वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

अंधानुकरण सर्वथा अनुचित है 

हम दोनों भाई बहिन( संध्या कुमार जी ) अपनी-अपनी समर्था और ज्ञान का प्रयोग करते हुए आपके लिए अद्भुत लेखों की श्रृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं, आप इन लेखों का अमृतपान भी सम्पूर्ण श्रद्धा और समर्पण से कर रहे हैं ,इसके लिए आपका ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं। 

आज के लेख में परमपूज्य गुरुदेव अंधी-भक्ति,अंधी-श्रद्धा, अंध-विश्वास और अंधानुकरण पर चर्चा कर रहे हैं। यह एक बहुत ही serious विषय है। अगर हम इसको पूरी तरह से समझने का प्रयास करें तो समाज में,परिवारों में, पनप रही सड़ी-गली प्रथाओं से नजात पायी जा सकती है और परमपिता परमात्मा द्वारा दिया गया वरदान रुपी मानव जीवन और भी सुखमय और सुंदर हो सकता है – आवश्यकता केवल बुद्धि और विवेक की है। विवेक का प्रयोग करके सही समय पर सही निर्णय ही स्थिर सुख का आधार बन सकते हैं। 

यही है आज के लेख की Summary 

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परम पूज्य गुरुदेव की लघु पुस्तक “विवेक की कसौटी” जीवन के परिष्कार हेतु अत्याधिक लाभकारी पुस्तक है, इसका अध्ययन प्रत्येक परिजनों को स्वयं तो करना ही चाहिये अपने मित्र बंधुओ को भी अवश्य करवाना चाहिये। गुरुदेव ने बड़ी सरलता से समझाया है कि विवेक को ही कल्याणकारी मानकर उसी के आधार पर स्वतंत्र रूप से हर निर्णय लिये जाने चाहिये, किसी भी मान्यता का अंधानुकरण नहीं किया जाना चाहिये। 

देश, काल, पात्र और परिस्थिति के अनुसार मानव समाज के हित और सुविधा के लिये विविध प्रकार के शास्त्र, नियम, कानून और प्रथाओं का निर्माण और प्रचलन होता है। स्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ इन मान्यताओं और प्रथाओं में परिवर्तन होता रहता है। यदि कोई मान्यता, प्रथा समय से पिछड़ गयी हो तो उसका अन्धानुकरण सर्वथा अनुचित है। समयानुसार, परिस्थिति अनुसार उसमें अवश्य परिवर्तन किया जाना चाहिये, आज हमारे समाज में अनेकों गली-सड़ी प्रथाएं चली आ रही हैं, जिनको उखाड़ फेंकना ही व्यक्ति एवं समाज के हित में है।

मानव परमात्मा की सर्वोत्तम कृति है (God’s best creation),क्योंकि परमात्मा ने उसे विवेक और बुद्धि से सुशोभित किया है। अतः जो बात, व्यवहार,विवेक और बुद्धि में खरी उतरे उसे ही अपनाना चाहिए। बुद्धि के न्यायशील,निष्पक्ष, सतोगुणी,सहृदय, उदार एवं लोक हितैषी भाग को विवेक कहा जाता है। इसी के आधार पर निर्णय लेना उचित होता है। यदि इसके अनुपालन में कुछ भूल भी हो जाये तो उसका निराकरण जल्दी ही हो जाता है क्योंकि विवेक में दुराग्रह नहीं होता है। 

शास्त्रों का आदेश और विवेक:

परम पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि सिद्धांतों को परखना आवश्यक है। धार्मिक क्षेत्र में पूजा-पाठ, देवता, कर्मकांड, पवित्र पुस्तक आदि समस्त विषयों पर गहरे भेद हैं जैसे कि किसी धर्म में बलि, हिंसा, कुर्बानी आदि को धर्मसंगत माना गया है, वहीँ दूसरे कुछ धर्मों में जीव हत्या तो दूर उसे कष्ट पहुंचाना तक पाप माना गया है। समाजिक क्षेत्र में भी वर्णभेद, नारी-अधिकार लिंग भेद, आदि विचारों पर परस्पर विरोध है। उसी प्रकार राजनीतिक क्षेत्र में प्रजातंत्र (democracy),अधिनायकत्व (Dictatorship ), समाजवाद (Socialism), पूंजीवाद ( Capitalism ),साम्राज्यवाद (Imperialism ) आदि विरोधी विचारधाराएँ काम करती हैं। परस्पर मतभेद बहुत हैं, विरोधी मान्यतायें भी बहुत हैं, किन्तु साधरण मनुष्य इन बातों में माथापच्ची नहीं करना चाहता, सही मायने में वह ऐसे तर्क-वितर्क से बचता है एवं जो चला आ रहा है उसी की नकल में लगा रहता है, उसे बस भौतिक सुख के आनन्द से ही सरोकार रहता है।

महापुरुष तो अनेक हुए हैं किंतु कइयों के विचारों में परस्पर अत्याधिक विरोध पाया जाता है। महापुरुष अपने विचारों को लेखनी या वाणी के माध्यम से हमारे समक्ष रखते हैं। वाणी द्वारा रखे विचार स्थायी नहीं होते हैं ,जबकि लेखनबध् विचार पुस्तक, ग्रंथों में संकलित होते हैं, यह चिरस्थायी होते हैं। हाँ वाणी के भी चिरस्थाई हो सकते हैं अगर उन्हें रिकॉर्ड करके ऑडियो फाइल में save कर लिया जाये। धार्मिक ग्रंथों को शास्त्र की संज्ञा दी जाती है क्योंकि इनमें धर्म और अध्यात्म की बातें अंकित होती हैं। अधिकतर लोगों की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह है कि हम चाहे किसी भी धर्म के अनुयायी हों, हमारे धर्म ग्रन्थ हमारे लिए सर्वोपरि हैं। उन पर आँख बंद कर विश्वास करना ,फॉलो करना और गर्व से दुसरे धर्म अनुयाइयों के सामने अपने धर्म की बड़ाई करना एक बहुत ही प्रचलित प्रथा है। यही है अंधानुकरण -अंधे होकर किसी का अनुकरण करना। क्या ऐसा अंधानुकरण ठीक है ? कदापि नहीं क्योंकि महापुरुषों में परस्पर विरोधी मत होने के कारण शास्त्रों में भी मतभेद होना स्वाभाविक है। पीठ मोड़ कर, आँख बंद कर पतली गली से निकल जाना कोई विकल्प नहीं है। किसी भी शास्त्र में अंकित तथ्य को विवेक द्वारा परखना अवश्यभावी है और हमारी ज़िम्मेदारी भी है। आज इंटरनेट पर हर प्रकार की सुविधा उपलब्ध है। हम chatting कर सकते हैं, वेबिनार अटेंड कर सकते हैं ,किसी भी प्रश्न पर अपनी शंका का समाधान कर सकते हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ के मंच पर ही कमेंट-काउंटर कमेंट की प्रथा इसी का एक छोटा उदाहरण है। लेकिन घिसी-पिटी मान्यताओं के विरुद्ध विवेकशील होकर आवाज़ उठाना हमारा दाइत्व है। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो हमें परमात्मा की सर्वोत्तम कलाकृति कहाने का भी कोई हक़ नहीं है।

जब हम अंधानुकरण की बात कर रहे हैं तो एक और विषय उभर कर सामने आता है और वह विषय है व्यक्तित्व और सिद्धांत का। आइये ज़रा इस पर भी चर्चा करें। 

व्यक्तित्व और सिद्धांत दो भिन्न वस्तुएँ हैं। कोई सिद्धांत इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि इसे किसी महापुरष य महाग्रंथ ने प्रकाशित किया है। इसी प्रकार किसी घृणित व्यक्ति द्वारा कहा गया कोई सिद्धांत अमान्य नहीं होना चाहिए। यदि कोई चोर कहता है सत्य बोलना सही है तो चोर के व्यक्तित्व से घृणा होने के बावजूद उसके इस सही विचार को सभी के द्वारा स्वीकार ही किया जाना चाहिए। सच बोलना तो सभी स्वीकार करते हैं,इसमें व्यक्तित्व तो कभी आड़े नहीं आना चाहिए। बचपन से हमें पढ़ाया जा रहा है Hate the sin but not the sinner . इसी सन्दर्भ में एक और उदाहरण महात्मा बुद्ध का दिया जा सकता है। महात्मा बुद्ध के व्यक्तित्व का विश्व भर में व्यापक प्रभाव है, उन्हें ईश्वर माना जाता है। वह दश अवतारों में से एक माने गये हैं, किन्तु व्यक्तित्व से प्रभावित होने के बावजूद उनके सिद्धांतों-विचारों से हिन्दू धर्म को प्रबल विरोध है। आदि शंकराचार्य जी ने उनके विचारों का प्राणपन से विरोध किया। उनके विचारों को स्वीकार करने के लिये कोई भी हिन्दू तैयार नहीं है किंतु उनके व्यक्तित्व से प्राय: सभी प्रभावित हैं। 

परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि किसी विचार य प्रथा को केवल इसलिए मानते रहना कि वह प्राचीनकाल से मान्य है, सर्वथा अनुचित है। यहाँ आती है “विवेक की कसौटी,” वह कसौटी जिससे विचार और प्रथा को परखना अति आवश्यक है। इस आधार पर पुरातन काल से चली आ रही मान्यता कि चातक पक्षी केवल स्वाति नक्षत्र का ही पानी पीता है, गलत सिद्ध हो गयी है क्योंकि Zoology के अन्वेषकों ने सिद्ध कर दिया गया है कि चातक पक्षी रोज पानी पीता है। चातक पक्षी का वर्णन हमारे प्राचीन ग्रंथों में, कालिदास के मेघदूत में भी आता है। 

परमपूज्य गुरुदेव ने स्पष्ट रूप से समझा दिया है कि पारिवारिक रिश्तों और आपसी संबंधों के विषय में भी विवेक के माध्यम से ही निर्णय लिये जाने चाहिये। माता-पिता परिवार के मुखिया होने के नाते अपने बच्चों से सही व्यवहार नहीं कर रहे हैं य अपनी रूढीवादी सोच थोप रहे हैं तो उन्हें ऐसा करने से रोकना चाहिए। 

आदि शंकराचार्य जी ने सन्यास लेकर दुनिया से विमुख होने की बात अपनी माँ को यह कहते हुए इन्कार कर दिया था कि मैं समाज कल्याण का कार्य करना चाहता हूं किंतु आप मुझे घर-गृहस्थी में ही उलझाए रखना चाहती हैं। मैं अपने निर्णय पर अडिग रहूंगा। इस हेतु यदि मुझे आपका भी त्याग करना पड़ा तो वह मुझे स्वीकार है। Legend है कि एक बार शंकराचार्य नदी में स्नान करने गए थे तो एक मगरमच्छ ने उनका पैर पकड़ लिया। फिर उन्होंने अपनी माँ को पुकारा कि वह उन्हें संन्यासी बनने की अनुमति दे, नहीं तो मगरमच्छ मार डालेगा। माँ हताशा में मान गई, और मगरमच्छ ने उसका पैर छोड़ दिया। 

समाज में पुराने ज़माने से कुछ कुरीतियां जड़ जमाए बैठी हैं जैसे दहेज प्रथा, बेमेल विवाह (कम उम्र की कन्या से उम्रदराज आदमी का विवाह), पूजा के नाम पर पशु बलि जैसा घृणित चलन, ऐसी ही अनेकों व्यर्थ की प्रथाएं हैं, जिन्हें विवेक- बुद्धि से परखने की आवश्यकता है और उन्मूलन नितान्त आवश्यक है। शास्त्रकारों का भी मत है कि यदि कोई छोटा बच्चा भी reasonable बात करता है तो उसे माना जाना चाहिये किंतु यदि ब्रह्मा की बात भी unreasonable है तो उसे नकार देना उचित है। 7 नवंबर 2021 को सरविन्द कुमार जी ने “परिवार में नई और पुरानी पीढ़ी का संघर्ष” शीर्षक से लेख में इन्ही बातों की चर्चा की थी कि हम अक्सर नई पीढ़ी पर अपनी विचारधारा थोपने में अपना प्रभुत्व समझते हैं। यही स्थिति है जिससे परिवारों में संघर्ष उत्पन्न हो रहा है 

विवेक ही सच्ची शक्ति है :

मनुष्य के जीवन को सफल बनाने के लिये शारीरिक बल, बुद्धि बल, अर्थ बल, समुदाय बल आदि की आवश्यकता होती है। इन्हीं बलों द्वारा शासन, उत्पादन, और निर्माण कार्य संपन्न होता है एवं विवेक द्वारा इन बलों का उचित संचालन किया जाता है। मस्तिष्क बल का संबंध शारीरिक बल से है। अच्छी विद्या प्राप्त करना ,अच्छे नंबरों में उत्तीर्ण होना, elite jobs जैसे कि वकील, डॉक्टर, व्यापारी, कारीगर, कलाकार आदि बनना इसी बल पर आधारित होता है। मस्तिष्क बल शारीरिक जन्य होने के कारण उसकी नीति शारीरिक हित साधन की होती है। हमने बचपन में माता पिता को कई बार कहते सुना होगा कि अगर शारीरिक बल ठीक होगा तभी तो पढाई में मन लगेगा, दिमाग लगेगा। अच्छे से अच्छा भोजन, पौष्टिक भोजन जो शरीर और मस्तिष्क दोनों के लिए लाभदायक होता है दिया जाता है। 

लेकिन दूसरी तरफ विवेकबल है। विवेकबल का संबंध आत्मा से होता है। आध्यात्मिक आवश्यकता, इच्छा और प्रेरणा के अनुसार विवेक जागृत होता है तथा उचित-अनुचित का भेद भी यही करता है । गुरुदेव कहते हैं कि वास्तविक सुख विवेक द्वारा किये कार्यों से ही प्राप्त होता है। जिस प्रकार मस्तिष्क बल शरीर की भूख बुझाता है, उसी प्रकार आत्मा की भूख बुझाने में विवेक प्रवृत्त रहता है। 

To be continued:

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।

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24 आहुति संकल्प 

4 अप्रैल 2022 के ज्ञानप्रसाद के अमृतपान उपरांत 4 समर्पित सहकर्मियों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, यह समर्पित सहकर्मी निम्नलिखित हैं :

 (1) सरविन्द कुमार -24 , (2 ) संध्या कुमार -24 , (3) अरुण वर्मा -25 (4)रेणु श्रीवास्तव -27 

गोल्ड मैडल विजेता रेणु श्रीवास्तव जी को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हे हम हृदय से नमन करते हैं और आभार व्यक्त करते हैं। धन्यवाद्

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