिए। ताई जी ने गाँव-घर के रिवाज के अनुसार कह दिया जब यहाँ आएगी तब दे देंगे। श्रीराम ने कहा कि वह ठीक होगी तभी आएगी न । बिना दवा के ठीक कैसे होगी? इसी क्षण किसी ने यह कह कर डांट-डपट दिया कि जरूरी है कि वह बीमार ही पड़ी हो, हो सकता है गाँव छोड़कर चली गई हो।

श्रीराम को इस उत्तर में उपेक्षा अधिक  दिखाई दे रही थी। उनका मन मान ही नहीं  रहा था। न जाने क्यों लग रहा था कि छपको अम्मा बीमार है। उन्होंने अपने साथियों से भी बात की कि  क्या किया जाय।  श्रीराम की सलाह थी कि उनके घर जाकर खोज खबर ली जाय। साथियों के पास बात पहुंची तो  एक ने  कहा कि हम उनके घर कैसे जा सकते हैं।  वहाँ जाएँगे तो हमें घरवालों से  मार पड़ेगी। दूसरे ने कहा हमारे घरवाले हमें घर में घुसने ही नहीं देंगें । तीसरे ने कहा वहां जाना हम लोगों के बस का बात नहीं है। किसी बड़े को जाकर छपको अम्मा की  खोज खबर लेनी चाहिए। सभी साथी किसी न किसी बहाने छपको के घर जाने की बात टाल गए।

श्रीराम ने इसके बाद  किसी से कुछ नहीं कहा। चुपचाप उस बस्ती  की ओर चल दिए जहाँ छपको अम्मा रहती थी। कूड़े-कचरे और गन्दगी के ढेर पार करते और बदबूदार गन्दी सड़ी नालियाँ लाँघते फाँदते हुए छपको अम्मा की झोपड़ी के सामने पहुँच गए। चार-पाँच घरों में सही ठिकाना मालूम करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। दरवाजे पर पहुँच कर श्रीराम ने पुकारा। अंदर से कोई आवाज़ नहीं आई तो दरवाज़े पर लगी घास-फूस की आड़ हटा कर झाँका । छपको अम्मा बेसुध सी चटाई पर पड़ी थीं । पाँवों की आहट सुनकर उन्होंने  आँखे खोलीं, श्रीराम को देखकर हड़बड़ा उठी और बैठने की कोशिश करने लगी, लेकिन बैठ नहीं पाई। उठने की कोशिश में वापस गिरते हुए छपको  अम्मा ने  कहा कि  यहाँ क्यों आए हो, घर पर पता चलेगा तो मार पड़ेगी। श्रीराम ने कुछ नहीं सुना। हाथ लगा कर देखा, बुखार के कारण शरीर बुरी तरह तप रहा था। श्रीराम ने हथेली देखनी चाही क्योंकि उन्हें  याद था कि जब घर में किसी को बुखार आता है तो हथेली और जीभ वगैरह देखते हैं। हथेली में घाव था। उससे बदबू आ रही थी और पीब बह रही थी। शायद घाव सड़ने लगा था और इसी की वजह से बुखार भी आ रहा था। श्रीराम ने कहा कि चिंता मत करो, मैं दवा लेकर आता हूँ। छपको अम्मा कुछ कहे,उससे पहले ही श्रीराम  झोंपड़ी के बाहर की ओर भागे। दवाखाना तो बहुत दूर था। झोंपड़ी से बाहर निकल कर पहले तो उन्होंने पड़ोस से पानी लिया और अम्मा को पिलाया। फिर दौड़कर वापस चले गए और मरहम पट्टी का सामान लेकर कुछ ही मिनटों में लौट आए। साफ धुले हुए कपड़े की पट्टी बनाई, जाने कहाँ से लाल दवा और मरहम का जुगाड़ कर लिया। मरहम पट्टी करने के बाद  काढ़ा बनाकर पिलाया ताकि बुखार कुछ कम हो जाए। छपको अम्मा की आँखें  डबडबा आई। दवा से अधिक  सेवा और सहानुभूति ने काम किया। उन्हें नींद आने लगी। फिर आने की बात कह कर श्रीराम वापस चले गए।

इसी  उधेड़बुन में रमते हुए कि अगले दिन के उपचार का क्या प्रबंध करना है श्रीराम हवेली आ गए। देखा बाहर द्वार पर ही चाचा खड़े हुए हैं। उनके हाथ में एक कलश है। द्वार पर आते ही उन्होंने कलश से जल निकाला और दोनों हाथों से भर कर तीन बार श्रीराम पर छिड़का। फिर दरवाजे के बाहर ही नहाने के लिए कहा। कपड़े वहीं लाकर पहले से रखे हुए थे। नहाने के बाद वे कपड़े पहने और पहने हुए कपड़े वहीं छोड़ दिए। “शुद्धिकरण” की यह कार्रवाई पूरी होने के बाद ही श्रीराम अंदर आए। उन्होंने कोई सवाल नहीं किया। यही कहा कि गंगाजल के साथ कुछ और जोड़ी कपड़ों का इंतजाम भी कर लेना। आगे कई दिन तक छपको अम्मा के यहाँ जाना है। पश्चाताप और क्षमा माँगने या सफाई देने के बजाए श्रीराम के यह  वचन सुनकर घर के लोग हैरत में पड़ गए। श्रीराम ने अगली बात यह कही कि जब तक अम्मा का घाव ठीक नहीं हो जाता, रोज जाऊंगा। उत्तर में उलाहना या व्यंग्य नहीं था। निश्चय की झलक दिखाई दे रही थी। इस उत्तर  पर खासी डाँट पड़ी और सज़ा के तौर पर  उस दिन उपवास रखने के लिए कहा गया। डाँट, दण्ड और दबाव से अप्रभावित श्रीराम अगले दिन भूखे ही छपको की सेवा करने चले गए। मरहम पट्टी कर, दवा देकर वापस लौटे तो हवेली के बाहर ही ठिठक गए । ताईजी मन ही मन रो रही थीं लेकिन प्रचलन के विपरीत जाने का साहस भी नहीं कर पा रही थीं। नहाने धोने का इंतजाम कर दिया। चाचा-भतीजों की राय थी कि अगर श्रीराम  छपको के यहाँ जाना छोड़ते  तो उन्हें  घर के भीतर न आने दिया जाए,उनके  रहने की व्यवस्था बाहर की कोठरी में कर दी जाए और वहीं मिट्टी के बरतनों में भोजन परोसा जाय। परिवार में आए अतिथि सम्बन्धियों ने भी इस व्यवस्था की पुष्टि कर दी।

शब्द सीमा के कारण इस रोचक विषय को कल  तक स्थगित करना पड़ेगा। 

हर लेख की भांति यह लेख भी बहुत ही ध्यानपूर्वक कई बार पढ़ने के उपरांत ही आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा  है, अगर फिर भी अनजाने में कोई त्रुटि रह गयी हो तो हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से निवेदन है कि कोई भी त्रुटि दिखाई दे तो सूचित करें ताकि हम ठीक कर सकें। धन्यवाद् 

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आज की संकल्प सूची में 9  सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है। अरुण  जी  गोल्ड मैडल से सम्मानित किये जाते  हैं।

(1 )अरुण वर्मा-60,(2 )सरविन्द कुमार-40,(3)संध्या कुमार-33, (4)अशोक तिवारी-25,(5) रेणु श्रीवास्तव-26,(6)नीरा त्रिखा-24,(7)प्रशांत सिंह-24,(8) पूनम कुमारी -25,(9)विदुषी बंता-24 

सभी को  हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।  सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय  के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव,  धन्यवाद।

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