ज्ञान का दान ही सर्वोच्च दान है I

16 जून 2022 का ज्ञानप्रसाद- ज्ञान का दान ही सर्वोच्च दान है 

ज्ञानदान, ज्ञानयज्ञ आदि की श्रृंखला का आज हम तृतीय लेख प्रस्तुत कर रहे हैं।  बहुत ही प्रसन्नता होती है गुरुदेव के  विस्तृत साहित्य में से चुन चुन कर अमृत का पान  करना-अध्ययन करना , उसके उपरांत, सरल करके अपने परिवार के समक्ष रखना और फिर परिजनों द्वारा मूल्यांकन करना। आज के लेख में भी बहुत कुछ ज्ञानप्राप्ति के साधन हैं तो चलते हैं सीधे लेख की ओर।  

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ज्ञानदान एक प्रकार का ऋषिऋण:

इस युग में ज्ञान की बड़ी आवश्यकता है। स्थूल दान का महत्त्व अब इसलिए कम हो गया है कि उसमें पात्र-कुपात्र का अंदाजा  नहीं होता, पर ज्ञान की आवश्यकता अच्छे-बुरे हर व्यक्ति के लिए है। उससे किसी का अहित नहीं हो सकता और न ही उस दान का दुरुपयोग किया जा सकता है। ज्ञान मनुष्य के सर्वतोमुखी विकास का साधन है। समाज में ज्ञानवान व्यक्ति अधिक सुखी और संतुष्ट समझे जाते हैं। समाज का एक वर्ग इस तरह का हो और दूसरा मूढ़ताग्रस्त हो तो वह समाज दुःखी  समाज होगा। ज्ञान का उद्देश्य मानव को एक स्तर पर लाना है। यह कार्य निस्संदेह कुछ कठिन है, पर इसका महत्त्व अत्यधिक है। आज की स्थिति में सर्वोच्च दान ‘ज्ञान’ को मानें तो वह सर्वथा उपयुक्त ही होगा।

मनुष्यों पर ऋषियों का भी एक ऋण है। ऋषि का अर्थ है वेद, वेद अर्थात ज्ञान। आज तक हमारा जो विकास हुआ है, उसका श्रेय ज्ञान को जाता  है ऋषियों को जाता  है। जिस प्रकार  हम यह ज्ञान दूसरों से ग्रहण कर विकसित हुए हैं, उसी तरह अपने ज्ञान का लाभ औरों को भी देना चाहिए। यह हर विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह समाज के विकास में अपने ज्ञान का जितना अंशदान कर सकता हो, उसे  अवश्य करना चाहिए। ज्ञानदान मनुष्य को सन्मार्ग की ओर ले जाने के लिए किया जाता है,इसलिए यह अन्य दानों की अपेक्षा अधिक सार्थक होता है। जो प्रत्यक्ष या परोक्ष विचार, वाणी या सत्साहित्य पढ़ाकर दूसरों को ऊँचे उठाने का प्रयत्न करते हैं, वे सच्चे अर्थों में ब्राह्मण हैं, उन्हीं के दान को सर्वश्रेष्ठ दान कहेंगे। आज इसी दान की विश्व को आवश्यकता है। 

ज्ञानदान सर्वश्रेष्ठ उपकार भी है:

ज्ञानदान से मनुष्य का सर्वांगीण, अक्षय और स्थायी लाभ होता है। ऋषियों के दिए उस मूलभूत ज्ञान को ही आधार बनाकर, मनुष्यता तब से अब तक विकास करती चली आ रही है। यदि बेसिक विज्ञान के किसी छात्र को यह ऋषियों द्वारा मनुष्य के विकास की बात कही जाये तो वह कहेगा कि यह आपका अन्धविश्वास है। Darwin Theory of Evolution का हवाला देते हुए कहेगा कि यह तो साइंस है ,विकास तो scientific है, ऋषि कहाँ से आ गए लेकिन शायद उसके अल्प ज्ञान ने उसे इस बात का  चिंतन-मनन करने  का अवसर ही नहीं दिया कि where science fails spiritual science comes into play. 

यदि हमारे  पूर्वपुरुषों ने ज्ञानदान  उपकार न किया होता और केवल धन अर्जित करने  की साधना ही सिखाई होती, केवल वही साधन खोजकर दिए होते जिनसे शारीरिक भोगों की ही सुविधा हो सकी होती तो शायद मनुष्य अब तक पशु की अवस्था में ही होता। न तो उसे आत्मा का ज्ञान हो पाता और न ईश्वर का परिचय। शरीर ही उसकी आत्मा होती और शरीर ही परमात्मा, जिसकी तृप्ति करते रहना ही उसकी पूजा होती। आज की सुन्दर  सभ्यता, आनंदमयी संस्कृति और कल्याणकारी धर्म जिसके कारण हम मनुष्य संसार के सर्वश्रेष्ठ प्राणी बने हैं, उन ऋषि-मुनियों  का वह सर्वश्रेष्ठ  उपकार  है जिसको उन्होंने ज्ञानदान के रूप में हम पर किया है।

मनुष्य में अंदर विकसित होते गुण यानि चरित्र विकास भी प्रथम श्रेणी के उपकार माने गए हैं। यह भी ज्ञानदान के अंतर्गत ही आते हैं। जिस  ज्ञान से  मनुष्य गुणी और  चरित्रवान नहीं बन सकता, वह या तो ज्ञान है ही नहीं या  उसका देने वाला स्वयं चरित्रवान नहीं है, नहीं तो  गुण  एवं चरित्र तो ज्ञान के अनिवार्य अनुबंध है। ज्ञान के साथ उनका आ जाना अनिवार्य  होता है।

संसार का सर्वश्रेष्ठ उपकार (ज्ञानदान) करने के लिए मनुष्य को स्वयं ज्ञानी, गुणी तथा चरित्रवान बनना चाहिए और इन विशेषताओं को बिना किसी स्वार्थ अथवा लोभ के समाज में वितरित करना चाहिए। किंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जो सर्वश्रेष्ठ यानि प्रथम श्रेणी का उपकार कर सकने की परिस्थिति में नहीं है, वह उपकार के कार्यों की ओर से विमुख अथवा उदासीन हो जाए। जो प्रथम श्रेणी का उपकार नहीं कर सकता उसे  द्वितीय अथवा तृतीय श्रेणी का ही उपकार करते रहना चाहिए। समाज के जीवन और संसार के विकास के लिए परोपकार की प्रवृत्तियाँ बहुत आवश्यक हैं, वह चलती ही रहनी चाहिए। इससे लोकहित भी होगा और आत्मकल्याण भी। 

ज्ञानप्राप्ति के लिए हर क्षण के   “अनुभव” का बहुत ही बड़ा योगदान है। हमारी युवा पीढ़ी को  परिवार के वरिष्ठों से उनके अनुभव पर आधारित बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त हो सकता है लेकिन शर्त केवल एक ही है अगर युवा पीढ़ी आपको सुनने के लिए तत्पर है। हम तो बार-बार कहते आये हैं कि माता पिता एवं अन्य वरिष्ठ अपनी संतान को  निस्वार्थ अपना सब कुछ दे देना चाहते हैं, यहाँ तक कि वर्षों का ग्रहण किया अनुभव (ज्ञान) भी। युवा वर्ग को चाहिए कि  सांसारिक चेष्टाओं को ध्यानपूर्वक देखे और समझे। अन्य  व्यक्तियों के गुण-कर्म-स्वभाव के बारे में जान कर   उनके व्यवहार का परिणाम देखा-समझा जा सकता है  और उससे शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। बुरा  काम करने वाले किसी व्यक्ति को यदि हम पतन  के गड्ढे में गिरते देखें तो विश्वास कर लेना चाहिए कि जिस मार्ग पर अमुक व्यक्ति चल रहा था, चलने योग्य नहीं है। इसी प्रकार जब सत्कर्म करने वालों को सुखशांति, संतोष और सम्मान का अधिकारी बनते देखें तो मान लेना चाहिए कि यह मार्ग हमारे चलने योग्य है। इसी प्रकार मनुष्य  रहन-सहन, आचार-व्यवहार और गुण-कर्मों के परिणाम को देखकर भी शिक्षा ले सकता है। अपना सुधार करके  अपने को ठीक मार्ग पर चलाकर ठीक लक्ष्य पर पहुँच सकता है। तात्पर्य यह है कि सत्संग, स्वाध्याय, चिंतन-मनन और अनुभव के आधार पर व्यक्ति को सद्ज्ञान प्राप्त करने का निरंतर प्रयास करते ही रहना चाहिए।

बिना ज्ञान के हमारा  जीवन न तो  सफल होता है और न ही  सार्थक। अज्ञानावस्था में भौतिक  और आत्मिक दोनों जीवनों का नाश हो जाता है। इसलिए इस अंधकार से निकलकर ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर निरंतर बढ़ने का प्रयास करते  रहना चाहिए। इस प्रयास में प्रमाद अथवा आलस्य करने का अर्थ है-अपने सुरदुर्लभ मानव जीवन को नष्ट कर देना। 

मनुष्य के मस्तिष्क में हर क्षण हज़ारों  विचार आते-जाते रहते हैं, किंतु यह कोई आवश्यक नहीं कि वे सब के सब ही उपयोगी और सार्थक हों। हम में से बहुतों ने अनुभव किया होगा की विचारों का आदान-प्रदान कई बार इतना प्रबल हो जाता है कि हम  पूजास्थली में ,हाथ में माला लिए बैठे तो हैं लेकिन भगवान के साथ एक होने के बजाय विचारों के कूड़ा कर्कट में उलझे पड़े  हैं। इस स्थिति से छुटकारा पाने का एकमात्र मार्ग यही है कि मस्तिष्क में प्रतिक्षण आने वाले विचारों को देखते-परखते रहना चाहिए और जो विचार अपने उद्देश्य और प्रयोजन के लिए आवश्यक और उपयोगी दीखें, उन्हें तो रहने दिया जाए और बाकी के सारे बेकार विचारों को निकालकर फेंक देना चाहिए। यद्यपि विचारों को रोकने और निकाल फेंकने में थोड़ी कठिनाई जरूर होती है, तथापि थोड़े-से अभ्यास द्वारा यह सरल बनाया जा सकता है। कुछ समय सावधान तथा सक्रिय रहने के बाद मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा बन जाता है  कि उसकी चिंतनधारा में अनावश्यक विचार प्रवेश कर ही नहीं पाते । इस प्रकार जब मन में शुद्ध तथा सुंदर विचार दृढ़ होने लगेंगे तो वे स्वयं भी अपने से विरोधी विचारों को अपने क्षेत्र में नहीं ठहरने देंगे। 

परमपूज्य गुरुदेव ने बहुत ही प्रैक्टिकल तरीके से  ज्ञानप्राप्ति का मार्ग बताया है। वह कहते हैं कि हमारा उद्देश्य  ज्ञान  को “क्रिया” में उतारना  है, working life में behaviour में उतारना है। अगर लोग ज्ञानयज्ञ से प्रभावित हो रहे हैं तो केवल  सिर हिलाकर सहमति प्रकट कर देने या विचारों की सराहना कर देने मात्र से कुछ नहीं होने वाला। यदि लोगों को  नवनिर्माण की विचारधारा पसंद आई है तो इस दिशा में चलने के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन के लिए भी कुछ कदम उठाएँ। केवल मौखिक सहानुभूति से ही तो कुछ बनने वाला नहीं है। अगर लोगों को विचार पसंद आयेंगें तो स्वयं आकर्षित होते आयेंगें, अगर आकर्षित नहीं होते तो इसका अर्थ यही निकलता है कि कहीं कोई कमी है।  यही मूल्यांकन हम ऑनलाइन ज्ञानरथ के लिए  बार बार प्रस्तुत कर चुके हैं। इस छोटे से परिवार में जितने भी परिजन जुड़े हैं स्वयं ही आकर्षित हुए हैं, हमने तो कभी कोई विज्ञापन भी नहीं दिया , विज्ञापन देना तो दूर हमने तो youtube चैनल को भी demonetize  किया हुआ है, वहां पर भी कोई विज्ञापन नहीं चलता।  यूट्यूब अपनी requirement के कारणवश चलाता  है तो उस पर हमारा कोई कण्ट्रोल नहीं है। प्रयोजन तो क्रिया से सिद्ध होता है। उत्कृष्ट विचारणा का संयोग जब तक आदर्श कर्तत्वों के साथ न हो, तब तक उसे नपुंसक और निरर्थक ही कहा जाता रहेगा। ऐसा अनुत्पादक समर्थन यदि हम संग्रह भी करते रहें  तो उससे कुछ बात बनेगी नहीं। ज्ञानयज्ञ की सार्थकता इस बात में है कि वह प्रखर कर्मठता को जन्म दे सके।

गुरुदेव आज से कई वर्ष पहले जो बात लिख गए  हैं वह आज बिल्कुल उसी तरह हो रही है। वह कहते हैं: लोगों के पास साधनों की कमी नहीं है, पैसा इन दिनों फैला-फैला फिर रहा है, शिक्षा बहुत बढ़ गई है, चतुरता और कुशलता में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। कमी है तो केवल  एक ही  कि यह संपत्ति और बुद्धि की दोनों विभूतियाँ असुरता के हाथों पड़ गई हैं। उनका उपयोग वासना, तृष्णा और अहंकारिता की पूर्ति के लिए हो रहा है। संग्रह की, अभिवर्द्धन की अंधी दौड़ लग रही है। किसी के भी ध्यान में यह नहीं है कि इसका सदुपयोग क्या हो सकता है। लोगों को यह बताने की आवश्यकता है कि संपत्ति का संग्रह ही बुद्धिमानी नहीं है, प्रतिभा का होना ही सराहनीय नहीं है। मूल बात यह है कि इन उपलब्धियों को किसने, किस प्रयोजन के लिए खर्च  किया? इसी स्थान पर बुद्धिमान लोग मूर्ख बनते हैं। जिससे विकास हो सकता था उसे विनाश में प्रयुक्त करते हैं। हम उपार्जन, अभिवर्द्धन की विधि न बता सकें तो हर्ज नहीं है, उसे असंख्य दूसरे  लोग बता रहे हैं। हमें सदुपयोग की आवश्यकता समझने की दिशा में उद्बोधन करना है और जहाँ संभव हो सके, वहाँ उसके लिए साहस भी जुटाना है।

हम अपनी लेखनी को यहीं विराम देने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सुबह की मंगल वेला में आँख खुलते ही इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और यह ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे। हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। धन्यवाद् जय गुरुदेव। 

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15 जून 2022, की 24 आहुति संकल्प सूची: 

(1)  अरुण वर्मा -36  , (2 ) सुमन लता -24, (3) संध्या कुमार-25, (4 ) विदुषी बंता- 24, (5) सरविन्द कुमार-36   

इस सूची के अनुसार सरविन्द पाल और अरुण वर्मा दोनों  ही  गोल्ड मैडल विजेता हैं, दोनों  को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनको हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। धन्यवाद

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