18 मार्च 2022 का ज्ञानप्रसाद -क्या स्वर्ग इस धरती पर ही था ? -पार्ट 3

“क्या स्वर्ग इस धरती पर ही था ?” शीर्षक से चल रही श्रृंखला का चतुर्थ पार्ट प्रकाशित करते हुए हमें जिस प्रसन्नता और आंतरिक शांति का आभास हो रहा है उसका शब्दों में वर्णन करना हमारे सामर्थ्य से कहीं परे है। वैसे तो हर कोई लेख परमपूज्य गुरुदेव की प्रेरणा से और उनकी ही लेखनी से लिखे जा रहे हैं लेकिन इस श्रृंखला में हमारे प्राण ही बसे हुए हैं। इन लेखों को स्वयं समझना, उसके उपरांत अपने सहकर्मियों के अन्तःकरण में उतारने के लिए जो भी उपलब्ध साधन हों उनका प्रयोग करना, सच में कहें तो हमारे लिए एक challenge और प्रसन्नता का स्रोत है। कल हमने आपको DEVBHOOMI ADVENTURE AND TREKKERS की एक वीडियो के माध्यम से उस एरिया का अनुभव करवाया था। इस वीडियो को ऑनलाइन ज्ञानरथ के प्लेटफॉर्म पर शेयर करने के लिए वीडियो owners ने धन्यवाद् करते हुए इस प्रयास को सराहा है, जिसके लिए हम उनके आभारी हैं। इन्ही लेखों को और सरल बनाने के लिए हमने एक Map को शामिल किया है। विशालकाय मैप में एक छोटा सा portion extract करना और फिर यह भी सुनिश्चित करना कि resolution इतनी हो कि आसानी से पढ़ा जा सके, एक बहुत ही challenge भरा कार्य था। लेकिन हम इस कार्य को भी पूर्ण श्रद्धा से कर पाए इसकी हमें बहुत ही तस्सली है। मैप में कैप्शन लिख कर हम आपसे आग्रह कर रहे हैं कि इसको ज़ूम करके बद्रीनाथ ,केदारनाथ गंगोत्री ,गोमुख आदि की लोकेशन अवश्य देखें – गुरुदेव के साथ चलते चलते दिव्य आनंद की अनुभूति तो तभी ही हो सकेगी। तो आइये देखते है गुरुदेव अंतर्द्वद्व का किस प्रकार निवारण करते हैं :
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भावना,साहस ,व्यवहारिकता ,अंतरात्मा और बुद्धि का अंतर्द्वद्व :
गंगोत्री से गोमुख की ओर चलते हुए मार्ग में यह विचार आया कि यदि किसी प्रकार सम्भव हो सके तो इस धरती के स्वर्ग के दर्शन करने चाहिये। “भावना” धीरे-धीरे अत्यन्त प्रबल होती जाती थी पर इसका उपाय न सूझ पड़ता था। गोमुख से आगे वह धरती का स्वर्ग आरंभ होता है। मीलों की दृष्टि से इसकी लम्बाई चौड़ाई बहुत नहीं है। लगभग 30 मील चौड़ा और इतना ही लम्बा यह प्रदेश है। यदि किसी प्रकार इसे पार करना सम्भव हो तो बद्रीनाथ-केदारनाथ इसके बिल्कुल नीचे ही सटे हुए हैं। यों बद्रीनाथ गोमुख से पैदल के रास्ते लगभग 250 मील है पर इस दुर्गम रास्ते से तो 25 मील ही है। ऊंचाई की अधिकता, पर्वतों के ऊबड़-खाबड़ होने के कारण चलने लायक मार्ग न मिलना तथा शीत अत्यधिक होने के कारण सदा बर्फ जमी रहना, रास्ते में जल, छाया, भोजन, ईंधन आदि की कुछ भी व्यवस्था न होने आदि कितने ही कारण ऐसे हैं जिनसे वह प्रदेश मनुष्य की पहुँच से बाहर माना गया है। यदि ऐसा न होता तो गंगोत्री, गोमुख आने वाले 250 मील का लम्बा रास्ता क्यों पार करते और इस 25 मील से ही क्यों नहीं निकल जाते?
इस मार्ग से कितने ही वर्ष पूर्व स्विट्जरलैंड के एक पर्वतारोही दल ने चढ़ने का प्रयत्न किया था। उसे उस आरोहण में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा था। सुना था कि शिवलिंग पर चढ़ते हुए दल के एक कुली का पैर टूट गया था और एक आरोही केदार शिखर पर चढ़ते हुए बर्फ की गहरी दरारों में फंस कर अपने प्राण गंवा बैठा था। फिर भी उस दल ने वह मार्ग पार कर ही लिया था। इसके बाद दुस्साहसी हिम अभ्यस्त महात्माओं के एक दल भी उस दुर्गम प्रदेश को पार करके बद्रीनाथ के दर्शन कर चुके हैं।
साहस ने कहा- ‘यदि दूसरे इस मार्ग को पार कर चुके हैं तो हम क्यों पार नहीं कर सकते? बुद्धि ने उत्तर दिया- उन जैसी शारीरिक और मानसिक सामर्थ्य अपनी न हो, ऐसे प्रदेशों का अभ्यास और अनुभव भी न हो तो फिर किसी का अन्धा अनुकरण करना बुद्धिमत्ता नहीं है।’ भावना बोली- अधिक से अधिक जीवन का खतरा ही तो हो सकता है। यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। कहते भी हैं कि स्वर्ग अपने मरने से ही दिखता है। यदि इस धरती के स्वर्ग को देखने में प्राण संकट का खतरा मोल लेना पड़ता है तो कोई बड़ी बात नहीं है। उसे उठा लेना चाहिए, कोई बड़ी बात नहीं है। उसे उठा लेने में संकोच नहीं करना चाहिए। व्यवहारिकता पूछती थी- यक्ष भी दिये तो रास्ता कौन दिखावेगा? उतनी सर्दी को शरीर कैसे सहन करेगा? सोने और खाने-पीने की क्या व्यवस्था होगी?
अब तक समुद्रतल से 11 हजार फुट ऊंचाई चढ़ी गई है। ऋषिकेश से यहाँ तक आने में 170 मील में 9 हजार फुट चढ़े जिससे पैरों के देवता कूच कर गये हैं। अब आगे 12 मील के भीतर 9 हजार फुट और चढ़ना पड़ेगा तो उस चढ़ाई की दुर्गमता पैरों के बस से सर्वथा बाहर की बात होगी।
इस प्रकार अंतर्द्वद्व चल रहा था। निर्णय कुछ हो नहीं पा रहा था। प्रश्न केवल साहस का ही न था, अपनी सीमित शक्ति के भीतर भी वह सब है या नहीं, यह भी विचार करना था। मस्तिष्क की सारी शक्ति लगाकर समस्या का हल खोज रहा था, पर कोई उपाय सूझ नहीं पड़ता था। अन्तरात्मा कहती थी कि अब धरती के स्वर्ग के बिल्कुल किनारे पर आ गये तो उसके भीतर प्रवेश करने का लाभ भी लेना चाहिये। गंगातट पर से प्यासे लौटने में कौन सी समझदारी है। मरने पर स्वर्ग मिला या न मिला कौन जाने। यहाँ बिल्कुल ही समीप धरती का स्वर्ग मौजूद है तो उसका लाभ क्यों नहीं लेना चाहिये?’
स्मरण शक्ति ने इस दुर्गम पथ की स्थिति बताने वाला एक प्राचीन श्लोक उपस्थित कर दिया।
तत ऊर्ध्वंतु भृमीघ्रा मर्त्य संचार दूरगाः।
आच्छन्नाः संततस्थापि धनोत्तुंग महाहिमै॥
गोमुखी तो विशाला दूर्नाति दूरे विराजते।
तत्रायं गमने मार्गः सिद्धानाँचामृताँघसाम्॥
उस (गोमुख) से आगे के पर्वत अतीवस घन, ऊंचे और भारी बर्फ से ढके हैं। वे मनुष्य की पहुँच से बाहर हैं। उस ओर से बद्रीनारायण पुरी बहुत दूर नहीं है, लेकिन वह मार्ग मनुष्य के लिए असम्भव है, वह सिद्ध और देवताओं का मार्ग है। इस मार्ग से वे ही जाते है।’
‘अपने ऐसे भाग्य कहाँ जो इस सिद्ध और देवताओं के मार्ग पर चल सकें।’ इस प्रकार की निराशा बार-बार मन में आती थी, पर साथ ही आशा की एक बिजली सी कौंधती थी और कोई कहता था कि- ‘जाकी कृपा पंगु गिरि लंघहि, रंग चलें और छत्र धाराई’ वाली कृपा उपलब्ध होती है तो वह भूतल का दुर्गम प्रदेश ही क्या और भी ऊंचे से ऊंचे दुर्गम स्तरों को पार और प्राप्त किया जा सकता है।’
जिस प्रकार हृदय में स्थित रक्त धमनियों के द्वारा सारे शरीर में फैलता है, जैसे उत्तरी ध्रुव का चुम्बकत्व सारी पृथ्वी पर अपना आकर्षण फैलाये हुए है, लगता है कि उसी प्रकार हिमालय का यह हृदय अपने-अपने दिव्य स्पन्दनों (vibrations) के द्वारा दूर-दूर तक आध्यात्म तरंगों को प्रवाहित करता है। जिस प्रकार हृदय के ऊपर कितने ही प्रकार के स्वर्ण रत्नों से जटित आभूषण धारण किये जाते हैं, उसी प्रकार इस हिमालय के हृदय के चारों ओर एक घेरे के रूप में कितने ही महत्वपूर्ण तीर्थों की एक सुन्दर श्रृंखला पहनाई हुई है। महाभारत के बाद जो तीर्थ इस क्षेत्र में अस्त-व्यस्त हो गये थे उनका पुनरुद्धार करने की प्रेरणा जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य को हुई और उन्होंने कठिन प्रयत्न करके उन तीर्थों को पुनः स्थापित कराया। जिस प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने ब्रजभूमि के विस्मृत पुण्य क्षेत्रों को अपने योग बल से पहचान कर उन स्थानों का निर्माण कराया था, उसी प्रकार जगद्गुरु शंकराचार्य को भी यह प्रेरणा हुई थी कि वे उत्तराखण्ड की भूली हुई देव भूमियों तथा तपोभूमियों का पुनरुद्धार करावें। वे दक्षिण भारत के केरल प्रान्त से चलकर उत्तराखण्ड आये और उन्होंने बद्रीनाथ आदि अनेकों मन्दिरों का निर्माण कराया। आज उत्तराखण्ड का जो गौरव परिलक्षित होता है उसका बहुत कुछ श्रेय उन्हीं को जाता है।
सूरदास जी के बहुप्रचलित इस दोहे के अनुसार जिस पर श्रीहरि की कृपा हो जाती है, उसके लिए असंभव भी संभव हो जाता है। लूला-लंगड़ा मनुष्य पर्वत को भी लांघ जाता है। अंधे को गुप्त और प्रकट सब कुछ देखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। बहरा सुनने लगता है। गूंगा बोलने लगता है। कंगाल राज-छत्र धारण कर लेता हे। ऐसे करूणामय प्रभु की पद-वन्दना कौन अभागा न करेगा।
यह भाव जैसे-जैसे प्रबल होते गये वैसे-वैसे ही अन्तःकरण में एक नवीन आशा और उत्साह का संचार होता गया। सर्वशक्तिमान की सत्ता कैसी अपरम्पार है कि वह कामना पूर्ण होकर रही। वह दिन भी आया जब उस पुण्य प्रदेश में प्रवेश करके वह तन सार्थक बना। उन अविस्मरणीय क्षणों का जब भी स्मरण हो आता है तब रोमाँच खड़े हो जाते हैं, आत्मा पुलकित हो उठती है और सोचता हूँ कि प्रभु यदि उन्हीं आनन्दमय क्षणों में चिरशाँति प्राप्त हो जाती तो कितना उत्तम होता। पर जो कर्मफल अभी और भोगना है उसे कौन भोगता, यह सोच कर किसी प्रकार मन को समझाना ही पड़ता है।
इस पुण्य प्रदेश हिमालय के हृदय और धरती के स्वर्ग की यात्रा और स्थिति का वर्णन करने से पूर्व, इस क्षेत्र की महत्ता पर विचार करेंगे:
(1) सरविन्द कुमार -24 ,(2 ) संध्या कुमार -24
इस हिमालय के हृदय के किनारे-किनारे जितने तीर्थ हैं उतने भारतवर्ष भर में और कहीं नहीं हैं। देवताओं की निवास भूमि सुमेरु पर्वत पर बताई गई है। सुमेरु पर पहुँचना मनुष्यों के लिए अगम्य है। इसलिए जनसंपर्क की दृष्टि से कुछ नीचे उत्तराखण्ड की तपोभूमि में देवताओं ने अपने स्थान बनाये थे । जैसा हम जानते हैं कि राजा का व्यक्तिगत समय अपने राजमहलों में व्यतीत होता है, वहाँ हर कोई नहीं पहुँचता। पर राजदरबार का स्थान राजा जनकार्यों के लिए ही सुरक्षित रखता है। सुमेरु को यदि देवताओं का राजमहल कहा जाए तो उससे कुछ ही नीचे के समीपतम देव स्थानों को राजदरबार कहा जा सकता है। उत्तराखण्ड के नक्शे पर एक दृष्टि डाली जाए तो यह निश्चय हो जाता कि हिमालय के हृदय से नीचे के भाग का देवभूमि कहा जाना सार्थक ही है।
To be continued :
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।
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24 आहुति संकल्प
17 मार्च 2022 वाले ज्ञानप्रसाद के अमृतपान उपरांत केवल दो ही समर्पित सहकर्मियों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है, यह समर्पित सहकर्मी निम्नलिखित हैं :
दोनों ही गोल्ड मैडल विजेता हैं। यूट्यूब की समस्या को देखते हुए, उनका विजेता होना बहुत ही महत्वपूर्ण है। हम सभी से यही कह सकते हैं कि अपने phones में से कुछ डाटा डिलीट करते रहा करें ताकि इस तरह की समस्या न आये।
दोनों विजेताओं को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। सभी सहकर्मी अपनी अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हे हम हृदय से नमन करते हैं और आभार व्यक्त करते हैं। धन्यवाद्
जिस प्रकार लेख के लिए शब्द सीमा है ,उसी प्रकार चित्र/ फोटो की भी सीमा है। उस सीमा के कारण हम गोल्ड मैडल प्रकाशित करने में असमर्थ है ,मैप प्रकाशित करना अतिआवश्यक है। दोनों विजेताओं से हम क्षमा प्रार्थी हैं।
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