“अगर हम धर्म की रक्षा करते हैं तो धर्म स्वयं हमारी रक्षा करता है”- मनुस्मृति
परमपूज्य गुरुदेव की दिव्य पुस्तिका “धर्म की सदृढ़ धारणा” पर आधारित श्रृंखला का पांचवां एवं अंतिम लेख जिसे आदरणीय संध्या कुमार जी की लेखनी सुशोभित कर रही है आपके समक्ष प्रस्तुत है । हमने अपनी सद्बुद्धि से यत्र-तत्र संशोधन कर इस लेख को रोचक बनाने का प्रयास किया है, आपके कमैंट्स इस बात के साक्षी हैं कि आप इस कठिन लेख शृंखला में भी डूब चुके हैं। आज की पाठशाला आरम्भ करने से पहले हम अपने आने वाले लेखों की रूपरेखा आपके साथ शेयर करना चाहेंगें। कल से आरम्भ हो रहे लेखों की श्रृंखला केवल परमपूज्य गुरुदेव से ही सम्बंधित होगी, हम कहाँ से आरम्भ कर पायेगें, कहाँ मध्यांतर होगा और कहाँ समापन होगा, कहना बहुत ही कठिन है। डर है कि इस विस्तृत साहित्य की दिव्यता का भंवर हमें डुबो ही न दे, लेकिन हमें अपने गुरु के मार्गदर्शन और समर्पित सहकर्मियों पर अटूट विश्वास है -वह हमें बचा लेंगें।
आदरणीय संध्या बहिन ने बहुत ही सुन्दर व्याख्या करके ऑनलाइन ज्ञानरथ को धर्म की सदृढ़ धारणा से comapre किया है- ज्ञानप्रसाद के अंत में यथावत प्रस्तुत है।
तो आइये चलें साथ -साथ :
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हमारी रोज़मर्रा के जीवन में धर्म शब्द का उपयोग केवल “पारलौकिक -परलोक- सुख का मार्ग” ही समझा जाता है। आइये आगे चलने से पहले देखें कि पारलौकिक का अर्थ क्या होता है एवं पारलौकिक सुख क्या होता है। लौकिक का अर्थ होता है वह लोक जिसमें हम वर्तमान में रह रहे हैं और इस लोक में सुख प्राप्त करने के लिए हम अपनी समर्था अनुसार संसार की कोई भी भौतिक वस्तु प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। हम इस भौतिक मृगतृष्णा में सारा जीवन इसी प्रकार व्यर्थ ही गवांते जाते हैं। आँख तो तब खुलती है जब यह मृगतृष्णा इतनी भटकन पैदा कर देती है कि हम सत्संग और श्रेष्ठ मनुष्यों की संगति ढूंढने का प्रयास करते हैं,गुरु ढूंढने पर विवश होते हैं क्योंकि इस तृष्णा को शांत करने के लिए और कोई विकल्प दिखाई ही नहीं देता। उस समय हमें यह आभास होना आरम्भ होता है कि सत्संग करने से और गुरु के सानिध्य में सांसारिक दुःखों का निवारण होता है, सुख दुःख के बंधन से मुक्ति मिलती है। महापुरषों के उपदेश धीरज और सुख शांति को जन्म देते हैं। फिर एक स्टेज ऐसी आ जाती है जब वही मानव जो मृगतृष्णा को शांत करने के लिए भौतिक पदार्थों का संग्रह करता जा रहा था ईश्वर भक्ति में लीन हो जाता है। यही वह inflexion point -मोड़ बिंदु होता है जहाँ उसे विवशता से धर्म का सहारा लेना पड़ता है,वह मंदिरों, मस्जिदों,गुरुद्वारों एवं गिरजों में सुख ढूंढता है। मार्ग जो भी हो ,कारण जो भी हो, उस मृगतृष्णा से निकल कर लौकिक सुख तो प्राप्त कर ही लेता है और पारलौकिक ( अगला लोक -मृत्यु का बाद वाला लोक) सुख का रास्ता तो स्वयं ही बनता जाता है। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि अगर वह धर्म का काम करेगा, धर्म की रक्षा करेगा तो धर्म तो उसकी रक्षा करेगा ही।
मनुष्य बहुत ही स्वार्थी जीव है, उसने हर स्थिति में पहले यह देखा है कि इस कार्य को करने में मेरा क्या और कितना हित होगा तत्पश्चात् उस कार्य को आरम्भ किया है। गाय, भैंस, घोड़े, बकरी, आदि की रक्षा वह इसलिए करता है कि बदले में वह भी मनुष्य की सम्पत्ति तथा तन्दुरुस्ती की रक्षा करते हैं । सियार, भेड़िया, हिरन, लोमड़ी, चीता, कछुआ आदि को आमतौर से पाला नहीं जाता क्योंकि इनसे लाभ नहीं होता।
स्वार्थ ही है जिसके कारण मनुष्य व्यापार, विवाह, मित्रता, कुटुम्ब पालन, विद्या, व्यायाम आदि करता है। इन सभी कृत्यों को समाज में उचित ठहराया गया है क्योंकि इनके द्वारा मनुष्य का हित साधन होता है, रक्षा होती है, सुख मिलता है । जिस कार्य से किसी अच्छे प्रतिफल की आशा नहीं होती उसमें मनुष्य दिलचस्पी नहीं लेता।
धर्मे रक्षति रक्षतः
मनु स्मृति के एक श्लोक के इस भाग “धर्मे रक्षति रक्षतः” का अर्थ है कि धर्म की रक्षा हमारी रक्षा है। धर्म को मनुष्य ने बहुत ही बड़ी वस्तु माना है । छोटे-मोटे सुखों को त्याग कर और कष्टों को अपनाकर भी वह धर्म के लिये प्रयत्नशील रहता है क्योंकि लाखों वर्षों का अनुभव यह सिखाता है कि “धर्म की रक्षा करने से अपनी रक्षा होती है।” रक्षक,पहरेदार, चौकीदार, सैनिक, आदि रक्षा करने वाले व्यक्तियों ( Security guard ) को पैसा खर्च करके भी मनुष्य अपने पास रखता है क्योंकि यह बात अनुभव में आ चुकी है कि इनके रखने से अपत्तियों और हानियों से बचाव होता है । यदि यह बात न होती तो कोई भी पहरेदारों को न रखता। Red light पर गाड़ियों का रुकना एक क़ानून है, इस क़ानून की रक्षा करते ही हमारी रक्षा स्वयं ही हो जाती है। मनुष्य ने धर्म को भली-भाँति परख लिया है कि वह उसकी रक्षा करता है इसलिये वह धर्म की रक्षा करना उचित समझता है ।
गौ पालन, तुलसी स्थापना, गंगा स्नान , तीर्थ यात्रा, एकादशी व्रत, ब्रह्मचर्य आदि कार्यों को धर्म माना गया है। इस मान्यता से पहिले परीक्षा कर ली गयी है कि यह सभी कार्य लाभदायक हैं ।
आइये देखें कैसे ?
गाय पालने से दूध, गोबर और बछड़े मिलते हैं, तुलसी अनेक रोगों को दूर करने वाली एक अमोघ औषधि है, गंगा के जल में ऐसे रसायनिक तत्व पाये जाते हैं जो स्वास्थ्य सुधार के लिये उपयोगी हैं, तीर्थ यात्रा में देशाटन के अनुभव, सत्पुरुषों का सत्संग और वायु परिवर्तन होता है, एकादशी व्रत रखने से पन्द्रह दिन का कब्ज पच जाता है, ब्रह्मचर्य से शरीर बलवान रहता है।
इन प्रत्यक्ष लाभों की आकर्षण शक्ति ने ही मनुष्य को धर्म के साथ बाँध रखा है अन्यथा यह स्वार्थी जीव कब का धर्म को फिज़ूल बता चुका होता।
जहाँ श्रेष्ठता होती है वहाँ कुछ बुराई भी घुस भी जाती है। धर्म पालन को अक्सर लोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण समझते हैं और उसके लिये त्याग भी करते हैं। इसी त्याग में एक चीज़ पैदा होती है जिसे हम स्वार्थपरता कहते हैं। स्वार्थपरता जो हर एक क्षेत्र में पाई जाती है, धर्म का क्षेत्र कैसे इससे अछूता रह पाता। मनुष्यों में जाग्रति हई और अनुचित रूप से व्यक्तिगत लाभ उठाने के आडम्बर रचे गये। धर्मगुरुओं में, जहाँ अधिकांश मनुष्य तो श्रेष्ठ ही थे और रक्षा करने वाले धर्म का उपदेश दिया करते थे, वहाँ कुछ ऐसी ओछी और निम्न मनोवृत्ति के लोग भी गुरुओं में मिल गये जिन्होंने व्यक्तिगत लाभ की प्रेरणा से नकली भावों को धर्म में जोड़ दिया। ज्यों ज्यों समय बीतता गया, असली और नकली बातें एक दूसरे के साथ मिलकर ऐसी शक्ल में आ गयी कि आज यह पहचानने में कठिनाई होती है कि हमारे सामने धर्म का जो स्वरूप उपस्थित है उसमें कितनी बातें असली हैं और कितनी नकली। इस असली-नकली के सम्मिश्रण के कारण परिस्थिति ऐसी बन गयी है कि धर्म के नाम पर जो कार्य किये जाते हैं उनमें से बहुत से पुण्य और बहुत से पाप होते हैं। धर्म में अटूट आस्था रखने वाली निर्धन जनता जिसके अंशदान से कुछ एक लोगों का पेट पालन होता है, उचित है कि बदले में जनता की रक्षा का कार्य करें, यही तो धर्म है। हमारे पाठक इस गंभीर स्थिति से भलीभांति परिचित हैं, प्रतिदिन मीडिया में इस प्रकार का इतना कुछ प्रकाशित हो रहा है कि इस संवेदनशील विषय को यही पर रोकना उचित होगा।
परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि नौकरी और दान में इतना ही अन्तर है कि नौकर जितने पैसे लेता है उतना ही काम करके छुट्टी पा जाता है परंतु दान देने वाले की जिम्मेदारी अनेकों गुना है क्योंकि उसने पैसे के अतिरिक्त श्रद्धा को भी प्राप्त किया है। इसलिये उसे नौकरी की अपेक्षा कई गुना काम करके धर्म की मर्यादा की रक्षा करनी है ।
धर्म के नाम पर चलने वाली संस्थाओं का कर्तव्य है कि यजमानों के हित साधन के लिये प्राप्त पैसे की अपेक्षा अनेक गुना काम करके दिखावें, परन्तु हम देखते हैं कि धर्म के नाम पर चलने वाले व्यक्ति और संस्थान दोनों ही इस कसोटी पर कसे जाने के उपरान्त खरे नहीं उतरते । नकली कामों का फल भी नकली जी होता है
इस युग की शिकायत है कि ” हमारी शक्ति को धर्म खा जाता है परन्तु बदले में झूठी कल्पनाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं देता।” इस शिकायत के उत्तर में परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि वह धर्म नहीं है क्योंकि धर्म एक प्रकार की उर्वरा भूमि है जिसमें बोया हुआ बीज कई गुना होकर लोटता है। गुरुदेव के बोओ और काटो के सिद्धांत के आगे हम सब नतमस्तक हैं। धर्म में नकद होने की विशेषता है। धर्म में इस हाथ लेकर उस हाथ देने का स्वाभाविक गुण है । जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी अवश्यमेव रक्षा करता है । यदि किसी प्रकार का उत्तर या उपकार प्राप्त न हो तो समझ लेना चाहिए कि यह नकली चीज है । जिसमें न तो गर्मी हो, न चमक हो वह अग्नि नहीं कही जा सकती है । इसी प्रकार रक्षा करने पर भी, जो न तो सुख में वृद्धि करता है और न आपत्तियों से रिहा करता है, वह धर्म नहीं है । यदि हम लोग वास्तविक धर्म की उपासना करते होते तो आज पतित, पराधीन, बीमार, बेकार और तरह-तरह से दीन-हीन न होते। बहुत कुछ खोने के पश्चात् अब हमें होश में आना होगा और वास्तविक धर्म को ढूढ़ना होगा, जिसकी शरण में जाने से मनुष्य की सब प्रकार की आधि-व्याधि मिट जाती है, सब प्रकार के कष्टों-कलेशों से छुटकारा मिल जाता है।
इस संदर्भ में हम आदरणीय डॉक्टर अरुण त्रिखा जी द्वारा संचालित ज्ञान रथ का भी उदाहरण ले सकते हैं।यह ज्ञान रथ भी धर्म की सुदृढ़ धारणा पर आधारित है। इसके सभी परिजनों में आपसी शिष्टाचार, विश्वास,सम्मान, सहयोग, अपनत्व,पर-पीड़ा को दूर करने की ललक,किसी की तकलीफ को दिल से महसूस करने की भावना,दया,करुणा,एक दूसरे को प्रेरित करके ऊपर उठाने और आगे बढ़ाने की भावना परिजनों में कूट कूट कर भरी हुई है। सभी परिजन दिव्य शक्ति को अन्तर मन में धारण कर, अवतारी सत्ता परम पूज्य गुरुदेव के विचारों का स्वाध्याय और सत्संग द्वारा परस्पर व्यक्तित्व परिष्कृत करने के प्रयास में जुटे हुए हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार में ज़रा भी क्लेश, कलह, कुटिलता, मन वैमनस्य आदि नकारात्मकता को स्थान नहीं है, यही विशेषताएं ही तो धर्म की सुदृढ़ धारणा होती हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ से जुड़ कर हम सब परिजन स्वयं को धन्य मानते हैं। यह भी परम पूज्य गुरुदेव की कृपा से ही सम्भव हुआ है। परम पूज्य गुरु सत्ता को कोटि कोटि नमन।
समापन।
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।
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24 आहुति संकल्प
18 अप्रैल के ज्ञानप्रसाद के अमृतपान उपरांत 2 समर्पित सहकर्मियों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, यह समर्पित सहकर्मी निम्नलिखित हैं :
(1) संध्या कुमार-27 , (2 ) अरुण वर्मा -26
दोनों ही सहकर्मी गोल्ड मैडल विजेता घोषित किये जाते हैं, उनको हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हे हम हृदय से नमन करते हैं और आभार व्यक्त करते हैं। धन्यवाद्
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