वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

क्या हम चुपचाप हाँके जाने वाले पशु हैं ?

आदरणीय संध्या कुमार बहिन जी द्वारा परमपूज्य गुरुदेव की पुस्तिका “विवेक की कसौटी” का गंभीरता से अध्यन करना, अपने अंतर्मन में उतारना, फिर अंतर्मन में उठते विचारों को अपनी लेखनी से व्यक्त करते हुए एक रोचक और ज्ञानवर्धक लेख शृंखला का रूप देना, हमारे द्वारा फिर से अध्यन करना, एडिट करना और अधिक रोचक बनाना, अपनी input डाल कर एक-एक पार्ट अपने सहकर्मियों के समक्ष प्रस्तुत करना एक अति सौभाग्यशाली क्षण है। इस क्षण को केवल अनुभव ही किया जा सकता है- इस अनुभव को लेखनी व्यक्त करने में असमर्थ है। 

आज के ज्ञानप्रसाद का विषय विवेक और स्वतंत्र चिंतन है। स्वतंत्र चिंतन घिसी पिटी copy-paste वाली परम्परा से अलग है। आपने अगर किसी छोटे बच्चे को एक free bird की भांति इधर -उधर ,बेखबर, उछलते कूदते देखा होगा तो आप स्वतंत्र चिंतन की शक्ति समझ जायेंगें। लेख के दूसरे सेक्शन में आप राजगुरु/ पुरोहित के बारे में पढेंगें। 

******************************

 विवेक और स्वतंत्र चिंतन :

आधुनिक संसार में स्वतंत्र चिंतन का बड़ा महत्त्व है । प्राय: अन्य देशों के लोग भारतीयों पर अंधविश्वास का दोष लगाया करते हैं, पर यह त्रुटि हमारे देश में पिछले कुछ सौ वर्षों के अंधकार-काल में ही पैदा हुई है अन्यथा वैदिक साहित्य तो स्पष्ट रूप से स्वतंत्र चिंतन का समर्थन करता है क्योंकि बिना स्वतंत्र चिंतन के विवेक जाग्रत ही नहीं हो सकता और इसके बिना अनेक मार्गों में से अनुकूल श्रेष्ठ मार्ग का बोध हो सकना संभव नहीं है । दूसरों का अनुगमन करते रहने में कुछ सुविधा अवश्य जान पड़ती है, परन्तु यह उन्नति का मार्ग नहीं है। अगर हम कुछ नया करना चाहते हैं तो स्वतंत्र चिंतन बहुत ही आवश्यक है, नहीं तो हम एक फोटोकॉपी मशीन ही बन कर रह जायेंगें जिसमें एक जैसी अनेकों कॉपियां धड़ाधड़ निकले जा रही हैं। अपने विद्यार्थी जीवन में भी हमने यही गुरुमंत्र पल्ले बांध लिया था कि अगर कुछ नया करना है तो कूद जाओ ज्ञान के अथाह सागर में, स्वयं हाथ-पैर मारते, डूबते-बचते तट पर पहुँच ही जाओगे। 

जिस भांति आलसी और विलासी वृत्ति के लोग अपने शरीर से पुरुषार्थ नहीं करना चाहते हैं, उससे कतराते हैं, उसी भांति अनेक लोग विचार और मन के जगत में सदा दूसरों का आश्रय लेने वाले स्वभाव के होते हैं । वे चाहते हैं कि अन्य लोग हमें चिंतन और मनन करके विचार-दिशा प्रदान करें और हम चुपचाप हाँके जाने वाले पशु की तरह केवल उस पथ का अनुसरण करता रहें । उस पथ के अच्छे और बुरे होने का उत्तरदायित्व हमारे ऊपर न हो, कोई इस कार्य को बुरा होने का दोष हमारे सिर न डाले। लेकिन ऐसा करते समय इस प्रवृति के लोगों को यह पता ही नहीं होता कि आखिर अनेक मार्गों में से किसी एक मार्ग को अपने चलने के लिए चयन कर लेने में भी उसका एकमात्र उत्तरदायित्व हो ही जाता है । इसलिए वह जितना भी बचना चाहे अपने को निर्दोष सिद्ध करने में सफल नहीं हो सकते । फिर भी ऐसे व्यक्तिओं का मानसिक और बौद्धिक आलस्य दूर नहीं हो पाता। ऐसे व्यक्तियों की समता उन भेड़ों से की जा सकती है जो एक भेड़ के पीछे चलने की प्रवृति रखकर कुएँ में गिर सकती है । इस वृत्ति के मनुष्यों का व्यक्तित्व कभी निखर नहीं सकता । वह अपने जीवन में महान कार्य करने के लिए प्राय: अयोग्य ही सिद्ध होते हैं।

अध्ययन तो अनेकों व्यक्ति करते हैं, पर सभी विद्वान नहीं हो पाते, इसका कारण क्या है ? कितने व्यक्ति हजारों पुस्तक पढ़ डालते हैं, कितनी रट भी लेते हैं , फिर भी यदि उनका कुछ निश्चित विचार नहीं है, स्वतंत्र चिंतन नहीं है तो वह उतना बड़ा विशाल पठन-अध्ययन भी उसके व्यक्तित्व को, उसकी सत्ता के महत्त्व को स्थापित करने में असमर्थ ही रहता है। इसके उल्ट एक स्वतंत्र चिंतक और मननशील व्यक्ति अपने थोड़े से अध्ययन के सहारे समाज और राष्ट्र में अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व निर्मित कर लेता है।

जिस भांति शरीर से उत्पन्न शिशुओं को मनुष्य अपनी संतान मानकर उसे स्नेह और प्यार देते हैं, उसके जीवन को विकसित उत्कर्ष-भरा बनाने के लिए यथासंभव प्रयत्न करते हैं, उसी भाँति यदि हम अपने स्वतंत्र विचारों को सम्मान और स्नेह दे सकें तो वे साधारण जैसे प्रतीत होने वाले विचार ही हमारे व्यक्तित्व को एक ऐसे विशेष रूप में गढ़ डालते हैं, जिस भांति हम अपनी संतान को अपना रंग-रूप प्रदान करते हैं।

ऐसा न करके यदि हमने केवल दूसरों के विचारों से अपने स्मृति भंडार को भरकर उसे सदा दूसरों का ही बनाए रखा, अन्न की भाँति खा और पचाकर उसे रक्त की भांति अपने विचार का अंग नहीं बना लिया, उसका उपयोग नहीं किया, व्यवहार में चरितार्थ नहीं किया तो हमारे वे सारे अध्ययन हमारे लिए केवल बोझ ही बनते हैं, हमारी शक्ति को नष्ट ही करते हैं, पुष्ट नहीं करते । इसलिए यदि हमें केवल भारवाही पशु न बनकर मानव बनने की अभिलाषा है, तो जिस वस्तु की हमें जिज्ञासा हो उसे दूसरों से सुनकर, जानकर एवं अध्ययन करके ही निश्चिन्त न हो जाएँ वरन वह ज्ञान यदि हमारे अंतरात्मा को स्वीकार है, तो उसे अपने अंग-अंग में उतर जाने दें। अपने मन, वाणी और व्यवहार को उससे ओत-प्रोत हो जाने दें । इसी का नाम स्वतंत्र चिंतन और मनन है, अन्यथा वह सत्त्वहीन है-कागज का फूल मात्र है।

जिस भाँति माँ का दूध पीकर, उपजाऊ भूमि का अन्न खाकर, जल पीकर, प्रकृति देवी से अन्य खाद्य ग्रहण कर हमारे शरीर परिपुष्ट होते और बनते हैं, उसी भांति प्रत्येक व्यक्ति के बेसिक विचारों की भी दशा है । वह अपने परिपोषण के लिए सभी दिशाओं से पोषक तत्व ग्रहण कर बढ़ता जाता है, पर उन तत्वों में ही अपने को खो नहीं देता। जिसने अपने को उसी में खोया वह फिर कोई वृक्ष य व्यक्ति नहीं बनता वरन स्वयं भी खाद्य-खाद बन जाता है और उसे चूसकर अनुयायी बनाकर दूसरे बढ़ते और विकास करते हैं।

अपने विचारों को निश्चित और विशिष्ट स्वरूप देने के लिए उसे वाणी और लेखन के द्वारा प्रकट करते रहना चाहिए । पुनः अभिव्यक्ति वाणी और लेखन का अनुशीलन कर उसे परिमार्जित और परिष्कृत बनाते जाना चाहिए। ऐसा अभ्यास करते-करते वह विचार हमारे आचरण में संक्रमित होने लगते हैं और एक दिन हम स्वयं उन विचारों के मूर्तिमान स्वरूप बन जाते हैं । यह है सही शुद्ध चिंतन-मनन का परिणाम । 

यह सृष्टि विविधात्मक रूप में ही अनंत है । इसलिए यहाँ की कोई भी रचना, सृष्टि, रूप और आकृति संपूर्णतया एक जैसी नहीं होती। इसलिए विवेकयुक्त व्यक्तिगत निर्माण करने के पहले हमें स्वयं अपना ही चिंतन और मनन करना चाहिए । हम कैसा बनना चाहते हैं, यह भी गंभीर चिंतन और मन के फलस्वरूप अपने अंतर से ही उत्पन्न होता है दूसरा कोई इसे नहीं दे सकता।

राजगुरु का महत्व :

मस्तिष्क बल य शारीरिक बल से भोग सामग्री उपार्जित की जाती है, इससे समाज में क्लेश-कलह उत्पन्न होने की संभावना रहती है, परिणाम स्वरूप विश्व का वातावरण विषाक्त होने का भय बना रहता है, अतः शारीरिक और मानसिक बल पर विवेक बल का नियंत्रण आवश्यक है। यह तो स्पष्ट है कि समाज में सही संतुलन एवं शांति बनाये रखने के लिये मस्तिष्क बल एवं विवेक बल में सामंजस्य अनिवार्य है। गुरुदेव कहते हैं कि मस्तिष्क बल अंधा है एवं विवेक बल लंगड़ा है, दोनों अलग-अलग कुछ नहीं कर पायेंगे, जैसे एक कथा भी है कि एक गांव में आग लगने पर अंधे की पीठ पर लंगड़ा बैठ गया और वह अंधे को राह बताता गया, इससे दोनों आग से निकल सके और एक दूसरे की जान बचाने में सफल रहे, यदि दोनों परस्पर सहयोग नहीं करते तो दोनों ही जल कर खत्म हो जाते। इसी कारण मस्तिष्क बल और विवेक बल के सहयोग की प्रथा धार्मिक ग्रंथों द्वारा स्थापित की गयी है। कला-बल, धन-बल,एवं शरीर-बल, तीनों बलों के प्रतिनिधि स्वरूप शूद्र, वैश्य एवं क्षत्रिय पर विवेक-बल ब्राह्मण का शासन स्थापित किया गया है। 

हम प्राचीन इतिहास में भी देखते हैं कि राजा की शासन प्रणाली “राजगुरु” के आदेशानुसार चलती थी। अतः विवेक-बल ही सर्वोपरि है। विवेकशील सुयोग्य नेताओं के नेतृत्व में अल्प जनबल से भी महत्वपूर्ण सफ़लता सम्भव है उदाहरणार्थ नेपोलियन के पास बहुत थोड़े से सैनिक थे, वह अपने बुद्धि कौशल से इस थोड़ी सी शक्ति से उत्कृष्ट सफ़लता हासिल कर सका। जो विवेकवान व्यक्ति पथप्रदर्शन एवं नेतृत्व की क्षमता रखते हैं उनका उतरदायित्व महान होता है। प्राचीन समय में यदि देश, समाज एवं व्यक्तियों का बल अनुचित दिशा में प्रवृत्त होता था तो इसका दोष पुरोहित पर ही पड़ता था। तांड्य ब्राह्मण (एक महान ग्रन्थ) में एक कथा आती है कि इक्ष्वाकु वंश के अरुण नामक राजा के लापरवाही पूर्वक रथ चलाने से एक व्यक्ति जख्मी हो गया, तब उस जख्मी व्यक्ति ने राजा के पुरोहित को अपराधी ठहराते हुए कहा कि आपने अपने उतरदायित्व का भली प्रकार निर्वाह नहीं किया, यदि आप अपने कर्तव्यों का सही ढंग से पालन करते तो राजा ऐसी लापरवाही नहीं करता। उस व्यक्ति की बात सुनकर पुरोहित बहुत लज्जित हुआ एवं अपनी जिम्मेदारी स्वीकारते हुए उसने उस व्यक्ति को अपने आश्रम में रखा एवं उसकी पूरी चिकित्सा भी की। इस घटना से यह समझा जा सकता है कि राज्य के प्रति पुरोहित का कितना बड़ा उतरदायित्व रहता था।

व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के उन्नति एवं विकास के लिये राज्य-तत्व और पुरोहित-तत्व में तालमेल होना आवश्यक है किंतु आज की स्थिति में यह दोनों तत्व दो अलग दिशाओं में चल रहे हैं। यही कारण है राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट हो रही है। जब तक पुरोहित-तत्व अपने उचित स्थान को ग्रहण नहीं करेगा तब तक मानव के बाहरी एवं भीतरी जीवन में शांति नहीं रहेगी। विवेक का शरीर, समाज और राष्ट्र पर पूर्ण नियंत्रण रहना चाहिए। 

जैसा हमने देखा है कि पुरोहित-तत्व का अत्याधिक महत्त्व है अतः पुरोहित को भी जागरूक रहना आवश्यक है। यजुर्वेद के नौवें अध्याय में वर्णित 

वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः” का अर्थ है हम पुरोहित राष्ट्र को सदैव जीवंत और जाग्रत बनाए रखेंगे।

पुरोहित का अर्थ होता है जो इस पुर का हित करता है। प्राचीन भारत में ऐसे मनीषियों, चिंतकों, युगद्रष्टा व्यक्तियों को पुरोहित कहते थे, जो राष्ट्र का दूरगामी हित समझकर उसकी प्राप्ति की सुनिश्चित व्यवस्था परिपूर्ण करते थे। पुरोहित में चिन्तक और साधक दोनों के गुण होते हैं, जो सही परामर्श दे सकें। ऐसे ऊर्जावान व्यक्तियों को हम पुरोहित कहते हैं जो अपने संकल्पों, विचारों व सदकार्यों से हमारा, समाज का, राष्ट्र का, तथा सम्पूर्ण सृष्टि का हित करने, प्राणपन से जुटे हो,उक्त प्रयोजनों में प्रभावी व समर्थ हों। 

तात्पर्य है पुरोहित राष्ट्र के संबंध में जागते रहें, सोये नहीं अर्थात उदासीन न हों। हमारे अन्तःकरण में विराजमान विवेक पुरोहित है, वह सदैव जागता रहे, जिससे हमारा बल अनुचित दिशा में न जा सके और एक क्षत्रिय की भांति अडिग रहे। मानव जीवन के परिष्कार के लिए यह आह्वान है कि हे पुरोहित जाग, हमारे बल पर शासन कर,ताकि हम फिर से अपने अतीत गौरव को पा सकें।

****************

To be continued:

**************************

24 आहुति संकल्प 

5 अप्रैल 2022 के ज्ञानप्रसाद के अमृतपान उपरांत 3 समर्पित सहकर्मियों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, यह समर्पित सहकर्मी निम्नलिखित हैं :

 (1) सरविन्द कुमार -24 , (2 ) संध्या कुमार -26 , (3) अरुण वर्मा -25 

हमारे अनुसार तीनों सहकर्मी ही गोल्ड मैडल विजेता हैं। तीनों को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हे हम हृदय से नमन करते हैं और आभार व्यक्त करते हैं। धन्यवाद्

Advertisement

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s



%d bloggers like this: