25 मार्च 2022 का ज्ञानप्रसाद -क्या स्वर्ग इस धरती पर ही था ? -पार्ट 7
‘क्या स्वर्ग इस धरती पर ही था ?’ की आध्यात्मिक शृंखला का सातवां भाग आज प्रकाशित किया जा रहा है। प्रत्येक भाग की तरह इस भाग को भी तैयार करने और रोचक बनाने में हमने अपनी अल्प बुद्धि, परिश्रम और क्षमता की कोई कसर नहीं छोड़ी है। गौमुख -तपोवन क्षेत्र जहाँ हम आज कुछ समय व्यतीत करेंगें, उस क्षेत्र का feel लेने के लिए हम 2019 का एक वीडियो लिंक दे रहे हैं। लगभग आठ मिंट की यह वीडियो पर्वतारोहण के सन्दर्भ में बनाई गयी है लेकिन आज के ज्ञानप्रसाद के कंटेंट को समझने में काफी हद तक सहायक हो सकती है। प्रातः मंगलवेला में इस तरह के अध्यन से हमारे सहकर्मियों को अवश्य ही दिव्यता प्रदान होगी और इस स्तर की बैटरी चार्ज होगी जो पूरा दिन आपको ऊर्जावान बनाये रखेगी। कल वाली कुछ पंक्तियाँ एक बार फिर लिख रहे हैं।
परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि यात्रा अभियानों में बहुधा लेखक अपने व्यक्तिगत प्रसंगों की चर्चा अधिक करते हैं जिससे आत्मश्लाघा बहुत रहती है। हमें वैसा कुछ भी न करके वहां की परिस्थितियों का अधिक से अधिक वर्णन करना है ताकि अधिक से अधिक जानकारी सार्वजानिक हो सके। जिन परिजनों ने गुरुदेव की masterpiece पुस्तकें- हमारी वसीयत और विरासत, सुनसान के सहचर- इत्यादि का अध्यन किया है अवश्य जानते होंगें कि पूज्यवर ने अपने बारे में कितना ही कम लिखा है और और हिमालय क्षेत्र की बारीकियों का कैसे वर्णन किया है।
तो चलते हैं आज की तीर्थयात्रा पर :
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भोजवासा से यहाँ तक 8 मील की दूरी में कोई विश्राम स्थल नहीं है। जहाँ-तहाँ बड़े पत्थर बाहर निकले हुए हैं उनके नीचे सुस्ताया जा सकता है। साल में तीर्थ यात्रियों की संख्या अब 5 -6 सौ तक होने लगी है। सभी को पहली रात चीड़वासा की धर्मशाला में विश्राम करना पड़ता है, वहीं फिर लौट कर आना पड़ता है। 8 मील जाना और 8 मील लौटना, यह 16 मील, इतनी विकट चढ़ाई और दुर्गम पथ के कारण बहुत भारी पड़ते हैं । कोई श्रद्धालु यहाँ गोमुख पर कुछ देर विश्राम या ध्यान भजन करना चाहे तो कर नहीं सकता क्योंकि उसे तुरन्त लौटने को चिन्ता पड़ी रहती है। अन्यथा 16 मील का मार्ग कैसे पार हो? रात हो जाय, वर्षा होने लगे, तूफ़ान आ जाये, तब तो मार्ग मिलना भी कठिन है। इस लिए यात्री कुछ देर यहाँ ठहरना चाहता है पर मन मार कर वापिस ही लौटता है। कुछ दिन पूर्व गंगा के उस पार एक उदासीन बाबा रहते थे, उनका शरीर शान्त हो जाने से वह कुटिया भी अस्तव्यस्त हो रही है। मन में विचार उठा कि यहाँ छोटी धर्मशाला होती तो भोजवासा की तरह यहाँ भी लोग ठहरते और एक दिन में 16 मील चलने की आपत्ति से भयभीत होकर इस पुण्य भूमि का लाभ कुछ समय अवश्य उठाते । स्थान की आवश्यकता मन को खींचती रही। संकल्प ने कहा यह कुछ असम्भव नहीं है। यहाँ इस गंगा के उद्गम गोमुख पर एक छोटी धर्मशाला बन सकती है शीघ्र ही बनेगी भी।
गोमुख तक यात्रियों का आना सम्भव होता है, उससे ऊपर घोर हिमालय-प्रारम्भ हो जाता है। यहाँ जाने का न कोई मार्ग है और न प्रयोजन। “हिमालय का हृदय” यहीं से प्रारम्भ होता है। इसमें प्रवेश कर हमें तपोवन तक जाना था, समीप ही नन्दनवन है। वहाँ पहुँचकर अपना प्रयोजन पूर्ण हुआ । जितना ठहरना था, ठहर गया, जो करना था किया गया, जो कहना था कहा गया, जो सुनना था सुना गया । इससे सर्व साधारण को कोई मतलब नहीं है। इन व्यक्तिगत बातों की चर्चा भी अप्रासंगिक होगी।
धरती के स्वर्ग को देखने की उठ रही प्रबल इच्छा किसी के अनुग्रह से ही वह असंभव दिखने वाले कार्य की व्यवस्था सहज ही बन गई। प्रभु की महान कृपा और महात्माओं के आशीर्वाद से कठिन कार्य भी सहज हो सकते हैं। अपना मनोरथ भी सहज हो गया उसके सब उपकरण खुद बखुद जुट गये। साथी और मार्ग-दर्शक भी थे। थके पैरों में नया जीवन आ गया और ठंड सहन न कर सकने वाली दुर्बल काया भी तन कर खड़ी हो गई और ठिठुरते पैर आगे को बढ़ने लगे।
गोमुख से ऊपर का अगम्य हिमालय चिरकाल से आवागमन रहित है। यहाँ जाने का कुछ प्रयोजन भी नहीं समझा जाता । गोमुख से दो मील ऊपर जहाँ तपोवन आरम्भ होता है वहाँ श्रावण भाद्रपद महीनों में बड़ी कोमल और पौष्टिक वनस्पतियां उगती हैं। यदि भेड़ बकरियाँ इन वनस्पतियों को चर लें तो उनका स्वास्थ्य बहुत ही अच्छा हो जाता है, बच्चे मजबूत देती हैं और ऊन भी बहुत मुलायम निकलती है।
इन लाभों को देखते हुए कभी-कभी कोई दुस्साहसी, पहाड़ी अपनी भेड़ें लेकर कुछ दिन के लिए ऊपर जा पहुँचते हैं। यह लोग भी गोमुख से दो तीन मील उपर तक ही जाते हैं। इन्हें छोड़कर कभी और दुसरे मनुष्यों के दर्शन नहीं होते। यह तपोवन क्षेत्र ही है जहाँ यह मनुष्य और पशु कभी-कभी देखे जाते हैं। जंगली भेड़ें, कस्तूरी हिरन तथा भूरा भालू भी इस क्षेत्र में कभी-कभी विचरण करते नजर आते है। यहाँ एक पेड़ होता है जिसमें से एक मनभावन गन्ध आती रहती है। जो लोग इस गन्ध को सहन नहीं कर सकते हैं उनका सिर चकराने लगता है। इससे थोड़े ही आगे चलकर नन्दनवन है। नन्दनवन में श्रावण-भाद्रपद के महीने वसन्त ऋतु माने जाते हैं। इन दो महीनों में ही यह वनस्पनियाँ उगती, बढ़ती, फूलती, पकती और समाप्त हो जाती हैं। आश्विन से बर्फ पड़ने लगती है, तब वह हरियाली भी समाप्त हो जाती है। यह हरियाली जब फलती है तो इसमें सैकड़ों प्रकार के, एक से बढ़कर एक सन्दर फूल खिलते हैं। इनकी बनावट, विचित्रता और भिन्नता देखकर ऐसा लगता है जैसा किसी चतुर चित्रकार ने रंग बिरंगे पुष्पों से सुसज्जित मखमली कालीन धरती पर बिछा दिया हो।
नन्दनवन से लगा हुआ भागीरथी शिखर है। कहते हैं कि तपस्वी भागीरथ इस पर्वत के रूप में यहाँ सदा विराजमान रहते हैं। शिखर भी उतना ही सुन्दर है जितना कि उसके नीचे का मैदान नन्दनवन । नन्दनवन देवताओं का वन माना जाता है। प्राचीनकाल में सम्भव है यहाँ कोई वृक्ष रहे हों, पर आजकल तो यह सुन्दर हरियाली ही शेष है, जिसे देखकर प्रकृति की इस अद्भुत कृति पर आश्चर्य होता है और विचार आता है कि आज यह छोटी हरियाली इतना सुन्दर लगती है तो प्राचीन काल में जब यहाँ वृक्ष रहे होंगे तो वे भी इतने ही सुन्दर होंगे और उनके वातावरण में रहने वाले भी वैसे ही सुन्दर होते होंगें जैसे देवता चित्रण किये जाते हैं। रंग बिरंगे फूलों के साथ रहने वाली तितली जब उन्हीं के रंग की वैसी ही सुन्दर हो जाती है तो इस नन्दनवन में विचरण करने वाली आत्माओं के सुन्दर होने में संदेह की कोई बात नहीं है। नन्दनवन की शोभा के बारे में पुराणों में उल्लेख मिलता है जिसे यह संस्कृत का श्लोक बयान कर रहा है :
‘अगहन गहनं लता पिटपिवजितम् । प्रशांतमति गंभीरं विशालं प्राव संकुलम् ।। कृष्णरक्तैः श्वेत पीतैः पुष्पैदिव्य मनोहरः । इन्द्राणीमेश भूषाभिः समाच्छन्नं समवंतः॥’
‘अहो तत्रत्य सुषमा कोवा वर्णयितु प्रभुः। इन्द्रोप्यति सहस्त्रेण यां विलोकय न तृप्यति।।’
अर्थात
“यहाँ गहन वन नहीं है । लता वृक्ष आदि कुछ भी नहीं है। प्रशान्त और अत्यन्त गम्भीर प्रवेश है। विशाल शिलाओं से भरा हुआ है। इंद्राणी के केशों में लगे आभूषणों जैसे मन को मोहित करने वाले रंग-बिरंगे फूल वहाँ खिले रहते हैं।यहाँ की प्राकृतिक शोभा का वर्णन कौन कर सकता है। इस सौन्दर्य को इन्द्र अपने हजारों नेत्रों से देखकर भी तृप्त नहीं होता।”
तपोवन में एक विशाल शिला के नीचे थोड़ी-सी आड़ जैसी जगह है जिसके नीचे 10 व्यक्ति विश्राम कर सकते हैं,उसकी स्थिति कुछ गुफा जैसी है। इसके अतिरिक्त इस प्रदेश में और कोई छाया का स्थान ऐसा नहीं है जिसके नीचे विश्राम किया जा सके। पेड़ तो हैं ही नहीं। लकड़ी भी यहाँ नही मिलती। एक मोटे डंठल की बनस्पति ऐसी होती है कि उसके डंठलों को जलाकर अग्नि का कुछ प्रयोजन सिद्ध किया जा सकता है। तपोवन से सटा हुआ शिवलिंग शिखिर है। इसका दृश्य कैलाश जैसा ही लगता है। इसे देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानों वह शिखिर प्रकृति का बनाया हुआ एक विशाल शिवलिंग है जिसे किसी ने यहाँ विधिवत् स्थापित किया हो। तपोवन से गोमुख की दिशा में मेरु शिखिर है। इसके नीचे मेरु ग्लेशियर है जो केदार शिखिर तक चला गया है। शिवलिंग शिखिर से निकल कर स्वर्ग गंगा नामक एक छोटी-सी नदी बहती है। ऊपर से इसकी दो धारायें दो ओर से आती हैं। तपोवन के मध्य भाग में वह दोनों मिलकर संगम बनाती हैं। पुराणों में वर्णन भाता है कि गंगा पहले तपोवन में निवास करती थी, बाद में भागीरथ के तप के कारण भूतल निवासियों का कल्याण करने के लिए नीचे आ गयी । यह दृश्य यहाँ प्रत्यक्ष देखा जा सकता। हिमालय के हदय-धरती के स्वर्ग मे यह स्वर्ग गंगा बहती है। यही धारा गंगा ग्लेशियर में कुछ दूर विलीन होकर फिर नीचे गोमुख पर प्रकट होती है। शिवजी अपनी जटाओं में गंगा को धारण किये हुए है, यह दृश्य भी शिवलिंग शिखिर पर स्पष्ट है। यह स्वर्ग गंगा मेरु शिविर से निकल कर शिवलिंग के भाग को स्पर्श करती हुई तपोवन में प्रवाहित होती हैं। तपोवन के अन्त में गंगा ग्लेशियर से सटा हुआ गौरी सरोवर है। यहाँ भगवती उमा शिव के समीप हो सरोवर रूप से विराजती हैं। कठोरता और करुणा का यह युग्म सब प्रकार वन्दनीय है। शिव और शक्ति यहाँ पर्वत और सरोवर के रूप में साकार हैं। एक को तप कहें तो दूसरे को भक्ति । एक ज्ञान है तो दूसरे को भावना कह सकते हैं। शिवलिंग पर्वत के समीप गौरी सरोवर का जोड़ा देखते-देखते भावनाशील हृदयों में साक्षात शिव पार्वती के दर्शनों जैसा आल्हाद उत्पन्न होता है। इस स्वर्गीय दृश्य को देखते-देखते गंगा ग्लेशियर के सहारे-सहारे कुछ मील और भी आगे बढ़ जाते हैं तो कीर्ति ग्लेशियर के कोने पर मानसरोवर झील आ जाती है। यह झील लम्बाई चौड़ाई में तिब्बत वाली मानसरोवर झील के बराबर तो नहीं है, पर निर्मलता, पवित्रता और दिव्य तत्वों की दृष्टि से यह स्वर्ग-सरोवर संसार के सभी जलाशयों की अपेक्षा अधिक शान्ति और पवित्रता प्रदान करने वाला है
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To be continued :
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।
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24 आहुति संकल्प
24 मार्च 2022 के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने के उपरांत 6 समर्पित सहकर्मियों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, यह समर्पित सहकर्मी निम्नलिखित हैं :
(1) सरविन्द कुमार -27 , (2 ) संध्या कुमार -27, (3) अरुण वर्मा -28, (4 ) रेणु श्रीवास्तव -25 (5 )प्रेरणा कुमारी -26, (6 ) सुमन लता -24
इस सूची के अनुसार सभी ही गोल्ड मैडल विजेता हैं। सभी को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हे हम हृदय से नमन करते हैं और आभार व्यक्त करते हैं। धन्यवाद्
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