वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

ज्ञानयज्ञ ही युगनिर्माण आंदोलन की पृष्ठभूमि है।

14 जून 2022 का ज्ञानप्रसाद- ज्ञानयज्ञ ही युगनिर्माण आंदोलन की पृष्ठभूमि है।

ज्ञानप्रसाद आरम्भ करने से पहले हम अपने सहकर्मियों से क्षमा प्रार्थी है कि कल रात को  शुभरात्रि सन्देश नहीं भेजा जा सका, यह गलती तो हमारी है ही लेकिन इससे भी बड़ी गलती है कि हम सूचित भी न कर पाए।  इस अनुशासन हीनता के लिए हमारे सहकर्मी जो दंड देंगें हमें मान्य होगा।  डॉक्टर के पास हमारा  रेगुलर चेकअप था और उसमें कुछ अधिक समय ही लग गया, हम ऐसी स्थिति में थे कि छोड़ कर आना कठिन था।      

आज के ज्ञानप्रसाद में हम जानेगें कि  ज्ञानदान को सबसे बड़ा दान क्यों कहा गया है और सद्विचारों और सत्प्रवृत्तियों की हमारे जीवन में क्या भूमिका है। परमपूज्य गुरुदेव के  युगनिर्माण आंदोलन की पृष्ठभूमि ज्ञानयज्ञ ही है। हमारे पाठक देखेंगें कि ऑनलाइन ज्ञानरथ के लेखों के  प्रचार- प्रसार के लिए  हम जिन साधनों को अपने सहकर्मियों के समक्ष रख रहे हैं, परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी में बहुत ही प्रबल ढंग से बताया गया है।आशा करते हैं गुरुदेव की वाणी को हमारे सहकर्मी अपने अंतःकरण में ढालने का प्रयास करेंगें।

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हमारे आंदोलन की पृष्ठभूमि-ज्ञानयज्ञ

युग निर्माण के लिए हमें “ज्ञान का प्रकाश” उत्पन्न करना है। जिन दुर्बलताओं और बुराइयों ने जनमानस पर आधिपत्य जमा रखा है, उन बुराइयों और हानियों को यदि मनुष्य भली प्रकार समझ ले तो उन्हें छोड़ने के लिए अवश्य उत्सुक होगा। यदि प्रगति और शांति का सच्चा मार्ग उसे विश्वासपूर्वक उपलब्ध हो जाए तो अनैतिक, अपराधपूर्ण खतरे से भरे हुए दुखदायी रास्ते पर वह क्यों चलेगा? संसार में जितनी भी क्रांतियाँ हुई हैं,उनमें सर्वप्रथम क्रांति विचार क्रांति ही है क्योंकि विचारों से ही तो कृत्य जन्म लेते हैं। अच्छे विचार अच्छे कार्य, बुरे विचार बुरे कार्यों को जन्म देते हैं। ज्ञान ही क्रिया का पर्व रूप है। कोई कार्य तभी दृश्य रूप में आता है, जब पहले वैसे विचार मन में गहराई तक अपनी जड़ जमा लेते हैं।

यदि हमें अपना व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन श्रेष्ठ, सुव्यवस्थित एवं प्रगतिशील बनाना है तो उसके लिए आवश्यक ज्ञान का व्यापक प्रसार करना होगा। सदज्ञान ही आत्मा की भूख है, उस भूख को पूर्ण करने के लिए हमें अपनी परमार्थ-वृत्ति को प्रबुद्ध करना पड़ेगा। ज्ञानदान सबसे बड़ा दान है। इसे ब्रह्मकर्म कहा गया है। आपत्ति से निकालने वाले साधनों में ज्ञान ही प्रधान है। व्यक्ति में सुधार और परिवर्तन इसी माध्यम से संभव हो सकता है। गुरुदेव अखण्ड ज्योति के जनवरी 1962 के अंक में लिखते हैं 

“अब हम युग निर्माण के लिए ज्ञानयज्ञ आरंभ करते हैं। विभिन्न प्रयोजनों की पूर्ति के लिए विभिन्न यज्ञों के आयोजन होते रहे हैं। गायत्री का अग्निहोत्र यज्ञ प्रथम अध्याय के रूप में अब अपने नियत लक्ष्य तक आ पहुँचा। यज्ञ की महत्ता से अपरिचित जनता ने उसका महत्त्व समझा भी और उसे अपनाया भी। अब ऊँची कक्षा में पंचकोश साधना के साथ-साथ ज्ञानयज्ञ का महाअभियान आरंभ किया जा रहा है। युग निर्माण की पृष्ठभूमि यही है।” 

ज्ञानयज्ञ क्या है ?

परमपूज्य गुरुदेव हमें  समझाते हुए बताते हैं कि  ज्ञानयज्ञ ही हमारा अभियान है। निम्नलिखित पंक्तियों में गुरुदेव हमें बता रहे हैं कि ज्ञानयज्ञ क्या है और हम इसमें  अपनी सहभागिता कैसे  सुनिश्चित कर सकते हैं। जब किसी समाज में सद्विचारों और सत्प्रवृत्तियों की कमी हो जाती है तो उस समाज की मृत्यु  हो जाती है। ऐसे मरे हुए समाज का फिर से निर्माणकार्य इन दोनों ( सद्विचारों और सत्प्रवृत्तियों ) की अभिवृद्धि से ही संभव है। बाहरी जगत में कोई चीज़ तभी आती है, जब वह मनोभूमि में गहराई तक जड़ जमा लेती है। हमारी मनोभूमि में दूषित   प्रकार के विचार और विश्वास गहराई तक जम गए हैं। यदि इनका उन्मूलन हो सके और इनके स्थान पर सद्विचारों एवं उच्च आदर्शों की प्रतिष्ठापना की जा सके तो युग परिवर्तन का कार्य कुछ भी कठिन न रहेगा। भावना और विचारधाराएँ जब आदर्शवाद से परिपूर्ण होंगी तो फिर अपना प्रत्येक कार्य भी उत्कृष्ट प्रकार का होगा और जहाँ उत्तम कार्य-कलाप पनपता है; श्रेष्ठ गतिविधियाँ बढ़ती हैं, वहाँ स्वर्ग का राज्य पृथ्वी पर उतर आता है। सुख-शांति के सभी साधन वहाँ स्वयमेव प्रस्तुत हो जाते हैं।

हमें यही करना है। ज्ञानयज्ञ ही अब हमारा अभियान है। लोकशिक्षण के लिए हम सब कटिबद्ध होंगे। अखण्ड ज्योति’ का परिवार एक बहुत बड़ा परिवार है। हममें से प्रत्येक दीपक जलाने को तत्पर होगा तो इस अँधेरी रात में दीपावली का पुण्य पर्व झिलमिलाने लगेगा। जिन कुविचारों ने हमारे शरीरों को चौपट कर रखा है, हमारे मनों को मलिन बना रखा है, हमारे समाज को विसंगठित एवं पतनोन्मुख बना रखा है, उन्हें बुहारकर बाहर फेंक देने के लिए हमें स्वच्छता सैनिकों की तरह अपनी झाडू सँभालनी पड़ेगी। अपनी गंदगी हमें आप बटोरनी पड़ेगी, अपने दांत हमें आप माँजने पड़ेंगे, अपना कमरा हमें स्वयं  झाड़ना पड़ेगा। किसी दूसरे का आसरा क्यों ताकें ? हमारी फूट ने अंग्रेज़ों को  बुलाया था, न केवल बुलाया था उन्होंने हमारे ऊपर सैंकड़ों वर्ष शासन भी किया लेकिन  हमारे संगठन ने उन्हें भगा भी  दिया। दुर्भावनाएँ और दुष्प्रवृत्तियाँ हमारी लापरवाही से पनपती रही हैं, जब उनके उन्मूलन का व्रत धारण कर लिया जाएगा और इसके लिए एक प्राण, एक मन होकर जुट जाया जाएगा तो वे कब तक ठहरेंगी? कहाँ तक ठहरेंगी?

गुरुदेव आगे बताते हैं कि “ब्रह्मदान सर्वोत्तम दान है।” सत्प्रवृत्तियों को मनुष्य के हृदय में उतार देने से बढ़कर और कोई महत्त्वपूर्ण कार्य इस संसार में नहीं हो सकता। वस्तुओं की सहायता भी आवश्यकता के समय उपयोगी सिद्ध हो सकती है, पर उसका स्थायी महत्त्व नहीं है। हर मनुष्य  स्थायी रूप से अपनी समस्या अपने पुरुषार्थ और विवेक से ही हल कर सकता है। दूसरों की सहायता पर जीवित रहना न तो किसी मनुष्य के गौरव के अनुकूल है और न उससे स्थायी हल ही निकलता है। व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन में जितनी भी कठिनाइयाँ दिखाई पड़ती हैं, उनका एकमात्र कारण कुबुद्धि है, दुर्बुद्धि है । यदि मनुष्य अपनी आदतों को सुधार ले, स्वभाव को ठीक बना ले और विचारों तथा कार्यों का ठीक तारतम्य बिठा ले, तो बाहर से उत्पन्न होती दीखने वाली सभी कठिनाइयाँ बातों ही बातों  में हल हो सकती हैं। व्यक्ति और समाज का कल्याण इसी में है कि सत्प्रवृत्तियों को अधिकाधिक पनपने का अवसर मिले। इसी प्रयास में प्राचीन काल में कुछ लोग अपने “जीवन उत्सर्ग” करते थे। उन्हें बड़ा माना जाता था और ब्राह्मण के सम्मानसूचक पद पर प्रतिष्ठित किया जाता था। उत्सर्ग को अंग्रेजी  में excretion कहते हैं, यानि मल-मूत्र का त्याग करना। जो लोग जीवन उत्सर्ग करते थे असल में अपने  जीवन का त्याग। सुख सुविधाओं का त्याग करके ही एक उदाहरण स्थापित करते थे, इसीलिए उन्हें सम्मानसूचक पद से सम्मानित किया जाता है। हमारे  परमपूज्य गुरुदेव इसी श्रेणी  में आते हैं  लेकिन 2019 में प्रकाशित सुजाता जी की पुस्तक “राष्ट्रपिता और नेता जी” में एक बहुत ही  शिक्षाप्रद संस्मरण है जिसे पढ़कर जीवन उत्सर्ग का अर्थ जानने मे किसी भी  कठिनाई की सम्भावना नहीं रहती। आइये देखें क्या है यह संस्मरण। 

गाँधी जी अपने साथियों के ज़मीन  पर बैठे थे। फर्श पर मोटी-सी खादी की चादरें बिछी थीं जिन्हे  देशी कालीन भी कहा जा सकता है। महात्मा गाँधी ने अभी-अभी चरखे पर सूत काट कर बगल किया था। घड़ी की सूई से बँधे उनके एक-एक मिनट होते थे। उनका एक-एक मिनट बेशकीमती था। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद पूरे देश का भ्रमण और चम्पारण तथा गुजरात में सफल आन्दोलन करने के बाद देश उनकी ओर आशा भरी निगाहों से टकटकी लगाये हुए था। महात्मा गाँधी ने 1 अगस्त, 1920 को असहयोग आन्दोलन आरम्भ करने को घोषणा की। दुर्भाग्यवश उसी समय भारत के एक महान सपूत और महान नेता ‘लोकमान्य तिलक’ की मृत्यु हो गयी। उसी समय राष्ट्र को अपना समर्थ नेता महात्मा गाँधी के रूप में मिला। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों को झुकने के लिए मजबूर कर भारतीयों के स्वाभिमान के रक्षक के रूप में पूरा देश महात्मा गाँधी से आकर्षित हो रहा था। उनके शब्दों में जादू था… | लेकिन उनके शब्दों में  न तो लोक लुभावन नारे थे और न जनता से किये गये कोई लम्बे-चौड़े वादे… | बस-बस छोटी-छोटी बातें थीं जिनमें  सबसे पहली बात थी “भूख” की… | वे हमेशा सीधी-सीधी और सच्ची बात बोलते थे और सबसे बड़ी बात उनका आचरण निर्दोष और स्वच्छ था। उन्होंने राष्ट्र में नवचैतन्य भर दिया। उनके नेतृत्व में निर्बल स्त्री, पुरुष, बच्चे से लेकर निष्पाप किसान भी अहिंसात्मक लड़ाई के लिए तैयार हो गये थे। अपना सर्वस्व त्याग करके “जीवनोत्सर्ग” करने वाले लोग महात्मा गाँधी के इर्द-गिर्द ऐसे ही इकट्ठा हो रहे थे जैसे खिले हुए कमल पर गुंजायमान भौंरे…। वह  दौर देशभक्ति का दौर  था, देशभक्ति के जज्बे का, अपना सब कुछ त्याग करने का, देश के लिए जान देने का, पर कुछ लोगों का यह भी ख्याल था कि जान देने के साथ दुश्मनों की जान भी ली जाय ।

देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत, त्याग की भावना में निमग्न देश की सर्वोच्च नौकरी सिविल सेवा को ठुकराने का निर्णय लिए, आत्मबल से लबालब 24 वर्ष  के एक नौजवान सुभाषचन्द्र बोस, जोश में भरे इंग्लैण्ड से लौटते ही जब बम्बई में महात्मा गाँधी के पास पहुँचे तो कमरे के दरवाजे पर ठिठक गये। ठिठकने की वजह थी महात्मा गाँधी की सादगी… | फर्श पर ही खादी की मोटी चादर पर गाँधी बैठे थे अपने अनुयायियों के साथ… | गाँधी के शरीर पर थी घुटने तक की खादी की धोती और उतना ही बड़ा खादी का एक टुकड़ा जिसे चादर कह सकते हैं। उन्होंने उससे अपने शरीर का ऊपरी भाग ढक  रखा था। 9-10  अनुयायी भी पास में बैठे थे जिनके शरीर पर खादी के ही वस्त्र थे।

सुभाषचन्द्र बोस ने अपने शरीर पर पड़े विदेशी कपड़े के बने लिबास को देखा और अपनी नज़रें झुका लीं… और कमरे के दरवाजे पर ठिठक कर खड़े हो गये।

पारखी गाँधी की पैनी नज़रों से उनके अन्दर के संकोच का भाव कैसे छुप सकता था । महात्मा गाँधी की आँखें स्पष्टतः देख रही थीं कि इस नौजवान ने भले ही अभी विदेशी वस्त्र पहन रखा है, भले ही यह अभी अंग्रेज़ी पोशाक धारण किये हुए है पर यह इसका बाह्य रूप है। इसका अन्तर  इस भाव से भरा हुआ है कि भारत माता दासता की जंजीर से कैसे मुक्त हो? भारत माता के कष्ट को यह महसूस कर रहा है, दासता की जंजीर से मुक्ति दिलाने का मन ही मन संकल्प ले चुका है। तभी तो सिविल सेवा के पद को ठुकराकर त्यागमय जीवन की राह पर चलना ठान लिया है। महात्मा गाँधी ने मुस्कुराते हुए उन्हें अन्दर आने के लिए कहा। ठिठके पैर उठ तो गये पर उनकी आँखें महात्मा गाँधी पर टिकी थीं। नेताजी सोच रहे थे की यह ही वह व्यक्ति है जिनकी चर्चा इंग्लैण्ड में हो रही थी, यही वह व्यक्ति है जो अंग्रेजी हुकूमत के लिए पहेली बना हुआ है। यही है हमारे देश का पवित्रतम व्यक्ति…जो देश की आज़ादी अहिंसा के माध्यम से करने की बात करता है, असहयोग से करने की बात करता है… | अहिंसा के माध्यम से आज़ादी की बात समझ में नहीं आती… हाँ, असहयोग की बात तो इन्हें भी असरकारक लगती है। इसी कारण सुभाषचन्द्र बोस ने सिविल सेवा की नौकरी  ठुकराते कहा था “ हमें एक स्वतंत्र और स्वाभिमानी भारत का निर्माण करना है”

इन्ही शब्दों के साथ हम अपनी लेखनी को यहीं अल्पविराम देते हैं और कल फिर इसके आगे चलेंगें। 

To be continued:

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शब्द सीमा के कारण 24  आहुति संकल्प सूची में इतना ही कहेंगें कि आज के गोल्ड मैडल विजेता सरविन्द कुमार जी हैं।  परिवार की हार्दिक बधाई । 

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