वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

प्राणतत्व और प्रेमतत्व में क्या अंतर् है ?

17 जनवरी 2022 का ज्ञानप्रसाद – प्राणतत्व और प्रेमतत्व में क्या अंतर् है ?

विश्व भर में weekend की छुट्टी के बाद  सोमवार  को एक बार फिर अपने काम पर जाने को Monday Blues की परिभाषा दी गयी है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें हमारा काम पर जाने को मन नहीं करता,सुस्ती और कामचोरी करने को मन करता है। लेकिन हम पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते हैं कि ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार में एक भी विद्यार्थी ढूंढने पर नहीं मिलेगा जो Monday Blues से ग्रस्त है।  हम इतने बलपूर्वक इसलिए कह रहे हैं कि हमारे कुछ एक  परिवारजन रविवार को भी सम्पर्क किये रहते है।  हर रविवार किसी न किसी से फ़ोन /वीडियो, व्हाट्सप्प पर सम्पर्क हो ही जाता है। हमें तो ऐसा अनुभव होता है कि यह क्लास, यह सब्जेक्ट, यह विद्यार्थी ,यह अध्यापक(???) हैं ही इतने रोचक कि क्लास मिस करने की ,bunk मारने की बात सोचना ही व्यर्थ है। 

परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी का अमृतपान करना हमारा परम सौभाग्य है।  इस ज्ञान का अध्यन करके स्वयं अंतरात्मा में धारण करना ,औरों को अमृतपान कराना बहुत ही पुण्य का कार्य है क्योंकि ब्रह्मदान का पुण्य अन्नदान के पुण्य से कई हज़ार गुना अधिक है। 

तो चलते हैं आज के ज्ञानप्रसाद की ओर।      

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प्राणतत्व और प्रेमतत्व:

शरीर में जब प्राण रहता है तो आँखों में देखने की, कानों में सुनने की, जीभ में चखने की, हाथों में कुछ करने की, पैरों में चलने की शक्ति बनी रहती है। भीतर के कल-पुर्जे दिल-दिमाग आँत, दाँत सभी अपना काम करते रहते हैं। किन्तु जब प्राण  शरीर को छोड़कर  चला जाता है, तब समस्त इन्द्रियाँ और कलपुर्ज़ों  की शक्ति समाप्त हो जाती है और वे कुछ ही समय में सड़-गलकर बग़ावत  करने लगते हैं । जिस प्रकार शरीर के क्रिया-कलाप में “प्राण-तत्त्व” (जीवनी शक्ति)  की महत्ता है, उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र में “प्रेम-तत्त्व” का आधिपत्य है। अन्तरंग क्षेत्र में प्रेम भावना का जितना प्रकाश और विकास हुआ होगा, उसी अनुपात से अन्य सद्गुण जिन्हें विभूतियाँ कहा जाता है, उगने और बढ़ने लगती हैं।

अपनी आत्मिक प्रगति ( spiritual progress ) का रहस्य बताते जाना आवश्यक था, सो इस लेखमाला में उसके पर्त क्रमशः खोलते चले जायेंगे और इन दो-ढाई वर्षों में जो कुछ कहना आवश्यक था, उसका अधिकांश भाग कह लेंगे। बहुत से अनुभव और निष्कर्ष हमने अपनी साठ वर्ष की जीवन साधना में एकत्रित किये हैं, यह उचित ही था कि उन्हें साथ ले जाने की अपेक्षा परिजनों के सामने खोलकर रख दिया जाये। हमने अपना भरा हुआ मन खाली करना आरम्भ कर दिया है, ताकि संचय का यह अन्तरंग भार भी हल्का हो जाय। ब्रह्म जीवन के भार तो समय-समय पर हल्के करते रहे हैं। जो शेष हैं  वे अगले दिनों हल्के कर देंगे।

हमारा जीवन और गायत्री उपासना पद्धति:  

हमारी ब्रह्म उपासना पद्धति में गायत्री पुरश्चरणों की लम्बी श्रृंखला का प्राधान्य रहा है। कितने वर्षों तक, कितनी संख्या में, किस विधान में, किन नियम-संयमों के साथ उस उपासना क्रम को चलाया जाता रहा, समयानुसार इसकी भी चर्चा करेंगे। इस समय तो तथ्य की उस आधार शिला पर ही प्रकाश डाल रहे हैं, जिसके बिना कोई पूजा पद्धति सफल नहीं होती और वह है  “अन्तःकरण की मूल स्थिति।” अंतःकरण की मूल स्थिति वह पृष्ठभूमि है, जिसको सहज बनाकर ही कोई उपासना लंबी हो सकती है। उपासना का अर्थ है  “बीज बोना” और “अन्तःभूमि की परिष्कृत जमीन ठीक करना”। बीज बोने से फसल उगती है, यह बात सही है पर यह और भी सही है कि अच्छी जमीन जिसमें खाद, पानी, जुताई, गुड़ाई, निराई, रखवाली आदि की समुचित व्यवस्था की गई हो, किसी बीज को अंकुरित और फलित करने में समर्थ हो सकती है। इन दिनों लोग यह भूल करते हैं, वे “उपासना विधानों और कर्मकाण्डों” को ही सब कुछ समझ लेते है और अपनी मनोभूमि परिष्कृत करने की ओर ध्यान नहीं देते। पथरीली, सूखी, खारी, ऊसर धरती में अच्छे बीज भी नहीं उगते। फिर बिगड़ी हुई मनोभूमि में कोई उपासना क्यों कर फलवती होगी? यह सही नहीं कि केवल भजन मात्र से मनोभूमि शुद्ध हो जाती है। यदि यह मान्यता सही रही होती तो भारत के  56 लाख सन्त-महन्त आज प्राचीन- काल के सात ऋषियों की तुलना में 8 लाख गुना प्रकाश उत्पन्न कर सकने  में समर्थ हो गये होते। देखा यह जाता है कि बहुत भजन करने पर भी वे सामान्य किसान-मज़दूर  की तुलना में आत्मिक दृष्टि से पिछड़े हुए है। इन उदाहरणों को देखते हुए यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि उपासना का प्रतिफल तभी मिल सकता है जब मनोभूमि का विकास तदनुरूप हो। रामकृष्ण परमहंस को माँ काली की प्रतिमा अपने अस्तित्व का पग-पग पर परिचय देती थी पर उसी मन्दिर के अन्य पुजारी जो दिन रात सेवा-पूजा में लगे रहते थे, कुछ भी अनुभव नहीं कर  पाते थे । मीरा के गिरधर गोपाल उनके साथ नाचते थे पर वह प्रतिमा आज भी उसी तरह विद्यमान होने पर भी कोई अलौकिकता प्रकट नहीं करती। उसमें महत्व प्रतिमा या उपासना का नहीं, गरिमा “साधक की मनोभूमि” की है। सो लोग उसी की उपेक्षा कर बैठे, फिर शास्त्रोक्त परिणाम कैसे मिले।

उपासना विधान की त्रुटियों से कुछ भी नहीं बिगड़ता:  

हमारी गायत्री उपासना जिस सीमा तक सुलभ हो सकी, उसमें प्रधान कारण यह था कि अपने मार्ग दर्शक ने गायत्री पुरश्चरणों का विधान बताने ओर आरम्भ कराने से पूर्व मनोभूमि के परिष्कार की बात बहुत जोर देकर समझाई और कहा “उपासना विधान” में रही त्रुटियों से कुछ बहुत बिगड़ने वाला नहीं है पर यदि भावनात्मक स्तर को ऊँचा न उठाया गया तो सारा श्रम निष्फल चला जायेगा। गन्दी और संकीर्ण मनोभूमि वाले साधक बहुत हाथ-पैर पीटते रहने पर भी खाली हाथ रहते है और असफलता ही पाते है, किन्तु जो अन्तःकरण को परिष्कृत करते चलते है, उनकी साधना लहलहाती फसल की तरह उगती, बढ़ती और फलवती होती है, इसलिये हमें उस ओर पूरी सतर्कता और अभिरुचि के साथ प्रयत्नशील रहना होगा वैसा ही हमने किया भी। मनोभूमि के परिष्कार में जो सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है, वह है “अन्तःकरण में प्रेम-तत्त्व का अभिवर्धन।”  उपनिषदकार ने ईश्वर के भावनात्मक स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा है-

रसो वै स:’ अर्थात्– प्रेम ही  परमात्मा  है, जिन प्रेम कियो तिन  प्रभु पायो  

सः  का प्रयोग यहाँ स्वयम्भू सृजक के लिए  किया गया है और रस उनकी सुन्दर रचना से मिला  आनन्द है। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय बन जाता है।

किसी व्यक्ति के कलेवर में परमात्मा ने कितने अंश में प्रवेश किया, उसकी परख करनी हो तो यह देखना होगी कि उसके अन्तःकरण में “प्रेम भावनाओं की उपस्थिति कितनी मात्रा में है।” थर्मामीटर से बुखार नापा जाता है और आत्मा का विकास प्रेम तत्त्व की मात्रा के अनुरूप समझा जाता है। जिसमें प्रेम भावना नहीं वह न तो आस्तिक है और न ईश्वर भक्त, न भजन जानता है, न पूजन। निष्ठुर, नीरस, सूखे, तीखे, स्वार्थी संकीर्ण,कड़वे, कर्कश, निन्दक, निर्दय प्रकृति के मनुष्यों को आत्मिक दृष्टि से नास्तिक  ही कहा जायेगा भले ही वे घण्टों पूजा-पाठ करते हों अथवा व्रत-उपासना स्नान -ध्यान तीर्थ-पूजन कथा-कीर्तन करने में घण्टों लगाते रहे हों।

अपने हाथ सही सिद्धान्त, सही मार्ग और सही प्रकाश आरम्भ से ही लग गया। मार्ग दर्शक ने पहले ही दिन सब कुछ बता दिया। उन्होंने कृपा करके सूक्ष्म शरीर में पधार कर अनुग्रह किया और 15 वर्ष की आयु में ही उस मार्ग पर लगा दिया, जिस पर चलने से ही आत्म-बल बढ़ता है और उस उपलब्धि के आधार पर ही जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिये आवश्यक प्रकाश मिलता है। बताया और सिखाया यह गया है कि प्रेम भावना के जितने बीजांकुर अन्तःकरण में विद्यमान है, उन्हें यत्न-पूर्वक संभालना, सींचना चाहिये। सांसारिक दृष्टि से घाटा दिखता हो तो भी इस भाव-सम्पदा को बढ़ाते चलना चाहिये। किसान बीज बोते समय खोता है पर अन्त में उसका यह विवेकपूर्ण त्याग और साहस उसे  घाटे में नहीं रहने देता। बीज की तुलना में बहुत गुना  उपलब्धि उसे बढ़िया फल  के रूप में समयानुसार मिल जाती है। अध्यात्म के इस मूलतत्त्व को हमने समझा और अपनाया।

प्रेम ही परमेश्वर  है: 

अपनी जीवन साधना की सफलता का जो आधार है, उनमें यह सर्वप्रथम और सर्वप्रधान है। प्रेम को हम परमेश्वर मानते हैं  और उसकी उपासना साधना में सतत मग्न रहने का प्रयत्न करते है। पूजा तो हमारी कुछ घण्टे की ही होती है पर लगन सोते-जागते यही लगी रहती है कि प्रेम का अमृत  चखाने  का कोई अवसर हाथ से जाने न पाये। यह वह उपक्रम है जो क्रमशः हमें प्रगति पथ पर  चलाने  से सफलता प्रदान करा  सका।

अभी थोड़ी देर पूर्व प्रकशित हुए  लेखों की श्रृंखला में परमपूज्य गुरुदेव द्वारा  विदाई की घड़ियाँ और उनकी  विरह वेदना  की  अभिव्यक्ति की चर्चा  की गयी थी। यह चर्चा करने का  कारण और आधार ऐसे  परिजनों  लिये समझ सकना बहुत ही कठिन है, जिनकी मनोभूमि सूखी और रूखी पड़ी है। उनके लिये यह एक मोहग्रस्त मनुष्य  का प्रलाप-विलाप भी हो सकता है पर वस्तुतः वैसी बात है नहीं। जब हम भौतिक दृष्टि से शरीर को भी अपना नहीं मानते, अपना ब्रह्म और अन्तरंग सर्वस्व उस समग्र सत्ता को सौंप चुके तो लोभ और मोह किसका? जीवन का  जब मृत्यु के साथ ही  विवाह कर  दिया तो विदाई और बिना विदाई में अन्तर क्या? भौतिक और लौकिक पैमाने के ओछे मीटर  से नापा जाय तो हमारी इन दिनों की व्यथा-वेदना अज्ञानी मोह-ग्रस्तों जैसी लगेगी, पर उस सब भूमिका का अनुमान लगा सकना  किसी के लिये सम्भव हो तो वह यही अनुभव करेगा कि किसी अपने  से बिछुड़न  “प्रेम-तत्त्व के उपासक” के लिये कितना तड़पन भरा होता है। इस रहस्य को समझने के लिये हमें मीरा का अध्ययन करना पड़ेगा।

क्रमशः जारी- To be continued 

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव

हर बार की तरह आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।

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24 आहुति संकल्प सूची :

15   जनवरी 2022 के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने के उपरांत इस  बार  आनलाइन ज्ञानरथ परिवार के 13   समर्पित साधकों ने 24 आहुतियों का संकल्प पूर्ण कर हम सबका उत्साहवर्धन व मार्गदर्शन कर मनोबल बढ़ाने का परमार्थ परायण कार्य किया है। इस पुनीत कार्य के लिए सभी युगसैनिक बहुत-बहुत बधाई के पात्र हैं और हम कामना करते हैं और परम पूज्य गुरुदेव की कृपा दृष्टि आप और आप सबके परिवार पर सदैव बनी रहे। वह देवतुल्य युगसैनिक निम्नलिखित हैं :

(1) सरविन्द कुमार पाल – 71, (2) संजना कुमारी बिटिया रानी – 35, (3) डा.अरुन त्रिखा जी – 32, (4) प्रेरणा कुमारी बिटिया रानी – 32, (5) रेणुका गंजीर बहन जी – 31, (6) रेनू श्रीवास्तव बहन जी – 30, (7) संध्या बहन जी – 30, (8) अरूण कुमार वर्मा जी – 28, (9) सुधा बर्नवाल बहन जी – 28, (10) रजत कुमार जी – 25, (11) पिंकी पाल बिटिया रानी – 24, (12) निशा भारद्वाज बहन जी – 24, (13) सुधा कुमारी बहन जी – 24

उक्त सभी सूझवान व समर्पित युग सैनिकों को आनलाइन ज्ञान रथ परिवार की तरफ से बहुत बहुत साधुवाद व हार्दिक शुभकामनाएँ व हार्दिक बधाई हो जिन्होंने आनलाइन ज्ञान रथ परिवार में 24 आहुति संकल्प पूर्ण कर आनलाइन ज्ञान रथ परिवार में विजय हासिल की है।  सरविन्द भाई साहिब  जी को एक  बार फिर 71 अंक  प्राप्त कर   स्वर्ण पदक जीतने  पर  हमारी  व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। जय गुरुदेव

हमारी दृष्टि में सभी सहकर्मी  विजेता ही हैं जो अपना अमूल्य योगदान  दे रहे हैं,धन्यवाद् जय गुरुदेव

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