6 सितम्बर 2022 का ज्ञानप्रसाद
सप्ताह के दूसरे दिन, मंगलवार, मंगलवेला में, अमृतवेला में हम आज का ज्ञानप्रसाद लेकर उपस्थित हुए हैं। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास करते हैं कि हमारे परिजन पूर्ण समर्पण के साथ आज के ज्ञानप्रसाद की प्रतीक्षा कर रहे होंगें, करें भी क्यों न, गुरुदेव की अमृतवाणी पर आधारित यह सभी लेख हमारे परिजनों की बैटरी जो चार्ज करते हैं, यह charged बैटरी उन्हें दिन भर ऊर्जावान बनाये रखती है। हम अपनेआप को बहुत ही सौभाग्यशाली मानते हैं कि गुरुदेव ने हमें इस काबिल समझा और हमारे सहकर्मियों ने इस कार्य को सफल बनाने के लिए पूर्ण सहयोग दिया।
जब पूर्ण सहयोग की बात हो रही है तो क्यों न कल वाले सहयोग की बात करें जब हमने कमैंट्स- काउंटर कमैंट्स की प्रक्रिया को गतिशील बनाने का एक सुझाव दिया। उसी सुझाव का परिणाम है कि आज की कमैंट्स संख्या लगभग दोगुना हो गयी है। यह रिजल्ट केवल पहले दिन में ही देखने को मिला है।आशा करते हैं आने वाले दिनों में और भी improvement होगी। इस improvement का श्रेय हमारे सभी समर्पित परिजनों को जाता है। एक बार फिर से कह रहे हैं कि यह प्रक्रिया केवल नंबर लेने के लिए नहीं है, इसमें ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार (OGGP ) के प्रत्येक सदस्य की भागीदारी रजिस्टर हो रही है और एक आत्मिक शांति का आभास हो रहा है कि हम परम पूज्य गुरुदेव के मिशन में योगदान दे रहे हैं।
ज्ञानप्रसाद आरम्भ करने से पूर्व अपने सहकर्मियों की ओर से हमारी सबकी आदरणीय बहिन सुमनलता जी की बेटी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं जिनकी आज पुण्यतिथि है। बहिन जी की आज्ञा के बिना हम बेटी की पिक्चर शेयर नहीं कर रहे हैं।
तो आइये आरम्भ करें आज का ज्ञानप्रसाद।
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कल वाले लेख की भांति आज का ज्ञानप्रसाद भी “युगऋषि का अध्यात्म,युगऋषि की वाणी में” पुस्तक पर आधारित है। शीर्षक भी लगभग कल वाले लेख का ही है “ समर्पण से शिष्यत्व की प्राप्ति”, लगभग इसलिए कह रहे हैं कि इस लेख में समर्पण के इलावा इन्द्रिय संयम की बात भी है। इंद्रिय संयम एक ऐसा विषय है जिस पर जितनी बात की जाये कम है। कुछ समय पहले हमने इस विषय एक भारी भरकम लेख श्रृंखला ही लिख डाली थी।
पंडित लीलापत जी के शिष्यतत्व को तो हम सभी जानते हैं लेकिन गुरुदेव की चयन प्रक्रिया (selection process ) को शायद हम में से बहुत कम सहकर्मी ही जानते होंगें। शिविरों में परम पूज्य गुरुदेव के साथ जाना , गुरुदेव के साथ बार -बार संपर्क होने ,तपोभूमि में गुरुदेव माता जी के सानिध्य में समय बिताना, अगर इन सभी अवसरों को एक तरफ रख दिया जाए और केवल परम पूज्य गुरुदेव और पंडित जी बीच हुए पत्र व्यवहार पर ही concentrate किया जाए तो लगभग 6 वर्ष का लम्बा समय देखने को मिलता है। “पत्र पाथेय” नामक पुस्तक इस तथ्य की साक्षी है। 9 अगस्त 1961 से लेकर 10 अगस्त 1967 तक गुरुदेव द्वारा लिखा गया एक एक पत्र दिखा रहा है कि गुरुदेव ने पंडित जी को किस प्रकार जांचा ,परखा,तराशा और फिर कहीं जाकर उन्हें तपोभूमि का कार्यभार सौंप कर शांतिकुंज हरिद्वार के लिए प्रस्थान किया। इस पुस्तक के सभी 89 पत्रों का एक एक शब्द हमने ठीक उसी तरह पढ़ा है जैसे कोई आध्यात्मिक ग्रंथ हो, आपको भी समय मिले तो अवश्य पढ़ें। शिष्य-गुरु के समर्पण- शिष्यत्व को दर्शाता यह एक अद्भुत उदाहरण है।
शिविरों में गुरुदेव इंद्रिय निग्रह पर बहुत बल देते थे। वे इंद्रियों के दोष बताते थे कि इन दोषों के कारण किसको कितनी हानि उठानी पड़ती है।
1.आँखों का दोष :
परमपूज्य ने आँखों का दोष बताते हुए पतंगे का उदाहरण दिया। पतंगे में आँख का दोष होता है, उसे तो यह दिखाई ही नहीं देता कि दीपक की लौ में आग है और यह आग उसे भस्म कर देगी। उसे केवल दीपक की लौ ही दिखाई देती है जिसे देखकर वह जलकर मर जाता है। गुरुदेव बताते हैं कि हमें भी अपने “दृष्टि दोष” को ठीक करना चाहिए। कभी भी किसी की बहिन-बेटी को बुरी दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। अगर नारी बड़ी है तो माँ की दृष्टि से देखना चाहिए, बराबर की है तो बहिन की दृष्टि से और छोटी है तो बेटी की दृष्टि से देखना चाहिए। अर्जुन की सुंदरता पर मुग्ध होकर उर्वशी नामक अप्सरा ने अर्जुन से अपने जैसे पुत्र की कामना की तो अर्जुन ने कहा: देवी, पहली बात तो यह है कि यह कोई निश्चित नहीं कि पुत्र ही होगा, दूसरी बात है कि चलो मान ही लिया जाये कि पुत्र ही होगा, फिर भी यह निश्चित नहीं कि मेरे जैसा पुत्र ही हो। इसलिए उचित यही है कि आप मुझे ही अपना पुत्र मान लें। अर्जुन की इस “दृष्टि पवित्रता” के कारण ही वह महाभारत युद्ध के लिए स्वर्ग से शक्ति प्राप्त कर सका था।
गुरुदेव पंडित जी को बताते हैं: इसीलिए हमने गायत्री माता की मूर्ति एक छोटी सी कन्या जैसी बनाई है, जिसे देखकर हमारी दृष्टि पवित्र रहे। इस अभ्यास से हर लड़की में हमें गायत्री माता के दर्शन होते हैं। सच्चा अध्यात्मवादी आँखों से अपनी शक्ति को क्षीण नहीं करता है। हमें अपने आँखों के दोष को दूर करना चाहिए।
2.कान का दोष:
उसके उपरांत पूज्यवर ने पंडित जी कान का दोष बताया। हिरन इतनी तेजी से छलांग लगाता है कि तीर भी उसको बेध नहीं सकता, लेकिन तीर की सनसनाहट की आवाज सुनने के लिए हिरन थोड़ा रुकता है, तभी तीर उसके पेट में घुस जाता है और हिरन वहीं प्राण छोड़ देता है। शिकारी उसकी खाल उधेड़ देता है। कान के दोष के कारण ही हिरण को ऐसी दुर्गति होती है। गुरुदेव तो उन दिनों के रेफरन्स दे रहे हैं जब हमारे घरों में केवल रेडियो ही होते थे। हमारे माता पिता अश्लील एवं भद्दे गीत सुनने को मना करते थे। लेकिन आज तो स्थिति ऐसी है कि हर किसी के पास फ़ोन हैं, 5G जैसा high speed इंटरनेट है, कुछ सेकंड में ही सारी की सारी मूवी डाउनलोड हो जाती है, कोई पाबंदी नहीं है , सुनने की तो बात ही क्या देखने की भी पाबन्दी नहीं है। इस भयानक स्थिति में हम पर,आज की युवा पीढ़ी पर, किसका कण्ट्रोल है ? केवल अपनेआप का ! अगर कण्ट्रोल नहीं है तो चिंतन और चरित्र बिगड़ते देर नहीं लगती। भद्दे गीत ,अश्लील गीत सुनकर, देखकर आँख और कान के दोष के कारण कितनी हानि उठानी पड़ती है । गुरुदेव हमें सावधान करते हुए कहते हैं कि हमें इस दोष को दूर करने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए।
अक्सर जब इस तरह की चर्चा होती है तो हमारी युवा पीढ़ी पर सबसे पहले ऊँगली उठाई जाती है लेकिन यह सर्वथा उचित नहीं है। समस्त युवा पीढ़ी को दोषी ठहराना कोई ठीक बात नहीं है। आज के युग के साधनों का ठीक दिशा में प्रयोग करते हुए कितने ही युवक /युवतियां उच्च शिखर पर पहुंच चुकी हैं।
3.नाक का दोष।:
गुरुदेव ने नाक का दोष बताते हुए भंवरे का उदाहरण दिया। भंवरे में “नाक का दोष” होता है। वह सुगंध के लालच में कमल के फूल पर बैठ जाता है। शाम हो जाती है फिर भी सुगंध के लालच में बैठा ही रहता है। सूर्यास्त के साथ ही कमल का फूल बंद हो जाता है और भंवरा भी फूल में बंद हो जाता है। हाथी आता है,सूंड से कमल का फूल तोड़ता है और खा जाता है। इस प्रकार भंवरा हाथी के पेट में पहुँच जाता है। नाक के दोष के कारण ही भंवरे की ऐसी दुर्गति होती है! हर सुगंधित वस्तु अच्छी ही हो ऐसा नहीं होता। गंध के आकर्षण से बचना चाहिए। क्रीम, पाउडर, सुगंधित तेल विलासिता में आते हैं। हमें नाक के दोष को दूर करना चाहिए अन्यथा भंवरे जैसी दुर्गति हो सकती है।
4.जीभ का दोष :
गुरुदेव ने मुँह का, जीभ का दोष बताते हुए कहा: मछली जीभ के स्वाद के लिए आटे को खाती है। उसी के साथ काँटा भी उसके मुँह में फँस जाता है। मछली शिकारी की पकड़ में आ जाती है। यह पकड़ और मृत्यु जीभ के दोष के कारण ही होती है। जीभ के दोष के कारण, स्वाद के कारण मछली की कैसी दुर्गति हुई यह हमने देख ही लिया। स्वाद के वशीभूत हम भी अभक्ष्य भोजन करते हैं। मांस, मछली, शराब, बीड़ी, सिगरेट, गुटखा न जाने क्या-क्या खाते-पीते रहते हैं। जीभ से ही हम झूठ बोलते हैं, दूसरों को गिराने वाले शब्द कहते हैं, इससे हमारी क्या दुर्गति होती है यह हम स्वयं ही देखते हैं।
5.स्पर्श का दोष:
स्पर्श का बताते हुए पूज्य गुरुदेव हाथी का उदाहरण देते हैं। गुरुदेव बोले: बेटा! हाथी में स्पर्श का दोष होता है। इसी दोष के कारण वह शिकारी के चंगुल में फँस जाता है और पकड़ा जाता है। हाथी पकड़ने वाले जंगल में एक बड़ा सा गड्ढा खोदते हैं और उसमें एक सुंदर सी नकली हथिनी बनाकर खड़ी कर देते हैं। गड्ढे में उतरने को सीढ़ी होती है, जैसे ही हाथी उतरता है, सीढ़ी गिर जाती है। एक दो सप्ताह भूखा रहने से हाथी कमज़ोर हो जाता है, तब उसको निकालकर उससे बोझा ढोने का काम लेते हैं। हथिनी को स्पर्श करने के दोष के कारण हाथी की क्या दुर्गति हुई, इससे सभी को शिक्षा लेनी चाहिए।
अध्यात्मवादी को “स्पर्श दोष” से बचना चाहिए। हाथी की यह दुर्गति केवल एक इंद्रिय दोष (स्पर्श दोष) के कारण हुई, अंदाज़ा लगाइये जिस व्यक्ति में पाँचों इंद्रिय दोष हों तो उसकी क्या हालत होगी। अगर हम इंद्रियों का दुरुपयोग करते रहें और भजन, पूजन, कथा, स्नान, तीर्थ आदि का ढोंग भी रचाए रखें तो कोई लाभ नहीं है। अध्यात्म मंदिरों में घंटी बजाना नहीं बल्कि चरित्र निर्माण की प्रक्रिया है। इसीलिए परम पूज्य गुरुदेव बार- बार हमें चरित्र निर्माण ,व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण,देश निर्माण के उद्घोष बुलाकर सावधान तो करते ही हैं साथ में समाज के प्रति अपने उत्तरदाईत्व को भी याद करते हैं। प्रतिदिन यज्ञों में बोले गए जयघोष केवल बोलने और नारे लगाने के लिए नहीं हैं, उनको ह्रदय में उतरने की आवश्यकता है।
गुरुदेव ने बताया मनुष्य को दो इंद्रियाँ सबसे अधिक परेशान करती हैं। एक स्वादेंद्रिय और दूसरी जननेंद्रिय। जो व्यक्ति स्वादेंद्रिय को साध लेता है, उसके लिए अन्य इंद्रियों का संयम रखना आसान हो जाता है। स्वादेंद्रिय के संयम के लिए ही हम शिविरों में “पंचगव्य” पिलाते हैं जिसमें गाय के गोबर का रस, गौ मूत्र, दूध, दही, घी मिलाया जाता है। इसे पीकर मनुष्य अपनी स्वादेंद्रिय पर नियंत्रण रख सकता है। इसके साथ ही शिविरों में नमक और शक्कर छोड़ने पर जोर देते हैं। इससे इंद्रिय संयम का अभ्यास हो जाता है जो अध्यात्म का लाभ लेने के लिए बहुत आवश्यक है।
कामना करते हैं कि सुबह की मंगल वेला में आँख खुलते ही इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और यह ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे। हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। धन्यवाद् जय गुरुदेव।
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आज की 24 आहुति संकल्प सूची :
आज की संकल्प सूची में 10 सहकर्मी उत्तीर्ण हुए हैं। (1 )अरुण वर्मा -33 ,(2 ) सुमन लता-25, (3 )संध्या कुमार-27 , (4 ) सरविन्द कुमार -27, (5 ) लता गुप्ता-27, (6 )प्रेमशीला मिश्रा-26 ,(7 )निशा भारद्वाज-26 (8 ),राधा त्रिखा-26, (9 )प्रेरणा कुमारी -26 ,(10 )रेणु श्रीवास्तव -26
अगर नम्बरों को देखें तो अरुण वर्मा जी गोल्ड मेडलिस्ट हैं लेकिन बाकी 9 के श्रम को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता ,इसलिए सभी 10 समर्पित सहकर्मी गोल्ड मेडलिस्ट हैं । सभी को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनको हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव, धन्यवाद।
इस सूची में बार-बार उत्तीर्ण हो रहे सहकर्मी अमावस की काली रात में टिमटिमाते सितारों की भांति अंधकार में भटके हुए पथिक को राह दिखा रहे हैं। हमारा व्यक्तिगत आभार।