वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

धर्म तंत्र की सुरक्षा के लिए भगवान भी दौड़े आते हैं 

आज के ज्ञानप्रसाद में असुर तत्व और देव तत्व पर चर्चा करेंगें और देखेंगें कि किस प्रकार इन दो opposite मनोवृतियों के बीच संघर्ष चलता रहता है । असुर तत्व का पलड़ा भारी होने से कौन से घातक परिणाम विकसित होते हैं और समाज का विनाश कैसे होता है। इस स्थिति को धर्म कैसे fix करता है,उदाहरण देकर समझने का प्रयास किया गया है। कल का ज्ञानप्रसाद एक फ़ोन चार्ज कराती वीडियो है। वीडियो तो केवल ढ़ाई मिंट की है लेकिन संदेश बहुत ही उच्चकोटि का है। 

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हमारे देश में अनेक लोगों ने इस भ्रमपूर्ण धारणा को अपना रखा है कि धर्म तो एक निजी चीज है । इसके लिये अन्य लोगों से जितना पृथक रहा जाय उतना ही अच्छा है । इस विचारधारा को लोगों ने यहाँ तक आगे बढ़ाया है कि वे उन्हीं लोगों को सबसे बड़े महात्मा और साधु मानते हैं जो जन समूह को त्याग कर किसी पहाड़ की गुफा या अगम्य वन में जा बैठते है और संसार का ध्यान छोड़कर मोक्ष साधन के उद्देश्य से तपस्या में लीन हो जाते हैं । यद्यपि हम नहीं कह सकते कि इस प्रकार एकांत में रहकर तपस्या करने वाले महात्माओं का वास्तविक लक्ष्य क्या होता है लेकिन साधारण लोगों पर तो ऐसी बातों का प्रभाव हानिकारक ही पड़ता है क्योंकि यह कर्तव्य पालन से भागने वाली बात हुई। 

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसने अन्य जीवों के मुकाबले में जो उन्नति की है उसका प्रधान कारण उसकी “सामूहिक”(Collectiveness) मनोवृत्ति है । इस मनोवृति को “देव तत्व” कहते हैं। मिलजुल कर काम करने और एक दूसरे की सहायता करने के स्वभाव ने ही मनुष्य को हर दिशा में प्रगतिशील बनाया है। 

मनुष्य ने यह भली प्रकार जान लिया है वह एक दूसरे से अलग-अलग होकर नहीं बल्कि मिलजुल कर सहयोग से ही आगे बढ़ा जा सकता है । इसके विपरीत एक और मनोवृत्ति मनुष्य में काम करती है जिसे “स्वार्थपरता” (Selfishness) कहना चाहिए। इस मनोवृति से अपने लिये अधिकाधिक लाभ लेना, और बदले में कम से कम देने की इच्छा प्रबल होती है । फलस्वरूप बेईमानी, छल, शोषण, अन्याय, संग्रह आदि की वृद्धि होती है । इस मनोवृत्ति को “असुर तत्व” कहते हैं ।

देव तत्व और असुर तत्व मनोवृत्तियाँ आपस में निरन्तर संघर्ष करती रहती हैं । परिस्थितियों के कारण कभी देवत्व प्रबल हो जाता है तो कभी असुरता को चढ़ बनती है । व्यक्तिगत जीवन की भाँति सामूहिक जीवन में भी यह उतार चढ़ाव आते रहते हैं । कोई काल सज्जनों की अधिकता का होता है तो किसी में दुर्जनों की भरमार रहती है । सतयुग, कलियुग, आदि का यही आधार है । 

मनुष्य के अन्दर असुरता, पाशविकता, स्वार्थपरता जैसी वृतियों जिन्हे low level की कहा जा सकता है की मात्रा अधिक रहती हैं और बहुत शीघ्र आ जाती हैं । लेकिन high level की देव तत्व प्रधान प्रवृत्तियाँ कठिन होने के कारण परिश्रम से आती हैं । ऐसी आदतों में भौतिक दृष्टि से कोई अधिक लाभ तो मिलता दिखता नहीं है इसलिये उनमें उतना आकर्षण नहीं होता। इसलिये बहुधा मन की प्रवृत्ति व्यक्तिगत स्वार्थ साधन की ओर ही अधिक रहती है। छत पर रखी टंकी में से पानी बिना किसी प्रयत्न के नल खोलते ही निकलना शुरू हो जाता है लेकिन टंकी को भरने के लिए पंप की सहायता लेनी पड़ती है। 

समाज में आसुरी तत्वों की प्रबलता और देव तत्व में सौम्यता के कारण बार-बार ऐसे अवसर आते हैं कि सामूहिकता की प्रवृत्ति घट जाती है और स्वार्थपरता बढ़ जाती है । इसी असंतुलन को balance करने के लिये महापुरुष, देवदूत अवतार इस धरती पर आते हैं और अपना उद्देश्य पूरा करके चले जाते हैं । यह तो हुई विशेष परिस्थितियों की, विशेष रूप से समाधान करने वाले विशेष महापुरुषों की बात,परन्तु साधारण समय में भी असुरता को नियन्त्रित करने और देवत्व को प्रोत्साहित करने के लिये कुछ आत्माओं को प्रयत्न करते ही रहना होता है । यदि प्रयत्न न हो तो भ्रष्टाचार अत्यन्त तीव्र गति से फैलता है और जनमानस की स्थिति असुरता से भर जाती है।

एक बहुचर्चित कहावत है Cleanliness is next to Godliness. हम सदैव साफ रहने का प्रचार करते हैं। अपने आस पास की सफाई ,कपड़ों की सफाई ,बर्तनों की सफाई तो हमें दिखाई देती है लेकिन अंतःकरण की सफाई सबसे महत्वपूर्ण है। यदि सफाई न की जाए तो गन्दगी और बीमारी फैलती है और अन्तःकरण मलीनता से भर जाता है। मन की मलीनता को स्वर्थपरता, वासना, तृष्णा आदि नाम दिये जाते है। मानसिक मलीनता वाला व्यक्ति विषाक्त रक्त वाले छूत के रोगी की तरह अपने लिये ही नहीं अन्य लोगो के लिये भी हानिकारक बन जाता है। उसकी बुरी नीयत, बुरी आदत. बुरी भावना, बुरी विचारधारा उससे इस प्रकार के कार्य करवाती रहती है जो समाज के लिये कष्टकारक होते हैं । सदैव अपने ही भौतिक लाभ का सोचते रहने से मनुष्य के स्वभाव मे काम, क्रोध, लोभ, ईष्या, द्वेष, असत्य, चोरी, अनीति, आदि अनेकों बुराइयों पैदा हो जाती हैं और वह बुराइयां जब मनः क्षेत्र से बाहर निकल कर वाणी तथा क्रिया मे प्रकट होती हैं तो कुकर्म के रूप मे ही सामने आती है।

मानसिक मलीनता अधिक बढ़ने पर कोरोना जैसी वैश्विक महामारी (pandemic ) की तरह सामाजिक अनाचार का रोग फैल जाता है और उसकी कष्टकारक परिणति से सभी लोग नाना प्रकार के दुःख पाते है। चोरी, बेईमानी अनीति, हत्या, लूट, व्यभिचार, उदंडता, आलस्य, शोषण, विलासिता, संघर्ष, द्वेष आदि की अनेकों दुष्प्रवृत्तियों फूट पड़ती हैं जिससे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में सर्वत्र अशान्ति दीख पड़ती है। घर, परिवार, मोहल्ले, ग्राम, देश, राष्ट्र घायल होते हैं , दुःख पाते हैं और बर्बाद होते हैं ।

असुरता को नियंत्रित करने के लिए हम नदी नालों का उदाहरण ले सकते हैं। 

यों तो नदी नालों का अधिकतर पानी बहकर व्यर्थ जाता रहता है पर यदि उसका सदुपयोग करना होता हो तो अनेक व्यवस्थायें बनानी पड़ती हैं जैसे कि घाट, बाँध, पम्प, आदि। यदि यह उपाय न किये जाए तो नदी, नालों से लाभ मिलना तो दूर उलटे वे अनेक प्रकार से बाधक बनेगे।

यही बात मनुष्य की प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भी है। मनुष्य की असुरता को नियन्त्रित करने के लिए नैतिक दैवी भावनाओं के नियंत्रण स्थापित करने पड़ते हैं, यही उसके घाट और बांध हैं।जब तक यह तंत्र मजबूत रहता है सब एक दूसरे के प्रति अधिक उत्तम व्यवहार करते हैं, एक दूसरे के लिये त्याग और प्रेम का परिचय देते हैं, सबके मन प्रसन्न रहते हैं, सामाजिक सुव्यवस्था कायम रहती है और साथ ही भौतिक उन्नति के साधन भी बनते हैं। लेकिन जब यह धर्मतंत्र शिथिल होने लगता है तब असुरता की प्रवृत्ति अन्तरात्मा के भीतर सौम्य गति से काम करने वाली दैवी वृत्ति को परास्त करके अपनी प्रभुता स्थापित कर लेती है और नरक के दृश्य उपस्थित हो जाते हैं । इधर उधर मनुष्यों के वेष में भेड़िये घूमते दिखाई पड़ते हैं जिनकी दृष्टि हर समय किसी शिकार पर रहती है; सबसे बड़ी शिकार हमारी बेटियां होती हैं । ऐसे भेड़िये अपनी कुटिलता छुपाने के लिये बातें तो बढ़-चढ़ कर बनाते हैं पर उनके कार्यों पर बारीक निगाह डालते ही गन्दगी और गंदगी ही उड़ती दिखाई पड़ती है।

धर्म की सहायता से देव तत्व विकसित करना कोई कठिन कार्य नहीं है। इसके लिए वेद, शास्त्र ग्रन्थ मौजूद हैं; जप, तप, संयम, साधना आदि के अनेक विधान हैं ; तीर्थ यात्रा, ब्रह्मभोज, दान-पुण्य कथा कीर्तन, व्रत, उपवास, त्यौहार, संस्कार, आदि अनेक कर्मकाण्ड हैं । इन सब का एकमात्र उद्देश्य यह है कि व्यक्ति अपनी अन्तरात्मा में ऐसे विचार, विश्वास, भाव एवं संस्कार धारण करे जिनके द्वारा उसकी व्यक्तिगत स्वार्थपरता घटे और लघुता को महत्ता में, आत्मा को महान-आत्मा परम-आत्मा( परमात्मा) में विकसित करने की प्रेरणा मिले। इस philosophy को स्वाध्याय, सत्संग, साधन, कर्मकाण्ड दान-पुण्य आदि अनेक प्रकारों के माध्यम से हृदयंगम करने का प्रयत्न किया जाता है । परम्पराओं के अनुसार धर्मतन्त्र के यह विधि-विधान तो चलते ही रहते हैं पर समय के साथ उनके भीतर छिपे हुए सिद्धांतों, आदर्शों और तथ्यों को लोग भूलने लगते हैं। ब्राह्मणों-ऋषियों का प्रधान कार्य इन उपचारों की सहायता से जनसाधारण की अन्तरात्मा में देवत्व की मनोवृत्ति को प्रदीप्त करना होता है । साधारण जनता के उथले मानसिक स्तर को देखते हुए वे अनेक आयोजनों की व्यवस्था करते हैं, पर मूल लक्ष्य एक ही रहता है कि मनुष्य अपनी शक्तियों से केवल अपना ही लाभ न सोचे, उसे अपनी क्षमता द्वारा दूसरों का हित करते रहने के महान तथ्य का भी ध्यान रहे, कम से कम दूसरों के अधिकारों का अनीति पूर्वक हनन तो न करे । मनुष्यों की यह मनोवृत्ति जितनी प्रबल होती जाती है उतनी ही सुख शान्ति की संभावना संसार में बढ़ती जाती है।

हमें स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य की व्यक्तिगत और संसार की सामूहिक सुख शान्ति उनकी अन्तरात्मा में निवास करने वाली-सामूहिकता पर, एक दूसरे के लिये त्याग और सहयोग करने की भावना पर ही निर्भर है । पाशविक वृत्ति-स्वार्थपरता पर नियंत्रण स्थापित करना ही असंख्य प्रकार के कष्टों पर विजय प्राप्त करना है । चूँकि यह कार्य भौतिक नहीं आन्तरिक है इसलिये इसे राजदण्ड आदि किसी बाहरी उपाय से पूरा नहीं किया जा सकता । इसके लिये तो धर्मतत्व ही सर्वश्रेष्ठ प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया की रक्षा के लिए सत्पुरुष अपना जीवन बलिदान करते हैं और इसी के लिये भगवान तक दौड़े आते हैं। हमें इस धर्म तन्त्र पर विचार करना होगा और उसे सुव्यवस्थित करने के लिये मजबूत कदम उठाना होगा । तभी संसार की सुख शान्ति को स्थिर रखने वाली मनुष्य की एकमात्र दैवी प्रवृत्ति-सामाजिकता एवं सामूहिकता को सुव्यवस्थित रखा जा सकेगा।

To be continued:

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण के साथ यह ज्ञानप्रसाद आपको ऊर्जा प्रदान करे और आप सारा दिन सुखमय रहें । हर लेख की भांति यह लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।

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24 आहुति संकल्प 

13 अप्रैल 2022 के ज्ञानप्रसाद के अमृतपान उपरांत 4 समर्पित सहकर्मियों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, यह समर्पित सहकर्मी निम्नलिखित हैं :

(1)अरुण वर्मा -31, (2 ) संध्या कुमार -26 ,(3) सरविन्द कुमार -28 ,(4 ) रेणु श्रीवास्त्व -28,(5) विदुषी बंता -26 

अरुण वर्मा जी आज भी गोल्ड मेडल विजेता हैं जो हम सबकी बधाई के पात्र हैं। सभी सहकर्मी अपनी अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हे हम हृदय से नमन करते हैं और आभार व्यक्त करते हैं। धन्यवाद्

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