वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव द्वारा किये गए दो जल उपवास की विस्तृत जानकारी 1  

आज से एक नई ज्ञानप्रसाद श्रृंखला का आरम्भ हो रहा है। चेतना की शिखर यात्रा के लगभग 35 पन्नों में समाई  यह लेख श्रृंखला हमें  अपने गुरु के संकल्प और शक्ति के  बारे में ऐसी बातें बताने वाली है जिसे पढ़कर हम सबके रोंगटे खड़े होने की सम्भावना है। यह श्रृंखला 1952 और 1976 के जल उपवास पर आधारित है। आने वाले लेख  “आह्वाहन और स्थापन” और “जल उपवास- प्रक्षालन प्रयोग” शीर्षकों पर आधारित हैं। प्रक्षालन को  इंगलिश में Washing कहते हैं। केवल जल पर ही  कुछ दिन निर्वाह करना जल उपवास कहा जाता है।  परमपूज्य गुरुदेव ने जब 1952 में जल उपवास किया था तो उनकी आयु 41 वर्ष थी लेकिन 1976 में वह 65 वर्ष के हो गए थे। 1952 में भी वंदनीय माता जी और ताई (गुरुदेव के माता जी) ने गुरुदेव का  जल उपवास रोकने के बहुत प्रयास किये थे परन्तु मार्गसत्ता के निर्देश को  बांकेबिहारी ने भी स्वीकृति दे दी थी। कन्हैया लाल श्रीवास्तव  जी जिन्होंने 1952 वाला जल उपवास देखा था,गुरुदेव की दशा भी  देखी थी,1976 के जल उपवास की घोषणा सुनकर विचलित हो उठे थे। ऐसे अनगिनत, अति रोचक  प्रसंग हम आने वाले लेखों में लाने की योजना बना रहे हैं। हम सब सामूहिक तौर से  जल उपवास का विज्ञान और अध्यात्म, उदाहरणों के साथ critically analyse करने का प्रयास करेंगें। हमारे डॉक्टर चिन्मय भाई साहिब भी जल उपवास करते हैं। 

जहां हम उन सभी सहकर्मियों के प्रति, जो पूर्ण श्रद्धा और नियमितता से हमारे लेख पढ़ रहे हैं, आभार व्यक्त करते हैं, वहीं ऐसे सहकर्मियों को करबद्ध निवेदन करते हैं कि कभी- कभार  लेख पढ़ने से कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला। यह बिल्कुल उसी तरह की स्थिति है  जैसे एक विद्यार्थी कभी-कभार  क्लास में उपस्थित होता है। ऐसी स्थिति में श्रृंखला की कढ़ी टूट जाती है और आपका सारा परिश्रम व्यर्थ जाता है।

तो आइये आरम्भ करते हैं इस अद्भुत श्रृंखला का पहला लेख ।

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परमपूज्य गुरुदेव ने 1952 में गायत्री तपोभूमि मथुरा की स्थापना के समय 24 दिन का जल उपवास किया। पूज्यवर ने 1976 के जल उपवास की घोषणा मथुरा में ही 24 वर्ष पूर्व कर दी थी। ऐसी थी उनकी संकल्प शक्ति। 1976 में शांतिकुंज में जब गुरुदेव ने अक्टूबर में आरंभ होने वाले जल उपवास की घोषणा की तो बहुत से परिजन यह सोच रहे थे कि उन्हें भूल चुके होंगें,लेकिन यह तो मार्गसत्ता की सुनियोजित योजना थी जिससे नजरंदाज करना असंभव था।

इन लेखों में जल उपवास की स्थितियों का अध्यन तो होगा ही,साथ में  अद्वैत आश्रम अल्मोड़ा के स्वामी गम्भीरानन्द जी , गीताप्रेस गोरखपुर के  जय दयाल गोयन्दका जी जैसी कई विभूतियों के बारे में भी जानने का सौभाग्य भी प्राप्त होगा, तपोभूमि की स्थापना, जिसके बारे में हम विस्तार से लिख चुके हैं, का भी पता चलेगा so stay tuned .

1952 की बैसाख  पूर्णिमा से गायत्री जयंती तक आचार्यश्री ने जल उपवास का निश्चय किया था। इस अवधि में गंगाजल पर ही निर्भर रहना था। गुरुदेव के माताजी, जिन्हें वह ताईजी कहते थे, ने चिंता जताई। थोड़ा सा दबाब भी बनाया। उनका कहना था कि एक समय भोजन करने की बात तो ठीक है। चौबीस साल एक समय खाना खाकर  ही तो बिताए हैं। दो चार दिन का निराहार व्रत भी ठीक है लेकिन चौबीस दिन का उपवास तो शरीर को तोड़ ही  देगा। जल उपवास तय होते ही उन्होंने विरोध करना शुरु कर दिया था। दिनोंदिन विरोध बढ़ता ही गया। चिंतित तो वंदनीय माताजी भी थीं लेकिन वह कुछ कह नहीं पाती थीं। उन्हें भीतर से कोई आवाज आती थी कि मुझे अपने आराध्य के निर्धारणों में कोई हस्तक्षेप नहीं करना है,चुपचाप उनका अनुसरण करना है, जैसा कहें वैसा ही पालन करते जाना है।

माता जी के मन में विचार आया कि स्वयं भी जल उपवास पर रहा जाए और उन्होंने  एक दिन अपने मन की बात गुरुदेव के सामने रख दी। वंदनीय माताजी का प्रस्ताव सुनकर आचार्यश्री ने कहा, “अगर दोनों ही उपवास पर बैठ जाएंगे तो आने वाले साधकों को कौन संभालेगा और  फिर यह आदेश हमारे लिए हुआ है। तुम्हें भी उपवास करना होता तो गुरुदेव (दादागुरु) बता देते। तुम्हें बाहरी व्यवस्थाओं को संभालने में ही लगना चाहिए।”

वंदनीय माताजी तो मान गईं लेकिन ताई को संभालना कठिन पड़ रहा था। वह ज़िद किए जा रही थीं कि उपवास नहीं करें। अगर दादागुरु ने कहा है तो हम उनसे क्षमा मांग लेंगे। वह कोई प्रायश्चित बतायेंगे तो उसे भी पूरा  कर लेंगे। लेकिन ताईजी के सामने सभी तर्क और कारण बेकार साबित हो रहे थे। एक दो बार  तो आचार्यश्री को लगा कि अपना निर्णय बदलना पड़ सकता है। वे ताईजी से कहने जा ही रहे थे कि एक आसरा दिखाई दिया और वह आसरा था उनके अपने आराध्य द्वारकाधीश का। 

आचार्यश्री ने कहा, 

“ताईजी मैंने आपकी बात मान ली। समझो कि मैं  चौबीस दिन का उपवास नहीं करूंगा लेकिन आप एक बार द्वारकाधीश महाराज से भी पूछ कर देखिए। वह  मुझे संकल्प तोड़ने की अनुमति दे रहे हैं क्या? आप ही उनसे पूछिए और आप ही उनका उत्तर सुनिए। आप उनसे जो सुनेंगी और फिर कहेंगी, वही मैं करूंगा।”

गुरुदेव द्वारा दी गई यह सलाह ताईजी के गले उतर गई। होली के आसपास के दिन होंगें, रंग हवाओं में उड़ने लगे थे। मथुरा-वृंदावन में वैसे भी हफ्तों पहले होली पर तरह- तरह के आयोजन शुरु हो जाते हैं। द्वारकाधीश मंदिर में भी उत्सव चल रहा था। ताईजी बताया करती थीं कि जिस दिन श्रीराम ने सुझाव दिया  उसके अगले दिन की ही बात है। ताईजी ठाकुर जी के सामने आंख बंद करके खड़ी हो गई। उन्हें साक्षात मान कर पूछा,

“खुद तो मेवा मिष्ठान्न खाते रहते हो, भंडार भरा पड़ा है और श्रीराम को जेठ के महीने में निराहार रखने पर तुले हुए हो। ऐसा क्यों है?”

ताईजी और ठाकुरजी  का  इसी तरह का संवाद चल रहा था। तरह-तरह के उलाहने दिए चली जा रही थीं। पता ही नहीं चला कि अपनी तरफ से कब कुछ कहना बंद हो गया।

ताईजी बताती हैं: 

“मंदिर में ठाकुरजी के सामने मेरे अलावा किसी की भी प्रतीती नहीं हो रही थी। लगा प्रभु के होंठ हिल रहे हैं। उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान भी थी। वे कह रहे थे कि श्रीराम जब तुम्हारे गर्भ में था तो उसे कौन पोषण दे रहा था। तब भी तो वह उपवास पर ही था। चिंता न करो। भवानी ही उससे उपवास करा रही है। आदिशक्ति के आंचल में बैठे श्रीराम के बारे में चिंता करने वाले हम कौन? फिर प्रभु मुसकराये और कहने लगे कि जिस मेवा मिष्ठान की बात कह रही हो वह भी तो श्रीराम का पोषण करने के लिए ही है।”

आराध्य के इस संवाद ने मन की दुविधा मिटा दी। ताई जी खिलखिलाती हुई सी घर वापस आ गयीं । इस तरह का मुखर संदेश पहले कभी नहीं आया था। घोर संकट के दिनों में भी भीतर से उठने वाले स्पष्ट संकेतों-प्रेरणाओं को ही उन्होंने अपने इष्ट का संकेत माना था और उसी आधार पर निर्णय लिए थे। भगवान की यह आवाज ताईजी के लिए साक्षात्कार से कम नहीं थी। इसी  उल्लास में वे घर पहुँची। पहुँचते ही उन्होंने आचार्यश्री को पुकारा और अपने आराध्य का उत्तर सुनाया। माँ और पुत्र दोनों ही प्रसन्न थे। पुत्र ने मजाक किया, 

“ताई मैं तो डर ही रहा था  कि तुम्हारे आगे मुझे अपना व्रत तोड़ना पड़ेगा।”

बात हंसी में समाप्त हो गयी । ताई जी तो मान गई लेकिन गायत्री साधकों का क्या करें? उनके पत्र आ रहे थे कि वे भी उपवास करेंगे। आचार्यश्री ने औसत स्वास्थ्य, अभ्यास और ग्रीष्म ऋतु का हवाला देते हुए समझाया कि हठधर्मिता छोड़ें। एकाध दिन का सांकेतिक उपवास कर लें। उन दिनों जप, ध्यान और पाठ आदि कार्यक्रम चलाये जाय। प्रतिदिन इस तरह के 30 -40  पत्र लिखे जाते थे। सहस्रांशु ब्रह्मयज्ञ की सूचना देने और आगे के लिए दिशा निर्देश लेने के लिए आ रहे साधकों से भी आचार्यश्री यही कहते थे।

वैशाख पूर्णिमा 30  मई को थी। उसी दिन से जल उपवास आरम्भ किया। मंदिर के सामने एक लकड़ी का तख्त और  उस पर दरी और चादर बिछाई गयी । धूप से बचाव के लिए तिरपाल तान दिया था। आचार्यश्री तख्त पर 30  मई की सुबह बैठे। उस दिन घीआमंडी  में नियमित पूजा करने के बाद वे सीधे मन्दिर आ गये थे। घीआमंडी स्थित  अखंड ज्योति संस्थान बिल्डिंग, जो भूतों वाली बिल्डिंग के नाम से प्रसिद्ध है, परमपूज्य गुरुदेव सपरिवार रहते थे। 

तपोभूमि में गायत्री माता की प्रतिमा के सामने पर्दा पड़ा हुआ था और  प्रतिमा को ढका  किया हुआ था। मंदिर में पुताई और घिसाई का कुछ काम बाकी था। वह अपनी तरह से  चलता रहा। आचार्यश्री पूर्णिमा को वहाँ आकर बैठे तो वंदनीय माताजी भी साथ थीं। सुबह पांच बजे का समय था। उन्होंने आचार्यश्री को तिलक किया, चरण छुए और एक तुलसी दल दिया। आचार्यश्री ने तुलसी का वह पत्ता मुँह में रखा। गायत्री मंत्र का उच्चारण किया और  तपोभूमि में पहले से मौजूद पांच कार्यकर्ताओं ने भी गायत्री मंत्र का पाठ किया। यह आचार्यश्री के जल उपवास आरम्भ होने की सूचना थी। 

अगले चौबीस दिनों में उपवास के दौरान साधकों का आना जारी रहा। कभी-कभी 20-25  तो कभी 30-40, इस तरह लोग आते जाते रहे। 19  से 24  जून तक के समारोह की रूपरेखा पहले ही तय थी। उपवास के दिनों में आते-जाते रहे साधकों ने उसकी व्यवस्था को सँवारा। आने वाले लोगों की संख्या तो बहुत ही कम थी लेकिन  तपोभूमि जैसे नये संस्थान में ब्रजमंडल के बाहर से इतने लोगों का रोज़ आना भी बहुत  बड़ी बात थी। स्थानीय लोग तो आते-जाते रहते ही थे। 

चरण स्पर्श पर रोक:

 गुरुदेव ने जिस दिन उपवास आरम्भ किया उसी दिन से कुछ प्रतिबंध लगाए थे।  आइये देखें कौन से प्रतिबंध थे और उनके लगाने के कारण क्या थे। सर्वप्रथम गुरुदेव ने  मिलने जुलने की व्यवस्था बनाई। इस  व्यवस्था में 

1.सभी को  कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने के लिए कहा 

2.गुरुदेव के  आसन के आसपास लोगों के जमा न होने को कहा गया। 

3.गुरुदेव के चरण स्पर्श पर प्रतिबंध था। 

लोगों का आना जाना तो खैर अधिक  नहीं था, लेकिन चरण-स्पर्श के लिए निषेध का मर्म लोगों को समझ नहीं आया। साधकों को विचित्र लगा कि  यही तो एक  अवसर  था जब तपोभूमि  में साधकों को इकट्ठा होना था। वह अपने प्रेरक,मनीषी और 24  महापुरश्चरण करके तपने वाले तपस्वी के इर्द गिर्द जमा हो रहे थे। गुरुदेव द्वारा ऐसे  अवसर पर प्रणाम और श्रद्धा निवेदन पर प्रतिबंध लगाना  कुछ समझ नहीं आया।

आज का लेख यही पर समाप्त करने की आज्ञा चाहते हैं  और आप प्रतीक्षा कीजिये आगे आने वाले  बहुत ही रोचक संस्मरण जय गुरुदेव।   

To be continued:

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।

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