27 जून 2022 का ज्ञानप्रसाद – मैं व्यक्ति नहीं हूँ, मैं तो विचार हूँ।
परमपूज्य गुरुदेव के इस बहुचर्चित वाक्य से हम सब भलीभांति परिचित हैं। आज का ज्ञानप्रसाद केवल एक ही पार्ट का है और हम इसी वाक्य पर चर्चा करेंगें लेकिन बैकग्राउंड सुप्रसिद्ध यूनानी फिलासफर सुकरात (Socrates) पर आधारित है। दिसंबर 1990 की अखंड ज्योति में प्रकाशित यह लेख हमने कई दिन पहले पढ़ना आरम्भ कर दिया था, बार- बार पढ़ा , तथ्यों की रिसर्च करते हुए समझने का प्रयास किया ताकि पहले हम खुद समझ लें, फिर पाठकों के लिए सरलीकरण कर सकें। सभी लेखों का उद्देश्य केवल ,पढ़ना-पढ़ाना, समझना-समझाना ही है। लेख तो सुकरात का है लेकिन एक एक शब्द परमपूज्य गुरुदेव पर फिट बैठता है और हमें दिशा निर्देश दे रहा है।
क्षमा प्रार्थी हैं कि यूट्यूब शब्द सीमा हमें 24 आहुति संकल्प सूची करने को रोक रही है।
तो करते हैं आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान
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कौन थे सुकरात ?
यूनान (Greece ) की राजधानी Athens में जन्मे यूनानी फिलासफर सुकरात अपने समय के बहुत ही बुद्धिमान और अति शिक्षित व्यक्तित्व के धनी थे । उस समय के लोगों के ज्ञान के स्तर को देखते हुए सुकरात का ज्ञान बहुत ही अधिक था।। यही कारण था कि वो उस समय की प्रचलित अवधारणाओं ,रूढ़ियों ओर अंधविश्वास ओर गलत धारणाओं का विरोध करते रहते थे। गुरुदेव की कार्य शैली भी तो ही थी, अभी अभी प्रकाशित वीडियो में हमने देखा गुरुवर को कितनी गलियां कहानी पड़ीं, यहाँ तक कि उन पर जानलेवा हमला भी हुआ।
सुकरात एक वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति थे । इसलिए वो सच ओर झूठ के बीच के फर्क को आसानी से पहचान लेते थे और अपना विरोध जाहिर कर देते थे । उनका दार्शनिक स्वभाव और ज्ञान ही उनकी मृत्यु का कारण बन गया क्योंकि आम जनता उनकी दर्शन (philosophy) को समझ ही नही पा रही थी। इसका कारण यही था कि जनता का ज्ञान स्तर बहुत कम था। सुकरात का विकासवादी दृष्टिकोण उनके दुश्मनों को ओर रूढ़िवादियों को चुभता था ।।
ऐसा सभी युगों में होता आया है कि वैज्ञानिक और आधुनिक दृष्टिकोण रखने वाले लोगों का आम जनता विरोध करती है और इसी विरोध में ज्यादातर लोगों को जान का नुकसान तक भोगना पड़ जाता है। इतिहास में जितने भी क्रांतिकारी लोग हुए है उनका बहुत ज्यादा विरोध और अपमान हुआ ही है, उन्हें असाध्य कष्ट और अपमान झेलना पड़ा है । यही अपमान पहले सुकरात का होता था लेकिन सुकरात अपने दर्शन के प्रति अडिग रहे और जब वहां के परम्परावादियों को लगा कि ये व्यक्ति झुकने वाला नही है तो राजा की सहमति से उसे षड्यंत्र पूर्वक विष का प्याला पिलाकर मार दिया गया।
अब आरम्भ होती है सुकरात को विष पिलाने की कथा :
महासागर के शान्त वक्षस्थल पर भयानक तूफ़ान उठने के पहले एक घोर शांति छा जाती है। उस समय वायुमण्डल उत्तेजित हो उठता है और सारा वातावरण एक आशंका से शून्य सा हो जाता है। आकाश के वक्ष पर ज्वालामुखी के फटने के पहले एक घोर दबी हुई अशान्ति फैल जाती है, उसका नीला रंग धूमिल हो जाता है और एक भय से सारा आकाश-मण्डल वायु से रिक्त हो जाता है।
कारागार के इस कक्ष में भी कुछ ऐसी ही शून्यता छाई हुई थी।सुकरात के पास बैठे कैदियों की दशा तो और भी बुरी थी। अन्दर के उफान के बावजूद इन्हें अनुभव हो रहा था जैसे अंगों में लहू की भागदौड़, साँसों की घुसपैठ आदि सब कुछ थमने को है। निराशा, भय, आशंका, रिक्तता आदि के इस माहौल में सिर्फ एकमात्र सुकरात ही प्रसन्न लग रहे थे। पता नहीं उनके पास कौन सी ऐसी अमर मूरि थी जो उन्हें प्रसन्न रख रही थी ।
पास बैठे 27-28 वर्ष के युवक ने पूछा, “तब फिर आप नहीं ही चलेंगे।” भावना में डूबे उस युवक का गला रुंधा था। काफी देर से समीप बैठा, आँखें नीचे किये, पैर के अंगूठे से फर्श खुरच रहा था। उसे सूझ नहीं रहा था की वह क्या करे । न्यायालय से सुकरात को मृत्युदण्ड घोषित किए जाने के बाद सभी साथी कैदियों ने उनको कारागार से छुड़ाने की योजना बनाई थी। सब कुछ ठीक हो गया था पर किया क्या जाय, वह स्वयं मना कर रहे थे। जेल कर्मचारियों की भी गुप-चुप सहमति थी। सभी को पता था, न्यायाधीशों ने विरोधियों के दबाव में आकर फैसला सुनाया था। उनके रहने से कितने लोगों का ही कल्याण हो रहा था, कितने ही लोग भटकन से उबरें थे। उस युवक ने उनके चेहरे की ओर देखा, सत्तर वर्ष से अधिक आयु हो जाने के बाद भी झुर्रियाँ और मलिनता के निशान न थे। प्रफुल्लता भरी ताज़गी थिरक रही थी। हँसते हुए सुकरात ने युवक का कंधा थपथपाया और बोले,
“अरे! मृत्यु मेरी की घोषणा हुई है और उदासी तुम सबके चेहरों पर है,” फिर गम्भीर हो बोले,
“कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं जब किसी की मृत्यु का मूल्य जीवित रहने की तुलना से अनेकों गुना अधिक हो जाता है।जब स्थूल शरीर सूक्ष्म शक्तियों के क्रिया-कलाप सम्पन्न कराने में अवरोध बनने लगे तो ऐसी दशा में इस खोल को उतार फेंकना ही उचित होता है ।”
सभी कैदी दम साधे सुन रहे थे। किसी को कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि क्या बोले, बोले भी तो क्या बोले।
एक अन्य कैदी ने निवेदन करना चाहा,उसकी वाणी में हिचकिचाहट के साथ अनुनय का पुट था बोला- लेकिन आपके रहने से तो अनेकों का भला हो रहा है। सुकरात बोले, “फीडो! लगता है तुम लोग मुझे पहचान नहीं पाए हो।” इन सबकी आँखों में झाँकते हुए बोले, “ मैंने कितनी बार समझाया है कि मैं व्यक्ति नहीं हूँ, मैं तो विचार हूँ ।”
इस कथन को सुनकर पास आ रहे एक जेल कर्मचारी के पाँव ठिठक गए। वह बताने आ रहा था कारागार निकलने का सुयोग बन चुका है। जब इस कर्मचारी ने “मैं व्यक्ति नहीं हूँ” शब्द सुने तो अवाक सा रह गया। सोचने लगा यह आदमी कैसा विलक्षण है जो कह रहा है कि मैं आदमी नहीं, मैं व्यक्ति नहीं हूँ। जेल कर्मचारी की जिज्ञासा होंठों से निकले बगैर न रह सकी, उसने पूछा- अगर आप व्यक्ति नहीं हैं तो महाशय आप क्या हैं ?
सुकरात बोले, “ मैं विचार हूँ मित्र! ” चेहरे पर गम्भीरता और आँखों में एक अनोखी चमक खेल रही थी। कुछ रुक कर बोले, “जहर पीस लिया गया क्या ?” जेल अधिकारी के मन में गुरु से बिछड़ने का दुःख अजीब सी सनसनाहट भर रहा था। वह समझना तो चाहता था परन्तु चाहत के बावजूद कुछ भी समझ नहीं रहा था। इसी अजमंजस में बोला -विचारों की शक्ति आपकी शक्ति से भी अधिक, यह कैसे ?
“हाँ इनकी शक्ति अपार है” प्लेटो ने कहा। प्लेटो सुकरात का सर्वाधिक प्रिय शिष्य था, विनम्र और मितभाषी। सारी उम्र सुकरात ने जो ज्ञान की मशाल जलाई,अब उसे प्रज्ज्वलित रखने का दायित्व उसी का था, अन्यों को तो सिर्फ सहायक भर होना था। विचार ही कर्म के प्रेरक हैं। विचार अगर अच्छे कर्मों में लग जाएँ तो अच्छे परिणाम आते हैं और अगर बुरे मार्ग में प्रवृत्त हों तो बुरे परिणाम प्राप्त होते हैं। सच मानों तो मनुष्य किसी अकेली बंद कोठरी में विचार करे और ऐसा करते हुए उसकी मृत्यु हो जाए तो विचार कुछ समय बाद कोठरी की दीवारों को भेद कर बाहर निकल पड़ेंगे। यह विचार अनेकों को प्रभावित किए बिना न रहेंगे। वात्सल्य में सने ये शब्द सुनने वालों के दिलों में समाए बिना न रह सके।
शिष्यों को अपने गुरु की व्यथा मालूम थी। उन्हें ज्ञात था कि उनकी मुसकान के आवरण में कितनी तड़पन छुपी है। सारी उम्र उन्होंने अनेकों के जीवनों को सँवारा है और अब जबकि वह स्वयं महाप्रयाण की ओर गतिमान हैं, विराट होने की दिशा में पाँव बढ़ा रहे हैं, उनके कार्य का गुरुतर दायित्व शिष्य परिकर को ही तो वहन करना पड़ेगा।
“देख नहीं रहे लोक जीवन का प्रवाह।” उनकी वाणी अन्तराल की गहराइयों से उभरी।
i) यह शरीर क्या है? मलमूत्र से भरा और हाड़-माँस से बना घिनौना किंतु चलता-फिरता पुतला।
ii) जीव क्या है? आपाधापी में निरत, दूसरों को नोंच खाने की कुटिलता में संलग्न चेतना स्फुल्लिंग।
iii) जीवन क्या है? एक लदा हुआ भार जिसे कष्ट और खीज़ के साथ ज्यों-त्यों वहन करना पड़ता है। पेट भरना और प्रजनन इसका लक्ष्य बन गया है,लालच, घृणा,काम वासना की खाज-खुजाते रहना, इसका सबसे प्रिय प्रसंग है
आज के सामाजिक और वैयक्तिक जीवन की कितनी सटीक विवेचना है। कारागार में उपस्थित सभी के मन अपने गुरु से एकाकार हो रहे थे।
जन समुदाय को इस जीवन की विडम्बना से बाहिर निकालने के लिए उसके “विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन” करना होगा। इस परिवर्तन के बाद ही यह मानव, यह समस्त जन समुदाय समझ सकेगा कि
“शरीर भगवान का मन्दिर” है। व्यक्तित्व आस्था है और मनुष्य श्रद्धा। चेष्टाएँ,आकांक्षाओं की प्रतिध्वनि हैं। इन सबके सामंजस्य का ही उपाय है कि विचार बदलें। तुम लोग मेरे विचारों के संवाहक बनो, You should become the conductor, preacher and carrier of my thoughts.
बातचीत का क्रम चल रहा था कि इतने में जेल का अधीक्षक स्वयं विष के घोल से भरा प्याला लेकर आ गया। उसकी स्वयं की आँखें डबडबाई हुई थी। उसे देखकर अन्यों की आँखें भर आई, लेकिन सभी विवश थे।
सुकरात ने मुसकराते हुए प्याले को हाथ में लिया और बोले:
“इसमें निहित द्रव अज्ञान की बूंदों का संघटन है। मैं विष नहीं अज्ञान पीने को तत्पर हुआ हूँ। मेरे सशरीर न रहने पर तुम सबकी ज़िम्मेदारी अब की तुलना में असंख्यों गुना बढ़ जाएगी। विश्वास रखो- विचारों के रूप में, प्रेरक शक्ति के रूप में, तुम सब प्रतिपल मुझे अनुभव कर सकोगे। पहले मैं एक शरीर के रूप में कार्य करता था और आज से तुम सभी के माध्यम से अनेकों शरीरों द्वारा कार्य करूँगा। ज्ञान और आप सबकी कर्म शक्ति का यह समन्वय अत्यंत अद्भुत होगा, ऐसा अद्भुत जिसके चमत्कारी परिणाम देखकर यह संसार चौंक उठेगा ।”
विष का प्याला अधरों से जा लगा, सिसकियाँ फूट पड़ी जो एक-एक घूँट के बढ़ते क्रम के साथ बढ़ती ही जा रहीं थीं। उनके मुख पर प्रसन्नता और आँखों में दीप्ति यकायक बढ़ी और फिर मन्द पड़ने लगी। उनके आखिरी शब्द थे:
“चिन्तित मत होना, घबराना नहीं, तुम सभी विचारों के रूप में, ज्ञान के रूप में और मार्गदर्शक के रूप में हर पल-हर क्षण हमें महसूस करोगे। ध्यान रखना कर्मशक्ति मन्द न पड़े।”
सुकरात पानी की तरह विष पी गए और लेटकर शिष्यों से कहने लगे,

“विष का प्रभाव अब पैरों से शुरू हुआ है…, अब जांघों तक आ चुका है…, अब कमर तक प्रभाव होने लगा है।”
आखिर में उन्होंने कहा, ‘रक्तवाहिनियों ने काम करना बंद कर दिया है,अब हृदय तक आ गया, लेकिन मृत्यु जिसको मारती है उसे मैं भलीप्रकार देख रहा हूं। जो मृत्यु को देखता है उसकी मृत्यु नहीं होती! इस बात को तुम भी जान जाओ। सबके जीवन में मौत का दिन जरूर आएगा। मौत से डरने की जरूरत नहीं है। मौत किसकी होती है? किस तरह होती है, उस समय साक्षी होकर जो मृत्यु को देखता है, वह मौत से परे अमर आत्मा को जानकर मुक्त हो जाता है।’
स्वयं को व्यक्ति नहीं विचार कहने वाले यह महामानव थे-यूनानी दर्शन के पितामह-सुकरात जिनके द्वारा जलाई गई ज्ञान की मशाल को उनके शिष्यों ने निज के प्राणों की आहुति देकर जलाए रखा। अब हम सबकी बारी आ पहुँची है- “युग सुकरात” के विचारों को, परमपूज्य गुरुदेव के विचारों को जन-जन तक पहुँचाने की।
धन्यवाद् जय गुरुदेव -समापन