आज का ज्ञानप्रसाद गंगोत्री ग्लेशियर क्षेत्र पर आधारित है। पिछले कई लेखों से हम देख रहे हैं कि धरती के स्वर्ग की यात्रा कितनी आध्यात्मिक और रमणीय है। आज के ज्ञानप्रसाद में तो ब्रह्मा जी ने नारद जी के समक्ष इस क्षेत्र की उपमा करते हुए certify कर दिया कि – यही भूलोक का स्वर्ग है। Original source में प्राचीन ग्रंथों और संस्कृत के श्लोकों का रेफरन्स दिया गया है जिन्हे हमने सरलीकरण की दृष्टि से डिलीट करना ही उचित समझा। भूलोक के स्वर्ग वाली बात भी एक श्लोक का ही हिंदी अनुवाद है।
सहकर्मी देख रहे होंगें कि लेख के covering poster में 4 फोटो हैं। एक फोटो मैप के द्वारा गोमुख, गंगोत्री, चीड़वासा , भोजवासा आदि की लोकेशन बता रही है और बाकी दो फोटो गोमुख की हैं। 2021 अंत की एक वीडियो हमने देखि जिसमें 2016 की भयानक वर्षा के कारण गोमुख दिखाई ही नहीं दे रहा था। चौथी फोटो में आप एक प्रिंटेड पेज का स्क्रीनशॉट देख रहे हैं। यह हमने इसलिए शामिल किया है कि जिस कंटेंट को पढ़कर हम यह लेख तैयार कर रहे हैं पुरातन होने के कारण किस दशा में हैं। इस कंटेंट को पढ़ना बहुत ही कठिन है, अगर magnify करते हैं तो blurring हो जाती है और न करें तो पढ़ना कठिन है। इस स्थिति में हो सकता है हमारी स्पीड कुछ कम पड़ जाये लेकिन हमारा प्रयास निरतंर जारी रहेगा कि आपको दैनिक ज्ञानप्रसाद, ऑडियो वीडियो इत्यादि समयानुसार मिलते रहें। हमें अपने गुरु पर पूर्ण विश्वास है। उनके मार्गदर्शन में कुछ भी कठिन नहीं है। कठिनता के बावजूद हम युगनिर्माण योजना प्रेस मथुरा कार्यकर्ताओं का ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने 8 दशक प्राचीन कंटेंट को सुरक्षित रखा हुआ है। उन्होंने तो गुरुदेव का इससे भी पुराना साहित्य स्कैन करके हमें उपलब्ध कराया है। 2019 में जब हम इस प्रेस को विजिट कर रहे थे तो अनिल जी ने बताया था अभी तक हम परमपूज्य गुरुदेव का 30 % साहित्य भी ऑनलाइन उपलब्ध नहीं करवा सके।
तो प्रस्तुत है आज की स्वर्गीय यात्रा।
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गोमुख आजकल गंगोत्री से 18 मील आगे है परन्तु प्राचीन काल में वह गंगोत्री में ही था । विशाल भागीरथ शिला वही है जिस पर बैठकर भागीरथ जी ने तप किया था। पार्वती के तप का स्थान गौरी कुंड है। गंगोत्री का यह स्थान बहुत ही भव्य है । शिव जी ने अपनी जटाओं में गंगाजी को यहीं लिया बताते हैं। यहाँ जलधारा बहुत ऊँचे से बड़े कोलाहल के साथ गिरती है। नारद जी भागीरथी का उद्गम देखर जब बापिस गये सो ब्रह्मा जी ने उनकी बड़ी प्रशंसा की थी और कहा था:
हे नारद, तुम धन्य हो । तुमने गंगोत्री का सेवन किया तुम कृतकृत्य हो गये, तुम्हे बार-बार घन्यवाद है। इस पुण्य तीर्थ की प्रशंसा करते हुए बहुत कुछ कहा गया है : यह तपस्वियों के तप का स्थान है, मुनियों के मनन करने की भूमि है। भक्तों और विरक्तों के हृदय को आह्लादित करने वाला क्षेत्र है। यहाँ साक्षात् परब्रह्म ही पृथ्वी पर गंगा नाम से मनुष्यों को चारों पदार्थ देने के लिए जल रूप में बह रहे हैं। इस क्षेत्र में पाप नहीं, दुराचार नही, कुटिलता नहीं, छल वंचना नहीं और साथ ही किसी प्रकार का दुःख भी नहीं है। हे नारद यह पवित्र पुण्य तीर्थ भागीरथ का तप स्थान तीनों लोकों में प्रसिद्ध है,इसे तुम भूलोक का स्वर्ग ही समझो।
ऋतु विशेषज्ञों का कथन है कि यह प्रदेश अब धीरे-धीरे गरम होता जा रहा है। यहाँ जितनी पहले बर्फ पड़ती थी अब उतनी नहीं पड़ती। गंगा ग्लेशियर धीरे-धीरे गलता जा रहा है और अब गोमुख 18 मील पीछे चला गया है। लगभग 1 मील तो अभी कुछ ही वषों में हटा है। इसलिए गंगा से उद्गम तक जाने वालों को अब गंगोत्री से 18 मील ऊपर जाना पड़ता है। इस पुण्य उद्गगम का वर्णन करते हुए कहा गया है :
बर्फ के समूह से भूषित और भूमि के विभूष उस गोमुख स्थान में गौ के मुख के सदृश बर्फ को महान गुफा से पुण्यवती सुरनदी गंगा जी भूलोक के निवासियों को पावन करने के लिए महान वेगवती होकर निकलती हैं।
गंगोत्री से 6 मील पर चीड़ के वृक्षों का वन है, इसे चीड़वासा कहते हैं, वासा का अर्थ वन होता है यहाँ किसी पुण्यआत्मा ने एक छोटी सी धर्मशाला बना दी है। इसमें प्रबंधक तो कोई नहीं रहता पर भोजन पकाने के लिए बर्तन पड़े रहते है। जो कोई वहाँ पहुच जाता है वही उसका प्रबन्धक बन जाता है। यहाँ से भोजवासा प्रारम्भ होता है। भोजवासा अर्थात् भोजपत्र के वृक्षों का वन। इस वृक्ष से जो छाल निकलती है उससे ओढ़ने-बिछाने का, कुटिया ढकने का काम चल जाता है। भोजपत्र का वर्णन हमारे पुरातन ग्रंथों में बहुत बार आ चुका है, इन्ही पत्तों पर हमारे ग्रन्थ लिखे जाते थे। पेड़ों के अति प्रयोग के कारण वनों की कटाई ने कई ऐसे बहुमूल्य पेड़ों का नुकसान किया है। कई स्वयंसेवकी संस्थाओं ने वृक्षारोपण करना आरम्भ किया है। प्रथम भोजपत्र नर्सरी की स्थापना 1993 में गंगोत्री के ठीक ऊपर चीडवासा में की गई थी। हिमालय पर्वतारोही डॉ. हर्षवंती बिष्ट ने इस प्रथम नर्सरी की स्थापना की और गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के अंदर भोजपत्र के वनीकरण का विस्तार जारी रखा। वर्ष 2000 तक इस क्षेत्र में लगभग 12,500 भोजपत्र के पौधे लगाए जा चुके थे। हाल के वर्षों में गंगोत्री क्षेत्र में भोजपत्र के पेड़ों के संग्रह पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास किया गया है।
इसी क्षेत्र मे पाँच महात्माओं की कुटिया है जो शीत काल में भीषण बर्फ की ऋतू में भी यहीं रहते हैं। गंगा के दूसरी ओर स्वामी तत्वबोधानन्दजी की कुटिया है। ग्रीष्म ऋतु मे जब उधर आने जाने का मार्ग खुलता है यह लोग 6 महीने के लिए जीवन निर्वाह की आवश्यक सामग्री जमा कर लेते हैं और अग्नि के सहारे जीवन धारण किये रहते है। एक महात्मा रघुनाथ दास जी अन्न नहीं लेते। वह ग्रीष्म में सूखे पत्ते आलू के साथ बनाकर कितने ही वर्षों से काम चला रहे हैं। भोजपत्र के पेड़ मे जहाँ तहाँ कूबड़ जैसी मुलायम गाँठे निकल आती हैं जिन्हें भुजरा कहते हैं। इसे पानी में उबालने से बढ़िया किस्म की चाय बनती है जो रंग, स्वाद और गर्मी देने में चाय की अपेक्षा हर प्रकार से उत्कृष्ट होती है। शीत निवारण के लिए इन महात्माओं का दैनिक पेय यही रहता है। दूध और चीनी का तो वहां अभाव ही रहता है। इसलिए भुजरा को उबाल कर नमक डालकर पिया जाता है ।
भोजवासा क्षेत्र में एक छोटी-सी नदी है जिसे भोजगढ़ कहते हैं। गढ़ शब्द पहाड़ी भाषा में नदी के अर्थ में प्रयोग होता है। भोजगढ़ अर्थात भोजपत्र वन में बहने वाली नदी। इसके बाद फूलवासा आरम्भ हो जाता है जहाँ कोई वृक्ष नहीं मिलता, भूमि पर वनस्पतियां उगी होती हैं। यह वनस्पतियां श्रावण-भाद्रपद महीनों से सुन्दर पुष्पों से सुशोभित रहती हैं। इसे पार करने पर गोमुख आता है।
इस 18 मील प्रदेश में कोई सड़क या पगडंडी नही है। जानकार मार्गदर्शक कुछ पहचाने हुए वृक्षों पथरों, शिखरों तथा दृश्यों के आधार पर चलते हैं और यात्री को गोमुख तक ले पहुँचते हैं। रास्ते में कई स्थान ऐसे है जहाँ थोड़ी भी चूक होने पर जीवन का अन्त ही हो सकता है। चलने और चढ़ने में कितनी कठिनाइयाँ हैं इनका वर्णन न करते हुए यहाँ तो यही कहना उचित है कि इस प्रदेश मे प्रवेश करने पर मनुष्य थकान और कष्टों को भूलकर एक अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव करता है। प्रकृति माता की इस सुहावनी गोद को जब वह कोलाहल से भरे हुए नगरों और महानगरों से तुलना करता है तो वह सच में अपनेआप को नरक से निकल कर एक स्वर्गीय वातावरण में निमग्नं पाता है।
भागीरथी का उद्गम दर्शक को एक आध्यात्मिक आनंद में विभोर कर देता है। यदि गंगा को एक नदी मात्र माना जाय तो भी उसके इस उद्गम का प्राकृतिक सौन्दर्य इतना सुशोभित है कि कोई सौन्दर्य पारखी इस दृश्य पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता । गोमुख शब्द से ऐसा अनुमान किया जाता है कि यहाँ गाय के मुंह की शक्ल का कोई छेद होगा वहाँ से धारा गिरती होगी, पर वहाँ ऐसी बात नहीं है। बर्फ के पर्वत में एक गुफा जैसा बड़ा छेद है इसमें से अत्यन्त प्रबल वेग से पिचकारी की तरह छोटी-सी जलधारा निकलती है। इस शोभा का वर्णन कर सकना किसी कलाकार का ही काम है। यदि गंगा को एक आध्यात्मिक धारा माना जाए तो उसके उद्गम स्थल में यह अध्यात्म तत्व भी प्रबल वेग से निकलता है। कोई भी श्रद्धालु ह्रदय यहाँ यह प्रतक्ष्य अनुभव कर सकता है कि कोई दिव्य अध्यात्म पदार्थ उसके अन्तःकरण के कण कण को एक दिव्य आनंद प्रदान कर रहा है। गंगा चाहे कहीं पर ही बहती हो परन्तु उसके अध्यात्म और पूर्ण निर्मलता का आभास गोमुख में ही होता है।
1972 में मॉरीशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री, शिवसागर रामगुलाम, यहाँ से गंगाजल लेकर गए थे, जिसे मॉरीशस की ज्वालामुखीय झील में मिलाया गया, जिसे गंगा तलाब कहा जाता है और जो एक हिन्दू तीर्थस्थल है।
2013 में उत्तराखंड में बादल फटने से ग्लेशियर पर बड़ी-बड़ी दरारें आ गई थीं । 26 जुलाई 2016 को उत्तराखंड में भारी बारिश के बाद यह बताया गया कि गोमुख का अगला सिरा अब नहीं रहा क्योंकि ग्लेशियर का एक बड़ा हिस्सा ढहकर बह गया था।
हमने बहुत प्रयास किया कि अपने पाठकों के लिए इस तथ्य को प्रस्तुत करें कि गोमुख का अगला सिरा नहीं रहा। इंटरनेट पर बहुत प्रकार की न्यूज़ items, articles और वीडियोस उपलब्ध हैं जिन्हें summarise करने से बेहतर यही होगा कि पाठकों को प्रोत्साहित किया जाये कि वह स्वयं अपनी रूचि के आधार पर जानकरी प्राप्त करें। गंगोत्री ग्लेशियर दो शताब्दियों में 3 किलोमीटर कम हो गया है। अगर इसी स्पीड से कम होता रहा और ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के प्रयास न किये गए तो इस प्राकृतिक सम्पदा का नाश निश्चित है। कुछ ही वर्ष पूर्व जहाँ इस क्षेत्र में केवल इक्का दुक्का कारें दिखाई देती थीं आज कल बसों और पर्यटकों की भीड़ लगी हुई है। यह एक बहुत ही चिंता का विषय है।
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परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि यात्रा अभियानों में बहुधा लेखक अपने व्यक्तिगत प्रसंगों की चर्चा अधिक करते हैं जिससे आत्मश्लाघा बहुत रहती है। हमें वैसा कुछ भी न करके वहां की परिस्थितियों का अधिक से अधिक वर्णन करना है ताकि अधिक से अधिक जानकारी सार्वजानिक हो सके। जिन परिजनों ने गुरुदेव की masterpiece पुस्तकें हमारी वसीयत और विरासत, सुनसान के सहचर इत्यादि का अध्यन किया है अवश्य जानते होंगें कि पूज्यवर ने अपने बारे में कितना ही कम लिखा है और और हिमालय क्षेत्र की बारीकियों का कैसे वर्णन किया है।
******************* शब्द सीमा के कारण हम केवल इतना ही कहेंगें कि रेणु श्रीवास्तव -25, संध्या कुमार -31, अरुण वर्मा -38 में से अरुण भाई साहिब गोल्ड मैडल विजेता हैं।