27 सितम्बर 2022 का ज्ञानप्रसाद
चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 3
सप्ताह का द्वितीय दिन मंगलवार, मंगलवेला का दिव्य समय, ब्रह्मवेला,अपने गुरु के बाल्यकाल को समर्पित,आज का ऊर्जावान ज्ञानप्रसाद अपने सहकर्मियों के चरणों में प्रस्तुत है। आशा करते हैं इस लेख की दिव्यता शुभरात्रि सन्देश तक ऊर्जा प्रदान करती रहेगी।
पिछले सप्ताह गुरुवार वाले लेख में हमने “साधना-साधना” खेल, “गुफा” और “हिमालय हमारा घर” जैसे विषयों को टेलीकास्ट करने का प्रयास किया। हर लेख को हम भांति भांति की आकर्षक शब्दावली प्रयोग करके रोचक बनाने का प्रयास करते हैं ताकि अगर हम इसे अमृतपान कहते हैं तो सही मानों में यह अमृत हमारे अंग-अंग में घुल जाना चाहिए। आदरणीय सुमन लता बहिन जी ने तो हमें निर्माता-निर्देशक कह कर अपनी अंतरात्मा की भावना हम तक पहुंचा दी है लेकिन हम तो केवल अपने गुरु का आदेश ही मान रहे हैं। जैसे-जैसे वह कहते हैं वही करे जा रहे हैं “तू मेरा काम कर, मैं तेरा काम करूँगा”, हमने अपने गुरु के साथ यह आजीवन कॉन्ट्रैक्ट sign किया है।
कितना दिव्य संजोग है शारदीय नवरात्री के पावन दिनों में हम अपने गुरु की बाल-लीला, श्रीराम-लीला से धन्य हो रहे हैं।
तो आइए चलें अमृतपान करें :
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हिमालय को अपना घर बताते हुए निकल जाने और वापस लौट आने के बाद शिक्षा-दीक्षा फिर पहले की तरह चलने लगी। अब पिताश्री ने भी ध्यान देना शुरू किया। चार-छह महीने में उनकी प्राथमिक शिक्षा पूरी हो जानी थी। सावधानी के तौर पर यह जरूरी समझा गया कि बालक को आगे पढ़ने के लिए गाँव से बाहर नहीं भेजा जाय। पिताश्री भागवत के विद्वान् तो थे ही। उन्होंने ‘लघु सिद्धान्त कौमुदी’ पढ़ाई, फिर ‘मध्य’ और ‘सिद्धान्त कौमुदी’ पढ़ाई। प्राथमिक शिक्षा पूरी होने के बाद और समय मिलने लगा। भागवत, रामायण और महाभारत के बाद आर्षग्रन्थों में भी अच्छी गति होने लगी। पिताश्री को आभास होने लगा था कि उनकी इहलीला पूरी होने वाली है। गुरुजी की पाठशाला छूटने के बाद उन्होंने पुत्र से कह दिया था कि दो साल तक सब कुछ भुला कर विद्या ग्रहण करो। उनके मन में सम्भवतः विरासत के रूप में भागवत देकर जाने की बात रही होगी। शायद सोचा होगा कि पुत्र भी उनकी ही तरह भागवत का उपदेश करे।
श्रीराम की विद्या वितरण की अद्भुत स्कीम :
आइए देखें बालक श्रीराम ने वरिष्ठों को प्रेरित करने के लिए विद्यादान की क्या स्कीम अपनाई।
पं. रूपराम जी की पाठशाला में पढ़ना, लिखना और बांचना (बांचने का अर्थ होता है पढ़कर कर सुनाना) अच्छी तरह आ जाने के बाद बालक श्रीराम के मन में ग्रहण की गयी विद्या को बांटने की तीव्र इच्छा का उदय हुआ। जिस प्रकार मालवीय जी से यज्ञोपवीत लेने के बाद उन्होंने दूसरे बच्चों को भी जप ध्यान सिखाना शुरूकर दिया था, उसी तरह बालक श्रीराम के मन में विद्या के प्रसार की इच्छा यानि ज्ञान बांटने की इच्छा उमगने लगी। पिता से शास्त्र और संस्कृत सीखने के बाद जो भी थोड़ा बहुत समय बचता, श्रीराम उस समय में चौपाल पर चले जाते। वहाँ कोई न कोई बैठा ही होता था। चार पांच लोग भी जमा हो जाते तो श्रीराम उन्हें पढ़ने-पढ़ाने को प्रेरित करते। श्रीराम उन्हें कुछ पढ़कर समझाते और फिर उन्हें दोहराते हुए सुनाने को कहते। जिन्हें अक्षर ज्ञान था और थोड़ा बहुत पढ़ना आता था, वे तो सुना देते लेकिन जिन्हें पढ़ना नहीं आता वे चुप रह जाते। श्रीराम उनसे कहते कि आप पढ़ते क्यों नहीं? नहीं आता है तो सीख लेना चाहिए। आमतौर पर उत्तर होता था कि अब पढ़ने से क्या लाभ, अब तो उमर बीत चली है, जो थोड़ी बहुत बची है, वह भी ऐसे कैसे कट जाएगी। ऐसे निराशा भरे उत्तर सुनकर शुरू में तो किसी का विरोध नहीं किया और न ही कोई काट की लेकिन जब सभी यही उत्तर देने लगे तो एक दिन श्रीराम ने पढ़ाई की चर्चा छेड़े बिना कहा, “जिस गुफा में मैं ध्यान करने जाता था, वहाँ एक खजाना गड़ा हुआ है।” खजाने का नाम सुनकर चौपाल पर बैठे लोगों की आँखे चौड़ी हो गई। बालक की आध्यात्मिक रुचि और साधना स्थिति के बारे में तो सभी लोग जानते थे इसलिए किसी ने भी न तो शक किया और न हँसी उड़ाई । एक बुज़ुर्ग ने कहा: “उस खजाने को निकालने के लिए क्या करना होगा?” बालक श्रीराम ने कहा, “खज़ाना निकालने का रास्ता तो जाना जा सकता है लेकिन आप उस खज़ाने का क्या करोगे,आपकी तो उमर निकल गई है, थोड़ी बहुत बची है वह भी ऐसे ही कट जाएगी।” उन बुजुर्गों की समझ में नहीं आया कि श्रीराम उनके किस बहाने का उत्तर दे रहे हैं। उन्होंने कहा, “नहीं,नहीं खज़ाने का उपयोग तो किसी भी उम्र में किया जा सकता है।” श्रीराम ने कहा, “उस खज़ाने यानि धन को पाने के लिए आपको विद्याधन कमाना होगा। अगर आप पढ़ना,लिखना सीखोगे तभी उस धन को पाने वाला विधि विधान समझने के काबिल हो सकोगे। यह तथ्य समझाने के बाद कुछ बुजुर्ग पढ़ने के लिए तैयार हुए।
कहते हैं कुछ लोगों ने उसके बाद गुफा में जाकर खोज की तो एक चट्टान के नीचे छुपाए हुए स्वर्ण आभूषण निकले। ये आभूषण धांधू नामक डकैत का छुपाया हुआ लूट का माल भी हो सकता है या महज संयोग। बहरहाल अध्यापन के दौरान श्रीराम ने उन बुजुर्गों को कुछ भजन और रामायण की चौपाइयाँ जरूर सिखा दी थी। कुछ श्रद्धालु बुजुर्गों को उन्होंने जप के बारे में समझाया और कहा था कि “मुँह से जप करने के बजाय लिखकर जप करना ज्यादा पुण्यप्रद है। मुँह से बोलने पर तो केवल जीव ही तरता है लेकिन लिखने पर इतनी शक्ति आती है कि साधक पत्थर को भी तार दे। लिखित जप करने वालों की वाणी इतनी प्रभावशाली और अचूक हो जाती है कि साधक जो भी शाप या वरदान देता है, पूरा होता है। यही कारण है कि मंत्र लेखन पर इतना बल दिया जाता है।
बालक श्रीराम का यह पहला सामाजिक अनुष्ठान था, आयु केवल 10-11 वर्ष ही होगी। डेढ़ वर्ष में उन्होंने करीब चालीस लोगों को पढ़ना लिखना सिखा दिया था। अनेक विद्यार्थी इतना सीख गए थे कि प्राथमिक कक्षा की परीक्षा में बैठें तो आराम से पास हो जाएँ।।
आंवलखेड़ा गांव की 1920 के आसपास की पिक्चर:
आँवलखेड़ा छोटा सा गाँव था। जितने भी लोग रहते थे, सब एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। किस परिवार के कितने सदस्य हैं, कहाँ कहाँ रिश्तेदारी है और किन पुरखों की क्या विशेषता रही है। हर घर के वयस्क व्यक्ति को दूसरे परिवारों के बारे में यह भी पता होता था कि वहाँ कौन कब आया है। लोग एक दूसरे के सुख दुःख में काम आते थे। अपने आप में सिमट जाने की प्रवृत्ति बीसवीं शताब्दी के साठ के दशक के बाद वाले वर्षों में अधिक प्रबल हुई है ,अधिकतर लोग एक दूसरे के अच्छे-बुरे में काम आते रहे हैं। आँवलखेड़ा भी अपनी तमाम अच्छाइयों और बुराइयों के साथ जी रहा था। बुराइयों में सबसे बड़ी बुराई जातिगत ऊँच-नीच या छूआछूत की थी। यह स्थिति बड़ी विचित्र और अबूझ थी कि लोग पिछड़ी जाति के लोगों से नफरत नहीं करते थे, उनके सुख दुःख का ध्यान भी रखते, लेकिन उनसे दूर-दूर रहते थे। ब्याह-शादियों में उन्हें बुलाया जाता था, लेकिन उन्हें अपने समूह में शामिल नहीं किया जाता था। उन्हें अलग पांत में भोजन कराया, बिठाया जाता, उसी तरह अगवानी की जाती और विदा भी दी जाती । घृणा नहीं होते हुए भी दुरदुराने की यह आदत किसी दोष का ही परिणाम थी। पिछड़ी जाति के लोग भी जैसे इस स्थिति के आदी हो चुके थे। वे ऊँची जाति वालों की बस्ती में नहीं जाते। उनके घरों के सामने से नहीं निकलते। निकलना ही होता तो जूते हाथ में लेकर नंगे पाँव निकलते । उनका सिर झुका होता और टोपी या साफा भी उतार कर हाथ में रख लेते। ऊँची जाति वालों को छूना तो दूर अपनी छाया भी उन पर नहीं पड़ने देते। उच्च जाती के लोग भी इस बात का ध्यान रखते थे कि निम्न जाति के लोग उन्हें छू न जाय, उनकी छाया न पड़ जाए, या सुबह-सुबह उनका मुँह न दिखाई दे जाए। लोग इन प्रचलनों केअभ्यस्त हो गए थे। यह समझना मुश्किल था कि लोग दबाव में इनका पालन कर रहे हैं या स्वयं ही निभाए जा रहे हैं। कभी कोई घटना होती तो यही समझ आता था कि ऊँची जाति वालों ने निम्न जाती वालों को इन प्रचलनों का अभ्यस्त बना दिया है। गलती से या स्वाभिमान का थोड़ा सा उदय होने पर कोई उच्च जाति को छू जाता तो उसे दण्ड झेलना पड़ता था। यह दण्ड पिटाई से लेकर बेगार (forced labour) देना बंद हो जाने के रूप में भुगतना पड़ता। आर्थिक स्थिति जैसी कोई उल्लेख करने योग्य बात उन पर लागू होती ही नहीं थी। उनकी रोटी उच्च जाति की दया कृपा पर ही चलती। वह बंद हो जाती, बेगार मिलना रुक जाता तो जीना दूभर हो उठता था। कभी किसी को रोग बीमारी हो जाए तब भी जीना कठिन हो जाता ।
अगले लेख में हम परम पूज्य गुरुदेव के जीवन का बहुचर्चित वृतांत, निम्नजाति की महिला “छपको की कथा” का लाइव टेलीकास्ट करने का प्रयास करेंगें। यह वृतांत इतना चर्चित है कि अधिकतर परिजन इसे जानते हैं लेकिन हम इस वृतांत की उन बारीकियों को छूने का प्रयास करेंगें जो इतिहास की परतों में दब कर रह गयी हैं। हमारा विश्वास है कि इस वृतांत से ग्रहण की जाने वाली शिक्षा से हमारे पाठक परम पूज्य गुरुदेव के चरणों में शीश झुकाए बिना नहीं रह सकते। आज के लेख का यह अंतिम पैराग्राफ इस बहुचर्चित वृतांत की पृष्ठभूमि ही है।
हर लेख की भांति यह लेख भी बहुत ही ध्यानपूर्वक कई बार पढ़ने के उपरांत ही आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है, अगर फिर भी अनजाने में कोई त्रुटि रह गयी हो तो हम करबद्ध क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से निवेदन है कि कोई भी त्रुटि दिखाई दे तो सूचित करें ताकि हम ठीक कर सकें। धन्यवाद्
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आज की संकल्प सूची में 6 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है। अरुण जी गोल्ड मैडल से सम्मानित किये जाते हैं।
(1 )अरुण वर्मा-58 ,(2 ) सरविन्द कुमार-43 ,(3)संध्या कुमार-33 ,(4)कुमोदनी गौराहा-27 (5 ) अशोक तिवारी-26,(6) रेणु श्रीवास्तव-24
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव, धन्यवाद।