21 सितम्बर 2022 का ज्ञानप्रसाद- चेतना की शिखर यात्रा पार्ट 1, चैप्टर 3
आज इस सप्ताह का तीसरा दिन बुधवार है और हम एक बार फिर आपको आंवलखेड़ा से सीधा प्रसारण दिखा रहे हैं जहाँ दिव्य हवेली में परम पूज्य गुरुदेव घुटनों के बल चले और आरम्भिक शिक्षा ग्रहण की। हमारे पाठकों को LIVE TELECAST शब्द बहुत रोचक लगे, उन्होंने हमारी लेखनी की प्रशंसा करते हुए कमैंट्स में भी इनका वर्णन किया ,धन्यवाद् करते हैं।
आजकल चल रही चर्चा इतनी रोचक लग रही है कि अगर सहकर्मियों की स्वीकृति हो तो इसी विषय को कुछ दिन और आगे बढ़ाया जाये। प्रत्येक लेख को रोचक बनाने के लिए हम अपनी पूरी समर्था का प्रयोग करने का प्रयास करते हैं।
इन्ही ओपनिंग रिमार्क्स के साथ आज का ज्ञानअमृत पान आरम्भ करते है।
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परम पूज्य गुरुदेव के पिताजी भागवत के प्रकांड विद्वान थे और यह उनका परम प्रिय शास्त्र था। कथा प्रवचनों के अलावा सामान्य समय में भी वे इसी की चर्चा करते रहते। घर पर विद्वानों का जमावड़ा रहता। छोटे-मोटे प्रसंगों में भी वे भागवत के श्लोक सुना देते और हर तरह की समस्याओं का समाधान निकाल लेते। जिन दिनों बाहर रहते उन दिनों भी लोग उन्हें ढूंढ़ते पूछते हवेली आ जाते थे। जब वे घर पर होते तब तो कहना ही क्या? ताई जी उस समय चार वर्ष के श्रीराम को पिता के सुपुर्द कर देती। जब गुरुदेव के पिताजी लोगों की बात सुनते,उनका हल बताते या सामान्य विषयों पर चर्चा करते तो श्रीराम वहीँ होते। चार वर्ष के बच्चे के लिए शास्त्र चर्चा, तत्त्वदर्शन और भक्ति ज्ञान वैराग्य की बातें समझना शायद कठिन तो हो लेकिन वह उन चर्चाओं से बने वातावरण के संस्कार तो ग्रहण करता ही है। बालक अपने पूर्व जन्म के शुभ संस्कारों से निश्चित ही समृद्ध था। कह सकते हैं कि नए संस्कारों की आवश्यकता नहीं रही होगी लेकिन उस वातावरण ने संस्कारों को उभारने में सहायता तो की ही।
भागवत कथा सुनकर चार वर्ष के बालक श्रीराम की आँखों में आंसू आ गए:
एक प्रसंग में यमुना तट पर “भक्ति” नामक स्त्री दुःखी और क्लांत होकर बैठी है। पास ही दो बूढ़े व्यक्ति बेहोश पड़े हैं। उन्हें होश में लाने की कोशिश करती हुई यह स्त्री किसी सहायक के आने की प्रतीक्षा करती हुई आसपास देखती रहती है। कुछ स्त्रियाँ उसे धीरज बंधा रही हैं। नारद जी संयोग से पहुँचते हैं और स्त्री से अपना परिचय देने के लिए कहते हैं। वह स्त्री कहती है, मेरा नाम भक्ति है। ज्ञान और वैराग्य ये दोनो मेरे पुत्र हैं। काल के प्रवाह से वृद्ध हो गये हैं। आस-पास जो स्त्रियाँ हैं वे गंगा यमुना आदि नदियाँ हैं जो मेरी सेवा कर रही हैं। फिर भी दुःख दूर नहीं हो रहा है। क्षीण होने का कारण भक्ति ने यह बताया कि पाखंण्डियों ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया। उनके छल, कपट और दुराचारों से भक्ति रुग्ण और अशक्त हो गई है। यहाँ वृंदावन में आने से अपना रोग और दैन्य तो कम हुआ लेकिन दोनों पुत्रों की बीमारी दूर नहीं हुई। यह कहते हुए भक्ति विलाप करने लगती है। कथा आगे बढ़ती है और नारद जी भक्ति को भागवत का उपदेश देते हैं।
भक्ति को विलाप करने का प्रसंग सुनते हुए सुन चार वर्ष के बालक की आँखों से आँसू बहने लगे । पिताश्री प्रसंग आगे बढ़ाते है। भागवत सुनकर भक्ति का उद्धार हुआ उसके दोनों पुत्र भी स्वस्थ, सहज और स्वाभाविक अवस्था में पहुँच गये। इसी प्रसंग में पिताश्री कहते थे कि “भागवत शास्त्र सभी शास्त्रों का सार है।” इन दिनों हम लोग जिस सनातन धर्म का पालन करते हैं, वह इसी शास्त्र से आया है। ज्ञान, विद्या, आचार, अवतार, भक्ति, कर्म, मंत्र, योग, साधना, इतिहास, पुराण आदि भागवत में ही समाहित है।
बालक श्रीराम की शिक्षा का आरम्भ:
हवेली में होने वाली चर्चा और वहाँ के परिवेश ने बालक श्रीराम की शिक्षा का आरंभ किया। विधिवत विद्यारंभ का समय चार साल बीतने के बाद आया। पंडित जी चाहते तो अपने सान्निध्य में ही वेद शास्त्र सब पढ़ा सकते थे। लेकिन उनका मानना था कि शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु का सानिध्य प्राप्त होना ही चाहिए।
आंवलखेड़ा जैसे छोटे से गाँव में एक अध्यापक थे, उनका नाम था पंडित रूपराम। रूपराम जी अपने घर पर ही विद्यालय चलाते थे। पिताजी जी ने श्रीराम को उनके सुपुर्द किया। ताई जी बताया करती थी कि पूजा पाठ के बाद गुरुजी ने तख्ती थमाई। पट्टी सफेद रंग की थी और लकड़ी से बनी हुई थी। उन दिनों स्लेट और चाक आदि का चलन नहीं था। तख्ती और गेरु की पूजा होने के बाद पहला अक्षर सिखाने लगे। सरकंडे की कलम को घुले हुए गेरु में डुबोया और श्रीराम के हाथ में दिया गया। फिर हाथ पकड़कर तख्ती पर पहला अक्षर लिखवाते हुए कहा ‘ग’। श्रीराम ने भी तुरंत अनुकरण किया और गुरुजी उस अक्षर की पहचान बताने के लिए आगे कुछ बोलें उससे पहले ही श्रीराम ने कहा: “ ग-गायत्री ? ।” गुरु को कल्पना भी नहीं थी कि छात्र बिना बताए ही अक्षर की पहचान बता देगा। पहचान भी अपने ढंग से। बिना बताए गायत्री से आरंभ करने पर श्रीराम के गुरुजी ही नहीं, वहाँ उपस्थित दूसरे लोग भी चमत्कृत हुए। बाद में गुरु जी ने पूछा श्रीराम तुम्हें किसने बताया कि ‘ग’ मायने ‘गायत्री’। श्रीराम ने कहा कि किसी ने भी नहीं, हवेली में सुना है। गुरुदेव के पिता जी भी यही कथा “भागवत” में कहते थे । गुरु पंडित रूपराम के साथ पं० रूपकिशोर भी गद्गद हो उठे थे। दोनों ने बालक के सिर पर हाथ फेरा और स्नेह से सूंघा।
उन दिनों अभिभावक अपने बच्चे को गुरु के पास रखना ही श्रेयस्कर समझते थे।ऐसा माना जाता था कि छात्र जितना अधिक गुरु के पास रहेगा, उतना ही अधिक सीखेगा। पाठशाला में पन्द्रह-बीस छात्र रहते थे लेकिन यज्ञीय जीवन की दीक्षा और बालक श्रीराम का सोना- जागना अपनी हवेली मे ही रहा। सुबह सात बजे वह बिना नागा पाठशाला पहुँच जाते और देर शाम तक वहीं पढ़ते रहते। पढ़ाई पूरी होने के बाद वापस अपने घर आ जाते।
बालक श्रीराम का उपनयन संस्कार:
पांच छह साल यह क्रम चला होगा कि पिता जी के साथ काशी की यात्रा आरंभ हुई। 1915 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के समय निश्चित हुआ था कि श्रीराम को यज्ञोपवीत दीक्षा मालवीय जी स्वयं देंगे। उस निर्धारण को ध्यान में रखते हुए सात आठ वर्ष की आयु में पिता जी ने चिरंजीव का उपनयन नहीं कराया। उपनयन संस्कार हिंदू धर्मों के 16 संस्कारों में से 10वां संस्कार है। इसे यज्ञोपवित या जनेऊ संस्कार भी कहा जाता है। उप यानी पास और नयन यानी ले जाना अर्थात् गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। प्राचीन काल में इसकी बहुत अधिक मान्यता थी।
काशी जाने पर मालवीय जी के निवास पर ही सादे समारोह में उपनयन संस्कार संपन्न हुआ। संस्कार के समय श्रीराम की आयु ग्यारह वर्ष की थी। मालवीय जी ने गायत्री को सर्ववेदमय और ब्रह्मस्वरूप होने के जो उपदेश दिये थे, वे रास्ते में हर क्षण कानों में गूंजते रहे। दस-बारह साल के बालक के लिए ये उपदेश गूढ़ भी थे और सहज माननीय भी। ग्रहण कर लिये जायें तो पूरे जीवन की दिशा धारा तय हो जाती है। अपनी समझ के अनुसार बालक श्रीराम ने पिता श्री से प्राप्त किये गए उपदेशों के बारे में कई जिज्ञासाएँ की जैसे कि “गायत्री को कामधेनु क्यों कहा है? ब्राह्मण कौन है ? माँ गायत्री किसे सिद्ध होती है? अगर ब्राह्मण को गायत्री सिद्ध होती है, तो इस जाति के लोग दीन-हीन क्यों होते हैं? गायत्री को किसने शाप दिया? उस शाप का विमोचन कैसे किया जाय आदि”, इन प्रश्नों का समाधान रास्ते में ही हो गया।
यज्ञोपवीत के बाद बालक श्रीराम ने संध्या गायत्री जप आरंभ कर दिया। यह बात मन में अच्छी तरह बैठ गई थी कि संध्या गायत्री नहीं करने से यज्ञोपवीत भंग हो जाती है और व्यक्ति पतित कहा जाने लगता है और यज्ञोपवीत संस्कार के समय प्राप्त किया हुआ उसका दूसरा जन्म स्थगित हो जाता है। ऐसा करने पर वह अपनेआप को द्विज कहने का अधिकार खो देता है।
द्विज शब्द का अर्थ क्या होता है?
द्वि का अर्थ होता है दो और ज (जायते) का अर्थ होता है जन्म होना अर्थात् जिसका दो बार जन्म हो उसे द्विज कहते हैं। द्विज शब्द का प्रयोग हर उस मानव के लिये किया जाता है जो एक बार पशु के रुप में माता के गर्भ से जन्म लेता है और फिर बड़ा पर अच्छे संस्कार प्राप्त करके मानव कल्याण हेतु कार्य करने का संकल्प लेता है।
काशी से लौटने के बाद बालक श्रीराम ने अपने लिए हवेली में एक कमरा निश्चित कर लिया। वहाँ वे जप ध्यान करते लेकिन संध्या वंदन के लिए खुले में जाते। यह खुलापन घर की छत पर होता या गाँव के बाहर बने शिवालय में। अपने खेत में वटवृक्ष के नीचे भी वे संध्या वंदन के लिए जाते थे। पुत्र को जप ध्यान में इतना नियमित और तन्मय देख कर पिताश्री बहुत प्रसन्न होते थे। वे कहते श्रीराम अपना ब्राह्मण होना सार्थक करेगा। अपने आपको ही नहीं पूरे कुल को और गायत्री उपासकों को धन्य बनायेगा। पिताश्री जब ‘ब्राह्मण’ कहते थे तो उनका आशय इस नाम के किसी कुल या जाति में जन्म लेने वाले व्यक्ति से नहीं था। सीधे सादे शब्दों में वह कहते थे,ब्राह्मण वोह है जिसका आचार शुद्ध हो । जो ब्रह्म को जानने और पाने के लिए अपने आपको तपा रहा हो वही ब्राह्मण है।
शेष अगले लेख में :
हम अपनी पूरी श्रद्धा और समर्था से इस ज्ञानप्रसाद को आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं, अगर अनजाने में कोई भी त्रुटि रह गयी हो तो हम क्षमाप्रार्थी हैं।
आज की 24 आहुति संकल्प सूची :
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Gold medalists -Arun Verma and Sawinder Kumar
Total comments -715 ,
Total winners-18
आज की संकल्प सूची में 18 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है। अरुण जी और सरविन्द भाई साहिब दोनों ही गोल्ड मैडल से सम्मानित किये जाते हैं।
(1)अशोक तिवारी-25,(2) लक्मण विश्वकर्मा-25 ,(3)अरुण वर्मा-67,(4 ) सरविन्द कुमार-67 ,(5) सुजाता उपाध्याय-26,(6)राजकुमारी कौरव-25,(7) सुमन लता-24 ,(8 ) रेणु श्रीवास्तव-27 ,(9 )निशा भरद्वाज -28,(10 )संध्या कुमार-28,(11 )पूनम कुमारी-32 ,(12 ) प्रेम शीला मिश्रा-30,(13 ) प्रेरणा कुमारी-40 ,(14 ) नीरा त्रिखा-29,(15) राधा त्रिखा-25,(16 )विदुषी बंता-26,(17)कुमोदनी गौराहा-29,(18) साधना सिंह-33
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव, धन्यवाद।