13 जून 2022 का ज्ञानप्रसाद- ईश्वर का संदेश विश्व के कोने-कोने में पहुँचाएँ
आशा करते हैं हमारे परिवारजन रविवार की छुट्टी और विश्राम के उपरांत पूरे जोश के साथ इस मंगलवेला में सप्ताह के प्रथम ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने में पूरी ऊर्जा के साथ तत्पर होंगें। किसी भी प्रकार के Monday blues आपकी ऊर्जा में बाधक नहीं हो रहे होंगें।
आज से आरम्भ हो रही लेख श्रृंखला का आधार 2013 में प्रकाशित होने वाला “युगऋषि के सन्देश” ग्रन्थ है। 340 पन्नों का, युग निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित, परमपूज्य गुरुदेव की जन्मशताब्दी को समर्पित, यह ग्रंथ लोकसेवा में रुचि रखने वाले प्रबुद्ध भाई-बहनों को स्वयं तो पढ़ना ही चाहिए लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण यह है हर व्यक्ति तक पढ़ने हेतु उपलब्ध कराने का प्रयास भी करना चाहिए।
इसी संकल्प को ध्यान में रखते हुए ऑनलाइन ज्ञानरथ मंच से परमपूज्य गुरुदेव का साहित्य छोटे छोटे लेखों के रूप में प्रकाशित किया जाता है। प्रत्येक परिवारजन इन लेखों को स्वयं तो पढ़ता ही है,औरों को भी पढ़ाता है। ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार का एक बहुत ही अद्वितीय प्रयास “24 आहुति संकल्प” इस मंच द्वारा प्रकाशित होने वाले लेखों को पढ़ने-पढ़ाने का मूल्यांकन करने का साधन है। परिजनों के कमेंट इस तथ्य की दर्शाते हैं कि किस-किस परिजन ने कितनी श्रद्धा से इस मंच द्वारा प्रकाशित गुरुदेव के दिव्य साहित्य का अमृतपान किया और पढ़ने के बाद कैसे कैसे इस साहित्य का प्रचार-प्रसार किया। ज्ञानरथ, ज्ञानप्रसाद, ज्ञानदान, ज्ञानपान,ज्ञानयज्ञ जैसे शब्दों के रिफरेन्स तो रोज़ ही आते रहते हैं लेकिन आने वाले दिनों में हमारी लेखनी का पेंडुलम इन शब्दों के इर्द-गिर्द ही झूलता रहेगा।
गुरुदेव ने बार-बार अपने साहित्य को पढ़ने और पढ़ाने पर बल दिया है, बार-बार कहा है की मेरा सबसे प्रिय शिष्य वही है जो मेरा साहित्य पढ़ता है।
“युगऋषि के सन्देश” ग्रन्थ का प्राक्कथन (Foreword) इतना प्रभावशाली है आज का ज्ञानप्रसाद आरम्भ करने से पूर्व इसका अध्ययन करके अपने गुरुदेव की लेखनी को जान लेना बहुत ही सुखदाई होगा।
Foreword:
वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ, युगऋषि, संस्कृति पुरुष, परमपूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी की क्रांतिकारी लेखनी ने नर को नारायण, मानव को महामानव बनाने वाली जीवन साधना का विश्वकोष रचकर रख दिया। जीवन की सभी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय समस्याओं पर उन्होंने अपनी कलम चलाई। पूज्य गुरुदेव कहते रहे हैं कि
“यह साहित्य मैंने रोते हुए हृदय से आँसुओं की स्याही से लिखा है। जो इसका स्वाध्याय करता है उसके जीवन में कोई परिवर्तन न आया हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। जो मेरा साहित्य पढ़ता है, वही मेरा शिष्य है। मेरे विचार बड़े पैने हैं। दुनिया को बदल देने का जो संकल्प हमने लिया है, वह सिद्धियों के बल पर नहीं अपने क्रांतिकारी विचारों के बल पर लिया है।”
पूज्यवर आचार्यश्री द्वारा भाष्य वेदों को पढ़कर आचार्य विनोबाभावे ने वेदों को मस्तक से लगाकर भाष्यकार गुरुदेव का कोटि-कोटि वंदन किया और “वेदमूर्ति” संबोधन दिया। उपनिषद् का भाष्य पढ़कर भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन ने लिखा कि “काश! यह साहित्य मुझे जवानी में मिल गया होता तो मैं राजनीति में न जाकर आचार्यश्री के चरणों में बैठा अध्यात्म का ज्ञान ले रहा होता।” भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा ने अपनी पुस्तक “देशमणि” में लिखा कि“आचार्यश्री के लिखे साहित्य को युगों-युगों तक याद किया जाएगा।”
पूज्यवर ने अपने जीवन में साहित्य का विशाल सागर रचकर रख दिया है। सारे साहित्य को पढ़ पाना हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं हो पाता। इसी समस्या का समाधान करने की दृष्टि से पूज्यवर की जन्म शताब्दी पर उनके श्रीचरणों में साहित्य श्रद्धांजलि के रूप में एक ऐसा ग्रंथ समर्पित करने की प्रेरणा-भावना जाग्रत हुई जिसमें विभिन्न विषयों पर उनके चिंतन का सार-संक्षेप प्रस्तुत किया गया है।
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प्रस्तुत है आज का ज्ञानप्रसाद:
स्वाध्याय और मनन-चिंतन का लाभ :
स्वाध्यायशील व्यक्ति का जीवन अपेक्षाकृत अधिक पवित्र हो जाता है। ग्रंथों में सन्निहित सद्वाणी तो अपना प्रभाव एवं संस्कार डालती ही है, साथ ही अध्ययन में रुचिवान होने से व्यक्ति अपना शेष समय पढ़ने में ही लगाता है। जब मनुष्य निरर्थकों की संगति में न जाकर जीवनोपयोगी सत्साहित्य के अध्ययन में ही संलग्न रहेगा तो उसका आचरण आप ही शुद्ध हो जाएगा। मन की सफाई के लिए स्वाध्याय आवश्यक है। नित्य स्वाध्याय की नियमित व्यवस्था रखनी चाहिए। स्वाध्याय का विषय केवल एक होना चाहिए “आत्मनिरीक्षण एवं आत्मपरिशोधन” का मार्गदर्शन। जो पुस्तकें इस प्रयोजन को पूरा करती हैं; आंतरिक समस्याओं के समाधान में योगदान करती हैं, केवल उन्हें ही इस प्रयोजन के लिए चुनना चाहिए।आज की गुत्थियों को, आज की परिस्थितियों में, आज के ढंग से किस तरह सुलझाया जा सकता है, जो उसका दूरदर्शितापूर्ण हल प्रस्तुत करें, वही उपयुक्त स्वाध्याय साहित्य है। ऐसी पुस्तकों को हमें छाँटना और चुनना पड़ेगा। उन्हें नित्य-नियमित रूप से गंभीरता और एकाग्रतापूर्वक पढ़ने के लिए समय नियत करना पड़ेगा। अंतःकरण की भूख बुझाने के लिए यह स्वाध्याय साधना नितांत आवश्यक है।
स्वाध्याय के बाद आता है मनन-चिंतन। जो पढ़ा है उस पर बार-बार कई दृष्टिकोणों से विचार करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि उस प्रकाश को जीवन में धारण करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? यदि वे सत्प्रवृत्तियाँ अपने में नहीं हैं या कम हैं तो उन्हें बढ़ाने का क्या उपाय है? आदर्शों को अपने व्यक्तित्व में घुलाने के प्रसंग पर ऊहापोह करना, मनन और चिंतन का मुख्य उद्देश्य है। कमरे में नित्य झाड़ू लगाते हैं, स्नान रोज़ करते हैं, दाँत रोज़ साफ किए जाते हैं, बरतन रोज़ साफ करने पड़ते हैं। मन को मलिनता की आदत से विरत करने के लिए उसे स्वाध्याय और मनन-चिंतन के बंधन में नित्य बाँधना चाहिए, तभी यह मन सही रास्ते पर चलने के लिए सहमत हो सकेगा।
ज्ञानयज्ञ:
ज्ञानयज्ञ में आहुतियाँ समर्पित करें, पीड़ितों को कुछ तात्कालिक सहायता की भी आवश्यकता होती है, पर उसका अंततः निवारण long-term ज्ञान के द्वारा ही होगा। डॉक्टर antibiotic देकर बीमारी को शीघ्र ही ठीक तो कर देता है लेकिन बीमारी को जड़ से ख़त्म करने के लिए कई बार लम्बे diagnosis और treatment की आवश्यकता होती है। बार-बार antibiotic लेने से body resistance कम होता है और बीमारी बार-बार आक्रमण करती है। नित्य- नियमित तौर से ज्ञान की dose लेने से पीड़ितों का स्थाई निवारण होता है, एक ऐसा निवारण जिसके बाद पीड़ित जगह-जगह ,चीख-चीख कर अपना उदहारण देकर प्रेरित करने में सक्षम हो जाता है।
आप किसी की उतनी सहायता रुपया-पैसा देकर नहीं कर सकते, जितनी कि उसे किसी विषम स्थिति में से निकलने का पथ-प्रदर्शन करके कर सकते हैं। मनुष्य के पास किसी भी वस्तु की कमी नहीं है। परमात्मा ने उसे अनंत शक्तियों का कोष सौंपकर इस लोक में भेजा है। उसके अंदर ऐसी-ऐसी योग्यताएँ छिपी पड़ी हैं जिनके एक-एक कण का उपयोग करके वह सम्राटों का सम्राट बन सकता है। मैं उसे अमुक वस्तु दूंगा’ ऐसा सोचते समय आप अपनी आत्मा का तिरस्कार करते हैं। राजा को एक पैसा देकर,आत्मा को भौतिक वस्तुओं के टुकड़े देकर आप उसे क्या देते हैं ? आत्मा को इन टुकड़ों की जरूरत नहीं है। जरूरत केवल एक ही है और वह है
“मानव के अंतःकरण में सोई हुई महान शक्ति को जागृत करने की।”
समुद्र लाँघते समय हनुमान जी अपनी अशक्ति अनुभव करते हुए बड़े दीन हो रहे थे। जामवंत ने उन्हें प्रोत्साहित किया और कहा: “हे पवन पुत्र! आप ऐसे दीन वचन क्यों बोलते हैं ? आपके अंदर तो अकूत बल भरा हुआ है।” हनुमान जी का सोया हुआ बल जाग पड़ा और वे एक ही छलांग में समुद्र पार कर गए। आज प्रत्येक हनुमान अपनी अशक्ति प्रकट करते हुए दीन वचन बोल रहा है और असफलता के तट पर बैठे हाथ मल रहा है । इस समय ऐसे जामवंतों की जरूरत है, जो इन्हें इनके आत्मबल की जानकारी देकर आपत्तियों का समद्र लाँघने के लिए तत्पर कर दें। अखण्ड ज्योति मई 1942 के पृष्ठ-27 पर परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं
“मैं जामवंत का कार्य करूँगाः संसार में ज्ञान प्रचार का महत्तम अश्वमेध यज्ञ करूँगा, जिससे स्वर्ग के देवता भी प्रसन्न हो जाएँ। इसी यज्ञ से वह अमृत वर्षा हो सकती है, जो जलते तवे के समान झुलसते हुए भूलोक में सुख-शांति की हरियाली पैदा कर दे। मैं प्रेमी हूँ। विश्व-प्रेम मेरे रोम-रोम से छलक रहा है। विश्व के पीड़ित बंधुओं को क्लेशमुक्त करने की मेरी आंतरिक इच्छा है। यह कार्य ज्ञान-प्रसार द्वारा होना ही संभव है। मैं जीवन का प्रत्येक क्षण ज्ञानयज्ञ की आहुति में समर्पित करूँगा, निरंतर सद्ज्ञान फैलाता रहूँगा और इस कार्य में अपने जैसे विचार रखने वाले अन्य सुहृदयों ( Like-minded परिजन) को आमंत्रित करूँगा।”
ईश्वर का संदेश विश्व के कोने-कोने में पहुँचाएँ:
आप अपनी आत्मा के गौरव को स्मरण कीजिए, अपनी महानता का अनुभव कीजिए और केवल उन्हीं कार्यों में हाथ डालिए जो आपके पद के अनुकूल हों। सम्राटों के सम्राट परमात्मा का उत्तराधिकारी राजकुमार मनुष्य वस्तुतः महान है। महानता का गौरव इसी में है कि अपनी मर्यादा पर स्थिर रहा जाए। पपीहा (चातक) प्यासा मर जाता है पर स्वाति नक्षत्र की बरसात की बूंद के अभाव में झील का पानी भी नहीं पीता। अगर इसे झील में डाल भी दिया जाए तो वह चोंच नहीं खोलता। हंस अपनी मर्यादा की रक्षा करता है; मछली अपनी मर्यादा की रक्षा करती है; हंस मोती न मिलने पर भूखों मर जाता है और मछली जल के अभाव में जीवित नहीं रहती।
आप भी अपने गौरव मर्यादा से नीचे मत गिरिए। धर्ममय उत्तमोत्तम कार्यों को करने के लिए ही इस पृथ्वी पर आपका जन्म हुआ है। परमात्मा का राजकुमार आत्मा अपने पिता की राजसत्ता को सुव्यवस्थित करने आया है। सरकारी हाकिम देहातों में दौरा करने के लिए भेजे जाते हैं, ताकि वे सम्राट का शासन सुव्यवस्थित रखने में सहायता करें। आपको इसलिए यहाँ भेजा गया है कि ईश्वर की इच्छा और आज्ञाओं का संदेश विश्व के कोने-कोने में गुंजित करें और अधर्म को हटाकर धर्म की स्थापना करें। आप अपने पद और जिम्मेदारी का स्मरण कीजिए और इसी की मर्यादा की रक्षा के निमित्त कार्य करना आरंभ कर दीजिए, आपके लिए नेकी और भलाई का यह बहुत ही उत्तम मार्ग हो सकता है। आप अच्छी तरह इस बात को हृदयंगम कर लीजिए, जीवन का सच्चा लाभ इसी में है कि आप आत्मकल्याण के, नेकी और भलाई के मार्ग पर चलें। अपने आचरणों को सचाई और धर्मनिष्ठा से परिपूर्ण रखें एवं अंत:करण के किवाड़ों को सद्भाव एवं सद्विचारों के लिए खोल दें। कल्याणकारी पिता के “हे कल्याणकारी पुत्र! उठो, परमात्मा का अवलंबन ग्रहण करो और नेकी के मार्ग पर अग्रसर हो जाओ। आपकी भलाई इसी में हैं।
इन्ही शब्दों के साथ हम अपनी लेखनी को यहीं अल्पविराम देते हैं और कल फिर इसके आगे चलेंगें।
To be continued:
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।
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24 आहुति संकल्प
के ज्ञानप्रसाद के अमृतपान उपरांत 2 समर्पित सहकर्मियों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, यह समर्पित सहकर्मी निम्नलिखित हैं :
(1) संध्या कुमार-24 , (2 ) अरुण वर्मा -36
अरुण वर्मा जी फिर से गोल्ड मैडल विजेता घोषित किये जाते हैं, उनको हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हे हम हृदय से नमन करते हैं और आभार व्यक्त करते हैं। धन्यवाद्