वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

मन के अंदर जमा हुए कूड़े-कर्कट को निकाल फैंकें 

परमपूज्य गुरुदेव की लघु पुस्तिका “विवेक की कसौटी” पर आधारित लेखों का यह अंतिम लेख है। इस लेख के अध्यन के उपरांत हमारे परिजनों की विचारधारा में भीषण परिवर्तन आना सुनिश्चित है क्योंकि हम में से बहुत से लोग यह समझ कर चुपचाप बैठ चुके हैं  कि This is end of life. But it  is not true. Growth के लिए कोई समय नहीं होता, केवल प्रेरणा की आवश्यकता होती और यही है ऑनलाइन ज्ञानरथ का सबसे बड़ा उदेश्य। इस लेख  शृंखला के लिए संध्या बहिन जी का धन्यवाद् करते हैं, अभी एक और श्रृंखला बाकि है जिसे  सोमवार को आरम्भ करने की योजना है। 

कल अपलोड होने वाली वीडियो उन साधकों के लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध होने वाली है जो युगतीर्थ शांतिकुंज जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं। नवरात्रि  के पावन उपलक्ष्य में यह एक अनमोल प्रसाद है जिसका अमृतपान हर किसी की अंतरात्मा  को दिव्यता प्रदान करेगा। 

सभी परिजनों को निवेदन करते हैं कि शनिवार के स्पेशल सेगमेंट के लिए अधिक से अधिक contributions भेजा करें। 

इन्ही शब्दों के साथ आरम्भ करते हैं आज की क्लास  

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विवेकहीनता और मानसिक दासता :

विवेक की हीनता के कारण मनुष्य चापलूस और पराश्रित हो जाता है । वह अपने को सब प्रकार से गया गुज़रा और घटिआ समझ लेता है। उसके हृदय में प्राय: यही विचार आया करता है कि जो कुछ हमारे पूर्वज कर चुके हैं, जो कुछ हमारे समाज के बड़े आदमी कर रहे हैं उससे ज्यादा हम क्या कर सकते हैं । हमें तो यथाशक्ति उनका ही अनुकरण करना चाहिए । ऐसी मनोवृत्ति से हर दर्ज़े की मानसिक निर्बलता उत्पन्न हो जाती है और उन्नति का मार्ग रुक जाता है ।

मानसिक दासता सब प्रकार की दासताओं की जननी है । जब शरीर का चालक मन अशक्त है तो शरीर का अणु-अणु अपाहिज हो जाता है, इस स्थिति के आते ही मानव को अपनी शक्ति को प्रकाशित करने का कोई विशिष्ट मार्ग नहीं मिलता। मानव को अपने होने का कोई निश्चित उद्देश्य नहीं दिखाई देता। उसकी स्थिति एक ऐसी नौका की तरह हो जाती है जो जिधर चाहे आसानी से बहक सकती है।

मन के अपाहिज हो जाने पर आत्मा जड़ से गया-गुज़रा हो जाता है। उसकी महत्त्वाकांक्षा का निरंतर नाश होता रहता है । आशाएं freeze होती दिखती हैं । ऐसा व्यक्ति नहीं जानता कि वह क्या है,उसका वास्तविक स्वरूप क्या है, उसे किस दिशा की ओर अग्रसर होना है। दासता की कुलिश-कठोर बेड़ियों में जकड़ा हुआ मन स्वयं अपना ही नहीं बल्कि  अपने स्वामी का भी सर्वनाश कर देता है।

हम दूसरों को डरपोक देखते हैं तो समझ लेते हैं कि हमें भी डरपोक बनाना  चाहिए । ऐसा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है । जब हम अपने चारों ओर दुःख और चिंता का वातावरण देखते हैं तो हम भी  यही महसूस  करने पर मजबूर हो जाते हैं। हम स्वयं अपनी विचारशक्ति का उपयोग न कर विचार की गति को लंगड़ा कर डालते हैं । हम स्वयं निज की मानसिक शक्ति का उपयोग न कर दूसरे के उदाहरण पर निज जीवन को अधिष्ठित कर देते हैं । हम सोचते हैं कि जो हमारे पूर्वज कर गए हैं, जो हमारे नेतागण चरितार्थ कर रहे हैं, जो कुछ हमारे अन्य भ्राताओं ने अर्जित किया है, वही हमारा भी साध्य है । उसी को हमें प्राप्त करना चाहिए । हम अपने वातावरण से दासता ही दासता एकत्रित करते हैं। मन में कूड़ा-कर्कट एकत्रित करते रहते हैं।  जैसे-जैसे समय बीतता जाता  है मन का वातावरण polluted होता जाता है। ऐसा मनुष्य हमेशा बहाने ढूंढता रहता है। कभी समाज, कभी गृह, कभी वातावरण, सब कुछ  मानसिक दासता का सहायक बन जाता है। ऐसी स्थिति उसे दुनिया में कहीं का भी नहीं छोड़ती। 

हम मानसिक दासत्व (Mental slavery) को एक मनोवैज्ञानिक रोग मान सकते हैं । अनेक प्रकार के भ्रम, अभद्र कल्पनाएँ, निराशा, निरुत्साह इत्यादि मन: क्षेत्र में “आत्महीनता की जटिल ग्रंथि” उत्पन्न कर देते हैं। जैसे जैसे समय व्यतीत होता है ये ग्रंथियाँ अत्यंत शक्तिशाली हो उठती है और फिर दिन-प्रतिदिन के विविध कार्यों में इन्हीं की प्रतिक्रिया चलती रहती हैं । हमारे डरपोकपन के कार्य प्राय: इसी ग्रंथि के परिणामस्वरूप होते हैं । अनेक मनगढंत, विरुद्ध संस्कार स्मृति पटल पर अंकित होते रहते हैं । पुरानी असफलताएँ, अप्रिय अनुभव, गुप्त मन से चेतन मन में प्रवेश करती हैं तथा प्रत्येक अवसर पर अपनी रोशनी फेंका करती हैं । जैसे एक बारीक कपड़े से प्रकाश की किरणें हल्की-हल्की छनकर बाहर अती हैं उसी प्रकार आत्महीनता तथा दासत्व की ग्रंथियों की झलक प्राय: प्रत्येक कार्य में प्रकट होकर उसे अपूर्ण बनाया करती है। कभी-कभी मनुष्य की शरीरिक निर्बलता, कमजोरियाँ व्याधियाँ अंग-प्रत्यंगों की छोटाई-मोटाई, सामाजिक परिस्थितियां, निर्धनता, सब मानसिक दासत्व की अभिवृद्धि किया करते हैं । 

वर्तमान समय में हमारा धर्म ही मानसिक दासता का मित्र बना हुआ है । मनुष्य का मन प्रत्येक तत्त्व को विवेकशील होकर  समझने, मनन करने के लिए प्रदान किया गया है । वह सोच-समझकर प्रत्येक वस्तु ग्रहण करें, यों ही प्रत्येक तत्त्व को अंधों की तरह ग्रहण न करे।  धर्म के आधुनिक रूप ने मानव मन को अत्यंत संकुचित, डरपोक बना दिया है । किताब, कलमा, जादू टोना, तीर्थ, न जाने कितनी आफतें मानव मन पर सवार हैं । वह अपनी ही धार्मिक श्रृंखलाओं, धार्मिक मंचों के कारण इधर से उधर, टस से मस नहीं हो पाता। हज़ार लोग उसके ऊपर उँगलियां उठाने को तैयार रहते  हैं। 

जब मन उत्तम होने के बावजूद  विवेकपूर्वक कार्य  न कर सके तो उसे ‘दास’ ही  कहेंगे। उसे तो स्वच्छंदतापूर्वक निज कर्म करना चाहिए । यदि मनुष्य का मन स्वतंत्र रूप से विवेक की शक्ति नहीं रखता तो वह किसी अन्य शक्ति के वश में अवश्य रहेगा । जब मन का इच्छाशक्ति पर प्रभुत्व नहीं तो उस पर किसी विजातीय शक्ति का प्रभुत्व अवश्य रहेगा।

यदि एक छोटे पौधे को एक शीशी में बंद कर दें और केवल ऊपर से खुला रखें तो वह क्रमश: ऊपर ही को बढ़ेगा। उसे दाएं-बाएं  फैलने की गुंजाइश नहीं है क्योंकि उसे तंग वातावरण में रख दिया है । इसी प्रकार यदि आप कुँए के मेढ़क बने रहेंगे, तो मन विकसित न हो सकेगा । वह एकांगी रहेगा तथा उसमें सहृदयता, दयालुता सत्यवादिता निर्भीकता या निर्णय शक्ति का विकास न हो सकेगा । मन को छोटे दायरे में बंद रखने से मनुष्य सब वैभव होते हुए भी अंतर्वेदना से पीड़ित रहता है । उसमें आत्मसम्मान का प्रादुर्भाव नहीं होता । मन को स्वाधीनता दीजिए । उसे चारों ओर फैलने का अवसर दीजिए । मानसिक स्वतंत्रता से ही मनुष्य में दिव्य गुणों का प्रादुर्भाव होता है । मन को स्वतंत्रतापूर्वक विचारने की, मनन करने की स्वतंत्रता दीजिए तो वह आपका सच्चा मित्र, सलाहकार बन जाएगा । वह अन्य व्यक्तियों की कृपा पर आश्रित न रहेगा । मानसिक स्वतंत्रता प्राप्त करते ही मनुष्य का संसार के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है । मानसिक स्वतंत्रता के बिना मनुष्य प्रसन्नचित्त नहीं रह सकता ।

कल्पना कीजिए कि आपको बात-बात पर अन्य व्यक्तियों के इशारों पर नृत्य करना पड़े, जहाँ आप तनिक सी मौलिकता प्रकट करने का प्रयत्न करते हैं कि आपको तीखी डाँट पडती हैं। ऐसी स्थिति में मन परिपक्व नहीं होता । उसकी समस्त मौलिकता नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है । ऐसा  मन मनुष्य का शत्रु बनकर  उन्नति में बाधक बन जाता है।

मन को train करने के  साधन  :

1 मानसिक परिपुष्टि का पहला साधन है-शिक्षा । जिस मस्तिष्क को शिक्षा नहीं मिलती वह थोड़ा-बहुत अनुभव से बढ़कर रुक जाता है । शिक्षा ऐसी हो जिससे मन की सभी शक्तियों-तर्क शक्ति, तुलना शक्ति, स्मरण शक्ति, लेखन शक्ति, कल्पना शक्ति, का थोड़ा-बहुत विकास हो सके । इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि हम अपनी इच्छानुसार इन सभी शक्तियों को बढ़ा सकते हैं। आवश्यकता है केवल ठीक प्रकार की शिक्षा की । शिक्षा ऐसी मिले कि मनुष्य का विकास उत्तरोत्तर होता रहे, वह रूढ़ियों का गुलाम न बन जाए अन्यथा मानसिक दासता का फल भयंकर होगा।

2 दूसरा साधन है अनुकूल संगति तथा परिस्थितियां । जिन परिस्थितियों में मनुष्य निवास करता है प्राय: वे ही मानसिक शक्तियां उसमें जाग्रत होती हैं । जिस मनुष्य के परिवार में कवि अधिक मात्रा में होते हैं, वह प्राय: कवि होता है । हरे पत्तों में निवास करने वाला कीड़ा हरित वर्ण का ही हो जाता है । 

3 तीसरा साधन है, उपयुक्त मानसिक व्यायाम । जिस प्रकार नियमित व्यायाम से हमारा शरीर विकसित होता है, उसी प्रकार मानसिक व्यायाम (अभ्यास) द्वारा मन में भिन्न-भिन्न शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है । एकाग्रता (Concentration) का अभ्यास अपूर्व शक्ति प्रदान करता है । खेद है कि अनेक व्यक्ति निज जीवन में एकाग्रता को वह महत्त्व प्रदान नहीं करते जो वास्तव में उन्हें करना चाहिए । एकाग्रता से कार्य शक्ति बहुत बढ़ जाती है । यदि दृढ़ एकाग्रता रखने वाले व्यक्ति से तुम्हारा साक्षात्कार हो तो तुम्हें अनुभव होगा कि वह पर्वत की भांति अचल होकर कार्य करता है । तुम उसे छेड़ो चाहे कुछ भी करो, वह विचलित न हो सकेगा। इसी का नाम दृढ़ एकाग्रता है । इसी से मन वश में आ सकता है । मन अभ्यास का दास है । जैसे-जैसे आपका अभ्यास बढ़ेगा, वैसे-वैसे एकाग्रता की वृद्धि होगी। 

4 चौथा साधन है- अंतर्दृष्टि (Insight) । तुम समाज की रूढ़ियों तथा बिरादरी के गुलाम न बनो । धर्म के रूढ़िवाद और धर्माचार्यों की लकीरों से पस्त होकर हिम्मत न हार जाओ बल्कि  अपनी मौलिकता की वृद्धि करो । न कोई मुल्ला, न कोई पंडित और न राज्य का फैलाया हुआ कुसंस्कारों का जाल, तुम्हें दैवी उच्च भूमिका से हटा सकता है । यदि तुम मन की उच्च भूमिका में निवास करते रहोगे, तो तुम्हारे अंदर यथार्थबल (real power) प्रकट होगा।

विश्व का सबसे अधिक महान कार्य मन की शक्तियों को बढ़ाना है। तुम्हारा अंतरंग अनंत और अपार है। अभ्यास तथा मनन द्वारा तुम अपनी असल   शक्ति को प्राप्त कर सकते हो। 

स्मरण रहे तुम्हें अपना विकास करना है। तुम  यह मत सोचो कि हमें  तो इतना  ही विकसित होना है वरन  यह सोचो कि अब growth  का वास्तविक समय आया है। अपनी विशालता, अतुल सामर्थ्य  का चिंतन करो । मानसिक दासता से छुटकारा पाओ और विवेक से काम लेकर संसार में विजयी योद्धा  की तरह जीवन व्यतीत करो।  

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समापन, इतिश्री 

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24 आहुति संकल्प 

6  अप्रैल 2022 के ज्ञानप्रसाद के अमृतपान उपरांत 4  समर्पित सहकर्मियों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, यह समर्पित सहकर्मी निम्नलिखित हैं :

 (1) पूनम कुमारी  -25  , (2 ) संध्या कुमार -35 , (3) अरुण वर्मा -35,(4 ) रेणू श्रीवास्तव-24   

संध्या बहिन और अरुण भाई दोनों 35 अंक प्राप्त करके गोल्ड मैडल bracketed विजेता घोषित किये जाते हैं। दोनों  को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हे हम हृदय से नमन करते हैं और आभार व्यक्त करते हैं। धन्यवाद्

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