17 जून 2022 का ज्ञानप्रसाद- ज्ञानयज्ञ से ही संभव है अज्ञान असुर का वध
आज के ज्ञानप्रसाद में हम अपने इर्द-गिर्द अज्ञान असुर के कारण विपत्तियों और समस्याओं पर चर्चा करते हुए यह जानने का प्रयास करेंगें कि ज्ञानयज्ञ द्रव्ययज्ञ से श्रेष्ठ क्यों है। हमने यह comparison pointwise लिखने का प्रयास किया है ताकि समझने में आसानी हो सके।
कल का ज्ञानप्रसाद हमारी सबकी प्रिय प्रेरणा बिटिया द्वारा वीडियो होगी और शनिवार का सेगमेंट आप सबका ही तो होता है।
तो आइये चलें आज की पाठशाला की ओर :
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जनमानस में घुसा अज्ञान असुर :
अपने युग का सबसे बड़ा संकट है हर जगह फैला अज्ञान । चिंतन के क्षेत्र में इतनी भ्रांतियाँ इन दिनों घुस पड़ी हैं कि उन्होंने “ईश्वर के राजकुमार मनुष्य” को नरक-कीट जैसी दयनीय स्थिति में पटक दिया है। परिष्कृत चिंतन के अभाव में अवांछनीय मान्यताएँ हर क्षेत्र में घुस पड़ी हैं और उन्होंने ऐसी अगणित विपत्तियाँ तथा समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं जो न टाले टलती हैं और न सुलझाए सुलझती हैं। चिंतन की भ्रष्टता ने मनुष्य को अंधा, अविवेकी, बहरा, अहंकारी, गूंगा, कुंठाग्रस्त, मृतक, पराश्रित, दूसरों के लिए भारभूत बनाकर रख दिया है।
प्राचीनकाल में रावण, कंस, हिरण्यकशिपु आदि असुरों ने एक सीमित क्षेत्र में, सीमित संख्या के लोगों को सताया था लेकिन अज्ञान असुर ने हमारे आस पास की अधिकांश जनसंख्या को अपने चंगुल में कस लिया है। स्वास्थ्य क्षेत्र में प्रवेश करके इस असुर ने मनुष्य को असंयमी और रोगी बना दिया है। चरित्र क्षेत्र में अपराधी, मनःक्षेत्र में अशांत, दांपत्य जीवन में घृणा-द्वेष आदि की संभावनाएँ विकसित कर दी हैं। हर तरफ पैसा ही पैसा दिख रहा है और यह पैसा व्यसन और अपव्यय में नष्ट हो रहा है। विद्यावृद्धि के साथ छल-प्रपंच की और धनवृद्धि के साथ तृष्णा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। साधु-ब्राह्मण प्रतिगामिता का पोषण करने में लगे हुए हैं। भक्ति जैसी पवित्र साधना पागलपन बनकर रह गई है। ऐसी स्थिति बन चुकी है कि कहने वाले तो यहाँ तक भी कह रहे हैं “ईश्वर को भी चापलूसी और रिश्वतखोर” पसंद हैं। पाप से डरने की और परमार्थ करने की अब तनिक भी आवश्यकता नहीं रही क्योंकि short-term कर्मकांड पाप नाश करने और अक्षय पुण्य पाने के लिए पर्याप्त बता दिए गए हैं। जीवन का मूल्य और उद्देश्य न समझ पाने के कारण लोग पशु और पिशाच का जीवन जी रहे हैं। यह सब जनमानस में घुसे हुए अज्ञान असुर का ही प्रभाव है।
आधुनिक युग के अगणित संकटों का और अंधकार से आच्छादित भविष्य का एकमात्र कारण यह “फैला हुआ अज्ञान” ही है। गुरुदेव की शिक्षा पर आधारित ऑनलाइन ज्ञानरथ के प्रत्येक परिजन को रीछ, वानर की भांति इसी अज्ञान से जूझना है और मानवी आदर्शों की सीता को वापस लाना है। छिटपुट पुण्य-परमार्थ में ध्यान बटाने बजाए इस आपत्तिकाल में हमें अपनी समूची शक्ति इसी असुरता के उन्मूलन पर केंद्रित करनी चाहिए। जनमानस के परिष्कार को सर्वोपरि युगधर्म मानना चाहिए। विचारक्रांति के लिए आयोजित ज्ञानयज्ञ में हमें बढ़-चढ़कर अपनी आहुति देनी चाहिए। इन दिनों इससे बढ़कर और कोई पुण्य-परमार्थ हो ही नहीं सकता। इस युग की सबसे बड़ी लोक साधना यही है। इस पुण्य-प्रयोजन के लिए आत्मसाधना की बात सोचने वाले प्रत्येक व्यक्ति को दो घंटे नित्य समय देने की योजना बनानी ही चाहिए।
गुरुदेव कहते हैं कि इस अज्ञान असुर के कारण जो अशांति पहेली हुई है उसने कई प्रकार के चिंतन-दोष उत्पन कर दिए हैं। आज के मनुष्य को इस बात का ध्यान ही नहीं है कि जो कुछ ईश्वर ने दिया है वह कम नहीं है। पशु-पक्षियों की, दुःखी-दरिद्रों की, रुग्ण-अपंगों की तुलना में अभी भी हमारी स्थिति बहुत ही अच्छी है। ईश्वर द्वारा प्रदान हुई इस स्थिति पर मोद मनाया जा सकता है और अधिक प्राप्त करने के लिए उत्साह एवं आशा भरी मनः स्थिति में प्रयत्न जारी रखा जा सकता है। हमारा अधिकांश मानसिक बोझ अवास्तविक और निराधार होता है। व्यर्थ का चिंतन ही हमें अशांत बनाए रखता है। संतान न होने पर कितने ही व्यक्ति दुःखी रहते हैं जबकि उत्तरदायित्वों का बोझ हलका होने के कारण उन्हें संतान का भार वहन करने में बेतरह पिसते हुए लोगों की तुलना में अधिक प्रसन्न होना चाहिए था। इसी प्रकार अनेक अनावश्यक महत्त्वाकांक्षाएँ दुःखी करती रहती हैं जबकि अनावश्यक महत्त्वाकांक्षाओं का, तृष्णाओं का बोझ आसानी से हलका किया जा सकता है और सादगीपूर्ण जीवन का आनंद लिया जा सकता है। प्रस्तुत कठिनाइयों से लड़ा-जूझा जाए, उन्हें हटाने के लिए पूरा कौशल प्रयुक्त किया जाए, फिर भी यदि वे न हटें तो प्रारब्ध निपट जाने की बात सोची जा सकती है। हम क्यों नहीं सोचते कि यह हमारी दृढ़ता, साहसिकता, संतुलन आदि सद्गुणों की परीक्षा का अवसर है। भी उसे माना जा सकता है। कठिन समय में भी चिंतन का परिष्कृत स्तर मन का भार हलका करने में बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। रिसर्च ने साबित कर दिया है कि दुःखी मनःस्थिति का सबसे बड़ा कारण सही ढंग से न सोच पाना ही था। यही तो है गुरुदेव की “विचार क्रांति, हमारे विचार, हमारी सोच।” इस सोच को सुधार लेने पर ही अधिकांश समस्याओं का हल मिल जाता है। फिर भी जो रह जाए उसे ऐसे ही हँसते-खेलते सहन किया जा सकता है।
ज्ञानयज्ञ द्रव्ययज्ञ से श्रेष्ठ क्यों?
श्रीमद भगवतगीता में भगवान बताते हैं कि “द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ” है। इस श्रेष्ठता का कारण जानने से पूर्व ज्ञानयज्ञ और द्रव्ययज्ञ का अंतर् समझना बहुत ही आवश्यक है।
द्रव्यज्ञ कर्मयोग है और ज्ञानयज्ञ ज्ञानयोग है :
सामग्री द्वारा अग्नि में मंत्रोच्चार के साथ हवन करने को द्रव्ययज्ञ कहते हैं। यज्ञ का सूक्ष्म अर्थ पदार्थ एवं क्रिया के यापन की उस विधि की ओर संकेत करता है जिसके अंतर्गत परमार्थ का कोई न कोई भाव चल रहा हो। जो मनुष्य शुभ उपायों द्वारा द्रव्य उपार्जन करता है, उसके उपार्जन में समाज की आर्थिक उन्नति की भावना रखता है, अपने धनाभाव को दूर करना नैतिक कर्त्तव्य समझता है, प्राप्त धन में आत्मभाव न रखकर उसको समाज की संपत्ति मानता है और उसी भाव से आगे क्रियाशील रहने के लिए अपने लिए केवल जरूरत भर ही खरच करता है और शेष का उचित भाग समाज के कल्याण के लिए दान द्वारा, सहायता द्वारा अथवा संस्थापना द्वारा खरच करता है, परमार्थ परोपकार और पुण्य-कार्यों में लगाता है, वह निश्चय ही द्रव्ययज्ञ करता है। इसलिए द्रव्ययज्ञ का कर्मयोग से संबंध है। जिस प्रकार द्रव्ययज्ञ का कर्मयोग से सम्बन्ध है उसी प्रकार ज्ञानयज्ञ का संबंध ज्ञानयोग से है। द्रव्य की भाँति ही ज्ञान का उपार्जन करना, अज्ञान को दूर करना,ज्ञान का संचय तथा अभिवर्द्धन करना, शारीरिक, सांसारिक संकटों के काटने और आत्मा के बंधन दूर करने के साथ संसार में विद्या का प्रकाश फैलाना, ज्ञानयज्ञ ही कहा जाएगा।
सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करने पर विदित होगा कि इन दोनों यज्ञों का परम परिणाम एक ही है तथापि भगवान ने द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ को श्रेष्ठ बतलाया है। वह किन कारणों से? उनमें से एक कारण तो भगवान ने स्वयं ही प्रकट कर दिया है। वह यह कि जितने भी कर्म हैं उनकी परिसमाप्ति ज्ञान में ही होती है। निश्चय ही इन कर्मों की परिसमाप्ति का आध्यात्मिक अर्थ तो यही है कि ज्ञान प्राप्त हो जाने पर किए हुए कर्मों के सारे अच्छे-बुरे फल नष्ट हो जाते हैं और मनुष्य पुण्य-पाप दोनों के बंधनों से छूटकर सर्वथा मुक्त हो जाता है।इसी बात को ऐसे भी कहा जा सकता है कि ज्ञानी को कर्मों का बंधन नहीं लगता, वह सर्वथा उससे मुक्त रहता है। ऐसा क्यों होता है ? इसलिए कि ज्ञानी जो कुछ करता है उसे परमात्मा की आज्ञा अनुभव करता हुआ ही करता है। वह जो कुछ करता है उसका फल भी उसी को समर्पित कर देता है। ऐसे त्यागी ज्ञानी पुरुष को कर्मों का फल कैसे प्रभावित कर सकता है।
भगवान द्वारा निर्देशित इस कारण के अतिरिक्त ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठता के अन्य कारण भी हैं। 1.द्रव्ययज्ञ का आयोजन करने में बहुत से साधनों एवं उपकरणों की आवश्यकता होती है. जबकि ज्ञानयज्ञ के लिए किन्हीं विशेष साधनों की जरूरत नहीं होती।
2.द्रव्ययज्ञ का संपादन करने के लिए द्रव्य की जरूरत है, पर ज्ञानयज्ञ में किसी भी द्रव्य की आवश्यकता नहीं है।
3.ज्ञानयज्ञ के लिए जिज्ञासा और बुद्धि दो साधनों की जरूरत है, वह मनुष्य को निसर्ग रूप से ही मिले रहते हैं। विचारों की खेती के लिए स्वाध्याय और स्वाध्याय के लिए पुस्तकों की आवश्यकता होती है, वह किसी भी योग्य पुस्तकालय से पूरी हो सकती है। इसके अतिरिक्त वह स्वाध्याय सत्संग के माध्यम से भी किया जा सकता है। इसमें तो किसी प्रकार के व्यय की आवश्यकता है ही नहीं। आजकल तो इंटरनेट पर ज्ञान का अम्भार लगा हुआ है जो निशुल्क ही उपलब्ध है।
4.द्रव्ययज्ञ बिना धन के कठिन है,इसलिए आर्थिक पुरुषार्थ करना ही पड़ता है । आज के समय में आर्थिक पुरुषार्थ की प्रकृति सर्वथा पवित्र एवं निष्कलंक बनाए रखना यदि असंभव नहीं तो कम से कम कठिन तो है ही।
5.ज्ञानयज्ञ की साधना में ऐसी कोई कठिनाई नहीं है। थोड़ा सजग रहकर ज्ञान का उपार्जन पवित्रतापूर्वक किया जा सकता है। अनैतिक एवं अनुचित विचार-संस्कार से थोड़ा सतर्क रहकर विशुद्ध एवं कल्याणकारी ज्ञान का अर्जन किया ही जा सकता है।
6.द्रव्ययज्ञ के विस्तार के लिए जो दान अथवा परोपकार का आयोजन चलाना होता है, उसमें इक्क्ठे किये गए धन के किसी अपात्र के पास पहुँच जाने की आशंका भी हो सकती है। वह अपात्र उसका दुरुपयोग कर अहित की संभावना उपस्थित कर सकता है, किंतु ज्ञानयज्ञ में यह आशंका नहीं रहती। उसके लिए पात्र-अपात्र का बंधन नहीं होता। बल्कि ज्ञान का दान उनके लिए तो और भी उपादेय है जो पथ भूले हुए हैं और अविद्या के अंधकार में भटक रहे हैं। यदि सच कहा जाए तो ज्ञानदान के सबसे अधिक अधिकारी वही हैं जिनका मार्ग ठीक नहीं है जिनके संस्कार विकृत हो गए हैं।
7.द्रव्य क्षरणशील (consumable) उपादान है। वह आज है तो कोई ज़रूरी नहीं की कल भी रह सकता है। ऐसी स्थिति में किसी भी द्रव्य याज्ञिक को किसी समय भी न होने का सामना करना पड़ सकता है और तब उसके उस कार्यक्रम में व्यवधान पड़ सकता है, किंतु ज्ञानयज्ञ में इस तरह की कोई संभावना नहीं रहती।
8.ज्ञान ही एक ऐसा तत्त्व है जो क्षरणशीलता से सर्वथा मुक्त रहता है। ज्ञान सदैव बढ़ता ही है घटता तो कदापि नहीं और उसका नाश तो कभी हो ही नहीं सकता।
9.द्रव्ययज्ञ से परमार्थ-पथ में किसी की द्रव्य द्वारा एक छोटी सीमा तक ही सहायता संभव हो सकती है और वह भी कुछेक पात्रों को ही, किंतु ज्ञानयज्ञ में एक पुस्तक, एक प्रवचन द्वारा सैकड़ों-हजारों की मुक्ति होने तक सहायता की जा सकती है। ऑनलाइन ज्ञानरथ के लेख इसका प्रतक्ष्य उदाहरण हैं।
10.द्रव्यदान पाकर कोई बहुत कम समय तक ही अपनी कठिनाई दूर रख सकता है किंतु जिसको ज्ञान का दान दिया जाता है उसके लिए एक तो कठिनाइयाँ महत्त्वहीन हो जाती हैं दूसरा वह उस ज्ञान द्वारा हर देश-काल में अनुकूलताएँ अर्जित कर सकता है। जहाँ धन उसे कुछ समय तक ही सहायक तथा लाभकर होगा, वहाँ ज्ञान उसे आजीवन ही नहीं जीवनोपरांत भी साथ देता रहता है।
इन्हीं सब कारणों से ज्ञानयज्ञ को द्रव्ययज्ञ से श्रेष्ठ बताया और माना गया है।
हम अपनी लेखनी को यहीं अल्प विराम देने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सुबह की मंगल वेला में आँख खुलते ही इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और यह ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे।
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16 जून 2022 के लेख के अमृतपान उपरांत केवल संध्या कुमार बहिन जी ने ही 24 आहुति संकल्प किया और बहिन जी ही एकमात्र विजेता हैं। उन्हें हमारी हार्दिक बधाई।