वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

1973 की प्राण प्रत्यावर्तन साधना-एक विस्तृत जानकारी-1 

अगस्त 1996 की अखंड ज्योति पत्रिका में और चेतना की शिखर यात्रा भाग 3 में 1973 की प्राण प्रत्यावर्तन साधना पर कुछ जानकारी दी गयी है। हो सकता है किसी और पुस्तक या ऑडियो-वीडियो में भी इस महत्वपूर्ण साधना का विवरण दिया गया हो लेकिन जहाँ तक हमारी सद्बुद्धि की सीमा है कोई भी विवरण complete नहीं है और कोई भी विवरण ऐसा नहीं कहा जा सकता जो पूर्णतया error-free हो। इस बात की चर्चा हम कई बार शांतिकुंज अधिकारियों से कर चुके हैं और कुछ परिणाम मिले भी हैं। इस दिशा में हमारा प्रयास अनवरत जारी है।

आज के ज्ञानप्रसाद में और आने वाले कुछ लेखों में हम प्रयास करेंगें कि इस साधना पर अधिक से अधिक, सरल से सरल जानकारी आपके समक्ष रख सकें।शब्दों और वाक्यों को जितना मुमकिन हो सका, सरल करने का प्रयास किया है। क्योंकि जानकारी कई स्रोतों से इक्क्ठी कर रहे हैं तो ऐसा लगेगा कि वही बात पहले भी पढ़ी गयी है, रिपीट हो रही है परन्तु ऐसा शायद न ही हो, और अगर कहीं हुआ भी तो पाठ revise करने में कोई हर्ज़ तो नहीं है। 

तो आइये चलें आज के ज्ञानप्रसाद की ओर :

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हम बात कर रहे हैं 1973 के वसंत के दिनों की। विश्वामित्र की तपस्थली शांतिकुंज में एक बार फिर नए प्राणों का संचार हो रहा था, नई ऊर्जा भरी जा रही थी। गुरुदेव हिमालय से वापस आ गए थे और इस बार भी वह देवात्मा हिमालय से तप-प्राण बटोर कर लौटे थे। दादा गुरु और ऋषिसत्ताओं ने गुरुदेव को अनेकों नई जिम्मेदारियाँ सौपी थी। उनके वापस आने से शांतिकुंज परिसर मे उल्लास और उत्साह का उफान सा आ गया था। माता जी अपने आराध्य को अपने समीप पाकर प्रसन्न थी । ऋषियुग्म के तप से संचित शक्ति के कारण शांतिकुंज का समूचा परिसर महाप्राण का निवास बन गया था । यहाँ का कण-कण उनकी तप-ऊर्जा से प्राणवान हो उठा था पूज्यवर अपनी नई जिम्मेदारियों को अपने सहचरो में बाँटना चाहते थे। आखिर उन्हें नवयुग के आगमन के लिए नए सरंजाम जो जुटाने थे। लेकिन गुरुदेव को परिजनों की दुर्बलता का भी ज्ञान था । उन्हें इस बात का अहसास था कि अपने बच्चों को प्राणवान बनाए बिना नवयुग के आगमन का कार्य सम्भव नहीं है । इसलिए नई जिम्मेदारियों को सौपने से पहले गुरुदेव ने “प्राण प्रत्यावर्तन” की बात सोची। 

क्या है प्राण प्रत्यावर्तन साधना का अर्थ ?

प्राणों का नवीनीकरण (upgrade, renewal) करने के लिए वसंत 1973 से प्राण प्रत्यावर्तन सत्र श्रृंखला का आयोजन हुआ। हम सब जानते हैं कि परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में वसंत का क्या महत्व है। 1926 में दादा गुरु के प्रकाशपुंज रूप में प्रकट होने से लेकर युगतीर्थ शांतिकुंज की स्थापना तक कोई भी समारोह ऐसा नहीं नहीं होगा जिसका आयोजन वसंत के दिन न हुआ हो। प्राण प्रत्यावर्तन सत्र श्रृंखला का नाम विशेष ही अपनी गरिमा प्रकाशित करने के लिए पर्याप्त है। 

“प्राण प्रत्यावर्तन का अर्थ है प्राण चेतना का आदान-प्रदान । यह आदान प्रदान किसके साथ? इसका उत्तर यही हो सकता है-लघु का महान के साथ, आत्मा का परमात्मा के साथ प्राण का महाप्राण के साथ, युग निर्माण मिशन के परिवार का उसके सूत्रसंचालक के साथ, परमपूज्य गुरुदेव का अपने बच्चों के साथ।” 

प्राण की परिभाषा हम अपने कई लेखों में जान चुके हैं फिर भी हम कहना चाहेंगें कि प्राण का अभिप्राय किसी व्यक्ति की परिधि में अवरुद्ध चेतना से है। महाप्राण अर्थात् समाधि की अनन्त सीमा में विस्तृत ब्रह्मसत्ता । दोनों का एक दूसरे में आदान-प्रदान हो, आत्मा अपनेआप को परमात्मा में समर्पित करे, शिष्य स्वयं की चेतना को गुरु में उड़ेले ओर परमात्मा (गुरु) अपने आनन्द-अनुग्रह को भावभरी आत्मीयता के साथ साधक पर, जीवात्मा पर बरसा दे । शिष्य अपनी तुच्छता का, स्वार्थ भरी सकीर्णता का, गुरु में विसर्जन करे और गुरु उसे अपनाकर अपनी विभूतियों से उसके व्यक्तित्व को सजा दे।

व्यक्तिगत तुच्छता की बूंद को जिन्होनें विश्व के विशाल सागर मे घुलाया है वे ही तो महामानव, देवदूत और ऋषिकल्प कहलाने के अधिकारी हुए हैं । अभावग्रस्त एवं दुःखी मानव का अनन्त और असीम के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेना, विराट के ब्रह्मलोक से टपकने वाले अमृत का रसास्वादन कहते हैं । सही मायनों में आध्यात्मिकता का सार, ब्रह्मविद्या का उद्देश्य ही प्राण प्रत्यावर्तन में छुपा हुआ है।

प्राण का महाप्राण के साथ आदान-प्रदान सम्भव हो सके, आत्मा और परमात्मा के परस्पर मिलन की अनुभूति होने लगे, यही है प्रत्यावर्तन प्रक्रिया, जिसकी व्यवस्था इन दिनों शांतिकुंज में की गई थी। इन प्रत्यावर्तन सत्रों में उपयुक्त साधकों को क्रमशः थोड़ी-थोड़ी संख्या में बुलाया गया। एक सत्र में अधिकतम चौबीस साधकों की व्यवस्था ही थी। इन सत्रों की अवधि 4 दिन की थी । एक दिन आने का, एक दिन जाने का जोड़ लें तो 6 दिन कहा जा सकता था । पर साधना काल 4 दिन अथवा 96 घण्टे का ही रखा गया था।

प्राण प्रत्यावर्तन साधना की प्रक्रिया:

इस अवधि में साधकों को अपनी एकान्त कोठरी में अकेले रहना पड़ता था। चार दिनों में प्रतिदिन 6 घण्टे साधना के लिए अनिवार्य थे। 1 घण्टा मध्याह बौद्धिक प्रवचन द्वारा आत्मबोध की शिक्षा दी जाती थी और सायंकाल 1 घण्टा भाव गीतों द्वारा अन्तःकरण में उच्चस्तरीय उत्कृष्टता को उमगाया जाता था। 6 घण्टे साधना, 2 घण्टे प्रशिक्षण; इस प्रकार 8 घण्टे का नियमित और अनुशासित कार्यक्रम इन सत्रों में रहता था । दिनचर्या इतनी सुगठित कि फौजी अनुशासन का पालन करने वाले ही उसमे फिट बैठते थे । अस्तव्यस्तता के आदी लोग इसमें नहीं रुक सकते थे। साधना वाले चार दिनों मे प्रत्येक साधक को शांतिकुंज की मर्यादा में रहना पड़ता था । शांतिकुंज के परिसर से बाहर निकलने की कतई छूट नहीं थी। जिस प्रकार सीता जी की सुरक्षा के लिए लक्ष्मण रेखा खींची गई थी लगभग वैसी ही शांतिकुंज की सीमाएँ प्रतिबंध रेखा बन जाती थीं ।

प्राण प्रत्यावर्तन साधना में आहार व्यवस्था :

प्रत्यावर्तन सत्रों में आहार की भी विशेष मर्यादा रखी गयी थी। प्रातः काल जलपान में सर्वप्रथम आहार के रूप मे पचगव्य ही साधकों को दिया जाता। गाय के दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर के पानी को सामूहिक रूप से पंचगव्य कहा जाता है। पंचगव्य बनाने के लिए गोबर व 1.5 लीटर गोमूत्र में 250 ग्राम देशी घी अच्छी तरह मिलाकर मटके या प्लास्टिक की टंकी में डाल दिया जाता है । अगले तीन दिन तक इसे रोज हाथ से हिलाया जाता है। अब चौथे दिन सारी सामग्री को आपस में मिलाकर मटके में डाल देते हैं व फिर से ढक्कन बंद कर देते हैं । इसके बाद जब इसका खमीर ( Fermentation ) बन जाय और खुशबू आने लगे तो समझ लेते हैं कि पंचगव्य तैयार है। दोपहर को जौ, चावल और तिल की रोटी दी जाती थी, यों साथ मे चावल, दाल, दलिया जैसे सात्विक आहार की मात्रा रहती पर प्रथम आहार “हविष्यान्न चरु” का ही करना पड़ता था। यह एक ऐसा आहार होता है जो यज्ञ आदि के लिए बनाया जाता है ,उदाहरण के तौर पर हम कह सकते है कि अगर खीर बनानी है तो छिलके वाले चावल या रोटी पकानी है तो भूसा( high fibre ) वाले आटे से बनाई जाती थी। दोपहर और और सायंकालीन भोजन मे गंगाजल ही प्रयोग किया जाता और आहार के साथ पीने को गंगाजल ही दिया जाता।

साधको को आहार बनाने और परोसने के लिए साधना परायण हाथों का ही उपयोग होता । इस क्रम को वंदनीय माता जी के साथ पुरश्चरण में संलग्न कन्याएँ ही सम्पन्न करती । ब्रह्मचर्य से रहने वाले शरीर ही इस आहार का स्पर्श करते । इससे पूर्व उसे और भी सुसंस्कारी बनाने के लिए आध्यात्मिक उपचारों से सम्पन्न किया जाता । उस पर निरीक्षण दृष्टिपात उन आखों का रहता जिन्होनें प्रत्यावर्तन सत्र श्रृंखला का आधार खड़ा किया था। हविष्यान से बनी रोटी के साथ एक विशेष तरह की औषधि गुणों से युक्त चटनी भी दी जाती। इस चटनी में ब्राह्मी, आँवला का विशेष योग रहता । लेकिन इसके साथ ही शतावरी, शंखपुष्पी, गोरखमुण्डी और बच का भी उपयुक्त मिश्रण रहता । इस प्रकार इसे एक मस्तिष्कीय बलवर्धक रसादन भी कहा जा सकता है। रोटी के साथ दी जाने वाली यह चटनी स्वास्थ्य की दृष्टि से तो एक महत्वपूर्ण आहार थी ही परन्तु उसका मुख्य लाभ अन्तःकरण का चौतरफा विकास था। मन, बुद्धि, चित्त, अहकार का स्तर तमोगुण, रजोगुण को भूमिका से ऊँचा उठाकर सतोगुणी स्तर तक पहुँचाने का था जिसे इसका उपयोग करने वाले साधक अपने अतर्मन में अनुभव करते।

To be continued:

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। 

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24 आहुति संकल्प 

19 अप्रैल के ज्ञानप्रसाद के अमृतपान उपरांत 2 समर्पित सहकर्मियों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, यह समर्पित सहकर्मी निम्नलिखित हैं :

(1) संध्या कुमार-24 , (2 ) अरुण वर्मा -27 

दोनों ही सहकर्मी गोल्ड मैडल विजेता घोषित किये जाते हैं, उनको हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हे हम हृदय से नमन करते हैं और आभार व्यक्त करते हैं। धन्यवाद्

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