वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

इष्ट का अर्थ है जीवन का लक्ष्य

12 सितम्बर 2022 का ज्ञानप्रसाद
सप्ताह के प्रथम दिन, सोमवार को, एक दिन के अवकाश के उपरांत हम अपने परिजनों से इस अमृतवेला में आज का ज्ञानप्रसाद लेकर उपस्थित हुए हैं। हमारे परिजन पूर्ण समर्पण के साथ आज के ज्ञानप्रसाद की प्रतीक्षा कर रहे होंगें, करें भी क्यों न, गुरुदेव की अमृतवाणी पर आधारित यह सभी लेख हमारे परिजनों की बैटरी जो चार्ज करते हैं, यह charged बैटरी उन्हें दिनभर ऊर्जावान बनाये रखती है। हमें यह तो मालूम नहीं कि हमारे अंदर कोई भी प्रतिभा है कि लेकिन हम अपनेआप को बहुत ही सौभाग्यशाली मानते हैं कि गुरुदेव ने हमें इस काबिल समझा और हमारे सहकर्मियों ने हमारे प्रयास को सफल बनाने के लिए पूर्ण सहयोग दिया।
इन्ही शब्दों से आज का ज्ञानप्रसाद आरम्भ करते है जिसका आधार पंडित लीलापत शर्मा जी की पुस्तक “युगऋषि का अध्यात्म,युगऋषि की वाणी में” है। इस पुस्तक पर आधारित आजतक जितने भी लेख आपके समक्ष प्रस्तुत किये हैं इतने रोचक और शिक्षाप्रद है कि इन्हे बार-बार पढ़ने से भी दिल नहीं भरता। इसी धारणा के साथ एक बार फिर इसी पुस्तक पर आधारित सप्ताह का प्रथम लेख आपके लिए प्रस्तुत है। इसमें आप हमारे विचार भी पढ़ पायेंगें। समर्पण को दर्शाता यह लेख अति दिव्य है ,ऐसा हम विश्वास करते हैं।
पिछले लेख में पंडित लीलापत शर्मा जी ने परम पूज्य गुरुदेव से इष्ट के बारे में प्रश्न करते हुए पूछा था: कुछ लोग कहते है कि हमारे इष्ट भगवान शंकर हैं, कोई कहता है हमारा इष्ट हनुमान जी हैं और कोई अपना इष्ट भगवान कृष्ण को बताते हैं।
यह इष्ट क्या होता है ? क्या एक व्यक्ति का इष्ट एक ही हो सकता है यां किसी व्यक्ति के एक से अधिक इष्ट भी हो सकते ?
शब्द सीमा के काऱण इस विषय को वहीँ पर रोकना पड़ा था, तो बिना किसी विलम्ब के चलते हैं आज के अमृतपान की ओर।


परम पूज्य गुरुदेव ने इष्ट को जीवन लक्ष्य कहा है। आइये देखें इष्ट जीवन लक्ष्य कैसे है।
पूज्यवर बोले-बेटा,लोगों ने इष्ट का गलत अर्थ लगा लिया है। लोग यह देखते हैं कि हमारे घर में किस देवता की पूजा होती है। हमारे पिताजी-माताजी किस देवता की पूजा करते हैं अथवा कौन सा देवता लोगों की अधिक मनोकामनाएं पूरी करता रहता है, उसी को हम अपना इष्ट बना लेते हैं। इन्हीं आधारों पर हम अपने इष्ट का निर्धारण करते हैं लेकिन ऐसा है नहीं।
“इष्ट का अर्थ है-लक्ष्य,उद्देश्य,मंजिल।”
हमारे जीवन का जो लक्ष्य है वही हमारा इष्ट है। हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जिन गुणों की आवश्यकता हो,और वे गुण जिस देवता के हों उसी को अपना इष्ट बनाना चाहिए। वैसे तो सभी देवता सदगुणों के भण्डार हैं लेकिन हमें यह देखना होता है कि हमें अपने जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में किस देवता के गुण सहयोग कर सकते हैं। उस देवता की उपासना से वे सद्गुण हमारे अंदर आते चले जाएंगे और हमारा लक्ष्य सधता चला जाएगा। अपने इष्ट की उपासना से उसके सद्गुणों को अपने स्वभाव का अंग बनाने का प्रयास करना पड़ता है और जब ऐसा हो जाता है तो उपासना सफल हो जाती है, मनुष्य देवतुल्य हो जाता है, जो उपलब्धियाँ उपासना से हो सकती हैं वह हमें भी मिल जाती हैं अर्थात देवत्व की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रक्रिया में मानव एक साधारण मानव से महामानव और फिर देवमानव बन जाता है।
अगर हम इष्ट को इच्छा कहें तो शायद ग़लत न हो। आइये देखें कैसे।अगर हमारी इच्छा हो कि हम शिक्षा के क्षेत्र में सफल होना चाहते हैं तो माँ सरस्वती की आराधना करते हैं , विवेक की देवी माँ गायत्री की आराधना करते हैं। अगर हम बिज़नेस में सफल होना चाहते हैं तो धन की देवी माँ लक्ष्मी की पूजा की जाती है, अगर शौर्य-पराक्रम की बात आती है तो माँ काली, माँ शेरां वाली की आराधना की जाती है। “इच्छा आधारित इष्ट” का यह explanation केवल हमारा व्यक्तिगत है,इसमें कई तरह की deviations भी संभव हैं।
पंडित जी बता रहे हैं कि इतना कहकर पूज्य गुरुदेव खड़े हो गए और बोले-आज की बात समाप्त। हमने कहा-गुरुदेव, आपने तो हमारी आँखें खोल दी हैं। हम तो बड़े भ्रम में भटक गए थे। हम सोचने लगे कि हमें पूज्य गुरुदेव का सान्निध्य मिला, यह ईश्वर की कोई विशेष अनुकंपा ही है, वरना आजकल के धर्माचार्य इन बातों को कहाँ बताते हैं। वे तो व्रत, उपवास, दान, तीर्थयात्रा,दर्शन, कथा सुनने की ही बात करते हैं। धर्म और अध्यात्म के वास्तविक स्वरूप को पूज्यवर ने हमारे सामने रखा तो हमारी आँखें खुलीं की खुली रह गयीं। हमने उसी दिन से निश्चय कर लिया था कि अपना सारा जीवन “धर्म और अध्यात्म के इस वास्तविक स्वरूप” को जन-जन तक पहुँचाने में लगा देंगे। मन के परिष्कार (ब्रेन वाशिंग) का जो कार्य पूज्यवर ने किया, उसे इस मिशन की परंपरा बनाना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमारा चिंतन हमेशा ऐसा ही रहा है। पहले हम अपने दिमाग को साफ करें। धर्म और परमात्मा के असली स्वरूप को समझें और फिर धर्म के बिगड़े हुए स्वरूप के कारण कीचड़ में फंसे व्यक्तियों का मानस परिष्कार (ब्रेन वाशिंग) कर उन्हें बाहर निकालें। आज के धर्माचार्यों का एकमात्र लक्ष्य भी यही होना चाहिए, परंतु अत्यंत खेद की बात यह है कि आजकल धर्माचार्य कथा सुनने की फलश्रुतियाँ समझाकर, तीर्थ यात्राओं में धक्के खाने की बात कहकर, दान, स्तुति, स्तवन, प्रार्थना, परिक्रमा और प्रसाद चढ़ाने की फलश्रुतियाँ समझाकर जनमानस को, धर्म को तोड़ मरोड़ कर भटका रहे हैं।
बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि जिस देश के सात लाख गाँवों में अस्सी लाख साधु महात्मा हों, वह देश चिंतन और चरित्र की दृष्टि से इतना पिछड़ा रहे, यह साधु संतों के लिए शर्म की बात है। यह नंबर आज से कई वर्ष पुराने हैं, आज इनसे अधिक ही होंगें। यदि साधु संतों और ब्राह्मणों ने अपने कर्तव्य का पालन ईमानदारी के साथ किया होता, समाज को कर्मफल का सिद्धांत समझाया होता, तो यह देश पुनः धर्म के क्षेत्र में विश्वगुरु, संपदा के क्षेत्र में सोने की चिड़िया और राजनीति के क्षेत्र में चक्रवर्ती बन सकता था। आज समाज के पतन की पूरी जिम्मेदारी धर्माचार्यों पर आती है। समाज के पतन का कारण धर्माचार्यों का बिगाड़ा हुआ चिंतन ही है। यदि ईमानदारी से इस वर्ग ने अपनी जिम्मेदारी निभाई होती, तो जैसा समाज आज है वैसा नहीं हो सकता था। धर्माचार्यों को अपने बहुरूपियेपन को छोड़कर, अभिनय करना छोड़कर,लोकेषणा का तिरस्कार कर अपने महान दायित्व को समझना चाहिए।
आगे चलने से पूर्व आइये लोकेषणा पर संक्षिप्त सी चर्चा करें :
प्रत्येक मानव प्रायः तीन प्रकार की तृष्णाओ से घिरा होता है:-वित्तेषणा, पुत्रेष्णा, लोकेषणा। वित्तेषणा का अर्थ है धन प्राप्ति की इच्छा। प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनोपार्जन के लिए धन का अर्जन करने में लगा होता है,क्योकि कामनायें अनंत है और एक पूरी होने पर दूसरी कामना पैदा हो जाती है पर संतुष्टि नहीं मिलती। अतः मनुष्य वित्तेषणा के पीछे अपना सारा जीवन बेकार कर जाता है। पुत्रेष्णा का अर्थ है पुत्र प्राप्ति की इच्छा। हर मनुष्य अपने वंश वृद्धि के लिए पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखता है। यदि न हो तो वह अपने को अभागा मानता है और सारा जीवन इसी ग्लानि में बिता देता है। जिन्हें पुत्र प्राप्ति है वो सारा जीवन उसके लालन पालन और भरण पोषण की व्यवस्था में बिता देता है। यदि पुत्र किसी गलत आचरण में लिप्त हो गया तो जीवन आत्मग्लानि में बिता देता है। वर्तमान युग में आधुनिकरण ने कुछ-कुछ बदल तो दिया है लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। लोकेषणा का अर्थ होता है प्रसिद्धि। जब मनुष्य के पास पर्याप्त धन सम्पदा आ जाती है और उसे कुछ भी पाना शेष नहीं रहता, पुत्र पौत्र से भी घर आनंदित होता है तब उसे तीसरे प्रकार की तृष्णा अर्थात लोकेषणा ग्रसित करती रहती है। जब धन-सम्पदा और पुत्र-पौत्र से घर संपन्न हो जाता है तब उसे प्रसिद्धि की इच्छा होने लगती है कि कैसे भी हो लोग उसे जानें। इसके लिए वह अनेक प्रकार के यत्न करता है क़ि कैसे भी हो उसका समाज में मान सम्मान बढ़े। फिर वह थोड़े से सम्मान से भी गर्व का अनुभव करता है और कोई ज़रा भी ग़लत बात बोल दे तो अपना घोर अपमान समझता है। इस प्रकार इन तीन तृष्णाओं से मनुष्य घिरा होता है और भगवान् से विमुख होकर अपना जीवन व्यर्थ कर बैठता है। Competition करना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन इस mad race में ,मृगतृष्णा में, सब कुछ दाव पर लगा देना कोई समझदारी नहीं है। स्कूल टाइम से पढ़ते आये है Good, better, best लेकिन आज के युग की अंधी दौड़ को देखते हुए हमारी समझ तो यही कहती है “The Best is Never achieved’ क्योंकि बेस्ट का मापदंड आगे ही आगे बढ़ता जाता है, इसी रेस में जीवन के अंतिम पल दस्तक दे देते हैं।
अब आगे चलते हैं:
प्राचीन परंपरा के अनुरूप सारा समाज साधु-वेश का सम्मान करता है, उनकी बातें ध्यान से सुनता है। समाज की इस कमजोरी का लाभ उठाकर वे अपनी जेबें भरते रहते हैं, राजा महाराजाओं जैसा विलासिता पूर्ण जीवन जीते हैं, इससे बड़ी दुष्टता और निकृष्टता हो ही नहीं सकती। काश! उन्होंने समाज से प्राप्त सम्मान का सदुपयोग जनमानस का परिष्कार करने और स्वस्थ चिंतन, सदविवेक जाग्रत करने में किया होता तो राष्ट्र की परिस्थितियाँ बहुत सुखद होती और धर्माचार्यों को भी लोग अब से हज़ार गुना अधिक सम्मान देते। यदि धर्माचार्यों ने अपना रास्ता नहीं बदला तो आगे आने वाली विवेकवान पीढ़ी धर्म और अध्यात्म के नाम से घृणा करेगी। वह केवल उन्हीं तथ्यों पर विश्वास करेगी जो प्रामाणिक होंगे। अब धर्माचार्यों को भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों की प्रामाणिकता सिद्ध करनी होगी। इतिहास के उदाहरणों के साथ-साथ वर्तमान के प्रमाण देकर यह सिद्ध करना होगा कि देव संस्कृति के इन सूत्रों को जीवन में उतारने पर कोई घाटे में नहीं रहता है। ये सिद्धांत निश्चित ही मनुष्य को उत्कृष्ट जीवन की ओर ले जाते हैं तथा भौतिक सुख और आत्मिक आनंद दोनों की प्राप्ति इनसे संभव है।
यदि हम भौतिक सुखों से मुख मोड़ने की बात कहते रहे तो युवा पीढ़ी हमें सुनने को तैयार ही नहीं होगी। भौतिक साधनों का वास्तविक सुख आत्मोन्नति के साथ जुड़ा है। यह युवा पीढ़ी को समझाना होगा। प्रेम, दया, करुणा, सहानुभूति, सेवा, सहायता और समानता जैसे दैवीय गुणों से संपन्न व्यक्ति ही भौतिक सुखों को भोग सकेंगे अन्यथा ईर्ष्या, द्वेष, कटुता की दुष्प्रवृत्तियाँ भौतिक सुख भोगने वालों को कष्ट पहुँचाती रहेंगी। उनके सुखों में व्यवधान डालती रहेंगी अथवा सुखों का कभी भी अंत होने के भय से प्रताड़ित करती रहेंगी। प्रायः लोग देव स्थानों में अपने कष्ट-कठिनाइयों, समस्याओं का समाधान पाने के लिए मनौतियाँ मानने जाते हैं। विभिन्न स्थानों में जाली अथवा पेड़ों पर धागे बँधे होते हैं जो मनौतियाँ मनाने वालों द्वारा बाँधे गए होते हैं। हमने निश्चय किया कि अब जब भी अवसर मिलेगा तो पूज्यवर से इसी संबंध में चर्चा करने की प्रार्थना करेंगे।
दो शब्द:
हम सभी का जीवन शोक एवं हर्ष उल्लास का संगम है,जहाँ सुख है वहीँ पर दुःख भी है।ख़ुशी की बात है कि राम नारायण कौरव जी का कल जन्म दिन था, हम सब उन्हें अपनी हार्दिक शुभकामना प्रदान करते हैं।शोक की बात है कि विनीता पॉल जी की दीदी के 30 वर्षीय बेटे ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली, परिवार प्रत्येक सदस्य बहिन जी के साथ इस दुःख की घड़ी में शामिल है।
जय गुरुदेव


आज की 24 आहुति संकल्प सूची :
आज की संकल्प सूची में 6 सहकर्मियों ने संकल्प पूरा किया है। सविन्दर जी 35 पॉइंट्स प्राप्त कर गोल्ड मैडल से सम्मानित किये गए हैं।
(1 )संध्या कुमार-25,(2)सरविन्द कुमार -35,((3) सुमन लता-25,(4) कुमोदिनी गौरहा-24 ,(5) अरुण त्रिखा-24,(6)निशा भारद्वाज-24
सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हें हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव, धन्यवाद।

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