परमपूज्य गुरुदेव के जल उपवास पर आधारित शृंखला का यह तीसरा लेख है। लेख नंबर 2 में हमें यूट्यूब की शब्द सीमा के कारण परमपूज्य गुरुदेव और गोयन्दका जी की भेंट वार्ता को बीच में छोड़ना पड़ा था। जहाँ हमने 2 नंबर लेख छोड़ा था आज वहीँ से आगे चलेंगें। गुरुदेव रंग-भेद, जाति धर्म आदि के बिल्कुल विरुद्ध थे, इसीलिए उन्होंने गायत्री को सभी के लिए उपलब्ध कराया लेकिन गोयन्दका जी अपनी मजबूरियों से बंधे थे। अरणी मंथन प्रक्रिया और त्रियुगी नारायण मंदिर के बारे में हमने बहुत ही रोचक जानकारी compile की है जो हमारे सहकर्मियों के लिए अति लाभदायक सिद्ध हो सकती है।
शब्द सीमा संकल्प सूची प्रकाशित करने की आज्ञा नहीं दे रही । तो आइये चलें लेख की ओर।
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गोयंदका जी ने कहा,
“हम अपनी ओर से कोई निर्णय नहीं लेते। संत महात्मा जो दिशा-निर्देश देते हैं या उनसे जो प्रेरणा मिलती है. वैसा ही करते हैं।”
गोयंदका जी और आचार्यश्री में देर तक चर्चा चलती रही। एक मुद्दा छुआछूत विवेक का था। गोयंदका जी ने ही प्रसंग छेड़ा था कि आधुनिकता के प्रवाह में लोग शास्त्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन कर रहे हैं। मंदिरों में उन लोगों के प्रवेश के लिए आंदोलन छिड़ रहे हैं, जिनके लिए शास्त्रों में प्रतिबंध हैं। मान्यता की पुष्टि के लिए वह कई तर्क दे रहे थे और कह रहे थे कि इससे वर्णधर्म (रंगभेद) समाप्त हो जायेगा।
आचार्यश्री ने कहा कि शास्त्रों का थोड़ा बहुत अध्ययन हमने भी किया है,हमें कहीं भी नहीं मिला कि शूद्रों या निम्रजाति के कहे जाने वाले लोगों को मंदिर में जाने की मनाही है या वह भगवान का भजन नहीं कर सकते।
गोयंदकाजी ने यहां भी संत महात्माओं के निर्णय का हवाला दिया कि वोह जो व्यवस्था दें वहीं मान्य है। आचार्यश्री ने सलाह दी कि श्रुतियां सनातन हैं लेकिन स्मृतियां तो युगों के अनुसार लिखी जाती हैं। किसी समय में मनुस्मृति का महत्त्व रहा होगा, संभवतः मध्यकाल में लेकिन अब परिस्थितियां बदल गई हैं। नई स्मृति तैयार की जानी चाहिए। साधु संत आज की परिस्थितियों को देखें और उसके अनुसार नया अनुशासन समाज को दें।
जय दयालजी गुरुदेव बातों को गौर से सुन रहे थे। उन्होंने कहा कि आप ठीक ही कहते होंगे लेकिन हमारा मन बंधा हुआ है। हम साधु संतों को परामर्श नहीं दे सकते। वैश्य है न, इसलिए यह बात अधिकारी ब्राह्मण विद्वान कहें, किसी धर्म विषय पर नया विचार देना उन्हीं का काम है। गोयंदकाजी ने इस बात से सहमति जताई कि यातायात और संचार के साधन जैसे-जैसे बढ़ेंगे वैसे-वैसे ज्यादा लोग संपर्क में आएंगे। यह पहचानना मुश्किल हो जाएगा कि कौन किस जाति का है? लेकिन उन्होंने अपनी मान्यताओं और विश्वासों के आगे स्वयं को लाचार बताया। चलते चलते उन्होंने आचार्यश्री से अपने लायक कोई काम बताने के लिए कहा। आचार्यश्री ने कहा आप और हम सब सनातन धर्म की ही आराधना कर रहे है। अलग से बताने जैसा कोई काम नहीं है।आपका स्नेह ही पर्याप्त है। फिर भी आवश्यकता हुई तो आपको याद करेंगे।
गोयंदका जी ने पगड़ी उठाई और अपने सिर पर रखी। पगड़ी पहन कर उन्होंने प्रणाम किया और उठ कर चलने लगे। आचार्यश्री ने उठने की कोशिश की तो गोयंदकाजी ने उन्हें रोक दिया और कहा आप एक व्रत में दीक्षित हैं, लोकाचार पर इतना जोर मत दीजिए।
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गायत्री तपोभूमि के प्राण प्रतिष्ठा समारोह:
सहस्रांशु ब्रह्मयज्ञ की पूर्णाहुति और गायत्री तपोभूमि के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में भाग लेने के लिए सैंकडों निमंत्रण पत्र भेजे गये थे। सहस्रांशु ब्रह्मयज्ञ की विस्तृत जानकारी किसी अलग लेख में देना ही उचित होगा।
पत्र मिलते ही लगभग सभी साधकों ने तत्परता दिखाई थी। 2500-3000 लोगों के आने की संभावना बन रही थी। सोचा गया कि सब लोग यज्ञ में आने के बजाय कुछ लोग अपने क्षेत्रों में भी काम करें तो बेहतर होगा। गायत्री जयंती पर तपोभूमि की प्राण प्रतिष्ठा की गूंज मथुरा के बाहर भी सुनाई देनी चाहिए। साधकों से कहा गया कि अपने क्षेत्र में ही गायत्री उपासना के प्रचार की मुहिम चलायें। लोगों को जप और ध्यान के लिए प्रेरित करें। मथुरा आने के बारे में कहा गया कि एक जगह से एक व्यक्ति आ जाये तो भी पर्याप्त है। बहुत हुआ तो दो प्रतिनिधि आ जाएं, वरना अपने क्षेत्र में ही उस दिन सामूहिक जप और उपासना चलायें। कुछ कार्यकर्ता यात्रा पर थे। वे मंदिर के लिए 2400 तीर्थों का जल और रज इकट्ठा करने निकले थे। वे वापस आने लगे थे। मंदिर के दक्षिण भाग में तीर्थों के जल और रज की स्थापना की जानी थी। जल रज लेकर आये कार्यकर्ताओं और प्राण प्रतिष्ठा में यजमान की तरह सम्मिलित होने वाले साधकों को मिलाकर आगंतुकों की संख्या 1500 तक पहुँचती थी। 19 जून की शाम तक ज्यादातर लोग पहुँच गये थे। वह शाम कार्यक्रम की घोषणा, सूचना और आगंतुकों को ठहराने में बीत गई। ऋषिकेश से आये स्वामी देवदर्शनानंद का व्याख्यान हुआ। मुख्य कार्यक्रम 20 जून को आरंभ होना था। स्वामी ओंकारानंद और आर्यसमाज के संन्यासी स्वामी प्रेमानंद भी तीन दिन के समारोह में सम्मिलित होने के लिए पधारे हुए थे।
20 जून को परमपूज्य गुरुदेव का स्वास्थ्य:
जल उपवास के कारण आचार्यश्री स्वयं आयोजन में शरीर से बहुत सक्रिय नहीं हो पा रहे थे,वह काफी कमजोर हो गये थे। 30 मई को उपवास आरंभ करने के समय उनका वज़न लगभग 56 किलोग्राम था और 20 जून को वह घटकर लगभग 48 किलोग्राम रह गया था। शरीर का तापमान भी बढ़ गया था। थर्मामीटर से मापने का उस ज़माने में खास प्रचलन नहीं था। आचार्यश्री को स्वयं लग रहा था कि कुछ बुखार सा है। उन्हें बोलने में भी कष्ट हो रहा था। फिर भी आंतरिक ऊर्जा में कोई कमी नहीं आई थी। वैसे भी गुरुदेव कम ही बोलते थे लेकिन उपवास के दिनों में करीब-करीब मौन ही रहे। प्राण प्रतिष्ठा समारोह में दैनिक कार्यक्रम तय किये जाते समय आचार्यश्री के प्रवचन की बात उठी तो निर्धारण समिति ने उन्हीं से पूछा। पहले भी अनुमान था कि शायद प्रवचन न ही करें और उपवास के बाद उनसे इस बारे में पूछना ज्यादती होती। फिर भी एक बार उनकी सम्मति लेना आवश्यक समझा गया। आचार्यश्री ने कहा कि वे अपना संदेश लिखकर देंगे। उसे पढ़कर सुना दिया जाए। शरीर से कमजोर होने और हलका बुखार रहने के बावजूद आचार्यश्री की आंखों में तेज झलकता था। ऐसा बहुत से लोगों ने महसूस किया। आचार्यश्री अपनी पलकें झुकाये रखते थे।
20 जून की सुबह पंडित लालकृष्ण पंड्या की अध्यक्षता में पंचकुंडीय गायत्री महायज्ञ आरंभ हुआ। वैसे तो आजकल (2022) गायत्री तपोभूमि निर्माणधीन है, 1952 में प्राण प्रतिष्ठा वाले दिन वहाँ पांच अस्थाई कुंड बनाये गये थे। उसी सुबह तीन दिन चलने वाले गायत्री यज्ञ के अलावा साधना उपासना के विशेष कार्यक्रम शुरु हुए। इन कार्यक्रमों में 1250 चालीसा पाठ, महामृत्युंजय यज्ञ, गायत्री सहस्रनाम, और दुर्गा सप्तशती का पाठ चलता रहा।
“अरणि मंथन की प्रक्रिया” से प्रकट की गयी थी अग्नि :
दो प्रकार की अग्रियां स्थापित की गई थीं। एक अरणि मंथन से प्रकट की गई और दूसरी हिमालय से लाई गई विशिष्ट अग्नि। शिव पार्वती की तपस्थली हिमालय में सात सौ वर्ष पहले प्रज्वलित यह अग्नि एक सिद्ध आत्मा की धूनी से त्रियुगी नारायण से लाई गई थी। यज्ञशाला में इसके प्रकट होने का विधान भी अद्भुत था।
आगे चलने से पहले हमें यह जान लेना अति आवश्यक होगा कि “अरणि मंथन की प्रक्रिया” क्या है और त्रियुगी नारायण की महत्ता :
कमज़ोरी के बावजूद परमपूज्य गुरुदेव अपने आसन से धीरे- धीरे उठे ,पावं में खड़ाऊँ पहनी और पात्र में रखी उस दिव्य अग्नि को लेकर प्रमुख कुंड की तरफ आए ,माता जी भी उनके साथ थीं। उन्होंने 4 समिधायं चुनी,उन्हें कुंड में स्थापित किया और मंत्रोचार के साथ अग्निदेव का आवाहन किया। कपूर और घी के साथ अग्नि प्रज्वलित की गई और आहुतियाँ दी गयीं। इस अग्नि में धुएं की एक भी रेखा नही थी। निधूर्म अग्नि को यज्ञाचार्यों ने अग्निदेव के प्रसन्न होकर आहुतियाँ ग्रहण करने का प्रतीक बताया। शेष चार कुंडों में भी समिधायें रखीं थीं। इन कुंडों में गुरुदेव ने शमी और पलाश की लकड़ियों को रगड़ कर अग्नि प्रकट की। शमी और पलाश एक विशेष प्रकार की लकड़ी होती है जिसके रगड़ने से चिंगारियां प्रकट होती है। इस प्रक्रिया को अरणी मंथन कहते हैं। अरणी मंथन प्रक्रिया समझने के लिए हम एक छोटा सा वीडियो लिंक भी दे रहे हैं।https://youtu.be/V5tTzKjUe1E
गुरुदेव ने कहा था कि दियासिलाई की रगड़ से अग्नि नही प्रकट की जानी है। गुरुदेव ने लकड़ियां पकड़ीं और ऋग्वेद के पाठ करने लगे। पाठ करते ही उन्होंने लकड़ियों को रगड़ा, लोग उत्सुकता से देख रहे थे। लाइटर की तरह छोटी सी लौ उठी ,लोगों की ऑंखें खुली की खुली रह गईं। इस लौ से कुंड में पड़ी समिधाओं का स्पर्श किया ही होगा कि लपटें उठीं। उसके बाद तुरंत घी की आहुतियां दी गयीं। पूज्य गुरुदेव और वंदनीय माता जी प्रमुख कुंड पर बैठे रहे और शेष कार्य सम्पन्न हुआ।
त्रियुगीनारायण मंदिर :
सोनप्रयाग से 12 और नई दिल्ली से 455 किलोमीटर दूर त्रियुगीनारायण मंदिर ( त्रियुगी का अर्थ लेख के साथ दिए गए चित्र में अंकित है) रुद्रप्रयाग डिस्ट्रिक्ट उत्तराखंड में स्थित है। यह पुरातन मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। हमारे शास्त्रों में इस मंदिर का वर्णन है कि भगवान शिव का विवाह माँ पार्वती के साथ इसी पावन स्थान पर हुआ था और भगवान विष्णु इसके साक्षी थे। इस मंदिर के बारे में विशेष बात यह है कि इसके प्रांगण में अग्नि ज्वलंत है जो शिव पार्वती के दिव्य विवाह के समय से अखंड जल रही है। इसलिए इस मंदिर का नाम अखंड धूनी मंदिर भी है। इस मंदिर के प्रांगण में चार कुंड – सरस्वती कुंड, रूद्र कुंड, विष्णु कुंड व ब्रह्म कुंड स्तिथ हैं, जिसमें मुख्य कुंड सरस्वती कुंड है जो पास के तीन जल कुंडों को भरता है। इस मंदिर से जुडी मान्यता है कि मंदिर के आँगन में स्तिथ अग्नि कुंड जहां शिव और पार्वती परिणय सूत्र में बंधे थे उस अग्नि कुंड की ज्वाला वर्षों से जलाई जा रही है। पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु माँ पार्वती के भाई रूप में उपस्थित हुए थे तथा ब्रह्मा जी पुरोहित बने थे। कहते हैं कि जो व्यक्ति इस कुंड में लकड़ी को प्रज्वलित करता है और इसकी राख को अपने पास रखता है तो उनके वैवाहिक जीवन में हमेशा सुख समृद्धि बनी रहती है। वहीँ प्रागण में स्तिथ कुंड के जल से जो एक बार स्नान करता है तो बाँझपन जैसी समस्या से उसे निदान मिल जाता है। कहते हैं कि इस मंदिर का निर्माण आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा किया गया था।
वर्ष 2018 में उत्तराखंड सरकार द्वारा त्रियुगी नारायण मंदिर को डेस्टिनेशन वेडिंग (Destination wedding) के लिए प्रचार प्रसार किया गया। इसके पीछे सरकार का तर्क था कि जिस स्थान पर स्वयं भगवान शिव और पार्वती ने विवाह किया हो वहां दूर-दूर से लोग विवाह करने आएंगे। इससे ना सिर्फ उत्तराखंड में पर्यटन बढ़ेगा बल्कि इस क्षेत्र का विकास भी होगा। उत्तराखंड सरकार द्वारा त्रियुगी नारायण मंदिर की डेस्टिनेशन वेडिंग के रूप में घोषणा के बाद FIR सीरियल की प्रसिद्ध टीवी स्टार कविता कौशिक, उत्तराखंड प्रदेश के मंत्री धन सिंह रावत, गाजियाबाद की IPS अपर्णा गौतम और नैनीताल के ADM ललित मोहन यहाँ अपने विवाह सम्पन्न कर चुके हैं। Destination wedding के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए पाठक ऑनलाइन सर्च कर सकते हैं, बहुत सी जानकारी उपलब्ध है
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