वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

क्या हमारा अतिदुर्लभ जीवन व्यर्थ जा रहा है ?  

23 अगस्त 2022 का ज्ञानप्रसाद

आज का ज्ञानप्रसाद जिसका आधार 1989 की अखंड ज्योति है, आरम्भ करने लिए हम अपने सहकर्मियों से बहुत ही नम्रतापूर्वक अनुमति चाहते हैं। यह अनुमति याचना इसलिए है कि सुबह की मंगल अमृतवेला में मृत्यु जैसे विषयों पर चर्चा करना उचित नहीं लगता, लेकिन जब हमारे सहकर्मी इस ज्ञानप्रसाद का कंटेंट देखेंगें तो हो सकता है उन्हें कुछ भी अनुचित न लगे। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार प्लेटफॉर्म पर प्रत्येक कंटेंट प्रकाशित करना हमारे लिए एक challenge का विषय होता है क्योंकि किसी भी कंटेंट का पसंद करना हमें बहुत ही ऊर्जा प्रदान करता है।

आज के विषय पर चर्चा करने से पहले हमें आधुनिक युग के Death Cafes  के बारे में बताना चाहिए था। सम्पूर्ण विश्व के 81 देशों में लगभग 15000 Death cafe का प्रचलन आधुनिकता का प्रमाण देता है। आज तो इतना ही लिखेंगें, किसी आने वाले लेख में चर्चा करेंगें कि इन Cafes में क्या होता है और  किसने इनका आरम्भ किया। भारत में भी ऐसे कई cafe हैं। 

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जन्म की भांति मृत्यु भी  निश्चित है। दोनों पर हमारा कोई भी कण्ट्रोल नहीं है। दोनों ही अटल हैं। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु तो निश्चित  ही है। मृत्यु के उपरांत स्वर्ग/ नरक के दरवाजों में प्रवेश करना पड़ता है। फिर पुनर्जन्म की प्रक्रिया, नयी काया धारण करते रहने का सिलसिला चलता रहता है। हम सभी जन्म-मृत्यु के सत्य को  स्वीकारते हैं और यह भी भलीभांति जानते हैं कि  भले-बुरे कर्मों का फल यदि इसी जन्म में न भुगता गया हो तो वह अगले जन्म में प्रकट एवं फलित होता है।

आश्चर्य इस बात का है कि जीवन के साथ गुथी हुई इस गहरी सच्चाई को हम लोग गम्भीरता से नहीं देखते और मृत्यु के  महायज्ञ की पूर्व तैयारी इस प्रकार नहीं करते जैसी हमें  करनी चाहिए। हाँ हम से बहुतों ने  जीवन बीमा स्कीमों में कई-कई वर्ष भारी  प्रीमियम दिए हैं और बताते फिरते हैं कि मृत्यु के लिए हमारी प्लानिंग तो बहुत ही strong है। लेकिन यह प्लानिंग तो हमारे परिवार के लिए है, न की हमारे लिए। 

हमने कभी इस बात  पर विचार ही नहीं किया कि एक दिन  हमारे सामने  इस संसार को छोड़ने की  भयंकर समस्या आयेगी, हमें शरीर छोड़ना पड़ेगा, हमें संसार से बिछुड़ना पड़ेगा  और अनिश्चितता के धरातल पर हवा में तैरते रहना पड़ेगा । किसी चीज़ को ignore करना बहुत बुरी बात है लेकिन उससे भी बुरी बात है किसी बात या तथ्य को भूलना। मृत्यु को भूल जाने का या ignore करने का ऐसा दुष्परिणाम सामने आता है जिसकी क्षतिपूर्ति आगे चलकर भी कभी पूरी नहीं हो सकती।

जीवन एक अनुपम सुयोग है। अन्य प्राणियों में से किसी की भी शारीरिक संरचना और मानसिक संगठन ऐसी उच्चकोटि की नहीं है, जिसे देखकर देवताओं का भी मन ललचाए और वे इसी के साथ जुड़े रहने में प्रसन्नता अनुभव करें और  इस काया को सुरदुर्लभ होने की मान प्रतिष्ठा मिले।

ऐसा शरीर खाने-पीने और प्रजनन  के कोल्हू में पिस्ते  हुए ही समाप्त हो जाय, कुछ महत्वपूर्ण न बन पड़े तो समझना चाहिए कि यह अतिदुर्लभ जन्म व्यर्थ ही चला गया। पेट और प्रजनन के लिए जीवित रहने वाले प्राणियों में मनुष्य की स्थिति तो सर्वोत्तम है और इस योग्य है कि महान उपलब्धि के अनुरूप अपनी कृतियों को भी ऐसी बना सके जिसे अभिनन्दनीय कहा जा सके, जिसे देखकर लोग अनुकरणीय और अभिवन्दनीय कहें और  उससे प्रेरणा प्राप्त करने का प्रयत्न करें। 

लेकिन अफ़सोस  ऐसा  होता नहीं।

मृत्यु  की चर्चा करने पर बुरा माना  जाता है।  जब भी हम किसी के साथ अपनी  मृत्यु की यां किसी और की मृत्यु का बात करते हैं तो उसे वहीँ पर रोक दिया जाता है। इस प्रकार की discussion  को अशुभ कहा जाता है। किसी के सम्मुख उसके मरण की कामना भर कर देना गाली देने से भी बुरा माना जाता है। रात के सपने में अपनी या अपने किसी प्रियजन की मृत्यु का दृश्य दीख पड़े तो उदासी छा जाती है और अक्सर समझा जाता है कि कुछ  अनिष्ट घटने  की आशंका है और उस आशंका से दिल धड़कने सा लगता है। आज जहाँ  इंटरनेट को   विकास और ज्ञानप्राप्ति का अद्भुत साधन समझा जाता है वहीँ इस तरह के सपनों के संभावित परिणाम और निवारण ढूंढने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। हमने तो इस तरह की situations भी देखी  हैं जहाँ ऐसे सपनों का प्रभाव एवं निवारण के लिए पंचांग का सहारा लिया गया है। क्या हम इतने निर्बल हो गए हैं कि हमारे subconscious mind में उठ रहे विचार (स्वपन) हमें डराने लगें। कभी इस विषय पर भी चर्चा करेंगें कि “स्वप्न आखिर होते क्या हैं”      

यह धारणा भी ग़लत है कि मृत्यु हर घड़ी सिर पर सवार रहे लेकिन इससे कहीं अधिक बुरा है कि उसे एक प्रकार से भुला ही दिया जाय। इतिहास गवाह है कि किसी तथ्य को भुला देने पर मनुष्य अहंकारी हो जाता है। उद्दण्डता और दुष्टता करने लगता है। हमारे द्वारा किये गए अच्छे-बुरे कर्मों का फल मिलना, ईश्वर के दरबार में पेश किए जाने की स्थिति और बुरे कर्मों के अनुसार दण्ड मिलने की यथार्थता इतनी धुंधली हो जाती है कि दंड का अस्तित्व ही एक प्रकार से आँखों से ओझल हो जाता है। वृत्रासुर, रावण, हिरण्यकश्यप आदि ने स्वेच्छामरण का वरदान प्राप्त कर लिया था और  इस वरदान के मिलते ही वे सभी  दुष्कर्मों पर उतारू हो गए। उनकी ऐसी धारणा  बन गयी कि जब मरना ही नहीं है तो फिर डर किस बात का? संसार वालों को डरा कर  या फुसला कर अपने वशवर्ती बना लेने की योग्यता तो अपने में है ही, फिर अनीति अपनाकर मन चाहे लाभ तत्काल प्राप्त कर लेने के अवसरों को हाथ से क्यों जाने दिया जाय? निरंकुश, निर्भय और निश्चिन्त व्यक्ति यदि अभिमानी  स्तर के हैं तो अपनी उद्दण्डता को चरम सीमा तक पहुँचाए बिना रहते नहीं। संसार के आतंकवादिओं  का इतिहास पढ़ने से विदित होता है कि उनकी कोई भी आवश्यकता अड़ी नहीं हुई थी, जिसके कारण वे अत्याचार एवं अपराधों के पहाड़ जमा कर लेने की बात सोचने पर प्रवृत्त होते। 

मृत्यु  को भुला देने से मनुष्य इस बात को भूल जाता है कि यह जीवन ही सब कुछ नहीं है। इसकी तुलना में कहीं अधिक लम्बे समय तक आत्मा को ऐसी स्थिति में रहना पड़ता है जहाँ सत्कर्मों के अतिरिक्त और कोई भी सहायक नहीं होता, ईश्वर भी नहीं क्योंकि ईश्वर कर्मों के आधार पर ही किसी का मान या तिरस्कार करते हैं। एक और बात जिससे  हमारे सहकर्मी भलीभांति परिचित हैं वह यह कि ईश्वर भी कर्म के सिद्धांत से बच नहीं पाए हैं   

मृत्यु को न भूलना इससे कम भयंकर नहीं है। मृत्यु के न भूलने से  सिर पर एक ऐसा भय समा जाता है, जो काल्पनिक नहीं वास्तविक होता है। ऐसे भय के कारण भावुक या यथार्थवादी हर  समय मौत के आगमन की संभावना देखते रहते हैं। मृत्यु  का कोई ठिकाना तो है  नहीं, वह बालक, युवक प्रौढ़ या वृद्ध का अन्तर तक नहीं करती और न ही उसके आगमन का कोई निश्चित/नियत  समय ही  है। ऐसी स्थिति  में उनका जीवन नीरस और भार लगने लगता है। हर समय  व्याकुलता बनी रहती है। स्वजन सम्बन्धी भी विराने और बिछुड़ने वाले लगते हैं। उत्साहपूर्वक काम करने का भी मन नहीं करता, विकास रुक सा जाता है और यह जीवन जिसे कभी अनुपम gift of God की संज्ञा दी गयी हो नीरस उदासीनता से भरपूर लगने लगता है। इस स्थिति में मनुष्य अपनेआप को मेले के यात्री जैसी स्थिति में समझता है। वह सोचता है कि अगर मैं मेला देखने आया हूँ तो किसी प्रयोजन में व्यर्थ सिर खपाना किस काम आएगा। ऐसी ही उदासीनता के वातावरण में राजा परीक्षित ने अपने राजपाट का कार्य छोड़ दिया था और कथा श्रवण करके सद्गति के एकाकी प्रयास में जुट गए थे। क्या यह जीवन जीने का सही तरीका है ,कदापि नहीं !

घर पर डाकुओं का आक्रमण होने के समाचार से दिल दहल सा  जाता है। यह  सूचना गलत भी हो सकती है और उनका आक्रमण निष्फल भी हो  सकता है किन्तु मृत्यु के बारे में तो कुछ नहीं कहा जा सकता कि उसका आक्रमण कब चढ़ दौड़े और देखते-देखते गरदन मरोड़ कर स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन कर दे। गम्भीरता पूर्वक यदि कोई मृत्यु की उपस्थिति निकटवर्ती अनुभव करने लगे तो उसकी स्थिति पागलों जैसी हो जाएगी। उससे कुछ भी करते धरते न बन पड़ेगा।

जब मृत्यु का स्मरण और विस्मरण दोनों ही अजीबोगरीब स्थितियां  उत्पन्न करते हैं, तो कौन सा  दृष्टिकोण अपनाया जाय जिससे सामान्य, स्वाभाविक और सही स्थिति बनी रहे। यह एक बहुत ही आवश्यक प्रश्न है।  

इस स्थिति में सबसे उत्तम दृष्टिकोण  है कि आत्मा को अमर माना जाय और मृत्यु को  को नया  कपड़ा बदलने जैसा अनुभव किया जाय। मृत्यु को अपनी सत्ता का अन्त न माना जाय परन्तु एक  लम्बी यात्रा के बीच पड़ने वाली धर्मशाला की तरह अपनी स्थिति का अनुभव किया जाय।  ऐसे विचारों  के फलस्वरूप दूरदर्शिता का उदय होता है। पिछले जन्मों में भुगती गई भ्रान्तियों की कठिनाइयाँ तथा परिस्थितियाँ याद आती हैं और मन  सोचता है कि उन बुरे दिनों की पुनरावृत्ति नहीं  होनी  चाहिए। इसलिए ऐसा एक भी ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए, जिसके कारण हेय परिस्थितियों में फिर से पिसना-पिलना पड़े। यह भय कर्तव्य पालन की प्रेरणा देता है ताकि उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना विनिर्मित होते ही चलने की सम्भावना स्पष्ट होती रहे।

मृत्यु के समय इस पंच भौतिक शरीर का ही अन्त होता है, किन्तु इसके बाद भी सूक्ष्म शरीर की सत्ता बनी रहती है। सूक्ष्म शरीर के साथ योग्यता, क्षमताएँ, आदतें एवं धारणाएँ सूक्ष्म शरीर के साथ जाती हैं और उन्हीं के साथ उलझ-सुलझ कर  जीवधारी स्वर्ग-नरक का सुखद-दुखद अनुभव करता रहता है। इसलिए सत्कर्मों  को निरंतर,अन्तिम समय तक जारी रखा जाय ताकि अगले जन्म में भी वह संचित सुसंस्कारिता साथ रहे और जन्म के साथ ही वे संस्कार एवं सुविधा साधना उपलब्ध हो सकें, जो सामान्यतया बहुत प्रयत्न करने पर बहुत दिन में हस्तगत होते हैं।

मृत्यु का संतुलित दृष्टिकोण :

मृत्यु  के सम्बन्ध में  यही सन्तुलित दृष्टिकोण सही है कि शरीर बदलते हैं, आत्मा नहीं मरती। मृत्यु पिछला आत्मिक उपार्जन भी साथ लेकर प्रयाण करती है। इस आधार पर हर कोई अपने इस लोक के साथ परलोक को भी उज्वल  बना सकता है। इसकी प्रेरणा आत्मा की अमरता वाले सिद्धान्त से ही मिलती है और वही सदा संतुलन भी बनाए रखती  है।

समापन

इन्ही शब्दों के साथ हम अपनी लेखनी को यहीं विराम देने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सुबह की मंगल वेला में आँख खुलते ही इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और यह ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे। हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। धन्यवाद् जय गुरुदेव।

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आज की 24 आहुति संकल्प सूची:

आज की संकल्प सूची में उत्तीर्ण हो रहे सभी सहकर्मी हमारी व्यक्तिगत  बधाई के पात्र है। (1 )अरुण कुमार वर्मा -41 ,(2 )सरविन्द कुमार- 37  ,(3) संध्या कुमार-25  ,(4  )प्रेरणा कुमारी-24   ने संकल्प पूर्ण किया है। अरुण वर्मा जी फिर से  गोल्ड मेडलिस्ट हैं। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय  के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनको हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। जय गुरुदेव,  धन्यवाद। 

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