वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

1973 की प्राण प्रत्यावर्तन साधना एक विस्तृत जानकारी-6 

हमारे सहकर्मी जानते हैं कि आजकल हम प्राण प्रत्यावर्तन साधना को जानने का प्रयास कर रहे हैं और इस साधना को समझने के लिए भिन्न भिन्न cross references ,उदाहरण ,अनुभूतियों की सहायता ले रहे हैं। 

आज के ज्ञानप्रसाद में कर्नाटक से आये एक साधक,स्वयं प्रकाश जी की अनुभूति प्रस्तुत कर रहे हैं जो कि बहुत ही रोचक होने के साथ दिव्यता से भरपूर है। ज्ञानप्रसाद के आरम्भ में यह बताने का प्रयास किया गया है कि गुरुदेव को प्रतक्ष्य देखे बिना उन्हें कैसी अनुभूति होती रही । लगभग 2 वर्ष बाद जब परमपूज्य गुरुदेव के साथ साक्षत्कार हुआ तो गुरुदेव ने एक चलचित्र की भांति क्या कुछ दिखा दिया। यह लेख हम सबके लिए एक Eye -opener है , विशेषकर उन लोगों के लिए जिन्हे हमारे गुरुदेव की शक्ति के बारे में रत्तीभर भी शंका है। हम तो यही कहेंगें कि सभी सहकर्मियों को ऐसे लेखों का अधिक से अधिक प्रचार -प्रसार करना चाहिए और बार -बार करना चाहिए ताकि हमारे गुरु की शक्ति का आभास हो सके। 

तो आइये करें आज की दिव्य पाठशाला का शुभारम्भ संग संग : 

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कर्नाटक से आए एक साधक स्वयं प्रकाश जी की अनुभूति :

इस प्रसंग में साधक का नाम बदल दिया गया है क्योंकि वे नहीं चाहते कि उनकी अनुभूति को उनके नाम से ही सार्वजनिक किया जाए। इसलिए साधक का नाम स्वयं प्रकाश लिखना पड़ा है।

उस दिन कर्नाटक से आए एक साधक स्वयं प्रकाश को लग रहा था कि अपने सौभाग्य सूर्य का उदय होने जा रहा था। स्वयं प्रकाश मथुरा के विदाई सम्मेलन के बाद ही गुरुदेव की साधना परंपरा में आए थे। जून 1971 के बाद उन्होंने एक क्षेत्रीय कार्यक्रम में हिस्सा लिया था। वहीं से गुरुदेव के विचार संपर्क में आए और स्वाध्याय करते हुए लगा कि अपना इष्ट, उपास्य ही सामने बैठ कर शिक्षण कर रहा है, पिता की तरह दुनियादारी सिखा रहा है, मां की तरह लाड़ दुलार कर रहा है।

नवंबर 1971 में हैदराबाद के पास गुलबर्गा में एक महायज्ञ हुआ। स्वयं प्रकाश ने तब तक गुरुदेव से अपने तार इतने जोड़ लिए थे कि उन्हें विधिवत संस्कार का रूप देने का निश्चय कर लिया। महायज्ञ में आए क्षेत्रीय प्रतिनिधियों के संयोजन संचालन में उन्होंने गुरुदीक्षा ले ली। डेढ़ दो महीने बाद ही लगा कि गुरुदेव से प्रत्यक्ष भेंट हो सकती है। यह आशा अपेक्षा ही थी। पता नहीं कब प्रतीती में बदल गई और अपेक्षा अब निश्चित संभावना लगने लगी। तब तक गुरुदेव हिमालय से वापस नहीं आए थे। स्वयं प्रकाश का अंत:करण इस विश्वास से भरता जा रहा था कि उनके दर्शन होंगे और सान्निध्य भी मिलेगा।

उन्होंने बताया कि गुलबर्गा में दीक्षा लेते समय उन्हें गुरुदेव के सान्निध्य की कई बार अनुभूति हुई। गुरुदेव यज्ञशाला में सूक्ष्म रूप से दिखाई दिए। उनकी उपस्थिति कभी-कभी आकार भी ले लेती। स्वयंप्रकाश ने गुरुदेव को कभी प्रत्यक्ष नहीं देखा था, इसलिए पहचान नहीं पाए। उस आकृति के दो बार दर्शन हुए और तीसरी बार फिर लगा कि गुरुदेव आए हैं। उस समय दीक्षा संस्कार चल रहा था। यज्ञ मंडप में वेदी के पास गुरुदेव का एक चित्र रखा हुआ था। संस्कार का संचालन कर रहे पंडित हृदय नारायण निर्देश दे रहे थे कि दीक्षार्थी दोनों हाथों से मुट्ठी बांधकर अपने अंगूठों के नखभाग को देखें। भावना करें कि वहां सविता देवता प्रकट हो रहे हैं। स्वयंप्रकाश ने वैसा ही किया। सविता देव की भावना करते हुए उन्हें लगा कि गुरुदेव सामने खड़े हैं। नजर उठाकर देखा-सामने उज्ज्वल सफेद धोती कुर्ता पहने एक प्रौढ़ पुरुष दिखाई दिए। उन्हें देखकर मन ही मन कहा ” कहां है गुरुदेव ? ” यह तो मथुरा से आए कोई वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आसपास देखा। भारतीय वेशभूषा धारण किए और कार्यकर्ता भी यज्ञशाला में व्यवस्था देख रहे थे। सामने उपस्थित आकृति ने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाया और स्वयं प्रकाश के सिर पर रख दिया। स्वयंप्रकाश को लगा कि माथे पर चंदन और केसर का तिलक खिंच रहा है। वैसी ही शीतलता और पवित्रता आसपास फैलती जा रही है। इस अनुभूति के बावजूद वह ज्यादा समझ नहीं पा रहे थे। तभी आंतरिक चेतना में एक चौपाई गूंजती सुनाई दी। उस चौपाई के स्वर चित्रकूट के घाट पर चंदन घिसते हुए गोस्वामी तुलसी दास को संबोधित करते हए थे। चौपाई की दूसरी पंक्ति कह रही थी कि रघुवीर यानि भगवान राम स्वयं तुलसी दास को चंदन लगा रहे थे। इस चौपाई का साहित्यिक अर्थ जो भी हो, स्वयं प्रकाश को लगा कि किसी ने गुरुदेव की प्रतक्ष्य उपस्थिति की घोषणा की है। 

“चित्रकूट के घाट पर हुई संतन की भीड़, तुलसीदास चन्दन घिसे, तिलक देते रघुबीर”

घोषणा इसलिए है कि वह अपने इष्ट को पहचान नहीं पा रहे हैं। यह दृश्य बनते-बनते दीक्षा संस्कार की प्रक्रिया पूरी हो गई थी। स्वयं प्रकाश ने सामने खड़ी आकृति के चरण पकड़ लिए और अपना सिर पैरों में रख दिया। यह प्रणाम स्वीकार करते हुए उस दिव्य आकृति ने अपने दोनों पांव सटा लिए थे। प्रणत साधक ने अनुग्रह माना कि यह गुरुदेव की कृपा है। उनके चरणों से कोई प्रवाह निकल रहा है। प्रकाश की तरंगों की तरह निकल रहा यह प्रवाह स्वयं प्रकाश को सभी दिशाओं से घेरे जा रहा था। लग रहा था कि अपना आत्म ही उस प्रकाश में डूबता, उतराता सराबोर होता जा रहा है।

हृदय में दीप जले :

दीक्षा के बाद स्वयं प्रकाश की साधना और उपासना बिना किसी रोक टोक के चलने लगी थी। गुरुदेव के सान्निध्य में ही कहीं पढ़ा था कि गुरुसत्ता का वरण जीवन मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करता है। लौकिक जीवन में भी प्रगति के द्वार खोलता है। 

प्रत्यावर्तन शिविरों की घोषणा हुई तो स्वयं प्रकाश ने अपने आपको प्रस्तुत करने में तनिक भी देर नहीं की। मांगी गई जानकारी तुरंत भेज दी। शान्तिकुंज से माताजी का पत्र आया। शिविर की तिथियां और तब तक की जाने वाली साधनाओं का व्यौरा भी था। उन साधनाओं को करते हुए शिविर की तिथियों का इंतजार होने लगा। तिथियां करीब आ गई और सामने ही पहुंच गई तो स्वयं प्रकाश ने कहा कि गुरुदेव के सान्निध्य में कुछ समय बिताने की चिर अभिलाषा पूरी होने की घड़ी भी आ गई। भेंट के लिए तीसरा दिन निश्चित हुआ था। वह दिन और वह क्षण भी आ गया। स्वयं प्रकाश गुरुदेव के सामने उपस्थित थे। उनके सामने पहुंचकर चुपचाप खड़े हो गए । उनकी ओर अपलक देखने लगे । कई क्षण बीत गए स्वयं प्रकाश की नज़रें गुरुदेव पर से हट ही नहीं रही थीं। उन्हें निहारे जा रहे थे । इतनी तन्मयता से कि प्रणाम करना भी भूल गए । गुरुदेव ने उन्हें नींद से बाहर निकालते हुए कहा :

” बैठ जाओ स्वयं प्रकाश । तुम्हे लगता है कि तुमने मुझे पहली बार देखा है लेकिन मैं तुम्हे बहुत पहले से जानता हूं।”

गुरुदेव के बैठ जाने का संकेत करते ही स्वयं प्रकाश ने दंडवत प्रणाम किया और उनके सामने बैठ गए । औपचरिक ढंग से गुरुदेव ने घर -परिवार, व्यवसाय आदि के बारे में कुशलक्षेम पूछा। स्वयं प्रकाश को लगा कि अपने मन की बात कहने के लिए यह उपयुक्त क्षण है । उन्होंने कुशलक्षेम पूछते ही तपाक से कहा, गुरुदेव! घर में सब लोग ठीक हैं। आप अंतर्यामी हैं, सब जानते हैं, मैं क्या कहूं? जो कहना चाहता हूं वह भी जानते हैं। मैं किसी भी स्थिति में विवाह नहीं करना चाहता। घर परिवार की ज़िम्मेदारियों से अलग रहकर, आपके सान्निध्य में और आपके बताए मार्ग पर चलते हुए आपका काम करता हूँ। स्वयं प्रकाश ने एकाध पल का विराम लिया और इस बीच गुरुदेव ने उनकी बात पूरी की :

“स्वामी विवेकानंद है न तुम्हारे आदर्श। अगर व्यक्ति के तौर पर कहो तो स्वामी विवेकानंद बनना बड़ा आसान है। उन्हीं की तरह बोलने, वस्त्र पहनने और व्यवहार करने लगो तो बन जाओगे विवेकानंद। लेकिन उनके आदर्शों को जीना है तो अपनी चेतना को उनके स्तर तक ले जाना होगा।”

यह कहकर गुरुदेव ने स्वयं प्रकाश के सिर पर हाथ रखा। हाथ रखते ही उसके मुंह से एक हलकी सी चीख निकली और उनकी बाह्य चेतना लुप्त ( गायब ) होने लगी। शरीर निढाल सा हो गया। उस अवस्था में स्वयं प्रकाश ने देखा कि एक वैष्णव साधु से एक युवक कुछ मांग रहा है। सुनने की कोशिश की तो पता चला कि वह भगवान को पाने का उपाय पूछ रहा है। कह रहा है कि मुझे उनका दर्शन कराइए। साधु ने पूछा परिवार में कौन-कौन हैं ? युवक ने कहा माता-पिता, भाई-बहिन सभी कोई हैं। फिर साधु ने पूछा पत्नी बच्चे ? युवक ने कहा- अभी घर नहीं बसाया है। साधु ने कहा जाओ पहले घर बसाओ। प्रेम, त्याग और सहिष्णुता का जब तक अभ्यास नहीं होगा तब तक तुम भगवान के मार्ग पर नहीं चल सकोगे।।

स्वयं प्रकाश ने देखा कि सुनकर वह युवक चुपचाप चला गया। हावभाव से लग रहा था कि उसने साधु की बात मान ली है। दृश्य बदलता है। वह युवक परिवार में दिखाई देता है, पत्नी-बच्चों से घिरा हुआ। फिर वह युवक वृद्धावस्था में प्रवेश करता है और उसकी जीवन लीला पूरी हो जाती है। ये सारे दृश्य फिल्म की तरह दिखाई देते हैं। वह साधु जिन्होंने युवक को दिशा दी थी अब भी उसी अवस्था में काशी के गंगाघाट पर स्नान-ध्यान करते दिखाई दे रहे हैं। फिर दृश्य बदलता है और कोई युवा सन्यासी दिखाई देता है। इस दृश्य के बाद स्वयं प्रकाश आँखें खोलते हैं और कहते हैं -अरे यह तो स्वामी विवेकानंद हैं। कहते हुए गुरुदेव की ओर देखते हैं और कहते हैं – वह वृद्ध संन्यासी कौन थे गुरुदेव। गुरुदेव ने कुछ नहीं कहा। स्वयं प्रकाश अपनेआप बोले – स्वामी रामानन्द रहे होंगे। उनके बारे में जैसा सुना, पढ़ा है वैसे ही लग रहे थे।उन्होंने फिर गुरुदेव की ओर देखा जैसे अपने निष्कर्ष की पुष्टि चाह रहे हों । गुरुदेव ने इस बार भी कुछ नहीं कहा।

स्वयं प्रकाश अपनी सहज अवस्था में आए और चुप हो गए। उन्हें लगा कि भीतर के सब द्वन्द्व मिट गए हैं। यह भी लगा कि हो न हो, वह युवक ही अगले किसी जन्म में विवेकानंद के स्तर तक पहुंचा हो। जो दृश्य दिखाई दिए वे स्वामी विवेकानन्द के पूर्वजन्म की यात्राओं में से एक वृत्तांत भी तो हो सकता है। उसे अपने जीवन के बारे में गुरुदेव से कुछ पूछने या जिज्ञासा करने की आवश्यकता नहीं रह गई थी। वह गुरुदेव के पास कुछ समय तक चुपचाप बैठे रहे। कुछ बोले नहीं। गुरुदेव ने भी कुछ नहीं कहा।

स्वयं प्रकाश ने अपनी डायरी में लिखा कि सन्निधि के उन क्षणों में जैसे मैं गुरुदेव के स्पर्श को आत्मसात कर रहा था उनकी उपस्थिति रोम-रोम में व्याप्त हो रही थी और मेरा ‘स्व’ तिरोहित होता जा रहा था। एक स्थिति ऐसी आई कि लगने लगा अब संवाद पूरा हो गया है। न गुरुदेव ने कुछ कहा और न ही मैंने। मुझे जानने,समझने के लिए कुछ आवश्यक भी नहीं लगा। चुपचाप उठे , गुरुदेव को प्रणाम किया और अपने कक्ष में वापस लौट आए।

To be continued:

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।

शब्द सीमा के कारण संकल्प सूची प्रकाशित करने में असमर्थ हैं। 

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