25 मई 2022 का ज्ञानप्रसाद -गुरुदेव और स्वामी दयानन्द के बीच हुए अतिरोचक और ज्ञानवर्धक संवाद 1
आज और आने वाले कल के दोनों ज्ञानप्रसाद लेखों में परमपूज्य गुरुदेव और स्वामी दयानन्द के बीच हुए अतिरोचक और ज्ञानवर्धक संवाद का वर्णन है। अमृततुल्य पुस्तक चेतना की शिखर यात्रा 2 पर आधारित इन लेखों की दिव्यता का आभास आपको लेखों के अमृतपान से अवश्य ही होगा। हमने इस संवाद की originality को यथावत रखते हुए चलचित्र की भांति प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि पाठक अपनेआप को गुरुदेव के साथ साथ चलता अनुभव करे। संवाद के अतिरिक्त अन्य जानकारी को भी ध्यान से पढ़ने की आवश्यकता है।
तो प्रस्तुत है आज का ज्ञानप्रसाद।
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वाराणसी में परमपूज्य गुरुदेव ने अपना प्रथम महायज्ञ सम्पन्न किया और अगले दिन वापिस मथुरा के लिए रवाना होना था लेकिन उसी दिन शाम को “भारत धर्म महामंडल” के एक सन्यासी विचित्र सा प्रस्ताव लेकर गुरुदेव के पास आये। भारत धर्म महामंडल उन दिनों सनातन धर्म के क्षेत्र में एक ख्यातिलब्ध संस्था थी। बद्रीनाथ में शंकराचार्य मठ से लेकर आश्रमों, मंदिरों और धर्मसंस्थाओं के संगठन पक्ष को महामंडल ने अच्छी तरह संवारा था। उनके भवनों का जीर्णोद्धार, विवादों के निपटारे और जनाधार को भी मजबूत किया था।
क्या था विचित्र सा प्रस्ताव:
जो संन्यासी प्रस्ताव लेकर आये थे उनका नाम स्वामी नरहरि आनंद था। अधिकार की दृष्टि से उनका अपना तो कोई विशेष स्थान नहीं था लेकिन वह महामंडल के प्रमुख संतों के बहुत करीब समझे जाते थे। पूर्णिमा को प्रवचन आदि समाप्त हो गये तो वह गुरुदेव के पास आये और बिना कोई भूमिका बांधे बोले,
“हमारे महाराजश्री आपसे भेंट करना चाहते हैं। लेकिन वे यहाँ नहीं आएंगे। आपको जगतगंज स्थित महामंडल परिसर में चलने का कष्ट करना होगा।”
गुरुदेव ने कहा,
“मुझे उनके पास चलने में कोई झिझक नहीं है लेकिन मुझे सुबह ही मथुरा वापस निकल जाना है।”
स्वामी नरहरि आनंद ने कहा,
“भेंट मध्यरात्रि में भी हो सकती है। अगर ज्यादा हर्ज़ नहीं हो तो आप अपनी यात्रा एक दिन के लिए स्थगित कर दें।”
गुरुदेव ने थोड़े विस्मय से कहा,
“ऐसी क्या आवश्यक बात है?”
उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए वह संदेशवाहक की ओर देखने लगे। स्वामीजी ने अपनी तरह से विषय की गंभीरता को समझाना चाहा और कहा,
“महाराजश्री संभवत: आपको कोई गुरुतर दायित्व सौपना चाहते हैं।”
गुरुदेव ने कहा,
“किस तरह का गुरुतर दायित्व,?”
स्वामीजी ने इस विषय में अपनी अज्ञानता जताई और कहा,
“महाराजश्री ने आगे कोई संकेत नहीं किया है और आपका उनसे मिलना आवश्यक है। सनातन धर्म और संस्कृति की सेवा संरक्षण के लिए यह भेंट बहुत आवश्यक है।”
गुरुदेव को स्वामी की बातों में वज़न दिखाई दिया। उन्होंने अपनी सुबह की यात्रा स्थगित कर दी और जगतगंज स्थित महामंडल के कार्यालय में स्वामी दयानंद से मिले।
आगे चलने से पहले हम अपने पाठकों से कहना चाहेंगें कि यह स्वामी दयानन्द, आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध स्वामी दयानन्द सरस्वती से अलग हैं अतः उनके साथ भ्रमित न हुआ जाये।
औपचारिक कुशलक्षेम के बाद स्वामी जी ने धर्म संस्कृति की वर्तमान स्थिति और उस पर सभी दिशाओं से पड़ रहे दबावों के बारे में बातचीत की। कुशलक्षेम और पांच सात मिनट देशकाल की बातचीत के बाद स्वामीजी ने पूछा कि आप क्या गृहस्थ रहकर ही धर्म समाज की सेवा करेंगे? पूरे समय इस काम में लगने के लिए गृहस्थाश्रम से विमुख होना आवश्यक नहीं है क्या?
गुरुदेव ने कहा,
“इस समय जैसी स्थितियां हैं, उनमें गृहस्थ धर्म का आश्रय लेना ही उचित है। हमारी मार्गदर्शक सत्ता ने हमें समाज के सामने एक रोल मॉडल बनकर दिखाने का निर्देश दिया है और वह भी अपने ही माध्यम के द्वारा। उनकी आज्ञा के अनुसार हमें गृहस्थ धर्म का ही पालन करना है।”
स्वामी जी को अपने प्रश्न का अच्छी तरह उत्तर मिल गया था कि गुरुदेव गृहस्थ धर्म का निर्वाह करते हुए ही अपने महत्कार्य में जुटेंगे। फिर भी उन्होंने कहा,
“क्या आपको नहीं लगता कि लौकिक दायित्वों को छोड़े बिना धर्म की भलीभांति सेवा नहीं की जा सकती।”
गुरुदेव ने उत्तर दिया,
“आपकी मान्यता अपने स्थान पर सही है लेकिन संन्यासी बनकर समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। संन्यासी की अपनी सीमाएं हैं। गृहस्थ की साधना ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। जीवन के क्षेत्र में सीधे खड़े होकर गृहस्थ को संयम और सहिष्णुता की जो साधना करना पड़ती है, वह संन्यास में सहज संभव नहीं है।”
जब हम यह पंक्तियाँ लिख रहे थे तो हमारे ही समर्पित सहकर्मी आदरणीय सरविन्द कुमार जी द्वारा अक्टूबर 2021 में प्रकाशित लेख श्रृंख्ला “परिवार निर्माण एक जीवन साधना” एक दम स्मरण हो आयी। आप सभी ने इस लेख श्रृंखला को पढ़ा और सराहा जिसके लिए हम आपका ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं। यह लेख श्रृंखला परमपूज्य गुरुदेव के करकमलों द्वारा रचित लघु पुस्तिका “सुख और प्रगति का आधार आदर्श परिवार” पर आधारित थी। परिवार निर्माण की दिशा में यह अद्भुत पुस्तक ऑनलाइन निशुल्क उपलब्ध है।
आइये अब आगे चलें।
स्वामी दयानन्द ने इस चर्चा को आगे नहीं बढ़ाया। मूल विषय पर आते हुए उन्होंने कहा कि जिस दायित्व की बात आपके सामने आई है, उसके लिए आपको घर गृहस्थी से मुक्त होना आवश्यक है। स्थिति को समझ लीजिए। फिर स्वयं ही निर्णय करना।
क्या थी ऐसी स्थिति ?
आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की पुनः प्रतिष्ठा के लिए भारत भर में पांच मठों की स्थापना की थी। बहुत से लोग इनकी संख्या चार ही मानते हैं। पुरी में गोवर्धन, द्वारका में शारदा, दक्षिण में श्रृंगेरी और उत्तर में ब्रदीनाथ के पास ज्योतिर्मठ। दक्षिण में एक और मठ है कांची। यहां का प्रतिष्ठान और मठों की तुलना में अधिक समृद्धि संपन्न है। मठ की मान्यता है कि अन्य चार मठों में आदि शंकराचार्य ने अपने चार प्रमुख शिष्यों को आचार्य पद सौंपा था। कांची में उन्होंने स्वयं अध्यक्ष का दायित्व संभाला था। दूसरे मठों के आचार्य और विद्वान शंकराचार्य को यहां का अध्यक्ष बनने की बात नहीं मानते। उपलब्ध प्रामाणिक उल्लेखों के अनुसार आचार्य शंकर जीवन के अंतिम काल में हिमालय के गुह्य प्रदेश में चले गये थे।
श्रद्धालुओं के अनुसार वह भगवान शिव के अवतार थे और अपना काम पूरा होने के बाद सशरीर अपने धाम कैलास चले गए थे। इस मान्यता में श्रद्धा भावना का पुट ज्यादा हो सकता है।
स्वामी दयानन्द जी कहते हैं,
लक्ष्य यह है कि उत्तराखंड में उन्होंने अंतिम बार केदारनाथ में अपने शिष्यों को संबोधित किया और धर्मक्षेत्र में सौंपा हुआ दायित्व पूरा करने के लिए कहा। हमेशा साथ रहने वाले शिष्यों को अब और आगे नहीं आने देने के लिए कह कर वे हिमालय के गहन क्षेत्र में चले गये।
आचार्य शंकर के स्थापित पांच मठों में से एक बद्रीनाथ के ज्योतिर्मठ या जोशीमठ के बारे में स्वामी दयानंद ने चर्चा छेड़ी। इस मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती का निधन गायत्री तपोभूमि की प्राण प्रतिष्ठा के करीब महीना भर पहले हुआ था। उन्होंने मठ की आचार्य परंपरा को नये सिरे से आरंभ किया था। परंपरा करीब 800 वर्ष पहले से विच्छिन्न थी। 400 वर्ष से तो वहां किसी आचार्य का पता भी नहीं चल रहा था। बद्रीनाथ के महन्त ही शांकर मठ की देखभाल करते आ रहे थे।
1941-42 में “भारत धर्म महामंडल” ने उस जगह का पता लगाया जहाँ शंकराचार्य के समय में मठ रहा होगा। उससे पहले तो शांकर मठ की जगह का भी पता नहीं था। ब्रह्मानन्द सरस्वती और महामंडल के संस्थापक स्वामी ज्ञानानंद, स्वामी दयानन्द दण्डी स्वामी, स्वामी हरिहरानन्द आदि ने ऐतिहासिक तथ्यों, पौराणिक विवरणों और अन्तर्दृष्टि से उस जगह का पता लगाया।
स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती 1941 में जोशीमठ के शंकराचार्य बने। उनका अभिषेक वाराणसी में हुआ था। बद्रीनाथ में जिस जगह शंकर मठ था, वह तो खण्डहर की तरह था जहां छत और छाया नाम की कोई चीज़ ही नहीं थी। स्वामी ब्रह्मानन्द जी बहुत कम बोलते थे। लोगों से मिलते जुलते भी कम थे लेकिन उनके प्रभाव से मठ के पास प्रचुर सम्पदा एकत्रित होने लगी। साधन संचय करने के लिए लोक सम्पर्क और योजनाएं जरूरी हैं। स्वामीजी लोगों से न अपनी योजनाओं की चर्चा करते थे न ही आशीर्वाद वरदान देते थे फिर भी उनके आस-पास लोगों की भीड़ लगी रहती थी,जहाँ भी वह जाते, मिलने और प्रणाम करने वाले कतार लगाये रहते। स्वामीजी के बारे में यह प्रसिद्ध था कि उन्हें “वाणी सिद्ध” है यानि जिसे जो कह दिया वह चरितार्थ होता था। ऐसे कई लोगों के अपने निजी अनुभव हैं जिनमें उनके मुँह से आशीर्वाद के दो बोल सुन कर लोग लखपति करोड़पति हो गये। यह एक अलग प्रसंग है।
विवशता के कारण इस लेख का दूसरा भाग हमें कल प्रस्तुत करना पड़ेगा, इसलिए हम अपनी लेखनी को यहीं विराम देने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सुबह की मंगल वेला में आँख खुलते ही इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और यह ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे। हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। धन्यवाद् जय गुरुदेव।
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24 मई 2022, की 24 आहुति संकल्प सूची:
(1) संध्या कुमार-25 , (2 ) प्रेरणा कुमारी -25
इस सूची के अनुसार दोनों ही समर्पित सहकर्मी गोल्ड मैडल विजेता हैं, दोनों को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनको हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। धन्यवाद