परम पूज्य गुरुदेव के बाल्यकाल के कुछ संस्मरण 

22  सितम्बर 2022 का ज्ञानप्रसाद-

चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 3 

सप्ताह का चौथा दिन गुरुवार, अपने गुरु के बाल्यकाल को समर्पित, प्रातः काल की अमृतवेला में आज का ऊर्जावान ज्ञानप्रसाद अपने सहकर्मियों के चरणों में प्रस्तुत है। आशा करते हैं इस लेख की दिव्यता शुभरात्रि सन्देश तक ऊर्जा प्रदान करती रहेगी। आज के ज्ञानप्रसाद में बालक श्रीराम के “साधना- साधना” खेल का विवरण, गुफा में ध्यान साधना, हिमालय श्रीराम का घर आदि बाल क्रीड़ाओं की रोचक चर्चा है।

वंदनीय माता जी के जन्म दिवस को समर्पित वीडियो शुक्रवार का ज्ञानप्रसाद होगा।

तो आरम्भ करते हैं आज का अमृतपान :

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बालक श्रीराम का जप ध्यान घर के  छत पर, मंदिर में, वट वृक्ष के नीचे और खुले आकाश तले चलता। सुबह पाँच बजे के लगभग उठ जातेऔर स्नान आदि से निवृत्त होकर संध्या वंदन के लिए बैठ जाते। पूर्व दिशा  में सूर्योदय की लालिमा फैलने तक संध्या वंदन और गायत्री जप के साथ सविता देवता के स्वर्णिम प्रकाश का ध्यान होता। जप साधना का पुण्य परमात्मा को ही समर्पित कर बालक श्रीराम वापस लौट आते। सात बजे पंडित रूपराम जी  की पाठशाला में पहँच जाते। वहां शिक्षा के साथ आचार आदि का अभ्यास होता। शाम के समय भी सूर्यास्त होने के ठीक पहले सांयकालीन संध्या शुरू हो जाती। तारे दिखने तक वह संध्या कर्म भी परब्रह्म को समर्पित हो जाता। यह सिलसिला कई वर्ष तक चला। शायद चार-पाँच साल।

शास्त्रीय मान्यता है कि नियम पूर्वक नियत समय पर विधि-विधान से किया गया गायत्री जप तेजी से आध्यात्मिक ऊँचाइयों की ओर ले जाता है। विधि-विधान का तात्पर्य अपनी साधना में श्रद्धा और  विश्वास का समावेश है। जो किया जा रहा है, जो समझाया गया है, उसमें प्रत्यक्ष की तरह विश्वास करना। 

बालक श्रीराम के बाल्यकाल का खेल – “साधना-साधना खेल” :

आइये देखें क्या है साधना-साधना  खेल। 

यह तो हमने देखा है कि बालक श्री राम प्रातः और सायं संध्या और गायत्री जप करते थे लेकिन इसके   साथ वह  दिन में भी ध्यान का अभ्यास करते। पाठशाला में यह उनका प्रिय खेल था। अध्ययन से अवकाश मिलता तो वे ध्यान जप के लिए बैठ जाते, दूसरे छात्र खेलते रहते। कुछ सहपाठियों ने भी बालक श्रीराम के खेल में रुचि दिखाई। दो-चार साथी मिल जाने पर यह खेल तैयार हो गया। खेल का नाम रखा साधना। इस खेल में खिलाड़ी पालथी मार कर बैठ जाते और  उनसे कहा जाता कि आँखे बंद कर उस जगह पर देखने का प्रयास करें जहाँ दोनो भौहें (eyebrows) मिलती हैं। ऐसा देखते हुए अनुभव करें कि वहां सूर्य चमक रहा है। पता नहीं कितने छात्रों ने इस खेल को समझा लेकिन अधिकतर चुपचाप बैठे रहते और  पूछने पर कहते कि बड़ा आनंद आ रहा है। अगले चरण में गायत्री, हिमालय, गंगा, यमुना, सरस्वती, सिद्ध संत और इसी तरह की चर्चा चल पड़ती। इन चर्चाओं में कोई क्रम नहीं होता। यह खेल आधा पौन घंटा तक चलता रहता। कुछ दिन बाद वे चार पाँच सखाओं को लेकर जंगल भी जाने लगे और  घनी छाया वाले पेड़ के नीचे बैठ कर यह खेल चलता।

गुफा में साधना:

एक बार श्रीराम अकेले ही गए और तीसरे पहर लौटे। पाठशाला का समय था, विद्यालय में समझा गया कि छात्र किसी काम से घर गया होगा। घर वालों ने समझा कि बालक पाठशाला में ही होगा, इसलिए खोजा नहीं। जिन छात्रों को “साधना-साधना” खेल में रस आने लगा था वे ढूँढ़ते रहे। तीसरे पहर उनके खेल का “लीडर” प्रकट हुआ तो पूछा: “कहाँ गये थे ?” तो बालक  श्रीराम ने उत्तर दिया कि एक गुफा मिल गई थी। इस गुफा में कोई नहीं आता इसलिए उसमें आराम से  बैठकर ध्यान किया जा सकता है। अगले दिन वह  साथियों को लेकर गुफा के पास गए। साथी किसी तरह गुफा तक चले तो गये लेकिन डर के कारण भीतर जाने का साहस नहीं हुआ। श्रीराम अंदर घुस गए लेकिन साथी अपने लीडर के वापस आने तक बाहर ही खड़े रहे। घंटे डेढ़ घंटे बाद श्रीराम वापस आये तो मित्रों  ने उलाहना दियाऔर कहा कि अब आगे से वे इस खेल में शामिल नही होंगे। श्रीराम ने मित्रों  का साथ छोड़ जाने की परवाह नहीं की। समय मिलते ही घंटे-आधा घंटे के लिए अकेले ही निकल जाना और गुफा में ध्यान लगाना जारी रखा। कक्षा से बार-बार गायब होने पर गुरु रूपराम जी  का ध्यान भी गया। उन्होंने श्रीराम से सीधे न पूछकर छात्रों से पूछा। गोपालदास नामक छात्र ने बताया तो रूपराम जी ने कहा कि यह बात श्रीराम के घर बता देना। 

जब ताई जी को गुफा में जाने की बात पता लगी तो उन्होंने श्रीराम को बुलाकर डांटा और  कहा कि शेर चीते की गुफा होगी, किसी दिन तुम्हें देख लेगा तो फाड़ कर खा जायेगा। माँ की डांट सुनकर श्रीराम चुपचाप रहे। उनकी चुप्पी सहम उठने वाली चुप्पी नहीं थी बल्कि उसके पीछे भाव यह था कि माँ कह रही है इसलिए विरोध नहीं करना है। कोई असर न हुआ देख ताई जी ने कहा,”आगे से गुफा के आसपास भी मत फटकना। कोई जवाब न आता देख फिर कहा: “सुन लिया न, गुफा में नहीं जाना है,बोल नहीं जायेगा।” बालक श्रीराम ने माँ की बात सिर आँखों पर रखते हुए गर्दन हिलाई, हामी भरते ही मां ने पुत्र को हृदय से लगा लिया। इसके बाद कोई दिन ऐसा नहीं बीता था कि श्रीराम विद्यालय  न गये हों। जिस किसी दिन नहीं जाना होता तो हवेली से सूचना पहुँच जाती थी कि आज श्रीराम अमुक कारण से विद्यालय नहीं आयेंगे।

हिमालय हमारा घर:  

एक दिन न सूचना पहुंची और न ही श्रीराम विद्यालय आए। पंडित रूपराम जी  ने सोचा कि किसी कारण सूचना नहीं भिजवाई जा सकी होगी इसलिए ज़्यादा परवाह नहीं की। उसी दिन देर शाम को हवेली से संदेश आया कि श्रीराम अभी तक घर नहीं पहुँचे, क्या कक्षाएँ देर तक चल रही हैं? रूपराम जी को अब पता चला कि उनका छात्र पाठशाला के लिए निकला तो था लेकिन कहीं और रम गया था । पहली आशंका यही हुई कि शायद ध्यान वाली गुफा में बैठा हो जहाँ महीनों पहले कुछ सहपाठियों के साथ जाया करता था। ताईजी ने कहा: श्रीराम को मना कर दिया था, इसलिए जाने का सवाल ही नहीं उठता। फिर भी एक बार गुफा में तलाशने के लिए कुछ लोग निकले। अष्टमी या नवमी की रात थी। चन्द्रमा की मद्धिम चांदनी में रास्ता देखा जा सकता था फिर भी जरूरत पड़ने पर मशाल जलाने का इंतजाम कर लिया। गुफा के द्वार पर पिताश्री ने आवाज लगाई। भीतर से कोई जवाब नहीं आया। गुफा की दीवारों से टकरा कर आवाज वापस लौट आई। मशाल जला कर गुफा के भीतर तलाशने का निश्चय किया गया। करीब बारह मीटर लम्बी आड़ी-टेड़ी गुफा के अन्दर तक तलाश लिया। श्रीराम का कोई ठिकाना नहीं था। हार कर सब लोग वापस लौट आए । घर पर ताई जी ने रो-रो कर बुरा हाल बना लिया था। अगले दिन तक खोज चलती रही। 

अगले दिन लगभग सात बजे ताई जी के मायके से रुकमणी प्रसाद नामक सम्बन्धी आए। गांव के रिश्ते से वह  ताई के चाचा लगते थे। वह  रात को ही आ गए थे लेकिन रीति के अनुसार बेटी के घर न  रुका जाता है और न ही अन्न- जल ग्रहण किया जाता है। इसलिए वह गाँव के बाहर एक मंदिर में ही ठहर गए थे। घर में कोहराम देखकर मालूम हुआ कि कुलदीपक कल से लापता हैं। रुकमणी प्रसाद जी का ध्यान एकदम रास्ते में मिले 10-12 वर्ष के बच्चे की और गया। निर्जन रास्ते में अकेले देखकर उन्होंने आश्चर्य से पूछा भी था कि बच्चे कहाँ जा रहे हो तो उसने सहजभाव से उत्तर दिया था “हिमालय।” उत्तर सुनकर रुकमणी जी हँस दिए थे और उनके मुँह से बरबस निकल आया था: नटखट कहीं का। उत्तर पर हँसी इसलिए आई थी कि हिमालय कहीं पास  तो है नहीं।आँवलखेड़ा आकर पता चला कि वह बच्चा उनके गाँव की बेटी का ही चिरंजीव है। रुकमणी जी घरवालों को लेकर  उस जगह पहुँचे, जहाँ उन्हें श्रीराम मिले थे। उस जगह होने का तो कोई प्रश्न  ही नहीं था। उसी मार्ग  पर तीन-चार मील आगे गए। बरहन गाँव में एक छोटा रेलवे  स्टेशन था। यहाँ से हाथरस की ओर जाने वाली गाड़ी मिलती थी।पूछने पर  पता चला कि हाथरस के लिए गाड़ी कल दोपहर को गयी थी। आशा बंधी कि श्रीराम यही कहीं होंगे, आसपास ढूंढा, पास ही एक छोटी सी झील थी, श्रीराम झील के तट पर बने शिवालय में  ध्यानस्थ बैठे दिखाई दिए। देखकर सभी के सांस में सांस आई। पिताश्री ने ध्यान पूरा होने तक प्रतीक्षा की और आसन से उठते ही पुत्र को कस कर भींच लिया और कहा : यह आयु क्या हिमालय जाने की है ? बिना बताए क्यों चले आए? माता-पिता का  दिल  दुखा कर भगवान् पाना कौन सा  धर्म है? इस तरह के कितने ही प्रश्न पूछते हुए उन्होंने अपने बेटे के सिर पर गंगा-जमुना बहा दी। पिता ने तो रो धोकर अपने आपको समझा लिया लेकिन ताई जी रोते-विलाप करते पागल सी हो गई थी। उनके विलाप में श्रीराम के जन्म समय आने वाले साधु संन्यासियों, स्वप्नों, भविष्यवाणियों और पूजा पाठ आदि सभी कुछ लपेट में आ गए। हर किसी को उन्होंने जम कर कोसा, जो उनके हिसाब से श्रीराम में तप और साधना की प्रेरणा के लिए जिम्मेदार था। 

पुत्र ने माँ को समझाने का प्रयास किया और  कहा कि साधु महात्माओं को मत कोसिये,अपने द्वारकाधीश को मत कोसिए। आप मुझे कोसिये क्योंकि मैंने आपको कष्ट दिया है। 

थोड़ी देर बाद ताई जी का रुदन कुछ थमा, फिर रुंधे हुए कण्ठ से बोलीं , “तुमने मुझे कष्ट दिया है न? अगर मानते हो तो मुझे एक वचन दो।” बालक श्रीराम आगे की बात सुनने के लिए टकटकी लगा कर देखने लगे। ताई जी ने कहा, “ वचन दो कि मुझे छोड़ कर साधु संन्यासी बनने की बात कभी सोचोगे भी नहीं । तुम हिमालय की आत्मा हो तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।  मेरे जीवित रहने तक सिर्फ श्रीराम हो। मेरे सामने हिमालय में बस जाने की बात कभी मत सोचना। मेरे बाद चाहे जहाँ रहना।” ताई एक-एक वाक्य सोच समझ कर कह रही थी। श्रीराम ने भी एक-एक शब्द  गौर से सुना और कहा, “ताई मैं हमेशा आपके साथ रहूँगा। ब्रजक्षेत्र को छोड़कर भी नहीं जाऊँगा क्योंकि आपको ठाकुर जी का घर बहुत भाता है न।” लाड़ले का यह आश्वासन  सुनकर ताई तुरन्त शान्त हो गईं । उनकी शान्ति में यह दृढ़ विश्वास भी था कि बेटे ने जो कह दिया है, उसका अक्षरशः पालन करेगा, वह दिन हवेली में उत्सव की तरह मनाया गया। माँ परम आश्वस्त थी कि उनका दुलारा अब कभी उनसे नहीं बिछुड़ेगा।

शेष अगले लेख में :

हम अपनी पूरी श्रद्धा और समर्था से इस ज्ञानप्रसाद को आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं, अगर अनजाने में कोई भी त्रुटि रह गयी हो तो हम क्षमाप्रार्थी हैं।  

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आज की 24 आहुति संकल्प सूची : 

Gold medalists -Arun Verma  

Total comments -457  , 

Total  winners-11   

आज की संकल्प सूची में 11   सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है। अरुण  जी  गोल्ड मैडल से सम्मानित किये जाते  हैं।

(1 )अरुण वर्मा-62 ,(2 ) सरविन्द कुमार-25,(3 ) रेणु श्रीवास्तव-26 ,(4 )संध्या कुमार-31,(5 )पूनम कुमारी-24,(6 ) प्रेम शीला मिश्रा-24 ,(7) प्रेरणा कुमारी-24,(8 )विदुषी बंता-25 ,(9 )कुमोदनी गौराहा-24 ,,(10) लता गुप्ता-25,(11)प्रशांत सिंह-25,     

सभी को  हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।  सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय  के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव,  धन्यवाद।

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