14 जनवरी 2022 का ज्ञानप्रसाद – ढ़ाई वर्ष बाद हमें निर्धारित तपश्चर्या के लिए जाना होगा
पिछले कुछ दिनों से हम सब 1969 की अखंड ज्योति में “विदाई की घड़ियां और हमारी व्यथा-वेदना” शीर्षक से प्रकाशित हुए लेखों का अध्यन कर रहे हैं, आपके कमैंट्स (जो communication का अद्भुत साधन हैं) इस तथ्य के साक्षी हैं कि इस विषय पर जितने भी लेख प्रकाशित हो जाएँ कम ही रहेगें। इसका कारण यह ही हो सकता है कि हम में से बहुतों को परमपूज्य गुरुदेव के साक्षात् दर्शन नहीं हो सके और लेखों की प्रस्तुति उनके लिए एक वरदान सिद्ध हो सकती है। गुरुदेव अपना ह्रदय खोल कर अपने बच्चों के आगे रख रहे हैं, अपनी वेदना तरह -तरह के उदाहरण देकर व्यक्त कर रहे हैं। तो आइये कल वाले लेख को आगे बढ़ाते हुए आज के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करें।
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ढ़ाई वर्ष बाद हमें निर्धारित तपश्चर्या के लिए जाना होगा
जिनके प्रति हमारी असीम श्रद्धा और अगाध भक्ति है, जिनके संकेतों पर पूरा जीवन निकल गया, अब इस जराजीर्ण शरीर को उनसे अलग करने की, अपना रास्ता अलग बनाने की बात सोची जाय? करना तो वही होगा जो नियति की आज्ञा है और इच्छा है, पर अपनी दुर्बलता का क्या करें ? जिनके असीम स्नेह जलाशय में स्वच्छन्द मछली की तरह क्रीड़ा कल्लोल करते हुए लम्बा जीवन बिता चुके, अब इस जलाशय से विलग होने की घड़ी भारी तड़पन उत्पन्न करती है। लगता है हम भी शायद ही इस स्थिति से कुछ ऊपर उठ पाये हैं।
अपना मन कितना ही इधर-उधर क्यों न होता हो, यह निश्चित है कि हमें ढ़ाई वर्ष बाद निर्धारित तपश्चर्या के लिए जाना होगा और शेष जीवन इस प्रकार बिताना होगा, जिसमे जन संपर्क के लिए स्थान न रहे। यों यह एक प्रकार से मृत्यु जैसी स्थिति है। पर सन्तोष इतना ही है कि वस्तुतः ऐसी बात होगी नहीं। हमें अभी कितने ही दिन और जीना है।
जन संपर्क के स्थूल आवरण मे शक्तियाँ बहुत व्यय होती रहती हैं, उन्हें बचा लेने पर हमारी सामर्थ्य अधिक बढ़ जायगी। सूक्ष्म शरीर तप साधना से परिपुष्ट होने पर और भी अधिक समर्थ बन सकेगा। तब आज की अपेक्षा अपने लिये और दूसरों के लिये अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकेंगे ।
यदि ऐसा न होता तो हमारी मार्गदर्शक शक्ति हमें वर्तमान उपयोगी कार्यक्रम और सरल जीवन प्रवाह से विरत न करती।
वियोग की घड़ियों में भी संतोष केवल इस बात का है कि दूसरे लोग भले ही शरीर समेत हमसे मिल न सकें पर जिन्हें अभीष्ट है उनके साथ भावनात्मक सम्बन्ध यथावत बना रहेगा वरन् सच पूछा जाय तो और भी अधिक बढ़ जाएगा, अति व्यस्तता और अल्प सामर्थ्य के कारण परिजनों के लिए जो अभी सम्भव नहीं हो पा रहा है, वह तब बहुत सरल हो जाएगा। शरीर की समीपता ही सान्निध्य का आधार नहीं होती। परदेश में रहने वाले भी अपने स्त्री पुत्रों के लिए बहुत कुछ सोचते/करते हैं। वियोग कई बार तो प्रेम को और भी अधिक प्रखर एवं प्रगाढ़ बनाता देखा गया है। ईश्वर भक्ति का आनन्द उसके अदृश्य रहने से सम्भव होता है, यदि वह अपने साथ भाई भतीजे की तरह रहने लगे तो शायद उसकी भी उपेक्षा अवज्ञा होने लगे।
अब न स्वर्ग जाने की इच्छा है, न मुक्ति पाने की
जो भी हो, हमारा अपना आन्तरिक ढाँचा एक विचित्र स्तर का बन चुका है और उसे आग्रहपूर्वक वैसा ही बनाये रखेंगें । सहृदय, ममता, स्नेह, आत्मीयता की प्रवृत्ति हमारे रोम-रोम मे कूट-कूट कर भरी है। यह इतनी सरल व सुखद है कि किसी भी मूल्य पर इसे छोड़ने की बात तो दूर, घटाना भी सम्भव न हो सकेगा। तुष्णा और वासना से छुटकारा पाने के नाम हम मुक्ति मानते रहे है। सो उसे प्राप्त कर चुके। उच्च आदर्शों के अनुरूप जीवन पद्धति बनाये रहने, दूसरों में केवल अच्छाई देखने और सबमें अपनी ही आत्मा देखकर असीम प्रेम करने की तीन धाराओं का संयुक्त स्वरूप हम स्वर्ग मानते रहे हैं । सो उसका रसास्वादन चिरकाल से हो रहा है। अब न स्वर्ग जाने की इच्छा है, न मुक्ति पाने की।
ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार, बुद्धि सिद्धि के लिए उनके अभाव में जो आकर्षण रहता है, वह भी लगभग समाप्त हो चुका। अपनी कुछ कामना ही नहीं। भावी तपश्चर्या के प्रयोजन उपरोक्त कारणों में से एक भी नहीं है। ऐसा वैराग्य जिसमे स्नेह सौजन्य से-अनन्त आत्मीयता से वंचित होना पड़े, हमें तनिक भी अभीष्ट नहीं। हमारी ईश्वर भक्ति, पूजा उपासना से आरम्भ होती है और प्राणी मात्र को अपनी ही आत्मा के समान अनुभव करने और अपने ही शरीर के अंग अवयवों की तरह अपनेपन की भावना रखते हुए अनन्य श्रद्धा चरितार्थ करने तक व्यापक होती चली जाती है। ऐसी दशा में कहीं दूर चले जाने पर भी हमारे लिये यह संभव न हो सकेगा कि जिनके साथ इसी जीवन मे घनिष्ठता रही है, जिनका स्नेह, सद्भाव, सहयोग, अनुग्रह अपने ऊपर रहा है, उनकी ओर से तनिक भी मुख मोड़ा जाय, उनके प्रति उदासीनता और उपेक्षा अपनाई जाय। कोई कृतघ्न ही ऐसा सोच सकता है।
यों शरीर साधन और श्रम के द्वारा हमारी विभिन्न कार्यों में सहायता करने वाले कम नहीं हैं पर जो भाव भरी आत्मीयता के साथ, अपनी श्रद्धा, ममता और सद्भावना हमारे ऊपर उड़ेलते रहे हैं उनकी संख्या भी कम नहीं है। सच पूछा जाय जो यही वह शक्ति स्त्रोत रहा है, जिसे पीकर हम इतना कठिन जीवन जी सके हैं । रोटी ने नहीं, भाव भरी आत्मीयता के अनुदान जहाँ तहाँ से हमें मिल सके हैं, उन्ही ने हमारी नस-नालियों में जीवन भरा है और उसी के सहारे हम इस विशाल संघर्ष से भरे जीवन में जीवित रह सकने और कुछ कर सकने लायक कार्य कर सकने में समर्थ रहे हैं । इन उपकारों को कोई पत्थर ह्रदय, अति निष्ठुर और नर पशु ही भुला सकता है। हमें ऐसी कृतज्ञता का अभिशाप मिला नहीं है। कृतज्ञता से अपनी नस-नस भरी पड़ी है। जिसका एक रत्ती भी उपकार रहा है, वह हमें एक मन लगा है और सोचा यही गया है कि उसके लिये अनेकों गुनी सेवा, सहायता करके अपनी कृतज्ञता का परिचय दिया जाय। बन तो कुछ नहीं पड़ा पर अरमान अभी भी बड़े बड़े है। स्वप्न अभी यही है कि ढाई वर्ष बाद कहीं अन्यत्र चले जाने पर यदि कुछ उपलब्धियां मिली और उन पर अपना अधिकार रहा तो उन्हें अपने ऋणदाताओ से ऋणमुक्त होने मे लगाएंगे ।
लोगों की आँखों से हम दूर हो सकते हैं पर हमारी आँखो से कोई दूर न होगा।
जिनकी आँखो में हमारे प्रति स्नेह और हृदय में भावनायें है, उन सब की तस्वीरें हम अपने कलेजे में छिपाकर ले जायेंगे और उन देवप्रतिमाओं पर निरन्तर आँसुओं का अर्घ्य चढ़ाया करेंगे। कह नहीं सकते ऋणमुक्त होने के लिए प्रत्युपकार का कुछ अवसर मिलेगा या नहीं। पर यदि मिला तो अपनी इस देवप्रतिमाओं को अलंकृत और सुसज्जित करने मे कोई कसर नहीं छोड़ेंगें । लोग हमें भूल सकते हैं पर हम अपने किसी भी स्नेही को भूल नहीं पाएंगे । पत्थर से बनी निष्ठुर देवप्रतिमाओं के साथ आजीवन एकांगी प्रेम करने की कला भारतीय अध्यात्म सिखाता रहा है। सो हमने भली भांति सीख लिया है। पीठ फेरने पर लोग हमें भूल जायेंगे, सो ठीक है, इससे अपना क्या बनता बिगड़ता है। जिसने कोई प्रत्यक्ष अनुदान नहीं दिया उन पत्थर प्रतिमाओं के चरणों मे आजीवन मस्तक झुकाते रहे हैं तो क्या उन देवियों और देवताओं की प्रतिमायें हमारी आराध्य नहीं रह सकती, जिनकी ममता हमारे ऊपर समय-समय पर बरसी और प्राणों में सजीवता उत्पन्न करती रही।
दिन कम बचे हैं, पूरे एक हजार भी तो नहीं बचे। रोज़ एक घट जाता है। इन दिनों मे क्या करें , क्या न करें सोचते रहते हैं। इस सोच विचार में एक बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि अपने छोटे से परिवार को इस बीच भरपूर प्यार कर लें । कोई माता विवशता में कहीं अकेली जाती है तो चलते समय अपने बच्चों को बार-बार दुलार करती है, बार बार चूमती है, लौट-लौट कर देखती और ममता से भरी गीली आँखे आंचल से पोंछती हुई आगे बढ़ती है। ऐसा ही कुछ उपक्रम अपना भी बन रहा है। सोचते हैं जिन्हें अधूरा प्यार किया अब उन्हें भरपूर प्यार कर लें । जिन्हें छाती से नहीं लगाया, जिन्हें गोदी में नहीं खिलाया, जिन्हें पुचकारा दुलारा नहीं, उस कमी को अब पूरी कर लें । किसी को कुछ अनुदान, आशीर्वाद देना अपने हाथ में न हो तो दुलार देना तो अपने हाथ में है। प्रत्युपकार के लिए आतुर और कातर अपनी आत्मा इस तरह कुछ तो हल्कापन अनुभव करेगी ही और शायद उससे स्नेह पात्र स्वजनों को भी कुछ तो उत्साह उल्लास मिल ही सके।
क्रमशः जारी- To be continued
हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव
हर बार की तरह आज का लेख भी बड़े ही ध्यानपूर्वक तैयार किया गया है, फिर भी अगर कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।
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24 आहुति संकल्प सूची :
11 जनवरी 2022 के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने के उपरांत एक बार फिर से आनलाइन ज्ञानरथ परिवार के 9 समर्पित साधकों ने 24 आहुतियों का संकल्प पूर्ण कर हम सबका उत्साहवर्धन व मार्गदर्शन कर मनोबल बढ़ाने का परमार्थ परायण कार्य किया है। इस पुनीत कार्य के लिए सभी युगसैनिक बहुत-बहुत बधाई के पात्र हैं और हम कामना करते हैं और परम पूज्य गुरुदेव की कृपा दृष्टि आप और आप सबके परिवार पर सदैव बनी रहे। वह देवतुल्य युगसैनिक निम्नलिखित हैं :
(1) रेनू श्रीवास्तव बहन जी – 40, (2) अरूण कुमार वर्मा जी – 36, (3) संध्या बहन जी – 31, (4) प्रेरणा कुमारी बिटिया रानी – 28, (5) सरविन्द कुमार पाल – 27, (6) रेणुका गंजीर बहन जी – 26, (7) संजना कुमारी बिटिया रानी – 25, (8) साधना सिंह बहन जी – 25, (9) निशा भारद्वाज बहन जी – 24
उक्त सभी सूझवान व समर्पित युग सैनिकों को आनलाइन ज्ञान रथ परिवार की तरफ से बहुत बहुत साधुवाद व हार्दिक शुभकामनाएँ व हार्दिक बधाई हो जिन्होंने आनलाइन ज्ञान रथ परिवार में 24 आहुति संकल्प पूर्ण कर आनलाइन ज्ञान रथ परिवार में विजय हासिल की है। बहिन रेनू श्रीवास्तव जी को बार -बार स्वर्ण पदक प्राप्त करने पर हमारी बार -बार व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। जय गुरुदेव