वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

पंडित लीलापत शर्मा जी का स्वर्णजयंती वर्ष में महाप्रयाण -एक संयोग।

13 जुलाई 2022 का ज्ञानप्रसाद -पंडित लीलापत शर्मा जी का स्वर्णजयंती वर्ष में महाप्रयाण -एक संयोग। 

ज्ञानप्रसाद आरम्भ करने से पहले सभी को गुरुपूर्णिमा की शुभकामना।  ऑनलाइन ज्ञानरथ से तो गुरुवंदना पिछले कितने ही दिनों से चल रही है , अभी और दिन भी चलेगी। 

आज का ज्ञानप्रसाद लिखने में हमने वर्ष 2002 की अखंड ज्योति पत्रिका के 12 अंक ,पत्र पाथेय पुस्तक, पूज्य गुरुदेव के मार्मिक संस्मरण पुस्तक और अन्य कई publications का सहारा लिया है। 2019 की हमारी मथुरा यात्रा के भी कुछ संस्मरण वर्णन किये  हैं, उद्देश्य केवल एक ही था की best कंटेंट प्रकाशित किया जाये। अब आप सब सहकर्मियों पर निर्भर है कि आप इस लेख का मूल्यांकन किस स्तर का करते हैं। तो चलते हैं ज्ञानप्रसाद की ओर 

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इसे  संयोग कहें या गुरुसत्ता का ही कोई निर्देश कि 2002 में गायत्री जयंती वाले दिन गायत्री  तपोभूमि मथुरा के निर्माण के पचास वर्ष पूरे होने को आ रहे थे और उस महान आत्मा ने  जिनका जीवन दर्शन हम आजकल के लेखों में कर रहे हैं,  इन्ही दिनों महाप्रयाण का निर्णय किया। 2002 की गायत्री जयंती 20 जून को थी लेकिन  पंडित लीलापत शर्मा जी को 14 मई को ही गुरुसत्ता ने अपने पास बुला लिया। भरतपुर में 1912 में जन्मे पंडित जी ने  पुण्य परमार्थ  भरा जीवन जीकर तपोभूमि के विकास में जो योगदान दिया वह हम सबको विदित है। इस 90 वर्षीय महात्मा को ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार की ओर से शत शत नमन है लेकिन कितना अच्छा होता कि उन्हें गुरुसत्ता कुछ दिन का जीवन और प्रदान कर देती और वह सम्पूर्ण भारत में मनाया जा रहा  स्वर्ण जयंती  समारोह देख सकते। गायत्री जयंती 2002 से गायत्री जयंती 2003 तक समारोहों में श्रद्धेय लीलापत शर्मा जी के नाम को अवश्य स्मरण किया होगा, यह एक ऐसा नाम है जिसे गायत्री परिजन अपने ह्रदय में बिठाए  हुए हैं। परमपूज्य गुरुदेव एवं परम वंदनीया माताजी के बाद जिन गिने-चुने तपस्वियों का  पावन तपोभूमि को विस्तार देने में योगदान रहा, उनमें पंडित जी  का नाम हमेशा याद किया जाएगा। 1967 में ग्वालियर छोड़  पंडित जी पूरी तरह मथुरा आ गए थे एवं उन्हें वहाँ के व्यवस्थापक का कार्यभार पूज्यवर द्वारा सौंपा गया था। 1971   में ऋषियुग्म परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीया माताजी के हरिद्वार आगमन के साथ ही पंडित जी ने गुरुसत्ता की पादुकाएँ गायत्री माता के मंदिर के दोनों ओर रख, उनके चित्र स्थापित कर 32  वर्षों में जो रूप व आकार तपोभूमि को दिया है, वह सभी को विदित है।  हर श्वास में ही गुरुदेव को जीने वाले पंडित जी का जीवन भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार ( गीताप्रेस गोरखपुर ट्रस्टी)  की तरह एक समर्पित प्रभुभक्त का रहा। जो लोग सौभाग्यवश तपोभूमि के दिव्य दर्शन कर  चुके हैं, उन्होंने अवश्य देखा होगा माँ गायत्री की प्रतिमा के दाईं तरफ परमपूज्य गुरुदेव की और बाईं तरफ परमवंदनीय माता जी की प्रतिमाएं सुशोभित हैं। पंडित जी की ही इच्छा अनुसार  गायत्री मंदिर के दोनों ओर उनकी आराध्य सत्ता की मूर्तियाँ स्थापित की गयी थीं। नवंबर  2001  के गुजरात प्रवास के पूर्व पंडित जी श्री मृत्युंजय शर्मा जी  को लेकर दो बार जयपुर गए थे  एवं मूर्तियों के निर्माण का मार्गदर्शन करके आए थे। समय-समय पर प्रतिनिधिगण कार्य की प्रगति देखते रहे। जब  मूर्तियाँ बनकर तैयार हो गयीं  तो तपोभूमि स्थापना के  स्वर्ण जयंती वर्ष में गायत्री तपोभूमि गुरुदेव की साढ़े तीन फीट ऊँची बैठी प्रतिमा ओर माता जी  की तीन फीट बैठी प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी। शरदपूर्णिमा 21 अक्टूबर 2002 वाले दिन एक बहुत ही संक्षिप्त एवं सादे  समारोह व कर्मकांड के साथ इन दोनों प्रतिमाओं की स्थापना कर दी गयी थी। मूर्तियों की स्थापना में प्राण प्रतिष्ठा जैसा कोई कर्मकांड  नहीं किया गया था क्योंकि सूक्ष्म व कारण में स्थित, माँ गायत्री में विलीन एवं निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त गुरुसत्ता हमारे आसपास ही विद्यमान है।

2019 में अपने मथुरा प्रवास के दौरान आदरणीय ईश्वर शरण पांडेय जी ने तपोभूमि के विकास के बारे में बताया था। नए डिज़ाइन में निर्माणाधीन तपोभूमि का विवरण देते हुए पांडेय जी ने एक वीडियो भी रिकॉर्ड करवाई थी जो हमारे चैनल के वीडियो सेक्शन में उपलब्ध है। 

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एक महान सृजन  सेनानी गुरतत्व में विलीन :

14  मई, 2002  रात्रि 1 बजकर 35  मिनट पर महान सृजन सेनानी , परमपूज्य गुरुदेव के निष्ठावान शिष्य, अपनी गुरुभक्ति एवं समर्पण के कारण असंख्य गायत्री-परिजनों के प्रेरणा स्रोत, युगनिर्माण के आधार स्तंभ, गायत्री तपोभूमि के  व्यवस्थापक एवं संचालक पं. लीलापति शर्मा स्थूल देह  का त्याग कर गुरुतत्त्व में विलीन हो गए। पंडित जी की पूज्य गुरुदेव से पहली मुलाकात सन् 1956  के आसपास  हुई थी । गुरुदेव उस समय किसी कार्यक्रम के सिलसिले ग्वालियर आए हुए थे। पंडित जी उन दिनों ग्वालियर क्षेत्र  की डबरा नाम की जगह में राइस मिल में मैनेजर थे। पंडित  जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व की उस समय आसपास  के सेठ-साहूकारों एवं वहाँ के प्रशासनिक क्षेत्र में बड़ी  धाक थी, लेकिन इस प्रभावशाली व्यक्तित्व की गहराई में जो भावनाशील-समर्पित शिष्य छिपा हुआ था, उसे केवल  गुरुदेव ने पहचाना। प्रथम मुलाकात में ही उन्होंने पंडित  जी को अपना लिया।

पंडित जी भी गुरुदेव के तपोनिष्ठ जीवन व सादगी अभिभूत होकर सदा के लिए उनके हो गए। अपने इस प्रथम  मिलन को बताते हुए पंडित जी बताया करते थे कि तब  मैं बड़ा तार्किक था। मैंने शुरू-शुरू में गुरुजी को परखने  की कोशिश की। गुरुजी तो सौ प्रतिशत खरे थे। गुरुजी  की इस सौ प्रतिशत शुद्धता, उच्चता एवं सच्ची आध्यात्मिकता को समझ लिया, तो फिर मैंने अपनी सारी तर्कबुद्धि को कूड़े में फेंक दिया और एक ही निश्चय किया, 

“श्रद्धा सो श्रद्धा, समर्पण सो समर्पण । गुरुदेव में ही अपने  को विलय करना है। उन्हीं के लिए अपने सारे जीवन को झोंक देना है।”

उनका समूचा जीवन उनके इस कथन का प्रमाण है। इसकी तारीफ स्वयं गुरुदेव एवं माताजी  बार-बार अपने मुख से करते थे। संकल्प के धनी, दृढ़ प्रतिज्ञ पंडित जी गुरुदेव के सामने जहाँ कर्मकुशल समर्पित शिष्य की भांति रहते थे, वहीं वंदनीया माताजी के सामने उनका व्यवहार मातृभक्त बालक की भांति होता था । वह माताजी के बड़े ही अनुरागी भक्त थे।

अपनी पहली मुलाकात के थोड़े ही दिनों के बाद पंडित  जी गुरुदेव के काम में लग गए। सन् 1958  के सहस्रकुंडीय यज्ञ में उन्होंने भरपूर ज़िम्मेदारी निभाई। गुरुदेव ने उन्हें कितने ही वर्ष मार्गदर्शन प्रदान किया और तराशकर सोने से कुंदन जैसा बना दिया। प्रतक्ष्य मार्गदर्शन के इलावा परमपूज्य गुरुदेव और पंडित जी का पत्र व्यवहार भी एक अमूल्य  कोष है। 1998 में प्रकाशित  पंडित जी की 183 पन्नों की  पुस्तक “पत्र पाथेय” में 89 पत्र संगठित किये गए हैं।  9 अगस्त 1961 से 12 अगस्त 1967 की अवधि में गुरुदेव की original लेखनी में लिखे गए पत्र इस मार्गदर्शन के  साक्षी हैं। युगनिर्माण योजना मथुरा का अवश्य ही आभार है जिन्होंने गुरुदेव के करकमलों  से लिखे पत्रों को स्कैन भी किया और type-form में भी शामिल किया। पंडित जी के लिए यह पत्र अमूल्य हीरों जैसे थे। 12 अगस्त वाले पत्र में गुरुदेव लिखते हैं कि “अपने काम से निवृत होकर मथुरा आयेंगें तभी आगे का प्रोग्राम बनेगा।”          

 अपने इस काम के बारे में पंडित जी  कहते थे, “मैं तो हनुमान की भाँति श्रीराम प्रभु का सेवक हूँ।” 

अपनी इस समर्पित भावना के साथ उन्होंने गायत्री तपोभूमि के स्वरूप एवं कार्यों का व्यापक विस्तार किया। उन्हीं के प्रयासों से भव्य प्रज्ञानगर बना।   युगनिर्माण विद्यालय का संचालन करते हुए उन्होंने भारी मात्रा में गुरुदेव के साहित्य का प्रकाशन व प्रचार किया। जहाँ कभी पहले केवल एक ट्रेडिल मशीन हुआ करती थी, वहाँ उनके प्रयासों से दो रोटरी ऑफसेट मशीनें लग गई।

1989  में उन्हें पहला हदयाघात हुआ, लेकिन संकल्प व जिजीविषा के धनी पंडित जी ने अपने किसी काम में कोई कमी न आने दी। अपनी स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों को झेलते हुए उन्होंने गुरुदेव के साहित्य प्रसार को कई योजनाएँ चलाई। मासिक पत्रिका युगनिर्माण योजना का संचालन करते हुए उसे ढाई लाख तक पहुँचा दिया। अपने बाद के जीवन में उन्होंने शारीरिक पीड़ाओं के  साथ अनेकों भावनात्मक पीड़ाएँ भी झेलीं। अपने युवा पुत्र के  विछोह का आघात सहा, पर उनके समर्पण व कर्मनिष्ठा में कोई कमी नहीं आई। गुरुदेव के साहित्य को उन्होंने विभिन्न विषयों के अनुरूप पॉकेट बुक्स के रूप में प्रकाशित किया। इसे भारी लोकप्रियता मिली। 

पंडित जी ने मिशन की बहुत बड़ी-बड़ी योजनाओं में सक्रिय योगदान प्रदान किया। जब मिशन अपनी शैशव अवस्था में था, उस समय पूज्य गुरुदेव ने कितना परिश्रम करके और कितना तप लुटाकर शाखाएँ खड़ी कीं। उसके विषय में बताते हुए पंडित जी ने असम का एक संस्मरण सुनाया था जो इस प्रकार है :

गायत्री परिवार के कार्यकर्ता ने असम के एक गाँव में यज्ञ रख दिया और पूज्यवर को बुलाया। मैं  कई बार वहाँ गया, यज्ञ के बारे में समझाया किन्तु पता नहीं क्यों  किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। यहाँ तक कि पूज्य गुरुदेव भी उस गाँव में पहुँच गये, फिर भी यज्ञ में आने को कोई तैयार नहीं था और कोई भी न आया। पूज्यवर ने सारी स्थिति भाँप ली। वहीं आसपास जो ग्रामीण टहल रहे थे, उन्हें बुलाकर पूछा, ‘‘इस गाँव में कोई वृद्ध बीमार है?’’ ग्रामीणों ने जवाब दिया, ‘‘हाँ, ऐसे तो कई लोग हैं।’’ पूज्यवर ने कहा,‘‘उन्हें मेरे पास ले आओ।’’ ग्रामीण दौड़े और अपने-अपने घरों से जो भी बीमार था, वृद्ध था, कुछ अन्य समस्या थी, सभी को ले आये। कुछ स्वयं आ गये, कुछ को सहारा देकर ले आये। गुरुदेव तत्काल उनकी समस्याओं के निवारण हेतु जुट गये। बीमार को कह दिया,‘‘तुझे कुछ नहीं हुआ है।’’ वृद्ध को कहा  ‘‘स्वस्थ रहोगे’’ किसी की कोई समस्या थी उसे कह दिया,‘‘समस्या ठीक हो जायेगी।’’ अब तो सुन-सुन कर पूरा गाँव दौड़ पड़ा। महात्मा जी के आने की खबर पूरे गाँव में आग की तरह फैल गई। सभी अपनी-अपनी समस्या बताने लगे और समाधान पाकर निहाल हो गये। दूसरे दिन पूरा गाँव यज्ञ में शामिल था। एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिसने यज्ञ में भाग न लिया हो। गुरुदेव ने इस तरह अपने तप की शक्ति से मिशन का प्रचार-प्रसार किया। पंडित जी कहते थे, 

‘‘मैं तो मूक दर्शक की भांति अवाक्  रहकर उन लीला-पति की लीला देखता रहा।’’ असली लीलापति  नाम तो उनका होना चाहिए था।

सतत कर्म करते हुए उन्होंने गायत्री तपोभूमि की स्थापना के इस स्वर्ण जयंती वर्ष में देह का त्याग कर दिया। उनके अंतिम संस्कार में उनके स्वजनों एवं गायत्री तपोभूमि के कार्यकर्ताओं के साथ अखण्ड ज्योति संस्थान के परिजनों तथा शांतिकुंज के वरिष्ठ प्रतिनिधियों ने भाग लिया। उन्हें भावभीनी अंतिम विदाई देते हुए सभी के हृदयों से यही पुकार उठ रही थी कि पंडित जी की ज्योतिर्मय आत्मा सदा ही हम सभी को, अपने गायत्री परिजनों को उच्चस्तरीय प्रेरणा व प्रकाश देती रहे। परम गुरुभक्त, गुरुदेव एवं माताजी के अमर सपूत पं. लीलापति शर्मा को शत्-शत् नमन, शत्-शत् नमन।

हम अपनी लेखनी को यहीं विराम देने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सुबह की मंगल वेला में आँख खुलते ही इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और यह ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे। हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। धन्यवाद् जय गुरुदेव।

शब्द सीमा सूची प्रकाशित की आज्ञा नहीं दे रही। क्षमा प्रार्थी हैं। 

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