वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

क्या ईश्वर सच में न्यायी और दयालु है ?

14 सितम्बर 2022 का ज्ञानप्रसाद

प्रतक्ष्यवाद के आधुनिक युग में तो ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्न लगे हुए हैं तो ईश्वर  के दयालु और न्यायी होने की बात कौन समझेगा। आइये हम सब इक्क्ठे होकर परम पूज्य गुरुदेव के साहित्य, पंडित लीलापत शर्मा  जी के प्रश्न, हमारे स्वयं के विचार और आप सबके कमैंट्स के माध्यम से ईश्वर के न्याय और दयालुता पर brainstorming चर्चा करें। 

वर्तमान  ज्ञानप्रसाद श्रृंखला का आधार पंडित लीलापत शर्मा जी की पुस्तक  “युगऋषि का अध्यात्म,युगऋषि की वाणी में” है। इस पुस्तक पर आधारित आज तक  जितने भी  लेख आपके समक्ष प्रस्तुत किये हैं इतने  रोचक और शिक्षाप्रद है कि इन्हें   बार-बार पढ़ने से भी दिल नहीं भरता।

तो चलते हैं आज के ज्ञानप्रसाद की ओर।

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पंडित जी बताते हैं कि हम पूज्य गुरुदेव की सेवा का अवसर हमेशा तलाश करते रहते थे लेकिन पूज्यवर अपना सारा काम स्वयं ही करते रहते थे। हम यही सोचते कि कभी गुरुदेव हमें एक गिलास पानी पिलाने का आदेश दे दें तो हमारा जीवन धन्य हो जाए। क्षेत्र में एक बार पूज्य गुरुदेव को बुखार  हो गया। गुरुदेव खाना नहीं खा रहे थे, यह सोचकर हमने एक गिलास मौसम्मी का रस निकालकर गुरुदेव के सामने कर दिया। गुरुदेव ने पानी समझकर जैसे ही एक घूँट  पिया तो समझ गए कि यह जूस है। मुझ पर बहुत बिगड़े, कहने लगे, “मुझे जूस पिलाएगा। मेरे यहाँ मेरे बच्चे अच्छी-अच्छी नौकरियाँ छोड़कर आए हैं, उन्हें मैं रूखी-सूखी रोटियाँ खिलाता हूँ और तू मुझे मौसम्मी  का जूस पिलाएगा। पूज्य गुरुदेव ने गले में उँगली डालकर रस वापस निकाल दिया। हमने मन ही मन उस महान गुरु सत्ता को प्रणाम किया। 

बुखार की स्थिति में भी पूज्यवर ने प्रवचन किया। प्रवचन में हम उनके सामने बैठे बड़े ध्यान से उनकी अमृत वाणी का रसपान कर रहे थे। न मालूम पूज्यवर को यह कैसे मालूम हो गया और वे आज प्रवचन में हमारी ही समस्या का समाधान करने लगे।

पूज्यवर ने बताया कि भगवान माँगने वालों को देते  तो हैं  लेकिन पात्रता को देख लेते हैं । ईश्वर द्वारा स्थापित किया हुआ कर्मफल का सिद्धांत अटल है। ईश्वर अच्छे कर्मों का फल लाभ के रूप में और बुरे कर्मों का फल हानि के रूप में देते हैं । आज की जो भी परिस्थितियाँ हैं, वे एकदम  ही उत्पन्न नहीं हो गई हैं, वे सब पूर्व में किए गए प्रयत्नों का ही परिणाम हैं। ईश्वर दयालु  भी हैं  और न्यायी भी। कोई भी व्यक्ति एक साथ दयालु और न्यायी कैसे हो सकता है ? ईश्वर न्याय करते हैं  यही उनकी  महान दयालुता है। ईश्वर का एक नाम नियम भी है। सर्वशक्तिमान होने के बावजूद ईश्वर भी सब कुछ करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। वह नियमों में बंधे हैं। वह सबसे बड़े  न्यायाधीश तो हैं लेकिन उन्हें भी  यह छूट नहीं है कि वह किसी को कोई  भी दंड दे दें । ईश्वर दयालु इस दृष्टि से हैं  कि जब वह देखते हैं कि कोई प्राणी अपने दुष्कर्मों के दंड स्वरूप दुःख भोग रहा है, उसने इसे भलीभाँति समझकर मन ही मन प्रायश्चित कर लिया है, अपना रास्ता दुष्कर्मों से सत्कर्मों की ओर मोड़  लिया है तो वह दयालु  होने के कारण उस प्राणी  पर कृपा दृष्टि डालते  हैं  और उसके दंड को कम कर देते हैं । 

ईश्वर की दयालुता और न्याय के लिए इसी तरह का एक और उदहारण यह भी हो सकता हैं कि कोई  व्यक्ति अपने पूर्व सत्कर्मों के पुरस्कार स्वरूप सुख भोग रहा है लेकिन भौतिक सुखों के नशे  में वह ईश्वर के न्याय को भूल जाता है और दुष्कर्मों की ओर मुड़ जाता है। इस स्थिति में ईश्वर ऐसे व्यक्ति के  सत्कर्मों के पुरस्कार को कम करके भौतिक साधनों की प्रचुरता होते हए भी उसे कष्टमय जीवन व्यतीत करने को विवश करते हैं। ऐसा करके ईश्वर अपने न्यायशील स्वरूप का आभास कराने का प्रयास कराते हैं ताकि मनुष्य यह समझ सके कि ईश्वर न्यायी के साथ-साथ  दयालु और कठोर भी हैं। सत्कर्मी के साथ दया और दुष्कर्मी के साथ कठोरता, यह ईश्वर का स्वभाव है, यही उनकी  व्यवस्था है।

इतिहास ऐसे उदाहरणों से, तथ्यों से भरा पड़ा है। इतिहास की तो बात ही छोड़ें हमारे आस पास ही, गली- मुहल्ले में ही ईश्वर का न्याय और दयालुता को दर्शाते  कितने ही विवरण देखने को मिल जायेंगें लेकिन हम विश्वास करने को राज़ी नहीं होते। इसका कारण केवल एक ही हो सकता है कि यह किसी और के साथ घटित हो रहा होता है। अपने साथ घटित होते ही हमें तुरंत ईश्वर भी याद आ जाते हैं ,मंदिर भी याद आ जाते हैं, गायत्री मन्त्र  ,महामृत्युंजय मन्त्र ,दान-पुण्य, अनुष्ठान आदि न जाने क्या-क्या ……… यह इस मानव की सबसे बड़ी मूर्खता है और स्वार्थ है। ईश्वर के साथ भी सौदेबाज़ी करता है। कबीर जी अपने दोहे के द्वारा सदियों से समझाते आ रहे हैं कि

“ दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय। भावार्थ: दुःख में हर इंसान ईश्वर को याद करता है लेकिन सुख में सब ईश्वर को भूल जाते हैं। अगर सुख में भी ईश्वर को याद करो तो दुःख कभी आएगा ही नहीं।” 

लेकिन हम हैं कि ईश्वर से भी गारंटी मांगते हैं कि अगर हम ईश्वर को याद करेंगें तो क्या गारंटी है कि हमें कोई  दुःख छू ही नहीं पायेगा। हम बहुत बड़े पढ़े-लिखे जी ठहरे, तर्क-कुतर्क  तो हमारी रगों में बसा पड़ा है। 

यही है ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के एक-एक सदस्य का परम कर्तव्य, आज के मानव को reality से जोड़ना, घर घर में परम पूज्य गुरुदेव के दिव्य आलोक को जागृत करना, अन्धकार से निकाल कर  प्रकाश का मार्ग दिखाना। जुलाई 2022 को University of Waterloo, Canada  में आदरणीय चिन्मय पंड्या जी ने अपने 1 घंटे का उद्बोधन समाप्त किया और प्रश्नोत्तर सेक्शन में एक माँ ने अपने बेटे के बारे में, जो उनके साथ ही उस आयोजन में आया हुआ था,प्रश्न  किया। प्रश्न  था “ मेरा बेटा प्रतिदिन 2 माला गायत्री मन्त्र की करता है, मैं उसे और अधिक करने को कहती हूँ लेकिन वह मुझसे कहता है मैं नहीं करूंगा ,इससे क्या लाभ मिलेगा।” चिन्मय जी ने इसका उत्तर देते हुए कहा था कि आज प्रतक्ष्यवाद का समय है ,इंस्टेंट का समय है, सभी को व्हाट्सप्प के  मैसेज की भांति इंस्टेंट रिप्लाई चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं।  परम पूज्य गुरुदेव का उदाहरण कोई सदियों पुराना तो नहीं है। समय, श्रद्धा ,समर्पण ,विश्वास आदि सभी साथ में मिलें तो ही परिणाम देखे जा सकते हैं। जिस महान विभूति पंडित लीलापत शर्मा जी का चर्चा आजकल के लेखों का विषय है, उनको समझना,अंतर्मन में ढालना ही इस दिशा का सबसे बड़ा ingradient है। 

आइये पंडित जी और गुरुदेव के बीच चल रही अतिरोचक प्रश्नोत्तरी की ओर आगे  बढ़ते हैं । पंडित जी स्वयं इस बात को बहुत बार कह चुके हैं कि मैं बहुत ही अड़ियल था, मुझे किसी भी बात पर आसानी से विश्वास नहीं होता था और परम पूज्य गुरुदेव को इस बात का पता था। 

पंडित जी को ईश्वर के न्याय के बारे में विश्वास दिलाने के लिए पूज्यवर ने एक उदाहरण देकर समझाया। गुरुदेव बताते हैं कि  एक व्यक्ति एक संत के पास आया और बोला कि प्रभु मैंने आज मंदिर में देखा कि एक सज्जन व्यक्ति मंदिर में आया तो उसे बड़े ही ज़ोर  से ठोकर लगी और उसके पैर में चोट लग गई। थोड़ी देर में एक दुष्ट व्यक्ति मंदिर में आया और उसे मंदिर में दस हजार के नोटों का बंडल मिल गया। दुष्ट व्यक्ति नोटों का बंडल  लेकर प्रसन्नता के साथ चला गया। यह कैसा ईश्वर का न्याय हुआ? संत ने उत्तर दिया कि बेटा ! जिस सज्जन  व्यक्ति की बात तुम कर रहे हो, उसके पूर्व कर्म इतने खराब थे कि उसका पैर ही कट जाना चाहिए था लेकिन उसने अपना रास्ता बदल कर सत्कर्मों की ओर लगा दिया है, इसलिए उसका दंड केवल ठोकर से ही पूरा हो गया। जिस दुष्ट व्यक्ति की बात तुम कर रहे हो उस व्यक्ति के कर्म तो ऐसे थे कि उसे किसी राज्य का स्वामी होना चाहिए था लेकिन दुष्कर्मों की ओर प्रवृत्त होने के कारण उसे दस हजार रुपयों में ही संतोष करना पड़ा।

यही है “कर्म की थ्योरी, जिसे हमें हर समय याद रखना चाहिए” 

पंडित जी बताते हैं : परम पूज्य गुरुदेव ने हमारे मन में उपजी शंका स्वयं प्रश्न के रूप में रखी। कहने लगे-“कुछ लोग पूछ सकते हैं कि ईश्वर का न्याय बहुत विलंब से क्यों होता है? यदि चोरी करने वाले का हाथ तुरंत कट गया होता तो लोग चोरी करना ही छोड़ देते। कुदृष्टि डालने वाले की आँखें तुरंत अंधी हो गयी होती तो लोग कुदृष्टि डालना छोड़ गए होते। झूठ बोलते ही यदि व्यक्ति गूंगा हो गया होता तो लोग झूठ बोलना छोड़ गए होते। ईश्वर के न्याय में इतना विलंब हो जाता है कि कभी के किए हुए कर्म का फल कभी भी  मिल सकता है तो ईश्वर के न्यायी होने में शंका होती है।” 

इस शंका का समाधान करते हुए पूज्यवर बोले: “समाज की सुव्यवस्था बनाने के लिए समस्त मर्यादाएँ मनुष्य पर ही लगाई गई हैं। मनुष्य परमेश्वर का राजकुमार है, युवराज है, अत: उसकी गरिमा को बनाए रखने के लिए ईश्वर उसे सुधरने, सँवरने का अवसर बार-बार प्रदान करते हैं । दुष्कर्मों से बचने और सत्कर्मों की ओर प्रेरित होने के लिए उसने मनुष्य को बुद्धि-विवेक दिया है। जब ईश्वर ने मनुष्य को  इतनी विशेषताएँ और अनुदान प्रदान किए हैं तो ईश्वर हमसे आशा भी रखते हैं कि हम उन अनुदानों का उपयोग कर दुष्कर्मों के परिणामों को समझें और उनसे बचें। यह तो Rights and Responsibilities की बात है, अगर हम ईश्वर के अनुदानों पर हक़ जताते  हैं  तो हमारी कुछ ज़िम्मेदारियाँ भी तो हैं। दुष्कर्मों का दंड तुरंत देने से ईश्वर की महान दयालुता पर कलंक लगता है। ईश्वर सद्गुणों का समुच्चय है, अतः दयालुता के सदगुण से ही वह वंचित क्यों रहे? इसी कारण मनुष्य को पुनः-पुनः सँभलने का अवसर प्रदान कर ईश्वर ने अपनी दयालुता का ही परिचय दिया है। अगर मनुष्य  यह चाहे कि हम ईश्वर के लिए कुछ न करें, ईश्वर ही हमारे लिए सब कुछ करते रहें तो  यह संभव नहीं है। बचपन से रटते आ रहे हैं -God helps those who help themselves”

परमात्मा अपने युवराज मनुष्य को कृतघ्न नहीं कृतज्ञ बनाना चाहते हैं । जब परमात्मा ने कृपा करके हमें मनुष्य जन्म दिया है तो हमें भी परमात्मा के युवराज होने के कारण उनकी  मर्यादा और गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने में अपनी सारी प्रतिभा और योग्यता लगा देनी चाहिए। ईश्वर  किसी को कुछ देने से पहले यह देखते हैं  कि इसने मेरे लिए क्या दिया है। जिसने ईश्वर  के लिए कुछ नहीं दिया,ईश्वर  उसे कुछ भी नहीं दे सकते हैं,चाहे वह उनका  मित्र, सखा, पिता अथवा माता ही क्यों न हो। गरीब- अमीर सब पर यही नियम  लागू होता है। ईश्वर के दरबार में  कोई सिफारिश नहीं चलती। 

इस वार्ता को हम अगले लेख तक स्थगित करने की आज्ञा याचना करते हैं और कामना करते हैं कि हमारे अन्य लेखों की भांति इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान भी आपको ऊर्जावान बनाएगा। 

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आज की 24 आहुति संकल्प सूची :

आज की संकल्प सूची में 12   सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है। सरविन्द जी 55  पॉइंट्स प्राप्त कर गोल्ड मैडल से सम्मानित किये जाते  हैं। 

(1 )अरुण वर्मा- 51,(2) संध्या कुमार-28 ,(3 )सरविन्द  कुमार -55 ,(4) सुमन लता-25 ,(5 )सुजाता उपाध्याय-24 ,(7) (6 )रेणु श्रीवास्तव-29,(7 )विदुषी बंता-29 ,(8 )प्रेरणा कुमारी-32 ,(9 ) प्रेमशीला मिश्रा-26, (10)राधा त्रिखा-25, (11 )कुमोदिनी गौरहा-26, (12)प्रशांत सिंह-24

सभी को  हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई।  सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय  के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव,  धन्यवाद।

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