12 मई 2022 का ज्ञानप्रसाद- गुरुदेव द्वारा किये गए दो जल उपवास की विस्तृत जानकारी 6 -मध्यांतर
2 मई 2022 को आरम्भ की गयी जल उपवास शृंखला का आज वाला लेख हमें मध्यांतर की ओर लेकर जा रहा है। बहुत से परिजनों ने इन लेखों को चलचित्र की परिभाषा दी, सुमन लता बहिन जी ने एक धारवाहिक की संज्ञा दी, एक ऐसा धारवाहिक जिसमें सभी पात्र और परिवेश काल्पनिक न होकर सत्य हैं। इन कमैंट्स को पढ़कर हमें तो सच में आज का लेख लिखते समय बिल्कुल ही ऐसा अनुभव हुआ कि हमारी उँगलियाँ लिख रही हैं लेकिन आत्मा तपोभूमि के प्राँगण में विचर रही है। सहकर्मियों के लिए भी उसी तरह का वातावरण बनाने का प्रयास करते हुए उसी दिव्य गायत्री माँ की प्रतिमा जिसकी प्राणप्रतिष्ठा परमपूज्य गुरुदेव के करकमलों से हुई थी और 24 दिवसीय जल उपवास की अंकिता लेख के cover page को शोभायमान कर रहे हैं। लेख बिल्कुल ही चलचित्र की भांति है।
गायत्री जयन्ती की सुबह तड़के चार बजे प्रतिमा के सामने बारह कन्याएं बिठाई गई। आठ से बारह वर्ष की इन कन्याओं को विधि-विधान पहले ही समझा दिया गया था। प्रतिमा पर्दे से पीछे थी और ढकी हुई भी थी। कन्याओं ने पिछले तीन दिन दूध और गंगाजल पर ही व्यतीत किये थे। बाहर प्रांगण में साधक बैठे थे। षटकर्म आदि प्रारम्भिक कृत्य सम्पन्न होने के बाद वे कन्याएँ गर्भ गृह में चली गई। बाहर मंत्रोच्चार होता रहा। प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा का मुख्य उपचार दश-विध स्नान करवाया गया। यज्ञ भस्म, मिट्टी, गोमय और गोमूत्र से स्नान के बाद छ: स्नान और करवाये गये। दूध, दही, घी, औषधि, कुशोदक (जल जिसमें घास की पत्तियां छोड़ी हों) और शहद से स्नान के बाद शुद्ध जल से स्नान करवाया गया। प्राण आवाहन और न्यास के बाद प्राण स्थिरीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। 240 साधकों ने अपनी दोनों हथेलियां प्रतिमा के सामने की और मंत्र-पाठ किया।
यह एक संयोग ही है कि मध्यांतर ऐसे समय पर आया है कि आने वाले दो दिन( ऑडियो/ वीडियो और स्पेशल सेगमेंट) के अंतराल के बाद सोमवार को हम आपको ले चलेंगें युगतीर्थ शांतिकुंज में जहाँ से हम परमपूज्य गुरुदेव के 1976 वाले दूसरे जल उपवास का प्रकाशन-प्रसारण करेंगें। हम पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते हैं कि शांतिकुंज की दिव्य भूमि पर सम्पन्न हुए जल उपवास की सारी घटनाएं एक सुपरहिट मूवी की भांति आपके ह्रदय को छू जायेगीं। हमें इतना अटल विश्वास क्यों है ? -जिसके सिर ऊपर तू स्वामी वह सफल कैसे न हो पाए।
24 आहुति संकल्प सूची का विश्लेषण करने पर परिणाम यही निकल कर आता है कि एक दिन आदरणीय अरुण वर्मा जी गोल्ड मैडल विजेता हैं तो दूसरे दिन सरविन्द भाई विजेता हैं। दोनों को हमारी व्यक्तिगत एवं परिवार की सामूहिक बधाई तो है ही लेकिन रेणु श्रीवास्तव जी ,संध्या कुमार जी ,प्रेरणा बिटिया और अन्य सहयोगियों के परिश्रम को भी ignore नहीं किया जा सकता।
सभी सहकर्मी अपनी-अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिनका हम हृदय से नमन करते हैं, आभार व्यक्त करते हैं और जीवनपर्यन्त ऋणी रहेंगें। धन्यवाद्
तो आइये प्रातः काल की मंगल वेला में मध्यांतर वाले ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करें।
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माँ गायत्री प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा- विश्व का प्रथम गायत्री मंदिर
आचार्यश्री ने आज भी कोई उद्बोधन नहीं दिया। उनका लिखा हुआ संदेश पढ़कर सुना दिया गया। माताजी ने एक भजन गाया था और गायत्री चालीसा का सस्वर पाठ भी किया। प्रवचन या संदेश जैसा उन्होंने भी कुछ नहीं किया। स्वामी दिव्यानंद, पंडित लक्ष्मीकांत पंड्या, प्रभुदयाल और बृजेश नारायण ने ही मंच से अपने विचार रखे। उनके उद्बोधनों का सार यह था कि राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता भी प्राप्त करनी चाहिए। ये लक्ष्य रचनात्मक प्रयासों से ही प्राप्त किये जा सकते हैं। अगले दिन ही प्राण प्रतिष्ठा का मुहूर्त था। तीन दिन से छाये हुए बादल और घनीभूत हुए थे। नवमी-दशमी की रात थी। सामान्य दिनों में इस रात को देर तक चाँद अपनी किरणें जेठ माह की तपती हुई धरती पर बिखेरता रहता है लेकिन उस दिन चन्द्रमा बादलों के पीछे कहीं छुप गया था। उस कमी को शायद पवनदेव पूरा कर रहे थे। दूर कहीं वर्षा हुई थी। उसको छूती हुई हवाएं तपोभूमि में शीतलता फैलाती हई बह रहीं थीं। जेठ-आषाढ़ की ठंडी हवाएँ उमस भरी होती हैं लेकिन वहाँ नमी का कहीं नामोनिशान नहीं था। प्राणप्रतिष्ठा समारोह शुरु होने के पहले ही दिन आचार्यश्री ने कहा था कि पूर्णाहुति पर वर्षा होगी। साधकों को वह कथन याद आ रहा था।

गर्भ-गृह में आचार्यश्री और माताजी के अलावा कुंवारी कन्याएं मंत्र पढ़ रहीं थीं। उस समय बादलों के गरजने की आवाज सुनाई दे रही थी। बिजलियाँ चमकी। बार-बार कड़कडाती बिजलियों से साधकों को लगा कि जैसे इन्द्र का वज्रपात होने जा रहा है। फिर पानी की मोटी-मोटी बूंदें बरसने लगीं। साधक थोड़े परेशान हुए। शायद इधर-उधर भी होते लेकिन किसी ने कहा अपने स्थान पर खड़े रहें अभी बारिश नहीं होनी है। यह इन्द्रदेव के आगमन का प्रमाण भी हो सकता है। सचमुच मोटी-मोटी बूंदें थोड़ी देर बरस कर थम गई। बिजलियाँ वैसे ही रह-रह कर चमकती रहीं। गायत्री प्रतिमा के शोभा श्रृंगार के बाद गर्भ गृह के द्वार पर लगा पर्दा खोल दिया गया। छ: कन्याएं प्रतिमा के एक तरफ और छ: कन्याएं प्रतिमा के दूसरी तरफ खड़ी थीं। उनके हाथ में आरती के थाल सजे हुए थे।आचार्यश्री प्रतिमा के दांई ओर और माताजी बाईं ओर खड़ी थीं। बाहर आंगन में खड़े साधकों ने गायत्री माता की पहली झलक देखी। जैसे सौन्दर्य, शोभा, वैभव और देवत्व का भंडार खुल गया हो। रत्न और मणि मुक्ताएं जैसे एक साथ चमक उठे हों। कन्याओं के हाथ में आरती के थाल, उनमें जलते आरती के दीपक, पंचमुखी घृतदीप और उनमें जगमग चमकती भगवती आदि शक्ति का विग्रह। बाहर बिजलियां चमक रहीं थीं। साधकों को लगा कि वेदमाता के सौन्दर्य के सामने आकाश की बिजलियों की चमक फीकी है।
गायत्री पुरश्चरण पद्धति में दी गई आरती के साथ कन्याओं के हाथ थालों को घुमाने लगे। दायें से बायें और दायें और वापस बायें। जब तक आरती स्तोत्र चलते रहे, थाल भी घूमते रहे। आरती सम्पन्न होने के बाद नमस्कार । बाहर खड़े साधक मंत्रमुग्ध से देखते रहे। उनके लिए जीवन की यह दुर्लभ और शायद दोबारा न आने वाली घड़ी थी।
उसी सुबह तीन दिन से चले आ रहे महायज्ञ की पूर्णाहुति भी हुई। पूर्णाहुति होते ही बादलों ने बरसना शुरु किया। रह-रहकर पूरे दिन वर्षा होती रही। आगन्तुकों का मानना था कि यज्ञ सफल हुआ। आचार्यश्री से किसी ने पूछा कि वर्षा होना यज्ञ की सफलता का प्रमाण क्यों है?
उन्होंने कहा:
“वर्षा हमारे जीवन को प्रभावित करने वाली प्रकृति की प्रमुख विशेषता है। वैदिक काल में इसे इन्द्र का अनुग्रह समझा जाता था। इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ होते थे। लोग समझते थे कि इन्द्रदेव प्रसन्न हो गये। यह पौराणिक उल्लेख है। इस धारणा का रहस्य अलग है। यज्ञ से प्रकृति में सूक्ष्म परिवर्तन होते हैं। यह परिवर्तन प्रकृति को आन्तरिक रूप से समृद्ध करते हैं और वह समृद्धि ही पानी के रूप में दिखाई देती है। यह बाहरी प्रतीक है। इस आयोजन के परिणाम अगले 20-25 वर्षों में दिखाई देंगे।”
हम देख सकते हैं कि गुरुदेव ने कैसे scientific logic देते हुए scientific spirituality को प्रमाणित किया।
प्राण प्रतिष्ठा समारोह संपन्न हुआ। साधकों की विदाई भी हो गई। वापस जाते हुए उनका मन विचित्र भावों से सराबोर था। आषाढ़ के पहले दिन बरसने वाले बादलों की बूंदे तन मन को जैसी शीतलता और शांति देती हैं, वैसी ही अनुभूति समारोह में आये साधकों को हो रही थी। ऋतु बदलने और भीषण गर्मी से शीतलता में प्रवेश करने जैसा सुख संतोष इस समारोह में मिला था। आचार्यश्री का सौंपा हुआ यह दायित्व निजी सुख संतोष से भी ज्यादा महत्वपूर्ण लग रहा था कि गायत्री तपोभूमि में जिस गंगा का अवतरण हुआ है, उसका नीर देश विदेश में अकुला रहे संतप्तजनों तक भी पहुँचना चाहिए। समारोह में आये 1500 साधकों में से 180 ने संकल्प लिया था कि अगली गायत्री जयंती तक 10-10 लोगों को और तैयार करेंगे।
समारोह में शामिल हुए परिजन अपनी चेतना में दो संकल्प संजो कर जा रहे थे। उनमें एक था गायत्री साधकों के एक समुदाय का गठन और दूसरा स्वयं को अध्यात्म मार्ग पर ले चलने के लिए मुमुक्षुओं को दीक्षित कराना। दीक्षा अर्थात् साधना उपासना के विशिष्ट अनुशासन से प्रतिबद्ध होना।
संगठन का विचार आचार्यश्री के चिंतन में अरसे से चल रहा था। सूक्ष्म जगत में यह संकल्प आचार्यश्री ने महापुरश्चरण आरंभ करने से पहले ही कर लिया होगा। जिस दिन उनकी मार्गदर्शक सत्ता ने उन्हें चौबीस महापुरश्चरणों की साधना के लिए कहा था, उसी दिन से वह संकल्प व्यक्त होने लगा था। 1953 की गायत्री जयंती से कुछ समय पहले से वह इस बारे में परिजनों से सीधे बात करने लगे थे।
पहला संवाद माताजी से ही हुआ था। घियामण्डी स्थित आवास और कार्यालय में गुरुदेव , माताजी और कुछ परिजन बैठे हुए चर्चा कर रहे थे। इन्ही चर्चाओं में गायत्री परिवार का स्वरूप स्पष्ट उभरता आया। उसकी रूपरेखा बनती गई। गायत्री तपोभूमि की प्राण प्रतिष्ठा के दिन “गायत्री परिवार” के नाम से एक छोटा-मोटा संगठन शुरु हुआ। आचार्यश्री ने इसका स्वरूप स्पष्ट किया कि हम लोग कोई सख्त अनुशासन नहीं थोप रहे। यह एक परिवार है। परिवार में लोग जिस तरह एक दूसरे की आवश्यकताओं का ध्यान रखते हैं उसी तरह हम लोग भी एक दूसरे के आत्मिक विकास का ध्यान रखेंगे।
गायत्री माता के सामने “गायत्री परिवार की स्थापना” के लिए संक्षिप्त सी घोषणा की गई थी। वहां मौजूद साधकों और आयोजन के स्वरूप को देखते हुए उस घोषणा का तत्काल महत्व नहीं था। घोषणा के अगले उपक्रम में माताजी ने कहा था कि इसका व्यापक प्रभाव होगा। अभी जो लोग इकट्ठे हए हैं वे नींव के पत्थर की तरह हैं। गायत्री परिवार की स्थापना वहां उपस्थित साधकों के चित्त और चेतना में हुई।
हम अपने पाठकों से आज्ञा लेते हुए गायत्री परिवार की स्थापना का विषय यहीं बंद करना चाहेंगें नहीं तो जल उपवास विषय से भटकने का अंदेशा है। जल उपवास विषय पर अभी बहुत कुछ आने वाला है। मथुरा तपोभूमि वाले जल उपवास का समापन यहीं पर होता है और आप प्रतीक्षा कीजिये हमारी सबकी प्रेरणा बिटिया की कल आने वाली ऑडियो बुक।
मध्यांतर :
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण के साथ इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान आपके रोम-रोम में नवीन ऊर्जा का संचार कर दे और यह ऊर्जा आपके दिन को सुखमय बना दे। धन्यवाद् जय गुरुदेव। हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।