वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

जिज्ञासा हमारी धर्म-नौका की पतवार है

1 अगस्त 2022 का ज्ञानप्रसाद – जिज्ञासा हमारी धर्म-नौका की पतवार है

आज से हम एक बिल्कुल नवीन लेख श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। यह लेख श्रृंखला परम पूज्य गुरुदेव के सबसे प्रिय शिष्यों में से एक आदरणीय पंडित लीलपत शर्मा जी की पुस्तक “युगऋषि का अध्यात्म,युगऋषि की वाणी में ” पर आधारित है। ओरिजिनल पुस्तक की 2010 पुनरावृति (revised edition) पर आधारित यह सभी लेख बहुत ही दिव्य होने वाले हैं ,ऐसा हमें पूर्ण विश्वास है। 

हमारे समर्पित,सूझवान और शिक्षित  पाठक जानते हैं कि श्रीमद्भगवत गीता भगवान् कृष्ण और अर्जुन के बीच हुए संवाद का अति दिव्य संग्रह है  जिसे अंग्रेज़ी  में  “The Song by God” (Song- गीत और God-भगवत) कहा जाता है। ठीक  उसी प्रकार लीलापत जी की यह पुस्तक परम पूज्य गुरुदेव और पंडित जी के बीच हुए संवादों का ही  संग्रह है। 

जैसा कि हमारे सहकर्मी भलीभांति जानते हैं कि हमारी लेख श्रृंखला का आरम्भ अक्सर सोमवार ,सप्ताह के प्रथम दिन से  ही होता है (sometimes exceptions do happen and we are sorry for that) क्योंकि उस दिन हम सब एक दिन (रविवार) के अवकाश के बाद पूरी  एनर्जी से चार्ज होते हैं। 

हम अपने पाठकों को निवेदन करेंगें कि समय निकाल कर हमारे लेख अवश्य पढ़ा करें, औरों को पढ़ाया करें और अधिक से अधिक से अधिक लोगों में प्रचार किया करें ताकि इस प्रक्रिया से आप तो गुरुकृपा के भागीदार बनें। किसी भी  लेख को पढ़ने में 10-15 मिनट से अधिक समय नहीं लगता। पाठकों की  सुविधा के लिए हर लेख से पहले summary दी गयी होती है। अगर पूरा लेख पढ़ने में समय नहीं है तो summary तो अवश्य ही देख लें ,हो सकता है इसे ही देख कर आप पढ़ने के लिए आकर्षित हो जाएँ। 

एक निवेदन और  करना चाहेंगें कि सोमवार वाला लेख अवश्य ही पढ़ा करें, यह लेख आने वाली लेख श्रृंखला का सबसे महत्वपूर्ण लेख होता है। महत्व तो सभी लेखों का होता है लेकिन अगर आप पहले लेख को छोड़ कर बीच वाले लेख पढ़ते हैं तो कढ़ी टूटी सी लगती है,कनेक्शन बनाना शायद कठिन हो जाए।यह ठीक उसी तरह है जैसे टीचर के नया टॉपिक् आरम्भ करने के बाद विद्यार्थी कभी-कभी time-pass के लिए क्लास में टपक पड़ता है।   

तो आइये चलते हैं इस दिव्य पुस्तक की ओर।  जैसा हमने पहले लिखा है  कि यह पुस्तक परम पूज्य गुरुदेव और पंडित जी के संवादों का संग्रह है, तो उन पाठकों  के लिए यह पुस्तक और भी महत्व रखती  है जिन्होंने न तो गुरुदेव को देखा है और न ही लीलापत शर्मा जी को। हम इस पुस्तक का ध्यानपूर्वक अध्ययन करके,कठिन points  को समझकर, और फिर सरल करके एक रोचक सी  रेसिपी बना कर आपके समक्ष  प्रस्तुत करने के प्रयास करते हैं।

पुस्तक के पहले 3-4  पन्ने बहुत ही रोचक एवं पढ़ने योग्य हैं। पुस्तक का आरम्भ तपोभूमि मथुरा के 2010 के व्यवस्थापक के आत्म निवेदन के साथ होता है जिसमें उन्होंने  रामायण की चौपाई का वर्णन किया है। 

“हे इंद्र, तुम हमारे लिए गौओं को लाओ।” “दस सिर ताहि बीस भुज दंडा। रावन नाम वीर बरिबंडा॥”

हमारे धार्मिक साहित्य में इस प्रकार के कथन अनेक स्थानों पर पढ़ने में आते हैं। देवताओं के स्वामी, इंद्र  को गौएँ लाने के काम से क्या लेना देना? दस सिर वाला रावण किस मुँह से भोजन करता होगा, करवट लेकर कैसे सोता होगा? पंडित जी ने एक अबोध बालक की भांति परम पूज्य गुरुदेव से इस प्रकार के जिज्ञासा भरे प्रश्न  किये हैं। हमने अपने चैनल पर पंडित जी की वीडियो अपलोड की थी जिससे  अनुमान लगाया जा सकता है कि वह कितने सरल और अबोध व्यक्तित्व के मालिक थे। 

जब हमें किसी विषय के बारे में जानने की जिज्ञासा होती है तो ऐसे प्रश्नों का उठना स्वाभाविक होता है क्योंकि हम उस विषय को अपने अंतःकरण की एक clean slate पर उतारने का प्रयास करते हैं। यह स्थिति बिल्कुल एक अबोध शिशु की भांति होती है जिसे हर कोई बात जानने की जिज्ञासा रहती  है और वह  अबोध शिशु माता-पिता पर प्रश्नों की झड़ी लगाए रहता है। कई बार अभिभावक  उस छोटे से शिशु  के प्रश्नों के  उत्तर देते-देते थक भी जाते हैं और झुंझलाहट में शिशु को डांट भी देते हैं। लेकिन क्या यह स्थिति उचित है ? कदापि नहीं क्योंकि मेडिकल साइंस ने यह साबित किया है कि बच्चे के  विकास और सीखने की  सबसे महत्वपूर्ण आयु जन्म के एक वर्ष  से पांच वर्ष की उम्र तक है। बाल विकास के लिए  पहले पांच वर्ष  उसके स्वास्थ्य, भलाई और जीवन के समग्र विकास के साथ उसे कहाँ से कहाँ ले जाते हैं हमें अनुमान भी नहीं हो सकता। यही है encouragement की स्टेज,जो हर किसी के लिए महत्वपूर्ण है: हमारे लिए, आपके लिए, औरों के लिए  और कई औरों के लिए। 

लेकिन मालूम नहीं कि यां तो श्रद्धा की अधिकता रहती है या जिज्ञासा की कमी कि साधारण मनुष्य अक्सर प्रश्न करने से कतराता  है। बहुत ही  कम अभिभावक होंगें जो बच्चों के प्रश्नों का उत्तर देने में प्रसन्न होते होंगें, बहुत ही कम टीचर होते होंगें जो जिज्ञासु विद्यार्थी से प्रसन्न होते होंगें।आखिर कौन सिरदर्दी मोल लेना चाहता है। किसी  चौपाई का,दोहे का, शब्द का अर्थ समझ आये या न आये, क्या फर्क पड़ता है। अक्सर ऐसी धारणा बना ली जाती है। 

कई बार तो ऐसा भय बना दिया जाता है  कि  जिज्ञासा करने से ईश्वर नाराज़  हो जाएँगे और  हमारी श्रद्धा अस्थिर हो जाएगी। लेकिन हमारा अटूट  विश्वास है कि जब तक हमें गायत्री मन्त्र के एक-एक शब्द की, एक-एक अक्षर की समझ नहीं आती, उदाहरण नहीं दिए जाते और वह भी दैनिक जीवन से, गायत्री साधना का सफल होना तो दूर की बात है साधना में  मन ही नहीं लग सकता। यह  तो केवल मशीन की भांति माला फेर कर  संख्या गिनना ही हुआ।        

कारण जो भी हों, पर यह सुनिश्चित तथ्य है कि ईश्वर जिज्ञासु से कभी अप्रसन्न नहीं होते। अगर ऐसा होता तो इसी धर्म साहित्य में जिज्ञासुओं के प्रश्न और उनके समाधानों के उल्लेख नहीं मिलते। “जिज्ञासा से ही सत्य का बोध होता है।” भक्त को जिज्ञासु होना ही चाहिए तभी वह अपने मन की भ्रांतियों ( misconceptions)  के कुहरे को हटाकर ईश्वर के गुणों एवं सामर्थ्यो की झलक पा सकेगा और ईश्वर के प्रति अपनी मान्यताओं को सुदृढ़ कर अपने चिंतन और व्यवहार को सुधार पाएगा। जिज्ञासा हमारी धर्म-नौका की पतवार है जो ईश्वर की ओर हमारी यात्रा को मार्ग से विचलित हुए बिना पूरा कराती है।

हमारा संपूर्ण धर्म साहित्य ऐसे ही रूपकों और अलंकारों से युक्त भाषा में लिखा गया है। ऐसी भाषा में कहे गए प्रसंग जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं और कथानक को सरस व रोचक बनाते हैं। ऋषियों का उद्देश्य उन कथाओं को लिखने में मात्र मनोरंजन करना नहीं था अपितु अध्यात्म के, आत्मा-परमात्मा के, विज्ञान के रूखे नियमों व सिद्धांतों को सरस बनाकर समझाना था।

सत्य में नारायण विराजते हैं। यह नीरस सा वाक्य भागवत नियम होते हुए भी साधकों को सत्य का वरण करने की प्रेरणा नहीं दे पाता, लेकिन सत्यवादी हरिश्चंद्र की मार्मिक कथा यह बताती है कि सत्य मार्ग से विचलित करने वाली अनेक कठिन परिस्थितियाँ हरिश्चंद्र के जीवन में आयीं, पर सत्य के प्रति उनकी आस्था में कोई कमी नहीं आई। ऐसी कथा सुनकर, पढ़कर शिक्षित-अशिक्षित सभी की समझ में सत्य का महत्त्व आ जाता है और अपने स्वयं के जीवन को सत्य मार्ग पर चलाने की प्रेरणा होती है। कथा का महत्त्व बस इतना ही है। हरिश्चंद्र नाम के कोई राजा सचमुच हुए हों, चाहे न हुए हों, इस बात से सत्य साधक का भला क्या हित होने वाला है? हित तो इस बात में है कि उसके अंत:करण में यह नियम समा जाए कि सत्य में नारायण का वास सदा सर्वदा रहता है। हरिश्चंद्र की इस कथा को बार-बार पढ़ने से, हरिश्चंद्र के चित्र का नमन पूजन करने से हमें भी ईश्वर के दर्शन हो जाएँगे अथवा सत्य का पालन करने से होंगे, यह बात हमें विचारना चाहिए। कथा का श्रवणवाचन या चित्र का नमन-पूजन प्रेरणा भर दे सकता है, ईश्वर दर्शन जैसा परिणाम नहीं दे सकता। यह प्रतीक अध्यात्म है। ईश्वर दर्शन जैसा कल्याणकारी परिणाम तो प्रेरणा को कार्यरूप में बदल देने से ही प्राप्त हो सकता है। यह सार्थक अध्यात्म है। गंगा स्नान पवित्रता की प्रेरणा देने वाला प्रतीक अध्यात्म है, चिंतन और व्यवहार में पवित्रता को साधे रखना सार्थक अध्यात्म है। इसी प्रकार ईश्वर के विचित्र से लगने वाले रूपों के वर्णन हमारे धर्म साहित्य में हैं। सिर से निकलती गंगा, मस्तक पर चंद्रमा, तीन नेत्र वाले शंकर, चार हाथ वाले विष्णु, चार सिर वाले ब्रह्मा जी, आठ भुजा वाली माता दुर्गा आदि अनेक भगवत स्वरूप पुराणों की कथा में दर्शाए गए हैं। ईश्वर को इन विचित्र स्वरूपों में प्रस्तुत करने का कारण भी वही है। ईश्वर के अनंत गुण व सामर्थ्य हैं। इन गुणों को रोचक ढंग से दर्शाने के लिए ही ऋषियों ने इन विचित्र स्वरूपों का निर्माण किया है। “एको ब्रह्म बहुधा वदन्ति” उक्ति के अनुसार एक ईश्वर की असंख्य विभूतियों को दर्शाने के लिए ही देवी-देवताओं के असंख्य स्वरूपों का निर्माण ऋषियों ने किया है। गंगा पवित्रता की, चंद्रमा शीतलता का, तीसरा नेत्र (third eye) जाग्रत विवेक बुद्धि का प्रतीक है। इन लक्ष्यों को जो सदा याद रखे और व्यवहार में लाए, वही सच्चा अध्यात्मवादी है। सच्चा अध्यात्मवादी बन पाने के लिए पवित्र व शीतल मन और जाग्रत विवेक बुद्धि का लक्ष्य याद रखना और व्यवहार में लाना आवश्यक है, पर साधक इन नियमों को चलते-फिरते, काम करते किस प्रकार सदा याद रख पाएगा?

इस प्रश्न का उत्तर कल वाले लेख में देने का प्रयास करेंगें। आज का लेख को  यहीं पर विराम देते  हुए कामना करते हैं कि सुबह की मंगल वेला में आँख खुलते ही इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और वह  ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे। हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अनजाने में अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। धन्यवाद् जय गुरुदेव।

To be  continued :

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30 जुलाई 2022, की 24 आहुति संकल्प सूची: 

(1 )संजना कुमारी -27,(2) संध्या कुमार-24, (3) अरुण वर्मा-24, (4) सरविन्द कुमार-24, (5) प्रेरणा कुमारी-24    

इस सूची के अनुसार सभी सहकर्मी गोल्ड मैडल विजेता हैं, सामूहिक शक्ति को नमन एवं  सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनको हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। धन्यवाद

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