15 जनवरी 2022 का ज्ञानप्रसाद -एक उल्लास भरी आकर्षक कथा गाथा का सुखान्त अन्त
आज का ज्ञानप्रसाद बहुत ही संक्षिप्त,केवल डेढ़ पन्नों का ही है क्योंकि गुरुदेव की मथुरा विदाई का अगला लेख कुछ अलग ही रोमांचकारी दिव्य सन्देश से परिपूर्ण है और उसे इसके साथ जोड़ना उचित नहीं है। रविवार को अवकाश होने के कारण उस दिव्य लेख के लिए हमारे सहकर्मियों को सोमवार की प्रातः तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
अलग-अलग शब्दों का प्रयोग करके, अलग-अलग उदाहरण देकर परमपूज्य गुरुदेव ने हम बच्चों को अपने ह्रदय की व्यथा व्यक्त करने का प्रयत्न किया है, तभी तो पंडित लीलापत शर्मा जी ने कहा था “मैंने आज तक ऐसा लेखक नहीं देखा है।” जिस मर्ज़ी पुस्तक को उठा लो, जब कभी भी, किसी भी पुस्तक का कोई भी पन्ना निकाल लो, चाहे उसे पहले कितनी भी बार पढ़ा हो, ऐसा डूब जाने को मन करता है कि समाप्त किये बिना उठा ही नहीं जा सकता।
विदाई के वर्तमान लेखों को हम कितने ही दिनों से पढ़ रहे हैं लेकिन हर लेख अपने में एक अद्भुत सन्देश और मार्गदर्शन देने की क्षमता रखता है। आज के लेख में गुरुदेव बताते हैं कि लोग समझते हैं कि हमारा सारा जीवन कष्टभरा और त्यागपूर्ण रहा है तो इस दुःखमय जीवन का अंत भी दुःखमय ही हो रहा है, परन्तु ऐसा है नहीं। ऐसा इसलिए नहीं है कि अभाव और कष्टों भरी जिन्दगी काटने में एक शूरवीर योद्धा जैसी अनुभूति होती है। निरन्तर उत्कृष्टता की गतिविधियों से भरा पूरा जीवन बाहर से दयनीय ही क्यों न लगे पर अंतर्मन में अपार सन्तोष में रहता है। हमारी अल्पबुद्धि इस स्थिति को एक माँ की स्थिति के साथ तुलना करने पर विवश कर रही है। अगर हम अपनी माँ के बारे में ही लिख दें तो अतिश्योक्ति न होगी। बहुत सवेर से लेकर देर रात तक परिवार के एक -एक सदस्य का ख्याल रखना, एक -एक की दिनचर्या की चिंता करनी, खाने की पसंद की,कपड़ों की पसदं की -लिस्ट इतनी लम्बी है कि शायद इसी पर लेख समाप्त हो जाये -लेकिन कभी भी जीवन को, दिनचर्या को दुःखमय नहीं समझा, उन्हें भी एक शूरवीर की भांति गर्व की अनुभूति होती रही थी -अवश्य ही हर माँ ऐसी ही होती है। तभी तो उसे भगवान् का दर्ज़ा दिया गया है। गुरुदेव ने अपने बच्चों को,हम सबको एक माँ का संरक्षण और दुलार ही प्रदान किया है। आइये हम सभी सहकर्मी ऐसे गुरु के चरणों में नतमस्तक होकर आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतामृतपान करें।
______________
एक उल्लास भरी आकर्षक कथा गाथा का सुखान्त अन्त
एक सुखान्त कहानी का दुखान्त अन्त हमें अभीष्ट नहीं । हमारा समस्त जीवन क्रम आरम्भ से ही सुखान्त बना है। आदर्शों की कल्पना, उनके प्रति अनन्य निष्ठा और तदनुकूल कार्य पद्धति मे निर्धारण और निर्धारित पथ पर कदम-कदम बढ़ते चलने का अविचल धैर्य एवं साहस, यही तो हमारी जीवन पद्धति है।
“इस पथ पर चलते हुए दूसरों की दृष्टि में हमें बहुत कष्ट सहने और बहुत त्याग करने पड़े हैं और अब अन्त भी ऐसे ही रोते रुलाते हो रहा है। इसलिये देखने वालों की समझ से यह गाथा दुःखान्त मानी जाने लगी है पर अपनी समझ में अलग है।”
आदर्शों की कल्पनायें मन में एक सिहरन और पुलकन उत्पन्न करती हैं। आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा रखकर दूसरों के विरोध, उपहास की चिन्ता न करते हुए, अभाव, कष्टों से भरी जिन्दगी काटने में एक शूरवीर योद्धा जैसी अनुभूति होती है। निरन्तर उत्कृष्टता की गतिविधियों से भरा पूरा जीवन बाहर से दयनीय ही क्यों न लगे पर अन्तर में अपार सन्तोष में रहता है।
अब तक इन्हीं अनुभूतियों के साथ सुखपूर्वक हँसते खेलते दिन काटते आये हैं और मानते रहे हैं कि हम संसार के गिने चुने लोगों की तरह सुखी हैं। अब अंत की विषम घड़ियाँ यो एक बार कलेजे को कपडा निचोड़ने की तरह ऐंठती है और अनायास ही रुलाई से कण्ठ भर देती हैं फिर भी इसके पीछे कोई विवशता नहीं है। महान उद्देश्य के लिये, लोक मंगल के लिए, नव निर्माण के लिए तिल- तिल करके अपने को गला देने में हमें असीम सन्तोष, अपार आनन्द और उच्चकोटि का गर्व अनुभव है। इस प्रकार यह एक उल्लास भरी
“आकर्षक कथा गाथा का सुखान्त अन्त ही है। इसे दुःखान्त न माना जाय।”
पुरुष की तरह हमारी आकृति ही बनाई है, कोई चमड़ी उधेड़ कर देख सके तो भीतर माता का हृदय लगा मिलेगा, जो करुणा, ममता, स्नेह और आत्मीयता से हिमालय की तरह निरन्तर गलते रहकर गंगा यमुना बहाता रहता है। इस दुर्बलता को मोह, ममता कहा तो जा सकता है पर निश्चय ही यह विवशता नहीं है। सहेलियों से बिछुड़ते हुए और पति के घर जाते हुए, जिस तरह किसी नव वधू की दुविधा भरी मनः स्थिति होती है, लगभग वैसी ही अपनी ही और रुधा कण्ठ एवं भावनाओं के उफान से उफनता अन्तःकरण लगभग उसी स्तर का है। रात को बिना कहे चुपचाप पत्थर की तरह चल खड़े होने का साहस अपने में नहीं, इस स्तर का वैराग्य अपने को मिला नहीं। इसे सौभाग्य, दुर्भाग्य जो भी कहा जाय कहना चाहिये।
अपनी सभी सहेलियों से एक बार छाती से छाती जुड़ाकर मिल लेने और हँस खेल कर बड़े होने की स्मृतियों को ताज़ा कर फफक-फफक कर रो लेने में लोक उपहास भले ही होता है पर अपना चित्त हल्का हो जाएगा, सो ही हम से बन पड़ रहा है। मनुष्य आखिर दुर्बलताओं से ही तो भरा है। अपने को हम एक नगण्य सा अति दुर्बल मानव प्राणी मात्र मानते रहे हैं। सो इन परिस्थितियों में हमारी दुर्बलतायें और भी अधिक स्पष्टतापूर्वक प्रकट हो रही हैं तो अच्छा ही है।
हमारा इतना जीवन परिवार की वृद्धि और विकास में लग गया। छोटे-छोटे बच्चों को उंगली पकड़कर चलना सिखाने से लेकर उनकी शिक्षा दीक्षा और सुव्यवस्थित जीवन श्रृंखला में पहुँचाने तक का जितना परिश्रम एक गृहस्थ को करना पड़ता है, उसी परिश्रम और भावना के साथ बड़े यत्नपूर्वक हम इस परिवार के विकास में लगे रहे हैं। पाल पोस कर बड़े किये हुए प्रिय परिजनों को यों छोड़कर चलना पड़ेगा, इसकी कभी कल्पना भी न की थी। यदि ऐसा पहले मालूम होता तो अपने बच्चो को समझाने बुझाने में जो सख्ती बरतनी पड़ी उसे पहले से ही कम करते और बदले में उन्हें अधिक स्नेह और प्यार देते चले आये होते। अब तो विदाई के क्षण समीप देखकर केवल रुलाई ही आती है कि अपने इस प्रिय परिवार को छोड़कर कैसे जायें ?
मन है कि अपने छोटे परिवार को अब जितना अधिक स्नेह, सद्भाव दे सकना सम्भव हो सके, दे लें । हंसने-खेलने,अपनी कहने, दूसरे की सुनने,सहानुभूति और सेवा के अधिकाधिक अवसर खोज निकालने मे शेष दो वर्षों को निकाल दें। इसी तरह यह थोड़ी सी अनमोल घड़ियाँ बीत सकें तो अच्छा है। महान मानवता की सेवा करने के लिए तो दो वर्ष बाद का सारा बचा खुचा ही जीवन पड़ा है। यह दिन तो अपने छोटे परिवार के लिए व्यय करने का मन है।
प्यार, प्यार, प्यार यही हमारा मन्त्र है। आत्मीयता, ममता, स्नेह और श्रद्धा यही हमारी उपासना है। सो बाकी दिनों में अब अपनों में अपनी बाते ही नहीं कहेंगे-अपनी सारी ममता भी उन पर उड़ेलते रहेंगे। शायद इससे परिजनों को भी कुछ सुखद अनुभूति मिले, प्रतिफल और प्रतिदान की आशा किये बिना हमारा भावना प्रवाह तो अविरल जारी ही रहेगा। परिजनों से परिपूर्ण स्नेह, यही इन पिछले दिनों का हमारा उपहार है, जिसे कोई भुला सके तो भुला दे। हम तो जब तक मस्तिष्क मे स्मृति और ह्रदय में भावना का स्पंदन विद्यमान है आजीवन उसे याद ही रखेंगे।
क्रमशः जारी- To be continued
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव
हर बार की तरह आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।
_______________________
24 आहुति संकल्प सूची :
14 जनवरी 2022 के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने के उपरांत इस बार आनलाइन ज्ञानरथ परिवार के 10 समर्पित साधकों ने 24 आहुतियों का संकल्प पूर्ण कर हम सबका उत्साहवर्धन व मार्गदर्शन कर मनोबल बढ़ाने का परमार्थ परायण कार्य किया है। इस पुनीत कार्य के लिए सभी युगसैनिक बहुत-बहुत बधाई के पात्र हैं और हम कामना करते हैं और परम पूज्य गुरुदेव की कृपा दृष्टि आप और आप सबके परिवार पर सदैव बनी रहे। वह देवतुल्य युगसैनिक निम्नलिखित हैं :
(1) रेनू श्रीवास्तव बहन जी – 30, (2) अरूण कुमार वर्मा जी – 50 , (3) संध्या बहन जी – 30 , (4) प्रेरणा कुमारी बिटिया रानी – 32 , (5) सरविन्द कुमार पाल – 51, (6 ) संजना कुमारी बिटिया रानी-46 , (7) रजत भाई साहिब -28 (8 ) डाअरुण त्रिखा-24 (9 )नीरा त्रिखा जी -25 (10 )सुमन लता बहिन जी -25
उक्त सभी सूझवान व समर्पित युग सैनिकों को आनलाइन ज्ञान रथ परिवार की तरफ से बहुत बहुत साधुवाद व हार्दिक शुभकामनाएँ व हार्दिक बधाई हो जिन्होंने आनलाइन ज्ञान रथ परिवार में 24 आहुति संकल्प पूर्ण कर आनलाइन ज्ञान रथ परिवार में विजय हासिल की है। सरविन्द भाई साहिब जी को इस बार स्वर्ण पदक प्राप्त करने पर हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। जय गुरुदेव
हमारी दृष्टि में सभी सहकर्मी विजेता ही हैं जो अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं,धन्यवाद् जय गुरुदेव