वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

चिंता चिता समान है, कामवृति त्यागने योग्य है ?

24 फरवरी 2022 का ज्ञानप्रसाद- चिंता चिता समान है, कामवृति त्यागने योग्य है ?

परम पूज्य गुरुदेव द्वारा लिखित लघु पुस्तिका “इन्द्रिय संयम का महत्त्व” पर आधारित आदरणीय संध्या कुमार जी की लेख श्रृंखला का यह चतुर्थ पार्ट है। पिछले लेख में हमने कामवासना और क्रोध वृतियों पर संक्षेप में चर्चा की थी। आज के ज्ञानप्रसाद में चिंता ,काम और क्रोध वृतियों पर विस्तार से बात कर रहे हैं। हममें से शायद कोई विरला ही होगा जिसे इन बातों का ज्ञान नहीं होगा कि चिंता, चिता समान होती है ,कामवृति जो कामवासना से अलग होती है कितनी आवश्यक वृति है। वासना के वशीभूत होकर ही निर्भया काण्ड जैसे घोर अपराध होते हैं लेकिन काम यानि कामना तो भगवत्प्राप्ति के उदेश्य से भी हो सकती है। काम और वासना दो ऐसे intertwined शब्द हैं जिन्हे हर किसी ने अपने ज्ञान,अपनी समझ के अनुसार प्रयोग किया है। 

ज्ञानप्रसाद आरम्भ करने से पहले हम अपने सभी सहकर्मियों का ह्रदय से धन्यवाद् करना चाहेंगें जिन्होंने हमारी बिटिया -प्रेरणा बिटिया की ऑडियो बुक के संदर्भ में आशीर्वादों की झड़ी लगा दी। इस ज्ञानप्रसाद को लिखने समय तक 204 कमैंट्स और 601 व्यूज इस ऑडियो बुक की लोकप्रियता के साक्षी हैं। एक -एक कमेंट को पढ़कर कर लग रहा था कि हर कोई ह्रदय खोल कर अपनी भावना प्रकट कर रहा है -धन्यवाद् ,धन्यवाद और धन्यवाद्। 

तो आइये चलें आज की पाठशाला की ओर। 

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गुरुदेव ने हमें सावधान करते हुये कहा है कि चिंता मानव की खतरनाक दुश्मन होती है, कहा भी जाता है कि चिंता, चिता से भी ज्यादा खतरनाक है क्योंकि चिता में तो मनुष्य एक बार जलता है, किंतु चिंता तो उसे हर पल जलाती रहती है। चिंता के कारण मन-मस्तिष्क में आवेश का तूफान निरन्तर चलता रहता है, जो मनुष्य का मानसिक संतुलन बिगाड़ देता है। कई बार मनुष्य अपने नज़दीकी की मृत्यु के दुःख में, उसकी यादों में उलझा रहता है। अपने आगे पीछे जब देखते हैं तो अक्सर सभी चिंता और भागदौड़ में अपने अमुल्य जीवन का नाश करने को तुले हैं। किसी को व्यापार या नौकरी के उतार चढ़ाव की चिंता है, किसी को नौकरी में प्रमोशन की चिंता है ,किसी को बैंक बैलेंस बढ़ाने की चिंता है,किसी को बेटे-बेटी की पढ़ाई की चिंता, अगर पढाई अच्छी हो गयी है तो नौकरी की चिंता ,अगर नौकरी भी मिल गयी है तो प्रमोशन की चिंता, अगर प्रमोशन भी हो गयी है तो अपने क्लास फेलो से अधिक प्रमोशन की चिंता, फिर बच्चों की शादी की चिंता, अगर शादी हो गयी है तो फिर adjustibility की चिंता में उलझा रहता है। लगता है की मनुष्य चिंताओं के नरक में अपना जीवन व्यतीत कर रहे है। चिन्ताओं के कारण मनुष्य की इच्छा शक्ति, कर्मशक्ति दोनों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। 

अतः गुरुदेव हमें अपने बच्चों की तरह समझाते हुए लिखते हैं कि चिन्ताओं से स्वयं को दूर रखने का प्रयास एवं अभ्यास करते हुए स्वयं को परिष्कृत करते रहना अनिवार्य है। 

चिन्ताओं के प्रति सावधान करते हुए गुरुदेव ने लिखा है कि चिंताएं ही अनेक बीमारियों का मूल कारण होती हैं। कई बार चिन्ताओं की अधिकता के कारण हड्डियों के भीतर रहने वाली मज्जा सूख जाती है, जिसके परिणाम स्वरूप निमोनिया आदि रोगों का भय बढ़ जाता है, कई बार हड्डियां टेड़ी भी हो जाती हैं। इसी तरह के कई नुकसान क्रोधी, लोभी व्यक्ति उठाते हैं। उन्हें कब्ज, ज़ुकाम आदि की शिकायत बनी ही रहती है। कई बार चिन्ताओं के कारण भय और आशंका में घिरे हुए व्यक्ति में लहू और क्षार में कमी बनी रहती है, जिसकी वजह से बाल गिरने लगते हैं, कई बार असमय ही सफेद भी हो जाते हैं।

कई बार अपने व्यक्तिगत नुकसान से मनुष्य इतना व्याकुल हो जाता है कि समान्य जीवन से विरक्त शोकाकुल हो उठता है, जिसकी वजह से वह अनेक शारीरिक- मानसिक कष्ट उठाता है जिसके परिणाम स्वरूप स्मरण शक्ति का ह्रास, नेत्रों की ज्योति का ह्रास, गठिया, पत्थरी आदि रोगों का भय बढ़ जाता है। इसी प्रकार अन्य आवेश जैसे ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिहिंसा आदि के भी बहुत भयंकर दुष्प्रभाव होते हैं, दमा, कुष्ठ रोग आदि बीमारियों का भय बढ़ जाता है। अतः चिंताओं, आवेशों से शारीरिक-मानसिक कार्य क्षमता तो प्रभावित होती ही है, मनुष्य शारीरिक-मानसिक रूप से जर्जर भी हो जाता है। कई बारचिंता ही मृत्यु का कारण बन जाती है। 

अतः मन को संयमित रख कर इन्द्रियों पर काबू रखना अत्याधिक आवश्यक है। विवेक बुद्धि द्वारा ही मन पर काबू रखा जा सकता है। विवेक बुद्धि सजग एवं प्रखर रहे इसके लिये ‘आकुलता (बेचैनी) का नाश अनिवार्य है। यह इस तरह भी स्पष्टतः समझा जा सकता है कि स्थिर जल में ही प्रतिबिंब ठहर सकता है एवं दृष्टि गोचर होता है, हिलते हुए जल में न तो छवि बन सकती है और न ही ठहर सकती है। ठीक उसी तरह व्याकुल एवं अस्थिर मन में विवेक बुद्धि का पनपना एवं ठहरना असंभव होता है इसलिए मन की स्थिरता अति आवश्यक है। 

गुरुदेव’ लिखते हैं कि हमारे आध्यात्मिक ग्रंथ पग पग पर निर्देश देते हैं कि मन की डोर को कसना, चित्त को एकाग्र करना नितांत आवश्यक है। मन को वश में करने का साधारण भाषा में अर्थ हुआ ‘आकुलता’ को वश में करना यानि निराकुलता बनाये रखना ही है। निराकुलता योग आसनों से सम्भव है। आवेश-आकुलता सुख प्रधान एवं दुःख प्रधान दोनों ही तरह के हो सकते हैं, जैसे शोक, हानि, विछोह, रोग, दण्ड, विपत्ति, क्रोध, अपमान, कायरता आदि हानि प्रद आवेश हैं। इनके विपरित लाभ, सम्पत्ति, मिलन, कुटुंब, बल, सत्ता, पद, धन, मैत्री, बुद्धि, कला आदि लाभ प्रद आवेश हैं, किन्तु दोनों प्रकार के आवेश हानि ही पहुँचाते हैं, क्योंकि दोनों प्रकार के आवेश मन में उथल पुथल मचा देते हैं, अतः आवेशों के कारण मन में अशांति बनी रहती है। हर परिस्थिति में आवेशों से बचना नितांत आवश्यक है, क्योंकि आवेशों से विवेक एवं स्वास्थ्य दोनों की हानि होती है, यही कारण है कि गीता आदि आध्यात्मिक ग्रंथों में आवेशों से दूर रहने का बारम्बार प्रतिपादन किया गया है।

गुरुदेव ने हमारा मार्ग प्रशस्त करते हुए कहा है कि हमें अपने जीवन को समुन्नत बनाने के लिये गम्भीर स्वभाव अपनाना चाहिए। चंचल,उथला स्वभाव मनुष्य के लिए हानिकारक होता है, ऐसे स्वभाव का आदमी न तो अपना भला कर सकता है और न ही अपने परिवार या समाज का ही हित कर सकता है। आवेशों की तुलना हम समुद्र में उठने वाली लहरों से कर सकते हैं, लहरें कितने ही वेग से आकर समुद्र के किनारे खड़े पर्वतों से टकराती हैं, किन्तु वह पर्वत जरा भी विचलित नहीं होता है, धीर-गम्भीर खड़ा रहता है। वही स्थिरता, गम्भीरता मनुष्य को अपने जीवन में भी अपनानी आवश्यक है। 

एक खिलाड़ी के उदाहरण से भी इसे समझा जा सकता है। जब खिलाड़ी खेलते हैं, खेल के उतार-चढ़ाव को झेलते हुए खेल के अंतिम पड़ाव तक पहुँचते हैं। यह तो निश्चित होता है कि एक खिलाड़ी जीतेगा और एक हारेगा। जो खिलाड़ी हारता है, वह एक झिझक की मुस्कराहट के साथ अपनी हार स्वीकारता है एवं जीतने वाले खिलाड़ी के चेहरे पर जीत की मुस्कराहट होती है। इस थोड़े से भेद के अलावा देखने वालों को और कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता है। हम सब इस विश्वरुपी रंगमंच पर खिलाड़ी ही तो हैं। हमें हार-जीत दोनों रस के लिये तैयार रहना चाहिए। जीत में हर्ष से फूलना भी नहीं चाहिए और हार से स्वयं को कमतर भी नहीं आंकना चाहिये।

गुरुदेव लिखते हैं कि मनोवृतियों (attitude) का सदुपयोग करना चाहिए। परमात्मा ने सारी इन्द्रियां मनुष्य को जीवन को सुचारु ढंग से चलाने के लिये दी हैं। यदि मनुष्य अपनी मनोवृतियों को साध कर अर्थात्‌ आवेशों से दूर होकर मनोवृतियों द्वारा अपनी इंद्रियों का सदुपयोग करेगा तो उसे लाभ ही लाभ होगा, हानि असम्भव है। 

मनुष्य को हानि इंद्रियों से नहीं बल्कि उसके असंयमित उपयोग या दुरुपयोग से होती है। अक्सर सुनने में आता है कि कामवृति त्याज्य है, त्यागने योग्य है, पाप मूलक है, घृणित है। किंतु यह सत्य नहीं है, यदि यह मनुष्य के लिए हानिकारक होती तो परमात्मा इसे मनुष्य को देता ही नहीं। सृष्टि सृजन के लिए यह वृति आवश्यक तो है ही, साथ ही मनुष्य के व्यक्तित्व संतुलन के लिये भी महत्वपूर्ण है। हम समझ सकते हैं कि काम की सोच और क्रिया यदि अनुचित होती तब यह सत्पुरुषों द्वारा कदापि ग्रहण करने योग्य न होती और यदि यह गलत होती तो इसका परिणाम कैसे अच्छा हो सकता है। विश्व में असंख्य पैगंबर, ऋषि,अवतारी, महात्मा, तपस्वी, विद्वान, महापुरुष, अविष्कारक हुए हैं; यह सब माता-पिता के सन्योग से ही तो उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने भी विवाहित जीवन ही व्यतीत किया है। व्यास, अत्रि, गौतम, वशिष्ठ, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य, भारद्वाज आदि सभी ऋषि सपत्नीक रहते थे तथा इन्होने भी संतानोत्पत्ति की। अतः काम कोई बुरी सोच या क्रिया नहीं है किंतु उसका दुरुपयोग या अधिकता अवश्य हानिकारक होती है। 

जीवन में कामक्रिया का उपयोग जीवन में संतुलन बनाये रखने एवं सृजन हेतु सर्वथा उपयुक्त है किंतु इसे एक आदत बना लेना या नित्य भोजन, पानी की तरह सेवन करना या उम्र, रिश्ते का लिहाज किये बिना उपयोग करना सर्वथा अनुचित कहा जायेगा। गुरुदेव एवं अन्य दिव्य जनों का मत रहा है कि संतानोत्पत्ति के बाद काम क्रिया पर रोक लगाना सर्वथा उपयुक्त है। पत्नि को अपनी सहभागी, सहयोगी मानकर व्यवहार रखना चाहिए न कि भोग्या के रूप में समझना चाहिए। अपने आस पास कई उदाहरण देखने को मिल जायेंगें, जहाँ कामवासना के वशीभूत होकर रिश्ते को सही ढंग से नहीं निभाया जाता है। एक सोच के गलत उपयोग से, एक इंद्रिय के गलत उपयोग से पति-पत्नि के आपसी संबंध कलह पूर्ण हो जाते हैं एवं यह नासमझी उनकी गृहस्थी एवं जीवन को बर्बादी की ओर ले जाती है। अतः आवश्यकता है मनोवृतियों पर काबू रख कर काम वृति का सही ढंग से उपयोग किया जाये।

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव

हर बार की तरह आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। 

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ऑडियो बुक देखने के उपरांत केवल दो सहकर्मी सरविन्द पाल जी और संध्या कुमार जी 24 आहुति संकल्प पूरा करने में समर्थ हो पाए। सरविन्द जी 31 अंक प्राप्त करते हुए गोल्ड मैडल विजेता घोषित किये जाते हैं। सभी सहकर्मी अपनी अपनी समर्था और समय के अनुसार expectation से ऊपर ही कार्य कर रहे हैं जिन्हे हम हृदय से नमन करते हैं और आभार व्यक्त करते हैं। धन्यवाद् 

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