वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

कैसे बने परम पूज्य गुरुदेव के हाथों का यन्त्र- प्रस्तुति सरविन्द कुमार 

5 जुलाई 2022  से सभी सहकर्मी गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व में अलग- अलग मार्गों से अना  योगदान देते आ रहे हैं।  अपने गुरु के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करने में  किसी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी, छोटे संदेशों से लेकर, लेखों से होकर,वीडियो तक प्रस्तुत किये जिनसे पता चलता है कि  यह परिवार कैसे-कैसे प्राणवान मानवों की एक दिव्य फूलमाला है। सभी का ह्रदय से धन्यवाद करते हैं। 

आज का लेख भी गुरुपूर्णिमा कड़ी की extension है। आदरणीय सरविन्द कुमार जी ने अखंड ज्योति मासिक पत्रिका के नवंबर 2021 अंक में प्रकाशित हुए लेख का स्वाध्याय करके इस लेख की प्रस्तुति की  है। हर बार की तरह इस बार भी  हमने बहुत ही हल्की सी एडिटिंग की है।  सरविन्द जी का ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं। 

गुरुपूर्णिमा 2022 को ही समर्पित है कल वाली वीडियो जिसमें परम पूज्य गुरुदेव किसी गुरुपूर्णिमा पर ही सन्देश दे रहे हैं। बहुतों ने यह वीडियो अवश्य देखि होगी लेकिन एक बार फिर, शुरू से अंत तक 15 मिंट की इस दिव्य वाणी का अमृतपान करने का आग्रह कर रहे हैं, गुरु की अंतरात्मा से कनेक्ट होने का एक दिव्य अवसर प्राप्त होगा। एक एक शब्द सुनकर अंतरात्मा में उतरने वाला है। 

वैसे तो 24 आहुति संकल्प सूची का स्तर लगातार नीचे ही जा रहा है लेकिन कल वाले लेख में तो all- time low 155 कमेंट और एकमात्र  संध्या कुमार जी का नाम ही उभर कर आया है।  यह गिरावट हमारे सहकर्मियों की गुरुपूर्णिमा में व्यस्तता के कारण तो हो ही सकती है लेकिन 600 कमैंट्स से 155 कमेंट तक आ जाना सोचने के लिए विवश तो करता ही है। कभी तो 20 नाम होते थे,लेकिन आजकल 2-3 नाम ही होते हैं। 

इन्ही शब्दों के साथ आरम्भ करते हैं आज का ज्ञानप्रसाद। 

*******************************

परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि “वह अमीर, अमीर ही क्या  जिसमें अमीरी न हो और वह फकीर, फकीर ही क्या  जिसमें फकीरी न हो l” 

यह उक्ति स्वामी पवित्रानंद जी महाराज के जीवन से पूर्णतया प्रस्फुटित होती है l स्वामी पवित्रानंद जी महाराज का पहले का नाम अमीरचंद्र सेन था और अमीरचंद सेन के पास अथाह दौलत थी l नौकर-चाकर, घोड़े-हाथी, सोना-चाँदी, हीरे- जवाहरात  आदि की कोई कमी नहीं थी और उनका जीवन पूरे ऐशो-आराम से बीत रहा था। अमीरचंद जी  काफी पढ़े-लिखे भी थे व उनके पास बड़ी-बड़ी उपाधियाँ भी थीं l परम पिता परमेश्वर की कृपा से किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी और धन-धान्य से सम्पन्न थे l 

एक दिन उनके नगर में एक श्रेष्ठ व महान दिव्य आत्मा का आगमन हुआ जिनके  रोम-रोम में अलौकिक तेज प्रस्फुटित हो रहा था। नगर भ्रमण करते हुए एकाएक अमीरचंद के घर के पास रुक गए या फिर यों कहें कि परम पिता परमेश्वर की प्रेरणा से स्वामी जी के पाँव वहीं ठिठक गए व उनके मुख से अलख निरंजन की मधुर ध्वनि हुई जो कि अमीरचंद के कानों में पड़ी और कानों से होती हुई क्रमशः उनके हृदय व आत्मा में उतर गयी l 

अमीरचंद सेन अपने घर से बाहर निकले। उन्होंने  आत्मा स्वामी आचार्यानंद जी के दिव्य तेज को देखा तो देखते ही रह गए l इससे  पहले इस नगर में न जाने कितने लोग साधु-फकीर के भेष में आए-गए थे लेकिन स्वामी जी को देखकर अमीरचन्द सेन के हृदय में ऐसी हलचल शायद ही पहली बार हुई थी क्योंकि स्वामी आचार्यानंद जी महाराज एक सिद्ध महात्मा जो थे।  वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें भगवत्दर्शन हुआ था l स्वामी जी का आध्यात्मिक ओज, तेज व वर्चस  देखते ही बनता था और अपनी  गुरु सत्ता के आदेशानुसार वह  लोककल्याण हेतु ही भ्रमण किया करते थे। इसी  क्रम में वह आज अमीरचन्द्र सेन के नगर पहुँचे थे l 

स्वामी आचार्यानंद जी महाराज को देखकर अमीरचन्द  के हृदय में काफी उथल-पुथल थी कि स्वामी जी नगर में किसी के घर पर नहीं गए, लेकिन मेरे यहाँ ही क्यों ठहरे ? मैं तो भौतिक दृष्टि से भोग-विलास में जीवन जीने वाला एक सामान्य प्राणी हूँ l फिर भी उन्होंने मेरे ऊपर ही इतनी कृपा दृष्टि क्यों की ? 

यह सोच-सोचकर अमीरचन्द  भाव विभोर हो गए और स्वामी जी के श्रीचरणों में समर्पित भाव से गिर पड़े l स्वामी जी ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया और बोले,

“वत्स ! तुम्हारा जीवन भोग-विलास व अमीरी का प्रदर्शन करने के लिए नहीं हुआ है, तुम्हें तो भगवान लोक-कल्याण हेतु अपना यन्त्र बनाना चाहते हैं और उन्हीं की प्रेरणा से ही तो मैं  आपके पास तक आए हैं l उनकी इच्छा न होती तो मैं यहाँ आता ही क्यों ?”

स्वामी जी ने अमीरचंद से पूछा,

“क्या तुम अपना सुख-वैभव, अमीरी, मान-सम्मान आदि त्यागकर भगवान का यंत्र बनना चाहोगे ? क्या तुममें ईश्वर के मार्ग में चलने की अभिलाषा है या फिर अभी भौतिक भोग-विलास में और जीवन व्यतीत करना चाहते हो ?”

ईश्वर की कृपा-प्रेरणा व स्वामी आचार्यानंद जी महाराज से प्रेरित होकर अमीरचन्द सेन ने अपनेआप को स्वामी जी के श्री चरणों में समर्पित कर दिया और बोले,

“स्वामी जी ! अब मैं अमीरचन्द नहीं, बल्कि पूरी तरह से आपका हूँ,  मैं अपना सब कुछ छोड़ने को तैयार हूँ l”

इस तरह अमीरचन्द सेन अपनी अपार सम्पदा का परित्याग कर स्वामी जी की कुटिया पर जा पहुँचे l 

परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि अगले ही दिन शिवरात्रि के पावन महापर्व के शुभ अवसर पर स्वामी आचार्यानंद जी ने अमीरचन्द को गुरुदीक्षा दी और उन्हें नया नाम “स्वामी पवित्रानंद” दिया।  सेठ अमीरचन्द सेन अब स्वामी पवित्रानंद बन चुके थे और वह भी सिर्फ नाम से नहीं, बल्कि अपने सम्पूर्ण कर्मो से भी l गुरु के मार्गदर्शन में उनकी तप-साधना चल पड़ी l त्रिकाल संध्यावंदन, नित्य शास्त्रों  का स्वाध्याय, गुरु की सेवा व आश्रम में आए हुए अतिथियों की सेवा आदि करना उनका नित्य का क्रम था l अपने घर में विभिन्न प्रकार के व्यंजन खाने वाले सेठ अमीरचन्द सेन अब शाकाहार व अल्पाहार करने लगे थे l सांसारिक विषयों का चिंतन करने वाले अमीरचन्द अब ब्रह्मचिंतन करने लगे थे l सोने के सिंहासन पर बैठने वाले अमीरचन्द अब जमीन पर कुशा के आसन पर ध्यान में बैठकर शांति और आनंद अनुभव करने लगे थे l हीरे-माणिक्य, सोने-चाँदी से सुसज्जित शय्या  पर सोने वाले  वाले अमीरचन्द अब धरती पर सो कर ही गहरी व मीठी निद्रा का आनंद लेने लगे थे l अब उनके पास भौतिक सम्पन्नता तो नहीं  थी, परन्तु  उनके पास आत्मिक  सम्पन्नता का अभाव न रहा। अमीरचंद जी  गुरु के मार्गदर्शन में साधना के नित्य नए सोपान चढ़ने लगे l 

हिमालय की मनोरम वादियों में स्थित आश्रम में साधना, संगीत व शिविरों की श्रृंखलाएं अनवरत रूप से चलने लगी l आश्रम-संचालन की समस्त ज़िम्मेदारियों  को अपने हाथों में लेकर अमीरचन्द ने मानो अपने गुरु को निश्चिंत कर दिया। स्वामी आचार्यानंद जी भी ऐसे सच्चे शिष्य को पाकर भावविह्वल थे l 

एक दिन अचानक स्वामी पवित्रानंद जी की तबियत खराब हो गई और महीनों बिस्तर पर ही पड़े रहे,आश्रम के कुछ साधकों ने उन्हें कई प्रकार के औषधीय उपचार दिए लेकिन  उनकी भयंकर पीड़ा जाने का नाम नहीं ले रही थी l  स्वामी पवित्रानंद जी  बहुत कमजोर हो गए और कभी-कभी उनकी पीड़ा इतनी  असहनीय हो जाती कि उनकी आँखों सेआँसू बहने लगते l लंबे समय से कष्ट सहते स्वामी पवित्रानंद जी ने आखिरकार अपने गुरु के समक्ष नतमस्तक होकर सिसिकियाँ भरते हुए पूछ ही लिया कि 

“हे गुरुदेव ! आखिर परम पिता परमेश्वर मुझे इतना कष्ट क्यों दे रहे हैं ?” 

स्वामी आचार्यानंद जी महाराज बोले, “वत्स इन कष्टों  के माध्यम से भी तुम तप ही कर रहे हो, क्योंकि इनसे तुम्हारी चेतना परिष्कृत हो रही है अतः इन्हें सहते जाओ l” 

शिष्य को सांत्वना देते हुए स्वामी जी आगे बोले,

“वत्स ! तुम्हारे अतीत के संचित कर्म अब प्रारब्ध बनकर प्रकट हो रहे हैं l भगवान के मार्ग पर चलते हुए कठिन तप-साधना करने वाले साधकों के जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट व कठिनाईयाँ आती हैं। तप-साधना में धैर्य व संयम की अत्यंत आवश्यकता होती है, तभी साधना पूर्ण होती है और  साधक स्वयं को भगवत्कर्म के अनुकूल यंत्र बना पाता है l”

कुछ समय उपरांत शिष्य स्वामी पवित्रानंद पूर्णतया स्वस्थ हो गए, मानो कि उन्हें एक नया जीवन मिला हो और वे अपने गुरुदेव के पास गए। असीम आनंद की अनुभूति करते हुए बोले,

“गुरुदेव ! अब हम स्वस्थ हो चुके हैं, अतः आप हमारा मार्गदर्शन करें l” 

स्वामी जी ने कहा, “वत्स ! अब मेरे जाने का समय हो गया है और मैं तुम्हारे स्वस्थ होने की ही प्रतीक्षा कर रहा था l परमात्मा का बुलावा आने ही वाला है l” 

अपने सभी आत्मीय सूझवान व समर्पित देवतुल्य शिष्यों को संबल प्रदान करते हुए गुरुदेव आगे कहने लगे कि 

“तुम सभी निश्चिंत रहना, मैं तुम सभी के प्राणों  में सदैव स्पंदित होता रहूँगा और तुम सबको हमेशा प्रेरित करता रहूँगा l”

 स्वामी जी ने आगे कहा, 

“आज समाज में अज्ञान से ग्रस्त मनुष्य की दशा बहुत ही दुःखद  व दयनीय है। तुम सब उनके बीच जाकर ज्ञान का अलख जगाओ l उन्हें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दो l यह संसार परम पिता परमेश्वर का ही भौतिक विस्तार है, अतः संसार की सेवा ही भगवान की सेवा है l परम पिता परमेश्वर के मार्ग में व्यक्तिगत कामना के लिए कोई स्थान नहीं है l  यदि तुम सभी ऐसा कर सके तो सचमुच में भगवान के यंत्र बन सकोगे और भगवान का काम करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकोगे l” 

कुछ रुककर स्वामी जी पुनः बोले,

“साधको अब तुम जो भी कर रहे होगे, वह तुम्हारे हाथों से मैं ही कर रहा होगा l” 

इतना कहकर स्वामी आचार्यानंद जी महाराज पद्यमासन में बैठ गए और योगबल से अपने शरीर का परित्याग कर दिया l शिष्य स्वामी पवित्रानंद जी अन्य गुरु भाइयों के ऊपर आश्रम की सारी जिम्मेदारियाँ सौंपकर गुरु कार्य के लिए निकल पड़े। स्वामी पवित्रानंद जी  स्वयं को अपने गुरु का यंत्र व निमित्त मात्र मानते हुए वे आजीवन निस्वार्थ भाव से निरंतर निष्काम कर्म करते रहे l 

आनलाइन ज्ञान रथ परिवार के सभी समर्पित सहकर्मियों से  करबध्द अनुरोध है  कि यदि हमें  भी अपने गुरू के हाथों का यन्त्र बनना है तो आधे-अधूरे मन से नहीं, बल्कि पूर्ण समर्पण भाव से स्वयं को समर्पित करना चाहिए। वासना व अहंकार की बाधाओं को पार करके, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से मुक्त होकर, फलासक्ति से रहित होकर, अहंभाव से सर्वथा शुन्य होकर ही भगवान के हाथों का यंत्र बना जा सकता है,इतना करने के बाद ही भगवान का कार्य किया जा सकता है। परम पूज्य गुरुदेव का सूक्ष्म संरक्षण  व सानिध्य तो  अनवरत मिलता ही रहेगा l 

हम अपनी लेखनी को यहीं विराम देने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सुबह की मंगल वेला में आँख खुलते ही इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और यह ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे। हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। धन्यवाद् जय गुरुदेव।

14 जुलाई 2022 का ज्ञानप्रसाद – कैसे बने परम पूज्य गुरुदेव के हाथों का यन्त्र- प्रस्तुति सरविन्द कुमार 

5 जुलाई 2022  से सभी सहकर्मी गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व में अलग- अलग मार्गों से अपना  योगदान देते आ रहे हैं।  अपने गुरु के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करने में  किसी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी, छोटे संदेशों से लेकर, लेखों से होकर,वीडियो तक प्रस्तुत किये जिनसे पता चलता है कि  यह परिवार कैसे-कैसे प्राणवान मानवों की एक दिव्य फूलमाला है। सभी का ह्रदय से धन्यवाद करते हैं। 

आज का लेख भी गुरुपूर्णिमा कड़ी की extension है। आदरणीय सरविन्द कुमार जी ने अखंड ज्योति मासिक पत्रिका के नवंबर 2021 अंक में प्रकाशित हुए लेख का स्वाध्याय करके इस लेख की प्रस्तुति की  है। हर बार की तरह इस बार भी  हमने बहुत ही हल्की सी एडिटिंग की है।  सरविन्द जी का ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं। 

गुरुपूर्णिमा 2022 को ही समर्पित है कल वाली वीडियो जिसमें परम पूज्य गुरुदेव किसी गुरुपूर्णिमा पर ही सन्देश दे रहे हैं। बहुतों ने यह वीडियो अवश्य देखि होगी लेकिन एक बार फिर, शुरू से अंत तक 15 मिंट की इस दिव्य वाणी का अमृतपान करने का आग्रह कर रहे हैं, गुरु की अंतरात्मा से कनेक्ट होने का एक दिव्य अवसर प्राप्त होगा। एक एक शब्द सुनकर अंतरात्मा में उतरने वाला है। 

वैसे तो 24 आहुति संकल्प सूची का स्तर लगातार नीचे ही जा रहा है लेकिन कल वाले लेख में तो all- time low 155 कमेंट और एकमात्र  संध्या कुमार जी का नाम ही उभर कर आया है।  यह गिरावट हमारे सहकर्मियों की गुरुपूर्णिमा में व्यस्तता के कारण तो हो ही सकती है लेकिन 600 कमैंट्स से 155 कमेंट तक आ जाना सोचने के लिए विवश तो करता ही है। कभी तो 20 नाम होते थे,लेकिन आजकल 2-3 नाम ही होते हैं। 

इन्ही शब्दों के साथ आरम्भ करते हैं आज का ज्ञानप्रसाद। 

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परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि “वह अमीर, अमीर ही क्या  जिसमें अमीरी न हो और वह फकीर, फकीर ही क्या  जिसमें फकीरी न हो l” 

यह उक्ति स्वामी पवित्रानंद जी महाराज के जीवन से पूर्णतया प्रस्फुटित होती है l स्वामी पवित्रानंद जी महाराज का पहले का नाम अमीरचंद्र सेन था और अमीरचंद सेन के पास अथाह दौलत थी l नौकर-चाकर, घोड़े-हाथी, सोना-चाँदी, हीरे- जवाहरात  आदि की कोई कमी नहीं थी और उनका जीवन पूरे ऐशो-आराम से बीत रहा था। अमीरचंद जी  काफी पढ़े-लिखे भी थे व उनके पास बड़ी-बड़ी उपाधियाँ भी थीं l परम पिता परमेश्वर की कृपा से किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी और धन-धान्य से सम्पन्न थे l 

एक दिन उनके नगर में एक श्रेष्ठ व महान दिव्य आत्मा का आगमन हुआ जिनके  रोम-रोम में अलौकिक तेज प्रस्फुटित हो रहा था। नगर भ्रमण करते हुए एकाएक अमीरचंद के घर के पास रुक गए या फिर यों कहें कि परम पिता परमेश्वर की प्रेरणा से स्वामी जी के पाँव वहीं ठिठक गए व उनके मुख से अलख निरंजन की मधुर ध्वनि हुई जो कि अमीरचंद के कानों में पड़ी और कानों से होती हुई क्रमशः उनके हृदय व आत्मा में उतर गयी l 

अमीरचंद सेन अपने घर से बाहर निकले। उन्होंने  आत्मा स्वामी आचार्यानंद जी के दिव्य तेज को देखा तो देखते ही रह गए l इससे  पहले इस नगर में न जाने कितने लोग साधु-फकीर के भेष में आए-गए थे लेकिन स्वामी जी को देखकर अमीरचन्द सेन के हृदय में ऐसी हलचल शायद ही पहली बार हुई थी क्योंकि स्वामी आचार्यानंद जी महाराज एक सिद्ध महात्मा जो थे।  वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें भगवत्दर्शन हुआ था l स्वामी जी का आध्यात्मिक ओज, तेज व वर्चस  देखते ही बनता था और अपनी  गुरु सत्ता के आदेशानुसार वह  लोककल्याण हेतु ही भ्रमण किया करते थे। इसी  क्रम में वह आज अमीरचन्द्र सेन के नगर पहुँचे थे l 

स्वामी आचार्यानंद जी महाराज को देखकर अमीरचन्द  के हृदय में काफी उथल-पुथल थी कि स्वामी जी नगर में किसी के घर पर नहीं गए, लेकिन मेरे यहाँ ही क्यों ठहरे ? मैं तो भौतिक दृष्टि से भोग-विलास में जीवन जीने वाला एक सामान्य प्राणी हूँ l फिर भी उन्होंने मेरे ऊपर ही इतनी कृपा दृष्टि क्यों की ? 

यह सोच-सोचकर अमीरचन्द  भाव विभोर हो गए और स्वामी जी के श्रीचरणों में समर्पित भाव से गिर पड़े l स्वामी जी ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया और बोले,

“वत्स ! तुम्हारा जीवन भोग-विलास व अमीरी का प्रदर्शन करने के लिए नहीं हुआ है, तुम्हें तो भगवान लोक-कल्याण हेतु अपना यन्त्र बनाना चाहते हैं और उन्हीं की प्रेरणा से ही तो मैं  आपके पास तक आए हैं l उनकी इच्छा न होती तो मैं यहाँ आता ही क्यों ?”

स्वामी जी ने अमीरचंद से पूछा,

“क्या तुम अपना सुख-वैभव, अमीरी, मान-सम्मान आदि त्यागकर भगवान का यंत्र बनना चाहोगे ? क्या तुममें ईश्वर के मार्ग में चलने की अभिलाषा है या फिर अभी भौतिक भोग-विलास में और जीवन व्यतीत करना चाहते हो ?”

ईश्वर की कृपा-प्रेरणा व स्वामी आचार्यानंद जी महाराज से प्रेरित होकर अमीरचन्द सेन ने अपनेआप को स्वामी जी के श्री चरणों में समर्पित कर दिया और बोले,

“स्वामी जी ! अब मैं अमीरचन्द नहीं, बल्कि पूरी तरह से आपका हूँ,  मैं अपना सब कुछ छोड़ने को तैयार हूँ l”

इस तरह अमीरचन्द सेन अपनी अपार सम्पदा का परित्याग कर स्वामी जी की कुटिया पर जा पहुँचे l 

परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि अगले ही दिन शिवरात्रि के पावन महापर्व के शुभ अवसर पर स्वामी आचार्यानंद जी ने अमीरचन्द को गुरुदीक्षा दी और उन्हें नया नाम “स्वामी पवित्रानंद” दिया।  सेठ अमीरचन्द सेन अब स्वामी पवित्रानंद बन चुके थे और वह भी सिर्फ नाम से नहीं, बल्कि अपने सम्पूर्ण कर्मो से भी l गुरु के मार्गदर्शन में उनकी तप-साधना चल पड़ी l त्रिकाल संध्यावंदन, नित्य शास्त्रों  का स्वाध्याय, गुरु की सेवा व आश्रम में आए हुए अतिथियों की सेवा आदि करना उनका नित्य का क्रम था l अपने घर में विभिन्न प्रकार के व्यंजन खाने वाले सेठ अमीरचन्द सेन अब शाकाहार व अल्पाहार करने लगे थे l सांसारिक विषयों का चिंतन करने वाले अमीरचन्द अब ब्रह्मचिंतन करने लगे थे l सोने के सिंहासन पर बैठने वाले अमीरचन्द अब जमीन पर कुशा के आसन पर ध्यान में बैठकर शांति और आनंद अनुभव करने लगे थे l हीरे-माणिक्य, सोने-चाँदी से सुसज्जित शय्या  पर सोने वाले  वाले अमीरचन्द अब धरती पर सो कर ही गहरी व मीठी निद्रा का आनंद लेने लगे थे l अब उनके पास भौतिक सम्पन्नता तो नहीं  थी, परन्तु  उनके पास आत्मिक  सम्पन्नता का अभाव न रहा। अमीरचंद जी  गुरु के मार्गदर्शन में साधना के नित्य नए सोपान चढ़ने लगे l 

हिमालय की मनोरम वादियों में स्थित आश्रम में साधना, संगीत व शिविरों की श्रृंखलाएं अनवरत रूप से चलने लगी l आश्रम-संचालन की समस्त ज़िम्मेदारियों  को अपने हाथों में लेकर अमीरचन्द ने मानो अपने गुरु को निश्चिंत कर दिया। स्वामी आचार्यानंद जी भी ऐसे सच्चे शिष्य को पाकर भावविह्वल थे l 

एक दिन अचानक स्वामी पवित्रानंद जी की तबियत खराब हो गई और महीनों बिस्तर पर ही पड़े रहे,आश्रम के कुछ साधकों ने उन्हें कई प्रकार के औषधीय उपचार दिए लेकिन  उनकी भयंकर पीड़ा जाने का नाम नहीं ले रही थी l  स्वामी पवित्रानंद जी  बहुत कमजोर हो गए और कभी-कभी उनकी पीड़ा इतनी  असहनीय हो जाती कि उनकी आँखों सेआँसू बहने लगते l लंबे समय से कष्ट सहते स्वामी पवित्रानंद जी ने आखिरकार अपने गुरु के समक्ष नतमस्तक होकर सिसिकियाँ भरते हुए पूछ ही लिया कि 

“हे गुरुदेव ! आखिर परम पिता परमेश्वर मुझे इतना कष्ट क्यों दे रहे हैं ?” 

स्वामी आचार्यानंद जी महाराज बोले, “वत्स इन कष्टों  के माध्यम से भी तुम तप ही कर रहे हो, क्योंकि इनसे तुम्हारी चेतना परिष्कृत हो रही है अतः इन्हें सहते जाओ l” 

शिष्य को सांत्वना देते हुए स्वामी जी आगे बोले,

“वत्स ! तुम्हारे अतीत के संचित कर्म अब प्रारब्ध बनकर प्रकट हो रहे हैं l भगवान के मार्ग पर चलते हुए कठिन तप-साधना करने वाले साधकों के जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट व कठिनाईयाँ आती हैं। तप-साधना में धैर्य व संयम की अत्यंत आवश्यकता होती है, तभी साधना पूर्ण होती है और  साधक स्वयं को भगवत्कर्म के अनुकूल यंत्र बना पाता है l”

कुछ समय उपरांत शिष्य स्वामी पवित्रानंद पूर्णतया स्वस्थ हो गए, मानो कि उन्हें एक नया जीवन मिला हो और वे अपने गुरुदेव के पास गए। असीम आनंद की अनुभूति करते हुए बोले,

“गुरुदेव ! अब हम स्वस्थ हो चुके हैं, अतः आप हमारा मार्गदर्शन करें l” 

स्वामी जी ने कहा, “वत्स ! अब मेरे जाने का समय हो गया है और मैं तुम्हारे स्वस्थ होने की ही प्रतीक्षा कर रहा था l परमात्मा का बुलावा आने ही वाला है l” 

अपने सभी आत्मीय सूझवान व समर्पित देवतुल्य शिष्यों को संबल प्रदान करते हुए गुरुदेव आगे कहने लगे कि 

“तुम सभी निश्चिंत रहना, मैं तुम सभी के प्राणों  में सदैव स्पंदित होता रहूँगा और तुम सबको हमेशा प्रेरित करता रहूँगा l”

 स्वामी जी ने आगे कहा, 

“आज समाज में अज्ञान से ग्रस्त मनुष्य की दशा बहुत ही दुःखद  व दयनीय है। तुम सब उनके बीच जाकर ज्ञान का अलख जगाओ l उन्हें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दो l यह संसार परम पिता परमेश्वर का ही भौतिक विस्तार है, अतः संसार की सेवा ही भगवान की सेवा है l परम पिता परमेश्वर के मार्ग में व्यक्तिगत कामना के लिए कोई स्थान नहीं है l  यदि तुम सभी ऐसा कर सके तो सचमुच में भगवान के यंत्र बन सकोगे और भगवान का काम करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकोगे l” 

कुछ रुककर स्वामी जी पुनः बोले,

“साधको अब तुम जो भी कर रहे होगे, वह तुम्हारे हाथों से मैं ही कर रहा होगा l” 

इतना कहकर स्वामी आचार्यानंद जी महाराज पद्यमासन में बैठ गए और योगबल से अपने शरीर का परित्याग कर दिया l शिष्य स्वामी पवित्रानंद जी अन्य गुरु भाइयों के ऊपर आश्रम की सारी जिम्मेदारियाँ सौंपकर गुरु कार्य के लिए निकल पड़े। स्वामी पवित्रानंद जी  स्वयं को अपने गुरु का यंत्र व निमित्त मात्र मानते हुए वे आजीवन निस्वार्थ भाव से निरंतर निष्काम कर्म करते रहे l 

आनलाइन ज्ञान रथ परिवार के सभी समर्पित सहकर्मियों से  करबध्द अनुरोध है  कि यदि हमें  भी अपने गुरू के हाथों का यन्त्र बनना है तो आधे-अधूरे मन से नहीं, बल्कि पूर्ण समर्पण भाव से स्वयं को समर्पित करना चाहिए। वासना व अहंकार की बाधाओं को पार करके, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से मुक्त होकर, फलासक्ति से रहित होकर, अहंभाव से सर्वथा शुन्य होकर ही भगवान के हाथों का यंत्र बना जा सकता है,इतना करने के बाद ही भगवान का कार्य किया जा सकता है। परम पूज्य गुरुदेव का सूक्ष्म संरक्षण  व सानिध्य तो  अनवरत मिलता ही रहेगा l 

हम अपनी लेखनी को यहीं विराम देने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सुबह की मंगल वेला में आँख खुलते ही इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और यह ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे। हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। धन्यवाद् जय गुरुदेव।

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