15 अगस्त 2022 का ज्ञानप्रसाद- 75वें स्वाधीनता दिवस पर परम पूज्य गुरुदेव के कुछ संस्मरण।
आज का ज्ञानप्रसाद 75वें स्वाधीनता दिवस पर परम पूज्य गुरुदेव के कुछ संस्मरण दर्शा रहा है। यह संस्मरण सुप्रसिद्ध पुस्तक “चेतना की शिखर यात्रा 1” और “स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य” पर आधारित है। जब भी हम इन पुस्तकों को पढ़ते हैं तो मन करता है कि पढ़ते ही जाएँ और आपके लिए एक श्रृंखला इस विषय पर भी लिख दें लेकिन फिर विचार आता है कि ऐसा करने से जो संकल्प लिए हैं उनकी कड़ी न टूट जाए। आजकल वीडियोस का संकल्प लिया हुआ है लेकिन रक्षा बंधन और स्वाधीनता दिवस जैसे पावन उत्सवों को याद न करना अनुचित ही होगा।
कल वाले ज्ञानप्रसाद में हम एक बार फिर कनाडा में विकसित हो रहे शांतिवन आश्रम में वीडियो के माध्यम से चलेंगें। 11 मिनट की इस वीडियो में 108 कुंडीय महायज्ञ का संक्षिप्त विवरण होगा जिसमें फोटो और वीडियो संलग्न किये गए हैं। आपसे निवेदन है कि हैडफ़ोन लगाकर वीडियो का आनंद उठायें ताकि आप पहाड़ों की गूंज अनुभव कर सकें।
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सुप्रसिद्ध स्वाधीनता संग्राम सेनानी, राष्टसंत पं. गुरुदेव श्री शर्मा आचार्य उर्फ श्रीराम मत्त (वे राजनीति में इसी नाम से पुकारे जाते थे) का जन्म आगरा जिले के ग्राम-आँवलखेड़ा में 20 सितम्बर सन् 1911 में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ । उस समय आँवलखेड़ा, आगरा जिले के स्वाधीनता संग्राम का प्रमुख स्थान था । यों उनका परिवार क्षेत्र का प्रतिष्ठित पुरोहित-ब्राह्मण परम्परा का था, पर बालक श्रीराम प्रारम्भ से ही इस जातिगत अहंकार से ऊपर थे । इस मामले में वे कबीर से बहुत ही प्रभावित थे और यह दोहा उन पर बिल्कुल सही बैठता है : “जाति-पाँति पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।”
कबीर के प्रति निष्ठास्वरूप उन्होंने बाल्यावस्था में ही अपने गाँव में एक बुनताघर खोला था जहाँ गाँव के बच्चों को बुलाकर वे उन्हें बुनाई सिखाते थे। घर वालों के भारी विरोध के बावजूद उन्होंने अपने गाँव की एक वृद्ध हरिजन महिला के जीवित रहने तक स्वयं अपने हाथों से इलाज किया। अपने घर से ले जाकर भोजन भी कराते रहे । हरिजन सेवा और स्वदेशी आन्दोलन दोनों ही उन्हें पिताजी से विरासत में मिले थे।
सत्याग्रह उनके जीवन में कूट-कूट कर भरा था। घर वाले नहीं चाहते थे कि वे स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लें। कम उम्र में शादी हो गई थी, ससुराल वाले भी असहयोग ही करते थे । घर वालों ने तो एक तरह से उन पर सख्त पहरा भी बैठा दिया था, पर वे एक दिन पाखाने जाने के बहाने घर से लोटा लेकर निकले और निक्कर -बनियान में ही सीधे आगरा कांग्रेस स्वयंसेवक भर्ती दफ्तर में जाकर रुके। उनकी अन्त:प्रेरणा इतनी जबर्दस्त थी कि वे किसी भी प्रतिरोध के सामने कभी झुके नहीं।
आगरा जिले का स्वाधीनता संग्राम यों 1857 के गदर से प्रारम्भ हो गया था, जब आगरा के क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों के महत्वपूर्ण फौजी ठिकाने पर आक्रमण करने के लिए 30 किलोमीटर लम्बी यात्रा की थी। पाँच जुलाई को भयंकर युद्ध हुआ था । सुचेता नाम का यह गाँव फतेहपुर सीकरी मार्ग पर पड़ता है, जहाँ आज भी खुदाई में मिलने वाली शहीदों की हड्डियाँ इस जिले के गौरवपूर्ण स्वाधीनता संग्राम की याद दिलाती हैं।
1919 में रौलेट ऐक्ट आने के साथ ही यहाँ स्वाधीनता संग्राम के नये अध्याय की शुरुआत हुई।1923-24 में श्रीकृष्णदत्त पालीवाल जी के आ जाने और “सैनिक” अखबार का प्रकाशन प्रारम्भ हो जाने के साथ ही यहाँ कांग्रेस संगठित हई और इस जिले में व्यापक रूप से स्वाधीनता संग्राम प्रारम्भ हआ। परम पूज्य गुरुदेव के हृदय में स्वतंत्रता की आग तभी भड़क उठी थी, जब महात्मा गाँधी ने देशव्यापी दौरा किया और विद्यार्थियों से गुलामी की ज़ंजीरें मजबूत करने वाली अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के प्रति विद्रोह की आग भड़काई। गाँधी जी की अपील की जहाँ सारे देश में व्यापक प्रतिक्रिया हुई तो पूज्यवर भला उससे अछूते क्यों रहते ? वे तब तक प्राइमरी शिक्षा ही उत्तीर्ण कर सके थे। गुरुदेव ने स्कूली पढ़ाई से मुँह मोड़ लिया और घर पर रहकर ही संस्कृत भाषा, अपने भारतीय आर्ष ग्रंथ तथा विशेष रूप से महापुरुषों की जीवनियाँ और राजनेताओं की वक्तृताएँ पढ़ने में अभिरुचि लेने लगे । नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी किसी स्कूल में शिक्षा नहीं पाई थी, उनका ज्ञान स्व-उपार्जित था। परम पूज्य गुरुदेव की विद्या भी इसी कोटि की थी। बापू कहते थे, स्वाधीनता तभी परिपुष्ट होगी, जब राजनीति के साथ धर्मतंत्र से लोकशिक्षण का कार्य भी चले । उन्होंने अध्यात्म की शक्ति से ही इतना बड़ा महाभारत लड़ा था, उसी शक्ति को वे सर्वोपरि मानते थे, उसी में सामाजिक हित सन्निहित देखते थे। गाँधी जी ने इस कार्य के लिए परम पूज्य गुरुदेव को सर्वथा सुयोग्य पात्र के रूप में देखा। उन्हें इसी क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा दी। वे उनकी आज्ञा मानकर आगरा से मथुरा चले आये और साबरमती आश्रम की तरह का ही आश्रम “गायत्री तपोभूमि” बनाया और स्वतन्त्र प्रेस लगाकर अखण्ड ज्योति प्रकाशित करनी प्रारम्भ की, जो अब तक देश की प्राय: आठ भाषाओं में दस लाख से भी अधिक संख्या में प्रति माह छपती है। कांग्रेस राजसत्ता की उपलब्धियाँ एक ओर, और गुरुदेव की धर्मसत्ता की सेवायें और उपलब्धियाँ दूसरी ओर, दोनों की तुलना की जाय तो गुरुदेव का पलड़ा निश्चित रूप से भारी पड़ेगा। उसका सही मूल्यांकन आने वाला युग करेगा जैसे हम सब प्रतिदिन ऑनलाइन ज्ञानरथ प्लेटफॉर्म के माध्यम से कर रहे हैं।
ताम्र-पत्र भेंट (Award of Copper plaque)
वर्ष 1988 में स्व० प्रधानमंत्री श्री राजीव गान्धी ने सभी प्रान्तीय सरकारों से आग्रह किया कि वे पता लगायें, किन-किन स्वाधीनता संग्राम सेनानियों को अब तक सम्मानित नहीं किया गया। तब उत्तर-प्रदेश सरकार ने भी खोजबीन की और पाया कि एक कीर्तिमान सितारे को उन्होंने पहचाना तक नहीं, जिसने यथार्थ में राजसत्ता के लिए नहीं, सच्चे अर्थों में भारत की आज़ादी के लिए स्वाधीनता संग्राम लड़ा। 15 अगस्त 1988 को IAS माननीय श्री हरिश्चन्द्र जी, डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर सहारनपुर ने स्वयं शांतिकुंज हरिद्वार पहुँचकर गुरुदेव को विशिष्ट लोगों की उपस्थिति में ताम्रपत्र भेंट किया एवं स्वाधीनता संग्राम सेनानी प्रमाण पत्र व पेन्शन के अन्य परिपत्र प्रदान किए। पूज्य गुरुदेव ने सबका आभार माना, साथ ही उन्होंने तत्कालीन स्वाधीनता संग्राम सेनानी, सेक्रेटरी श्री अम्बिका प्रसाद मिश्रा जी को निम्नलिखित पत्र भी लिखा :
“आपकी दौड़-धूप सफल हुई । स्वतन्त्रता सेनानी पेन्शन पत्र आया है। हम दोनों (हम और हमारी धर्मपत्नी श्रीमती भगवती देवी शर्मा) को रोटी, कपड़ा और मकान की सुविधा यहाँ प्राप्त है । फिर अनुदान लेकर क्या करेंगे? हम लोग कहीं बाहर आते-जाते नहीं, ऐसी दशा में ” फ्री यात्रा पास” आदि की सुविधा भी अनावश्यक है। 401 रूपए की आजीवन पेंशन राशि है, इसे आप किसी सरकारी हरिजन सहायता कोष को समर्पित करा दें। यदि ऐसा कोई कानून न हो, तो मुख्यमंत्री राहत कोष में डाल दें।”।
शुभाकांक्षी
श्रीराम शर्मा आचार्य
स्वाधीनता संग्राम के इस महायोद्धा का महाप्रयाण 2 जून 1990 को शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में हुआ। “प्रखर प्रज्ञा” के रूप में उनकी समाधि बनाई गई है जो लाखों लोगों को राष्ट्र के पुनर्निर्माण की प्रेरणा देती रहती है। उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर 27 जून 1991 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में 1 रुपये का रंगीन डाक टिकट प्रसारित किया, जिसका विमोचन महामहिम डा शंकर दयाल शर्मा ने तालकटोरा स्टेडियम नई दिल्ली में किया। पहले ही दिन टिकटों की उतनी बिक्री हई, जितनी महात्मा गाँधी जी के सम्मान में निकाली गई टिकटों की भी नहीं हुई।
यह शब्द डाक विभाग के एक उच्च अधिकारी के हैं। उस दिन तत्कालीन भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश माननीय श्री रंगनाथ मिश्र तथा तत्कालीन उपराष्ट्रपति डा० शंकर दयाल शर्मा ने जो उद्गार व्यक्त किये, वह उनके स्वाधीनता संग्राम में योगदान का हृदयस्पर्शी वर्णन है
जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक ‘देशमणि’ में किया है।
पिछले वर्ष (2021) एक बार फिर माननीय रवि शंकर प्रसाद जी, केंद्रीय मंत्री ने युगतीर्थ शांतिकुंज की स्वर्ण जयंती पर एक और डाक टिकट रिलीज़ करके गायत्री परिवार का मान बढ़ाया है। ऐसे हैं हमारे गुरुदेव, नमन है ,नमन है और नमन है।
गुरुदेव,श्रीराम से श्रीराम मत्त कैसे बने
स्वतंत्रता संग्राम में एक दिन झंडा जलूस की तैयारियां चल रही थीं। 30 -35 युवकों की पुलिस के साथ बातचीत चल रही थी ,पुलिस उन्हें चुपचाप घर जाने को कह रही थी। पास ही खड़े युवक “गुरुदेव” बोले “हम उपद्रव नहीं करेंगें ,वैसे भी आज गंगा दशहरा है ,गंगा मैया आज के दिन शिवजी की जटाओं से धरती पर आयी थी, खुशी का दिन है, मना कर चले जायेंगें। पुलिस कर्मचारी ने कहा “ठीक है, जलूस वगैरह मत निकालना” युवकों ने हामी भरी। वहाँ इकट्ठे हुए स्वयंसेवकों में उत्साह की लहर दौड़ गई। तुरंत दो-दो की कतार बनने लगी। इस तेजी से कतार बनी कि जैसे पहले ही सब कुछ निश्चित रहा हो। कतार पूरी हुई। सबसे आगे गुरुदेव खड़े हुए। जुलूस आगे बढ़ने ही वाला था कि गुरुदेव ने फुर्ती से अपनी टोपी उतारी। उसमें छुपा कर रखा झंडा निकाला और दूसरे हाथ से कमीज़ में छुपाई हुई छड़ी खींच ली। पलक झपकते ही उस पर झंडा फहरा दिया। इसके बाद नारा लगाया ‘भारत माता की जय’, ‘वंदे मातरम्,’ ‘ऊँचा रहे तिरंगा प्यारा’ के उद्घोष होने थे कि पुलिस के जवान टूट पड़े। तड़ातड़ डंडे बरसाने लगे। मार पड़ती देख वहाँ आये युवकों में से कई भाग गए, कुछ को पुलिस वालों ने खींच कर अलग धकेल दिया।
गुरुदेव अपना झंडा लेकर वहीं अड़े रहे। पुलिस की मार का निशाना भी वही ज्यादा बने। मार खाते हुए वे नीचे गिर पड़े, लेकिन झंडे को नीचे नहीं गिरने दिया। जिस हाथ में उसे थाम रखा था उसे ऊँचा ही उठाये रखा। पुलिस ने पिटाई करते हुए उनके हाथ से झंडा छीनना चाहा । उन्होंने छड़ी को कसकर पकड़ रखा था। एक पुलिस वाले ने छड़ी वाले हाथ पर वार किया। हाथ काँपा तो गुरुदेव ने छड़ी को दाँत से पकड़ लिया। पुलिस वाले ने मुँह पर चोट की। लेकिन उसका भी कोई असर नहीं हुआ। मार खाते-खाते वे बेहोश हो गए लेकिन झंडा मुँह में ही फँसा रहा। एक सिपाही ने झटके से तिरंगा खींचा और वह फट कर उसके हाथ आ गया। जिस जगह गुरुदेव अचेत होकर गिरे थे, वहाँ पहले किसी ने पानी गिरा रखा था। पास ही गड्ढा था। पानी वहाँ जमा हो गया था और उससे कीचड़ मच गया था। गुरुदेव कीचड़ में सन गए। पुलिस झंडा जुलूस को तितर-बितर कर चली गई।
स्वयंसेवी दल के युवक पुलिस के चले जाने के बाद आए। उन्होंने गुरुदेव को कीचड़ से बाहर निकाला। घर ले गए। वहाँ उनका उपचार किया गया। चिकित्सक ने उन्हें होश में लाने के लिए मुँह में दवा डाली । उपचार में लगे लोग यह देख कर चकित हुए कि उनके दाँतों के बीच झंडे का एक हिस्सा फँसा हुआ है। कसकर जबड़ा बंद किए रहने के कारण यह हिस्सा अटका रह गया। इस घटना ने गुरुदेव की निष्ठा, दृढ़ता और शक्ति को अच्छी तरह सिद्ध कर दिया। चिकित्सक ने भी उनके स्वभाव पर टिप्पणी की और कहा कि यह युवक देशभक्ति के मद हैं सच में “मत्त” हैं ,उनका नाम श्रीराम मत्त लोकप्रिय हो गया ,यहाँ तक कि डॉक्टर भी उन्हें इसी नाम से पुकारने लगे।
इन्ही शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देते हैं और आप देखिये 24 आहुति संकल्प सूची। हर बार की तरह आज का लेख भी बहुत ध्यान से तैयार किया गया है, फिर भी अनजाने में हुई किसी भी गलती के लिए क्षमा प्रार्थी है। सूर्य की प्रथम किरण आपके जीवन को ऊर्जावान बनाये जिससे आप गुरुकार्य में और भी शक्ति उढ़ेल सकें।
आज की 24 आहुति संकल्प सूची में सरविन्द कुमार- 26,संध्या कुमार-26 और प्रेरणा कुमारी-24 ने संकल्प पूर्ण किया है और सभी गोल्ड मेडलिस्ट हैं। जय गुरुदेव