वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

बुद्धि रूपी सन्तरी से होता मन रुपी शत्रु परास्त 

21 फरवरी 2022 का ज्ञानप्रसाद- बुद्धि रूपी सन्तरी से होता मन रुपी शत्रु परास्त 

परम पूज्य गुरुदेव द्वारा लिखित लघु पुस्तिका “इन्द्रिय संयम का महत्त्व” पर आधारित आदरणीय संध्या कुमार जी की लेख श्रृंखला का यह द्वितीय पार्ट है। प्रथम पार्ट में गुरु शिष्य की कथा को बहुत सराहना मिली जिससे प्रेरित होकर आज के ज्ञानप्रसाद में भी हमने भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन की एक कथा शामिल की है। यह कथा मन को कण्ट्रोल करने के लिए आध्यात्मिकता की आवश्यकता के बारे में मार्गदर्शन प्रदान कर सकती है। सहकर्मियों के लेखों को अलग-अलग साइट्स के नियम अनुसार एडिटिंग तो करनी ही होती है, हम भी अपना अल्पज्ञान ऐड करने का साहस करते हैं। इस प्रक्रिया में इस बात का पूर्ण ख्याल रखा जाता है कि ओरिजिनल कंटेंट के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ न हो। 

24 आहुति संकल्प पर हमने काफी चिंतन-मंथन किया है, कुछ सार्थक विचार आये भी हैं लेकिन अभी कुछ और चिंतन की आवश्यकता है। तो आइये देखें मनरूपी शत्रु और विवेक-बुद्धि रुपी सिक्योरिटी गार्ड के बीच चल रहे घोर युद्ध का analysis करें। *******************************      

मन इधर-उधर ना भटके इसके लिए उस पर कड़ी निगरानी रखनी होती है, जिस तरह से एक सन्तरी security guard सजगता-सतर्कता से अपने शत्रु पर निगरानी रखता है कि शत्रु न जाने किस ओर से आक्रमण कर दे, अतः वह शत्रु को परास्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। 

मन के सिक्योरिटी गार्ड विवेक और बुद्धि हैं जिन्हे जागृत रख कर हम अपने मन को उस प्रलोभन से दूर रख सकते हैं जिनके प्रति हम आकृष्ट होते हैं। हमारे लिए एक ही बात श्रेयस्कर है – मन रूपी शत्रु को विपरीत दिशा में लाने को प्रेरित करना।

मन को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु माना गया है, वासना और कुविचारों में मन के भटकने पर बड़े से बड़े संयमी को भी पथभृष्ट होते देखा गया है, अतः बलपूर्वक मन को भटकने से रोकना ही श्रेयस्कर है, यदि जरा सी चंचलता में मनुष्य बहक कर भटक गया तो मनुष्य के चरित्र, आदर्श, संयम, नैतिक दृढ़ता, धर्म इत्यादि सबको तोड़ मरोड़ कर भृष्ट कर देता है। 

यह सर्वथा सिद्ध है कि मन खाली नहीं बैठ सकता है, अतः आवश्यक है कि मनुष्य उसे किसी नेक विचार य कार्य में व्यस्त रखे। यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह उसे किस तरह के विचार एवम कार्य में व्यस्त रखता है। यदि मनुष्य अपने मन को शुभ, समुन्नत, रचनात्मक कार्यों में लगाता है तब वह उत्तम कार्यों में ही व्यस्त रहने लगेगा। इस तरह उत्तम कार्यों में लगे रहने के कारण मन अपने स्वामी का व्यक्तित्व एवं जीवन उन्नत बनाने में सहायक रहेगा, किन्तु यदि उसे उत्तम विचारों में नहीं लगाया गया तब वह स्वत: निम्नस्तर के कार्यों एवं विचारों में फंस कर मनुष्य के जीवन एवं व्यक्तित्व को दिग्भ्रमित ही कर देगा।

भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है कि मन को संयमित न करने वालों का पतन निश्चित है। ऐसे मनुष्य को वैराग्य अभ्यास द्वारा स्वयं को परिष्कृत करते हुए परमात्मा में मग्न होकर भटकन से बचना होगा। प्रलोभन से बचने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने वैराग्य एवं शुभ चिंतन पर पूरा महत्त्व दिया है, इनके माध्यम से मन को प्रलोभन से बचाया जा सकता है। 

वासनाओं को जीतने के लिये आध्यात्मिक चिंतन अनिवार्य है। परम पूज्य गुरुदेव ने भी कहा है कि आध्यात्मिक चिंतन द्वारा मन को बांधा जा सकता है। मन जब अनुराग में लग जाता है, तब सुख-दुःख अधिक झेलने पड़ते हैं। 

किसी के पास बहुत अधिक धन होने से वह धनवान नहीं हो जाता, बल्कि जिसका हृदय बड़ा होता है, वही असली धनवान होता है । हृदय होने बड़ा से मतलब है – “दूसरों को खुश देखकर खुश होना और दूसरोँ को दुःखी देखकर दुःखी होना ।” जब आपकी करुणा जाग पड़े तो समझो, कि आप असली धनवान बनने की राह पर अग्रसर है । फिर चाहे आप भौतिक रूप से कंगाली का जीवन ही व्यतीत क्यों न कर रहे हों  क्योंकि जब आप दूसरों के बारे में सोचते हैं , तब ईश्वर आपके बारे में सोच रहा होता है। यह बात कहने – सुनने में भले ही अजीब लगे किन्तु इस कहानी से आप इसे हृदयंगम कर सकेंगे।

कहानी कुछ इस प्रकार है :

 एक बार भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन नगर का भ्रमण कर रहे थे, देख रहे थे कि नगर में सब कुशल-मंगल तो है। तभी उन्हें एक ब्राह्मण भिक्षा मांगते हुए दिखाई दिया। ब्राह्मण देवता को भिक्षा मांगते हुए देखकर अर्जुन को उस पर दया आ गई । अर्जुन ने सोचा, मुझे ब्राह्मण की सहायता करनी चाहिए और उन्होंने उसे स्वर्ण मुद्राओं से भरी एक पोटली भेंट की। 

स्वर्ण मुद्राओं की पोटली पाकर ब्राह्मण बड़ा खुश हुआ। अर्जुन को धन्यवाद देता हुआ वह सुन्दर भविष्य के स्वप्न संजोने लगा। सपनों की दुनिया में खोया हुआ ब्राह्मण अपने घर लौट ही रहा था, तभी रास्ते में उसे प्यास लगी। पास ही एक कुआँ था अतः अपनी पोटली को एक तरफ रखकर ब्राह्मण ने कुएं से पानी खींचना शुरू किया। तभी दुर्भाग्य से एक लुटेरा (जो काफी समय से मौके की तलाश में उसका पीछा कर रहा था) वहाँ आया और झट से पोटली लेकर भाग गया। ब्राह्मण कुछ करता उससे पहले ही लुटेरा भाग चुका था। रो- धोकर ब्राह्मण फिर से भिक्षा मांगने लगा।

अगले दिन फिर से श्रीकृष्ण और अर्जुन नगर भ्रमण को निकले। इस बार फिर उन्होंने उस ब्राह्मण को भिक्षा मांगते हुए देखा। आश्चर्य से देखते हुए अर्जुन उस ब्राह्मण के पास गये और भिक्षा मांगने का कारण पूछा। ब्राह्मण ने अपना सारा दुखड़ा सुना दिया।

ब्राहमण की व्यथा और वेदना जानकर अर्जुन बड़ा दुखी हुए। इस बार अर्जुन ने ब्राह्मण की सहायता में एक बेशकीमती माणिक्य भेंट किया। बेशकीमती माणिक्य पाकर ब्राह्मण की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। अर्जुन को बहुत – बहुत धन्यवाद देकर वह माणिक्य को सबकी नज़रों से छुपाते हुए वह अपने घर पहुंचा । ब्राह्मण ने सोचा -इसे ऐसी जगह छुपाना चाहिए जहाँ यह एकदम सुरक्षित रहे। अतः उसने अपने घर में रखे एक पुराने घड़े में माणिक्य को छुपा दिया । माणिक्य को सुरक्षित स्थान पर रखकर उसने चैन की साँस ली । दिनभर की दौड़ धुप से वह बहुत थक चुका था अतः घोड़े बेचकर सो गया। उस समय उसकी पत्नी पानी लेने गई थी अतः यह बात वह उसे बताना भूल गया । दुर्भाग्य से उसी दिन उसकी पत्नी के हाथ से नदी से पानी लेकर आते हुए रास्ते में घड़ा टूट गया । अतः वह वापस घर आयी और पुराना घड़ा लेकर पानी लेने चली गई । उसे नहीं मालूम था कि इस पुराने घड़े में माणिक्य रखा हुआ है, उसने पानी लेकर धोने के लिए जैसे ही घड़े को उल्टा किया, माणिक्य निकलकर नदी की धार में बह गया।

जब ब्राह्मण नींद से जागा तो घड़े को यथास्थान न देखकर अपनी पत्नी से पूछने लगा । जब पत्नी ने सारा हाल बताया तो वह सिर पकड़कर बैठ गया । अपने दुर्भाग्य का रोना रोकर दुसरे दिन फिर से वह भिक्षा के लिए निकल पड़ा।

अगले दिन फिर जब श्रीकृष्ण और अर्जुन नगर भ्रमण के लिए निकले तो उन्होंने फिर से ब्राह्मण को भिक्षा मांगते हुए दरिद्र अवस्था में देखा । इस बार फिर अर्जुन उसके निकट गया और कारण पूछा तो ब्राह्मण ने सारा वृतांत बताकर अपने दुर्भाग्य का रोना रोया ।

अब तो अर्जुन ने भी सोच लिया कि इस ब्राह्मण की किस्मत ही खराब है, इसके जीवन में सुख है ही नहीं। तभी श्रीकृष्ण वहाँ आये और उन्होंने ब्राह्मण को दो पैसे भेंट किये । यह देखकर अर्जुन हँसते हुए बोला- “हे केशव ! जब मेरी दी हुई मुद्राएँ और माणिक्य इस अभागे की दरिद्री नहीं मिटा सके तो आपके दो पैसे से इसका क्या भला होगा ?”

यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराये और बोले – ” चलो ! इसके पीछे चलकर ही देख लेते है, क्या होता है ?” अब ब्राह्मण बिचारा रास्ते में सोचता जा रहा था कि “दो पैसे से तो किसी एक व्यक्ति के लिए भोजन भी नहीं आता, पता नहीं प्रभु ने मुझे ऐसा तुच्छ दान क्यों कर दिया होगा ?” ऐसा विचार करके वह जा ही रहा था कि तभी उसे रास्ते में एक मछुआरा दिखाई दिया । ब्राह्मण ने देखा कि मछुआरे के जाल में एक नन्ही मछली फंसी हुई है, जो छूटने के लिए बहुत तड़प रही थी । ब्राह्मण को उस नन्ही मछली पर दया आ गई । ब्राहमण ने सोचा – ” इन दो पैसों से और तो कुछ होना है नहीं, इस मछली की ही जान बचा देता हूँ ।” ब्राह्मण की करुणा जाग पड़ी और उसने मछुआरे से मछली खरीद ली और कमंडल में डाल ली। ब्राह्मण मछली को लेकर नदी में छोड़ने के लिए चल पड़ा 

ब्राह्मण मछली को लेकर बाजार से गुजर ही रहा था कि उसने देखा कि मछली के मुख से कुछ निकला । यह वही माणिक्य का था जो उसने पुराने घड़े में छुपाया था। माणिक्य मिलने की खुशी में ब्राह्मण जोर-जोर से चिल्लाने लगा -” मिल गया, मिल गया, मिल गया !” तभी संयोग की बात है कि वह लुटेरा जिसने ब्राह्मण की मुद्राएँ लुटी थी, वह उसी बाजार में था । उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए देखा तो सोचा कि “निश्चय ही ब्राह्मण ने उसे पहचान लिया है, इसलिए चिल्ला रहा है। अब जाकर ब्राह्मण राज दरबार में शिकायत करेंगा ।” ऐसा सोचकर लुटेरा भय से कांपने लगा । लूटेरे ने क्षमा याचना ही उचित समझी। लुटेरा भय से कांपते हुए हाथ जोड़कर ब्राह्मण के पास गया और क्षमा याचना करते हुए सारी मुद्राएँ उसे लौटा दी ।

यह देखकर अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष नतमस्तक हो गये और बोले – ” प्रभु ये कैसी लीला है ? जो कार्य मेरी दो स्वर्ण मुद्राएँ और माणिक्य नहीं कर सके वो आपके दिए दो पैसे ने कर दिखाया ।”

भगवान श्रीकृष्ण बोले – “हे अर्जुन ! उस समय में और इस समय में फर्क केवल ब्राह्मण की सोच का है। जब तुमने उस निर्धन ब्राह्मण को मुद्राएँ और माणिक्य दिए, तब उसने केवल अपने सुख के बारे में सोचा किन्तु जब मैंने उसे दो पैसे दिए तब उसने दुसरे के दुःख को दूर करने के विषय में सोचा। हे अर्जुन ! इस संसार का यह अटल नियम है कि जब इंसान केवल अपने बारे में सोचता है तो उसकी स्वार्थी सोच, स्वार्थी मनुष्यों को ही उसकी ओर आकर्षित करती है। इसके विपरीत जब मनुष्य दूसरों के दुःख को दूर करने के विषय में सोचता है तो ईश्वर सहित यह प्रकृति उसके दुःखों को दूर करने की चेष्टा करते है।”

प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि इस आध्यात्मिक नियम को हमेशा याद रखे और संसार में सुख और सामंजस स्थापित करने का ईश्वरीय कार्य करता रहे। जब हम दूसरों के बारे में सोचते है तो ईश्वर हमारे साथ होता है।

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24 आहुति संकल्प सूची :

19  फ़रवरी 2022 के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने के उपरांत इस बार आनलाइन ज्ञानरथ परिवार के 8 समर्पित साधकों ने 24 आहुति संकल्प पूर्ण किया है। यह समर्पित साधक निम्नलिखित है :

(1) प्रेरणा कुमारी -24, (2 )रजत कुमार सारंगी-24,(3 )अरुण वर्मा-38 ,(4 )निशा भारद्वाज-25,(5 ) सरविन्द पाल-29,(6) संध्या कुमार-29,(7 )रेनू श्रीवास्तव-28,(8) पूनम कुमारी-25, 

इस पुनीत कार्य के लिए सभी युगसैनिक बहुत-बहुत बधाई के पात्र हैं और अरुण वर्मा जी आज के  गोल्ड मैडल विजेता हैं। 

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