4 फरवरी 2022 का ज्ञानप्रसाद- आने वाले कार्यों के लिए हमारा एक शरीर काफी नहीं।
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ऑनलाइन ज्ञानरथ के स्तम्भ – शिष्टाचार, आदर, सम्मान, श्रद्धा, समर्पण, सहकारिता, सहानुभूति, सद्भावना, अनुशासन, निष्ठा, विश्वास, आस्था, प्रेम, स्नेह, नियमितता
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मार्च 1969 की अखंड ज्योति पर आधारित लेखों की श्रृंखला का तीसरा व अंतिम लेख आपके समक्ष प्रस्तुत है।आज के लेख में गुरुदेव के पांचवें अति महत्वपूर्ण कार्य का वर्णन है, पांच शरीरों से कार्य करने का वर्णन है,युगतीर्थ शांतिकुंज की स्थापना का वर्णन है, वंदनीय माता जी को दादा गुरु द्वारा दिए अत्यंत दुर्लभ परमर्श का वर्णन है। हम सदैव ही लेख के महत्वपूर्ण तथ्य हैडिंग देकर कोलन(:) से अलग करते हैं, या inverted commas ( “ “ ) में लिखते हैं उसी तरह आज भी अलग ही हैं ताकि सहकर्मियों को ढूंढने में कोई कठिनाई न हो। यूट्यूब की word processing limitation के कारण,highlight,colours, bold, italics वगैरह की सुविधा नहीं है।
आज का ज्ञानप्रसाद आरम्भ करने से पूर्व हम अपनी प्रसन्नता आपके साथ शेयर कर रहे हैं कि कल शनिवार से अनुभूतियों की श्रृंखला आरम्भ हो रही है। हमें पूर्ण विश्वास है कि इन अनुभूतियों से अनेकों सहकर्मियों को मार्गदर्शन मिलने की सम्भावना है और जो हमारे गुरुदेव की शक्ति को नहीं पहचानते उनके लिए एक eye opener हो सकती हैं।
तो आइये अब सब इक्क्ठे होकर श्रद्धा पूर्वक ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करें।
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(5) हमारी अन्त स्थिति कुछ ऐसी है कि जिनका रत्ती भर भी स्नेह हमें मिला है, उनके प्रति पर्वत जितनी ममता सहज ही उमड़ती है। गत 18 वर्षा में हमने एक विशाल भव्य परिवार बना लिया है। गायत्री परिवार और युग-निर्माण परिवार के माध्यम से तथा व्यक्तिगत स्नेह सम्पर्क से अनेक परिजन हमारे आस-पास इकट्ठे हो गये है और सहज स्वभाव इनमें इतना मोह जुड़ गया है कि उसमें तनिक सी शिथिलता आने की घड़ी में हमारी मनोभूमि चरमरा उठती है। अखण्ड-ज्योति के गत दो अंक में अपना उफान व्यक्त करके चित्त थोड़ा हल्का कर लिया गया है, अन्यथा कुछ दिनों ऐसा लगता रहा कि विकलता से हमारे सिर की कोई नस फूट जाएगी। हमारे लिये यह एक तत्काल उपचार था। अब चित्त थोड़ा हल्का हुआ है। फिर भी हमारी प्रकृति तो बदल नहीं गई। जो हमें श्रद्धा,सद्भावना, आत्मीयता एवं क्षमता की दृष्टि से देखते है, देखेंगे, प्यार करते हैं, प्यार करेंगे, उनसे विमुख नहीं हो सकते। उनके साथ भी सम्पर्क किसी न किसी रूप से बनाये रखना है।
विशेषतया हमारा मोह उनके प्रति है, जो आयु की दृष्टि से बड़े हो जाने पर “मनःस्थिति के अनुसार बालक मात्र हैं।” जो जरा-जरा-सी कठिनाइयों को बढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं, तनिक-सी आपत्ति आने पर घबरा जाते हैं । प्रगति के लिये जिन्हें अपनी शक्ति अपवित्र दिखती है, जिन्हें भय और निराशा घेरे रहती है। ऐसे बालक हमारे पास सहायता के लिये सदा दौड़ते रहे हैं, हम उन्हें धमकाते, समझाते तो रहे हैं पर साथ ही यदि कुछ पास में रहा है तो देने में भी कंजूसी नहीं की है। यह सहारा तकने वाले कमजोर और छोटे बालक हमारी अपेक्षा के नहीं, वात्सल्य के ही अधिकारी रहे हैं । भले ही हम उनकी डर और परावलम्बी वृत्ति को जीवन अभियान में झिड़कते भी रहे हों। हमारे जाने का सबसे अधिक आघात इन बालकों को ही लगा है। उनकी कठिनाई वास्तविक है, इनकी उपेक्षा हमसे भी नहीं बन पड़ेंगी।
युगतीर्थ शांतिकुंज स्थापना की योजना:
सो एक मार्ग निकाल लिया गया है। माताजी-हमारी धर्मपत्नी भगवतीदेवी – उन्हें वही दुलार और सहायता देती रहेंगीं, जो अब तक हम देते रहे हैं। माताजी हिमालय और गंगातट पर एक ऐसे स्थान पर रहेंगी, जहाँ लोग उनसे संपर्क स्थापित कर सकें और हमारा सम्बन्ध भी उनसे बना रहे। हरिद्वार और ऋषिकेश के बीच गंगातट पर जहाँ सात ऋषि तप करते थे और गंगा की वह सात धारायें हैं, उस एकान्त भूभाग में डेढ़ एकड़ की एक छोटी-सी जमीन प्राप्त कर ली गई है और उसमें फलों के पेड़ लगा दिये गये हैं। खाने को फल, शाक, पहनने को दो क्यारी कपास जिसका सूत कात कर तन ढक लें , एक गाय जिससे अखण्ड दीपक को घी मिल जाय और छाछ आहार में प्रयुक्त होती रहें। एक कर्मचारी जो पेड़ पौधे और गाय संभालता रहे एवं रहने को चार कुटियाँ।
इस प्रकार की व्यवस्था वहीं बनाई जा रही है जो धीरे-धीरे ढ़ाई वर्ष में पूरी हो जायेगी। माताजी वहीं रहा करेंगी। जिस प्रकार हमारे 24 वर्षों तक पुरश्चरण चले, उनके भी चलते रहेंगे और जो शक्ति उन्हें प्राप्त होगी, उसे अभाव-ग्रस्त और राह-पीड़ित बालकों को बाँटते हुए अपना मातृत्व सफल करती रहेंगी। इस प्रयोजन के लिये माताजी की शक्ति कम पड़ेगी तो हम उसकी पूर्ति करेंगे। शोध-साधन से जो ज्ञान मिलेगा, उसे भी सर्वसाधारण के लिये माताजी के माध्यम से ही प्रस्तुत करते रहेंगे। इस प्रकार बदलाव के बावजूद भी अपने विशाल परिवार से हमारा सम्पर्क बना रहेगा और माताजी दोनों को जोड़ने वाली एक कड़ी के रूप में अपना कार्य पूरा करती रहेंगीं । सारे जीवनभर हम देते ही रहे हैं अच्छा नहीं लगता कि इस प्रवाह को अब बन्द कर दें। देने की अच्छी परम्परा को जारी रखें, उसके लिये यह माध्यम ढूँढ़ लिया गया है।
“हमारे मार्ग दर्शक ने माताजी को यह परामर्श दिया तो उन्होंने हर्ष भरे आंसुओं से शिरोधार्य ही किया। यद्यपि उन्हें अपने निज के बच्चे छोड़ते हुए हमारी तरह व्यथा होती है पर वे उसे हमारी तरह दूसरों के आगे प्रकट करने की आवश्यकता नहीं समझती। शरीर की ही तरह वे मन से भी निस्सन्देह हमसे अधिक भारी है।”
अगले दिनों के लिये हमारे पाँच कार्यक्रम है, जिनका उल्लेख ऊपर की पंक्तियों में कर दिया गया। अब तक जिन पाँच कार्यों में हमें 18 वर्ष लगाने पड़ें वे अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण थे पर आगे जो करने है, वे भी कम मूल्यवान नहीं है। उनकी अपनी उपयोगिता और महत्ता है। हमारे जीवन का ऐसा सदुपयोग होते देखकर हमें जो सन्तोष है, उससे स्वजनों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध छोड़ने की जो तीव्र तड़पन, बिरह-वेदना उठती है उसका एक हद तक समाधान किसी प्रकार हो ही जाता है। यद्यपि वह कसक बार-बार हमें बुरी तरह व्यथित और विचलित कर देती है।
पिछले दिनों जिन पाँच कार्यों को करते रहे हैं, उसके लिए यही एक शरीर काफी नहीं था, जो सबको दिखता है। इन प्रयोजनों के लिए हमें अपने पाँच कोशों में से पाँच ऐसे व्यक्तित्व उगाने पड़े हैं, जो दिखते तो इसी घोंसले में रहते हुए हैं पर काम अलग-अलग मोर्चों पर लड़ने वाले पाँच योद्धाओं जैसा करते हैं। आगे के काम चूँकि अधिक बड़े, अधिक भारी और अधिक श्रम साध्य हैं उनके लिये समर्थता भी अधिक चाहिये। प्रयत्न यही करेंगे कि
“अन्नमय कोश, मनोमय कोश, प्राणमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश इन पाँचों के अन्तराल में छिपी सामर्थ्य की और भी अधिक विकसित किया जाय, ताकि अधिक तीव्र शक्ति का उद्भव हो सके और उसके आधार पर सामने पड़े उत्तरदायित्वों का पर्वत उठाया जा सकना सम्भव बन सके।”
हमारा सौभाग्य :
उस सौभाग्य को हम कितना सराहें जिसने हमें पेट और प्रजनन के, तृष्णा और वासनाओं के, उस आकर्षण से बचा लिया, जो नर-पशुओं को भव-बन्धनों में बाँधे रहने के लिये लौह जंजीरों का काम करते हैं, जिनमें जकड़ा हुआ प्राणी असह्य प्रताड़नायें सहता हुआ, मानव-जीवन जैसे दुर्लभ अवसर को व्यर्थ विडम्बनाओं में गवाँ देता है। धन्य हैं, हमारे सौभाग्य जिसने हमें जीवनोद्देश्य के लिये कदम बढ़ाने का शौर्य और तथाकथित सम्बन्धी शुभ-चिन्तकों के मोह और अज्ञान भरे परामर्श, अनुरोध को ठुकरा देने का साहस प्रदान किया। “यदि भीतर से यह पात्रता न उगी होती तो मार्गदर्शक का अनुग्रह और भगवान् का आशीर्वाद कहाँ मिल सका होता। यह सौभाग्य जो हमारे ऊपर बरसा, हमारे भीतर से उगा, भगवान् करे हमारे सारे परिवार के ऊपर बरसे और हम सभी के भीतर से उगें एवं उपजें।
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव
हर बार की तरह आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।
24 आहुति संकल्प सूची :
3 फरवरी 2022 के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने के उपरांत परिवार के 9 समर्पित साधकों ने 24 आहुतियों का संकल्प पूर्ण कर हमारा मनोबल बढ़ाने का परमार्थ परायण कार्य किया है। इस पुनीत कार्य के लिए सभी युगसैनिक बहुत-बहुत बधाई के पात्र हैं और हम कामना करते हैं और परमपूज्य गुरुदेव की कृपा दृष्टि आप और आप सबके परिवार पर सदैव बनी रहे। वह देवतुल्य युगसैनिक निम्नलिखित हैं :
(1) सरविन्द कुमार पाल – 35 , (2) अरूण कुमार वर्मा जी – 35, (3) डा.अरुन त्रिखा जी – 31, (4) रेनू श्रीवास्तव बहन जी – 29, (5) संध्या बहन जी – 29, (6) निशा भारद्वाज बहन जी – 28, (7) संजना कुमारी बिटिया रानी – 28, (8) प्रेरणा कुमारी बिटिया रानी – 26, (9) निशा दीक्षित बहन जी – 25
आज के 24 आहुति संकल्प में सरविन्द पाल जी और अरुण वर्मा जी 35 अंक प्राप्त कर bracketed हैं। दोनों विजेता हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई स्वीकार करें ।