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गुरुदेव के करकमलों द्वारा सम्पन्न किया गया प्रथम 5 कुंडीय महायज्ञ 

24 मई 2022 का ज्ञानप्रसाद -गुरुदेव के करकमलों द्वारा सम्पन्न किया  गया प्रथम 5 कुंडीय महायज्ञ 

कल वाले ज्ञानप्रसाद में हमने गुरुदेव के जीवन की प्रथम दीक्षा पर चर्चा की थी, आज प्रस्तुत है उन्ही द्वारा सम्पन्न किये गए प्रथम 5 कुंडीय महायज्ञ का विवरण। आज के लेख में गुलाब राय जी का back reference दिया गया है जिन्होंने गुरुदेव को पंडित की उपाधि से सम्मानित किया था। वाराणसी नगरी पर भी संक्षिप्त सी चर्चा है। 

लेख आरम्भ करने से पूर्व 24 आहुति संकल्प के torch bearers, भगवान शिव के गण- सरविन्द कुमार जी, अरुण वर्मा जी ,संध्या कुमार जी ,रेणु श्रीवास्तव जी का ह्रदय से धन्यवाद् तो करते ही हैं साथ में अन्य सहचरों से योगदान की आशा भी करते हैं, करबद्ध निवेदन भी करते हैं। गोल्ड मैडल इन्ही चारों में ही revolve होता जा रहा है।

तो प्रस्तुत है आज का ज्ञानप्रसाद 

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परमपूज्य गुरुदेव ने अपने करकमलों द्वारा सम्पन्न किए जाने वाले प्रथम 5 कुंडीय महायज्ञ की घोषणा जून में ही कर दी थी लेकिन स्थान निश्चित नहीं किया था। वाराणसी, आगरा, जयपुर और नासिक आदि कई स्थानों के सुझाव आ रहे थे लेकिन गायत्री तपोभूमि मथुरा में आदिशक्ति माँ गायत्री की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में वाराणसी से आये द्विजेन्द्रनाथ त्रिपाठी ने पहल की और वाराणसी के लिए आग्रह किया। गुरुदेव ने भी वाराणसी का ही चयन किया। त्रिपाठी जी के इलावा वहां के कार्यकर्ताओं ने भी यही आग्रह किया था। त्रिपाठी जी ने कहा था कि आपने वहां मालवीय जी से उपवीत दीक्षा ली है इसलिए काशी का अधिकार पहले बनता है। 

बनारस,वाराणसी य काशी : 

हमारे मन में जिज्ञासा हुई कि इस पवित्र नगरी के नाम के बारे जाना जाये। तो हमारी रिसर्च के उपरांत प्रस्तुत है यह संक्षिप्त सा विवरण। हम सब जानते हैं कि बनारस,वाराणसी और काशी तीनों एक ही नगर के नाम हैं। बनारस नाम से बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (BHU) जिसे काशी हिन्दु विश्वविद्यालय भी कहा जाता है इसी नगर की एक प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी है। वाराणसी का सबसे प्राचीन नाम काशी है। यह नाम करीब 3000 वर्षों से बोला जा रहा है। काशी मूल शब्द काशिका से लिया गया है जिसका अर्थ उज्वल या दैदिप्यमान होता है। भगवान शिव की नगरी होने के कारण यह हमेशा ही चमकती हुई थी। वाराणसी नाम तीन नदियों के संगम के कारण है। यह तीन नदियां गंगा, वरुणि और असि हैं। वाराणसी भी प्राचीन नाम है, हिन्दू पुराणों में इस शब्द का बार-बार वर्णन हुआ है। 

इस संक्षिप्त वर्णन के बाद आगे चलते हैं। 

प्रथम महायज्ञ के लिए वाराणसी के चयन के लिए दिए गए तर्क को गुरुदेव ने विनोद में लिया। उन्होंने कहा, 

“अगर यह न्याय है तो मुझे दूसरा यज्ञ हिमालय के सिद्धलोक में करना चाहिए क्योंकि अपनी मार्गदर्शक सत्ता का निवास वहीं है।”

फिर उन्होंने कहा, 

“काशी में महायज्ञ का आयोजन एक अलग दृष्टि से महत्वपूर्ण है। वह भारत की सांस्कृतिक राजधानी है। विद्वानों और साधु संतों की इस नगरी में आयोजन का विशेष अर्थ होगा।”

दूसरे नगरों में भी यज्ञ आयोजनों की बात स्वीकार कर ली गई।

त्रिपाठीजी ने वाराणसी पहुँचते ही महायज्ञ की तैयारी शुरु कर दी। वाराणसी स्टेशन पर उतरने के बाद वे सिर्फ अपना सामान रखने के लिए घर गये। सामान रखते ही वह मां आनंदमयी के आश्रम गये। गुरुदेव ने वहां जाने के लिए कहा था। मां उस समय आश्रम में नहीं थीं। वह पश्चिम बंगाल की यात्रा पर गई हुई थीं। संकल्प के अनुसार त्रिपाठीजी ने एक पत्र लिखा और उनके आश्रम में छोड़ा। पत्र में भगवान शिव की नगरी में यज्ञ करने का संकल्प व्यक्त किया था। विश्वनाथ की नगरी में आश्रम से निपटते ही त्रिपाठीजी काशी विश्वनाथ मंदिर गये। इसी नाम का एक और मंदिर काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भी आकार ले चुका था, इसलिए लोग मूल काशी विश्वनाथ को स्वर्णमंदिर के नाम से याद करने लगे थे। यही नाम प्रसिद्ध हो चला था। त्रिपाठीजी ने शिव की आराधना की। 

त्रिपाठीजी की अनुभूति: 

वह शिवलिंग और कूप के बीच में कुछ देर बैठे, शिवस्तोत्र का पाठ करते रहे। पाठ करते हुए उनका चित्त अनायास ‘ध्यान’ में प्रवेश कर गया। वह देखने लगे कि भगवान शिव की मूर्ति से एक विराट आकृति प्रकट हुई है। जटाजूट वाली यह आकृति शिवजी की ही थी। वह आकृति क्रोधित दिखाई दे रही थी। मूर्ति से एक कदम बढ़ाते ही विस्फोट की सी आवाज हुई। वह आवाज थमी नहीं। निरंतर गूंजने लगी। उस प्रचण्ड कोलाहल में ही आदिनाथ की आकृति नृत्य करने लगी। कोलाहल में भी एक लय थी। कोलाहल के साथ चारों दिशाओं में ज्वालाएं फूट पड़ी और धधकने लगीं। चीख सुनाई देने लगी। फिर पिंजरों की आकृतियाँ दिखाई दीं। वह शिव के नृत्य में सहभागी बन गई थीं। कुछ देर बाद नृत्य थमा-शिव शांत और प्रसन्न मुद्रा में आये। धीरे-धीरे चारों तरफ शांति हो गई।

त्रिपाठीजी ने इस ध्यान, योगनिद्रा या दिवास्वप्न (Day dream) को आश्चर्य की तरह लिया। समझने के लिए वह कई तरह की अटकलें लगाने लगे। लेकिन किसी भी विषय पर मन स्थिर नहीं हुआ। बाद में अवसर देख कर इस अनुभूति के बारे में गुरुदेव से पूछा था। उन्होंने बताया था कि यह अनुभूति वाराणसी के आयोजन के लिए भगवान भूतभावन का आशीर्वाद है। हमारी लोकसाधना सफल होगी। यह अर्थ कहने समझने के लिए है। असल अर्थ यह है कि भगवान शिवशंकर सड़े-गले विश्व को जलाकर एक नया विश्व रचने की लीला कर रहे हैं। शिव का वह तांडव नृत्य पुराने को नष्ट करने के लिए है। तुमने वह दृश्य देखा, इसका अर्थ यह कि उनकी लीला में तुम भी एक सहचर हो। इन पंक्तियों को लिखते समय हमें भी अनायास ही आभास होने लगा कि ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार का एक -एक सहकर्मी भी परमपूज्य गुरुदेव की युगनिर्माण योजना का सहचर है। 

महायज्ञ की सूचना देने के 8-10 दिन बाद मां आनन्दमयी अपने आश्रम में आई। त्रिपाठीजी को पता चला तो वे दौड़े हुए से गये। मां से मिलने के लिए श्रद्धालुओं को प्रतीक्षा करना पड़ती थी। संयोग से उस दिन आठ दस लोग ही बाहर बैठे थे लेकिन त्रिपाठी जी को करीब तीन घंटे बैठे रहना पड़ा। मां उस समय समाधि अवस्था में चली गई थीं। समाधि खुली तो उन्होंने वहां नियुक्त साधक से कहा, 

“आचार्यश्री रामजी के शिष्य को बुलाओ।”

कक्ष से बाहर जाकर साधक ने इसी संबोधन से पुकारा। त्रिपाठीजी के लिए यह थोड़ा आश्चर्य का विषय था। मथुरा में “आचार्यश्री” का पद्दाभिषेक होने की बात बहुत प्रचारित नहीं हुई थी। अखबारों में भी नहीं छपी थी। फिर मां तो वैसे भी अखबार आदि नहीं पढ़ती थीं। उन्हें कैसे पता चल गया कि उनके गुरुदेव को “आचार्यश्री” की प्रतिष्ठित उपाधि से विभूषित किया जा चुका है। 

हमारे पाठकों को याद होगा कि 26 अगस्त 2020 को हमने एक लेख प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था “गुरुदेव को श्रीराम आचार्य से “पंडित” श्रीराम आचार्य किसने बनाया” इस लेख में छतरपुर के महाराजा के दीवान आदरणीय गुलाब राय जी ने मथुरा में एक उद्भोदन के दौरान गुरुदेव को पंडित की उपाधि से सम्मानित किया था। आचार्यश्री की उपाधि के बारे में  इस समय का हमारा अल्पज्ञान कुछ भी कहने में  असमर्थ है। हाँ, घोर तप के कारण तपोनिष्ठ, वेदों के भाष्य के कारण वेदमूर्ति  के बारे में कुछ कहा जा सकता है। 

त्रिपाठीजी भीतर गये। मां को दूर से ही प्रणाम किया। अधमुंदी आंखों से उन्होंने देखा और कहा बैठ जाओ। बैठने के बाद मां ने कहा, 

“पत्र देख लिया था। विश्वनाथ की नगरी में भगवान स्वयं उस आयोजन में उपस्थित रहेंगे। हम जैसे सेवकों के लिए तो यह संभव ही कहां है कि उस आयोजन से अलग रह सकें।”

मां ने अपनी बात जैसे ही पूरी की, त्रिपाठीजी ने कहा, “मां एक बात बताइए। हम लोग संख्या में बहुत कम हैं। भीतर से विश्वास उभरता है कि भगवान ने हमें माध्यम बनाया है। कहीं हम किसी आवेश में तो नहीं हैं।” मां ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। वे अस्फुट हंसी हंसकर रह गई। फिर बोली, 

“अपने गुरु में श्रद्धा रखो। वह अलौकिक विभूति हैं। जाओ प्रसन्न रहो। तुम्हारे मन में आया था कि उनके पद्दाभिषेक का समाचार मुझे कैसे ज्ञात हो गया? मुझे ही नहीं इस मार्ग पर चल रहे सभी साधु पुरुषों को यह पता है।”

गायत्री महायज्ञ की तिथियां दीवाली बाद की तय हुई। देवोत्थानी एकादशी को हुए समारोह में 500-700 लोगों ने भाग लिया। कारणों की मीमांसा में जाना आवश्यक नहीं है। ये सभी लोग साधक श्रेणी के थे। कोई प्रतिष्ठित विद्वान, संत या नेता आयोजन में नहीं आया। मां आनंदमयी उन दिनों काशी में नहीं थी। उनके नहीं आने को गुरुदेव ने सहज भाव से लिया। त्रिपाठीजी ने इस ओर ध्यान दिलाया तो वे बोले,

“मां की बात छोड़ो। वह भी भगवान के उसी काम में लगी हुई हैं जिसमें हम लोग लगे हुए हैं। बाकी लोग भी तुम्हारे काम में सहयोगी बनेंगे लेकिन कुछ समय बाद।”

गुरुदेव के सांत्वना देने पर भी त्रिपाठी जी को संतोष नहीं हुआ। महायज्ञ पांच दिन चला था। कार्तिक पूर्णिमा को पूर्णाहुति हुई। उस दिन कुछ ज्यादा लोग आये। शाम के प्रवचन में उन्होंने कहा, 

“हम लोग संख्या को महत्व नहीं दे रहे। इसे भगवान भूतभावन की इच्छा समझना चाहिए। वे चाहें तो पूरी काशी को यहां एकत्रित कर सकते हैं। लेकिन काशी में मुक्ति की कामना लेकर आये लोग ही मुख्यरूप से बस रहे हैं। वे अपना उद्धार करने आये हैं। धर्म और संस्कृति का उद्धार बहुत बड़ी बात है। वह दायित्व भगवान शिव के गण ही पूरा कर सकते हैं। उनके गणों की संख्या थोड़ी ही है।”

महायज्ञ में बारह लोगों ने मंत्रदीक्षा ली। दक्षिणा में सप्ताह में एक दिन का समय और महीने में एक दिन की आय त्रिपुरारि शिव के काम में लगाने का संकल्प लिया। अगले दिन सुबह आचार्यश्री को मथुरा के लिए रवाना होना था। शाम के समय “भारत धर्म महामंडल” के एक संन्यासी एक विचित्र प्रस्ताव लेकर आये। ‘भारत धर्म महामंडल’ उन दिनों सनातन धर्म के क्षेत्र में एक ख्यातिलब्ध संस्था थी। 

इस विचित्र प्रस्ताव की चर्चा हम अपने कल वाले लेख में करेंगें क्योंकि इसकी महत्ता ऐसी है कि विस्तार से जानना बहुत ही आवश्यक है। 

इन्ही शब्दों के साथ हम अपनी लेखनी को यहीं विराम देने की आज्ञा लेते हैं और कामना करते हैं कि सुबह की मंगल वेला में आँख खुलते ही इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और यह ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे। हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। धन्यवाद् जय गुरुदेव।

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23 मई 2022, की 24 आहुति संकल्प सूची: 

(1 )रेणु श्रीवास्तव -24 , (2) संध्या कुमार-24, (3) अरुण वर्मा-24 

इस सूची के अनुसार तीनों ही समर्पित सहकर्मी गोल्ड मैडल विजेता हैं, सभी को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनको हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। धन्यवाद

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