“अगर आपका ह्रदय किसी दुःखी को देखकर व्यथित होता है तो भगवान कहते हैं मैंने तुम्हे इंसान बना कर कोई गलती नहीं की है”
परमपूज्य गुरुदेव की दिव्य पुस्तिका “धर्म की सदृढ़ धारणा” पर आधारित श्रंखला का चतुर्थ लेख जिसे आदरणीय संध्या कुमार जी की लेखनी सुशोभित कर रही है आपके समक्ष प्रस्तुत है । हमने अपनी सद्बुद्धि से यत्र-तत्र संशोधन कर इस लेख को रोचक बनाने का प्रयास किया है, आपके कमैंट्स इस बात के साक्षी हैं आप इस कठिन लेख शृंखला में भी डूब चुके हैं। तो बिना किसी भूमिका के आरम्भ होती है आज की पाठशाला।
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धर्मात्मा के लक्षण :
जिस प्रकार सूर्य उदय हुआ है या नहीं, यह बात किसी को बतानी नहीं पड़ती उससे उत्पन्न होने वाली गर्मी और प्रकाश स्वयं इस बात का परिचय दे देते हैं कि सूर्योदय हो गया है । इसी तरह किसी धर्मात्मा मनुष्य का परिचय यह कहकर नहीं दिया जाता कि वह मनुष्य इसलिए धर्मात्मा है कि उसने सौ मालायें राम नाम की जपी हैं, या वह नित्य वेद, पुराण का पाठ करता है। अक्सर कहा जाता है – Your behavior reflects your character, कोई मनुष्य धर्मात्मा है या नहीं इसका पता उसके आस पास रहने वालों के प्रति उसके व्यवहार से अपनेआप लग जाता है । अगर उसका प्रभाव अपने चारों ओर रहने वाले व्यक्तियों पर सुखदायक पड़ता है और उसके कारण उनके दुःखों का मोचन होता है तो उसका धर्मात्मा होना स्वयं ही सिद्ध हो जाता है।
इसी सन्दर्भ में हम बड़े ही गर्वपूर्वक कह सकते हैं कि ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार का प्रत्येक सदस्य अपनेआप में एक role model है, torch bearer है ,पथ-प्रदर्शक है क्योंकि वह बार-बार मानवीय मूल्यों (शिष्टाचार, आदर, सम्मान, श्रद्धा, समर्पण, सहकारिता, सहानुभूति, सद्भावना, अनुशासन, निष्ठा, विश्वास, आस्था, प्रेम, स्नेह, नियमितता ) का अभ्यास करता हुआ अपनी छटा बरसा रहा है।
किसी भी व्यक्ति का धर्मात्मा होना जप-तप और पूजा-पाठ से नहीं नापा जा सकता । लैम्प के प्रकाश का माप केवल इस बात से ही हो जाता है कि उसके चारों ओर का अन्धकार दूर हुआ या नहीं। सूर्य, बिना तेल बत्ती के भी प्रकाशमान है और बुझा हुआ दीपक तेल बत्ती के होते हुए भी प्रकाशहीन है। इसी तरह कुछ मनुष्य पूजा पाठ के बिना भी धर्मात्मा हैं, वे सूर्यवत् हैं और अन्य कितने ही मनुष्य पूजा पाठ करते रहने पर भी धर्महीन हैं वे पाखण्डी हैं। इसीलिए परमपूज्य गुरुदेव ने कर्मकांडों को ब्राह्मणत्व के मुकाबले में secondary बताया है।
साधारण मनुष्यों को लैम्प के समान प्रकाश उत्पन्न करने के लिये पूजा पाठ रूपी तेल बत्ती की आवश्यकता रहती है । जो मनुष्य पूजा पाठ तथा सत्संग से हीन है उनका दिया बुझा ही रहता है।
कई बार हम नगर के किसी ऐसे मुहल्ले से गुज़र जाते हैं जहाँ नालियाँ दुर्गन्ध युक्त हैं, चारों ओर कीचड़ है, मच्छरों के झुण्ड उड़ रहे हैं, लोग मैले-कुचैले हैं, रोगों के मारे हैं, निर्धनता के सताये हुए हैं – अगर इन अवस्थाओं को देखकर हमारा ह्रदय पसीज नहीं जाता तो हमें धर्मात्मा कहलाने का कोई अधिकार नहीं है फिर चाहे हम कितनी ही लम्बी समाधि क्यों न लगाते हों, कितना भी भजन कीर्तन क्यों न करते हों , कितने ही घण्टे घड़ियाल क्यों न बजाते हों और कितनी भी सामग्री हवन में क्यों न फूंक देते हों | संसार में आज तक जितने भी महात्मा प्रचार करने आये, वह इसी संवेदना,भाईचारे की भावना का प्रकाश हमारे ह्रदय में जलाने आये थे। इस दिशा में परमपूज्य के कृत्यों का विवरण देना आरम्भ कर दें तो हम अपने इस टॉपिक से भटक जायेंगें।
अक्सर कहा जाता है कि संसार के सभी महात्माओं ने जहाँ अन्धों को आँखे दीं, बहरों को कान दिये, लूले लँगड़ों को हाथ-पैर दिये वहीँ संसार ने काम, क्रोध, लोभ, मोह, आलस्य, प्रमाद, आदि के घोर विष से मानव को अन्धा, बहरा, लूला, लँगड़ा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । जब कोई मानव महात्मा लोगों की प्रेरणा से अपने चारों ओर बसे मनुष्यों के प्रति संवेदना अनुभव करता है और उनकी बिगड़ी हुई हालत को सुधारने के लिये चेष्टा करता है, उस समय उसे खोई हुई आँखें वापिस मिल जाती हैं, बहरे कान सुनने लग जाते है और कटे हुए हाथ-पैर फिर से हरे हो जाते हैं। धर्म का सच्चा स्वरूप वहीँ है जहाँ अपने चारों ओर की सोचनीय अवस्था को सुखमय दशा में परिवर्तन करने की भावना मौजूद है।
“भगवान भी कहते हैं कि अगर मेरे पुत्र का ह्रदय किसी दुःखी को देखकर व्यथित होता है तो मैंने उसे इंसान बना कर कोई गलती नहीं की है”
धर्म के दो स्वरुप:
धर्म की आवश्यकता तो सभी समझदार लोग स्वीकार करते हैं, पर धार्मिक सिद्धांतों के विषय में प्रायः मनुष्यों में मतभेद पाया जाता है । विभिन्न धर्मों में पाये जाने वाले अन्तर को तो छोड़ दीजिये एक ही धर्म के अलग-अलग सम्प्रदायों के सिद्धान्तों में घोर भिन्नता दिखाई देती है। कई सिद्धान्त तो एक दूसरे के सर्वथा विपरीत मिलते हैं । इसका कारण तो यही प्रतीत होता है कि इन मतभेदों में धर्म का ठोस अंश बहुत कम होता है । अधिकांश अवस्थाओं में तो मतभेदों का कारण ऊपरी रस्म रिवाज या स्थानीय विशेषतायें ही होती हैं।
असल में धर्म के दो अंग होते हैं:
एक तो नित्य अंग जिसमें परिवर्तन नहीं होता और दूसरा अनित्य अथवा परिवर्तनशील। सद्गुण तो नित्य या अपरिवर्तनशील धर्म हैं । उन सदगुणों के अनुसार बर्ताव करने, इन गुणों को बढ़ाने का प्रयत्न करने और आपस में व्यवहार करने की विधियां समय-समय पर बदलती रहती हैं। जैसे-जैसे मानव का मानसिक विकास होता है ये विधियां पहले से अच्छी निकल आतीं हैं । नये-नये धर्म प्रवर्तकों का कार्य पहले से अधिक श्रेयस्कर अथवा बदली हुई परिस्थिति के अनुकूल विधियां बनाने का होता है। सत्य, दया, न्यायप्रियता, उदारता आदि सद्गुण अपरिवर्तनशील हैं। कोई भी धर्म इनको कभी बुरा नहीं कहेगा । ये सद्गुण प्राय: सभी धर्मों में पाये जायेंगे । इसलिये ये नित्य धर्म है कोई व्यक्ति तो झूठ बोलने को ही सत्य का उल्लंघन समझता है लेकिन दूसरा व्यक्ति ऐसे सभी कार्यों को झूठ बोलने जैसा समझता है जिनको उसे छिपाना पड़े या मन में किसी अनुचित इच्छा को लाना पड़े। कौन सी स्थिति किस पर लागू होती है यह पूर्णतया व्यक्तिगत है। तो हम यह कह सकते हैं कि समय के साथ सत्य-धर्म मे तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ, पर उसके प्रयोग में बदलाव अवश्य हुआ है ।
हम धार्मिक संस्कार क्यों करते हैं :
सद्गुणों की वृद्धि करने वाली क्रियाएं जैसे-उपासना, सदग्रन्थों का अध्ययन, दान, तीर्थाटन आदि भिन्न-भिन्न जातियों, देशों व समयों में भिन्न भिन्न होती हैं । यह सब क्रियायें धर्म का अंग होते हुए भी परिवर्तनशील हैं । चाहे कोई भी धर्म हो इन क्रियाओं का उद्देश्य सदैव एक ही होता है, परंतु एक ही उद्देश्य होने के बावजूद कार्य प्रणाली पृथक-पृथक होती है । इसी प्रकार जन समुदायों अथवा सम्प्रदायों की धार्मिक शैलियाँ भिन्न हो सकती हैं और एक ही जाति के महापुरुष नई-नई शैलियों का आविष्कार कर सकते हैं । इसी प्रकार धार्मिक संस्कार पृथक-पृथक और परिवर्तनशील होते हैं तो सभी जातियों, सभी देशों, सभी समयों में मनुष्य जब प्राकृतिक शक्तियों को अपने से अधिक प्रबल देख कर उनमें देवताओं की कल्पना करता है तो उन शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए पूजा करना, उनको भेंट चढ़ाना, बलिदान करना, आवाहन करना स्वाभाविक ही है और ऐसा समझा जाता है कि कहीं यह शक्तियां अप्रसन्न होकर मनुष्यों का अनहित न करें।।
“यही है धार्मिक संस्कारों का मूल।”
लेकिन देश, काल, आदि के अनुसार हमारी प्रणाली बदल रही है और आगे भी बदलती रहेगी। उदाहरणार्थ किसी ठण्डे देश में ऊनी-वस्त्र पहिने जाते हैं और यदि वे ही लोग किसी गर्म देश में आ बसें तो ऊनी वस्त्रों के स्थान पर सूती वस्त्र पहिनने लग जाते हैं। इसी तरह एक और उदाहरण मूर्तियों का भी दिया जा सकता है। हममें से बहुतों ने देखा होगा आज से 5 -6 दशक पूर्व के मंदिरों में अधिकतर मूर्तियां मिट्टी की होती थीं लेकिन ज्यों ज्यों समय बदला,नई टेक्नोलॉजी आई,कंप्यूटर प्रोग्राम आए,CNC मशीनें आयीं, granite और quartz जैसे मूल्यवान पदार्थ खरीदने की समर्था हो गयी तो मंदिरों में इन materials की मूर्तियां आ गयीं। टेक्नोलॉजी का प्रसार हो यहाँ तक हो चुका है कि शांतिकुंज में ही हवन कुंड कंप्यूटर प्रोग्राम से डिज़ाइन किये जाते हैं। यह हमने स्वयं उनकी स्वाभलंबन वर्कशॉप में देखा था जब हमें कुछ विशेष dimensions का हवन कुंड चाहिए था। कोरोना के कारण ज़ूम टेक्नोलॉजी ने यज्ञों आदि को करवाने में ऐसा परिवर्तन लाया कि आज जब सभी restrictons लगभग समाप्त ही हैं लेकिन ज़ूम को अभी भी prefer किया जाता है। हैरानगी तो तब होती है जब विवाह आदि के समरोह में हज़ारों की गिनती में बिना किसी protocols का पालन किये सब कुछ हो रहा है। Sorry, But it is a matter of convenience
परिवर्तित परस्थितियों का कुप्रभाव :
पर जैसे-जैसे समय बीतता जाता है परिवर्तित परिस्थितियों के प्रभाव से धार्मिक संस्कारों तथा अन्य धार्मिक कर्मकांडों की विधि कोरा दिखावा या आडम्बर मात्र रह जाती है । जिन सद्गुणों को उनके द्वारा बढ़ाना अभीष्ट होता है उसके विपरीत उसके कारण दुर्गुण की वृद्धि होने लगती है। लोग उसके सार को भूल कर बाहरी स्वरूप पर ही जोर देने लगते हैं । कभी-कभी वह विधि इतनी पेचीदा और लम्बी चौड़ी होती है कि साधारण मनुष्य न तो उसे समझ सकता है न याद रख सकता है । ऐसी अवस्था में पंडितों या पुजारियों की एक श्रेणी बन जाती है जो उसे कराने के अधिकारी समझे जाते हैं । ये पुजारी जब अपने-अपने अधिकार को दृढ़ता के साथ स्थापित देखते है तो वे भी उस विधि के पूर्ण अध्ययन की चिन्ता नहीं करते वरन् उसके द्वारा अधिक से अधिक धन प्राप्त करने को ही अपना लक्ष्य बना लेते है । परिणाम यह होता है कि जो धार्मिक क्रियाएं मानव कल्याण के लिये बनाई गयी थीं वह स्वार्थ-साधन, अभिमान, द्वेष आदि की उत्पत्ति करने वाले बन जाते हैं। संसार में धर्म के नाम पर जो अनर्थ हुये हैं उनका मूल कारण यही है। कई बार तो ऐसा भी कहा जाता है कि संसार में इतना विनाश उन लोगों के कारण नहीं हुआ जो धर्म में विश्वास नहीं रखते जितना धार्मिक लोगों से हुआ है।
ऐसी अवस्था देख कर किसी महापुरुष का हृदय सहानुभूति और करुणा से द्रवित हो जाता है। परिवारों में अक्सर इस तरह की स्थिति देखने को मिलती है। दूर कहाँ जाएँ, हमारे ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार से हमें इस सन्दर्भ में कई बार फ़ोन आ चुके हैं। पुजारियों का विरोध अक्सर देखने में मिलता है। जब किसी धार्मिक कृत्य से सदगुणों के बदले दुर्गुण बढ़ने लगें तो वह त्याग करने जैसा हो जाता है ।
तो क्या है इसका समाधान ?
इस स्थिति के समाधान के लिए फिर से, नए सिरे से धर्म के उपदेश और नवीन धार्मिक विधियों के प्रचार की आवश्यकता होती है। कभी-कभी पुजारियों का गुरु-अभिमान मिटाने को, धार्मिक कृत्यों की पेचीदा विधियों को दूर करके साधारण व्यक्तियों के समझने और आचरण कर सकने योग्य रास्ता बताना आवश्यक होता है । इस प्रकार धार्मिक व्यवस्था में महान परिवर्तन हो जाता है । परन्तु धर्म का सार रूप सद्गुणों का आचरण अब भी वैसा ही महत्वपूर्ण रहता है जैसा कि पहले था अथवा यह कहना चाहिए कि वह पहले से भी अधिक आवश्यक हो जाता है क्योंकि उस की रक्षा के लिए बाहरी विधियों और क्रियाओं में परिवर्तन किया जाता है । इस प्रकार नित्य धर्म की रक्षा के लिये ही महापुरुषों द्वारा धर्म के ऊपरी रूप में परिवर्तन किया जाता है जिसे सामान्य व्यक्ति नवीन धर्म की स्थापना का रुप दे देते है।
To be continued: