मृत्यु से पहले ही हमारे अंग ज़रूरतमंदों के लिए सुरक्षित कर लिए जाएँ । 

11 जनवरी 2022 का ज्ञानप्रसाद – मृत्यु से पहले ही हमारे अंग ज़रूरतमंदों के लिए सुरक्षित कर लिए जाएँ । 

आज का ज्ञानप्रसाद कल वाले मार्मिक वृतांत का ही अगला भाग है। हम देख रहे हैं कि कैसे-कैसे बड़ी ही कठिनता से परमपूज्य गुरुदेव अपनेआप को परिजनों से बिछड़ने के लिए तैयार कर रहे हैं। उनके अंतःकरण में अपने बच्चों के प्रति ,अपने परिवार के प्रति किस प्रकार का स्नेह है और कैसे एक सुखान्त कथानक का दुखान्त पटाक्षेप होने वाला है। जो परिजन रंगमंच से परिचित हैं अवश्य जानते होंगें अलग- अलग दृश्यों के बीच पर्दा गिरता है -पर्दा गिरने को ही पटाक्षेप कहता हैं। मथुरा से दृश्य समाप्त करके हरिद्वार में नवीन भूमिका निभाने हेतु परमपूज्य गुरुदेव कार्यरत हैं। 

तो आइये चलें सुने गुरुदेव के अंतःकरण की वाणी। 

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इन दिनों हमारी आन्तरिक स्थिति कुछ ऐसी है जिसका विश्लेषण कर सकना हमारे लिये कठिन है। हमारी व्यथा, वेदना के कष्ट से डरने की, परीक्षा मे कांपने की अथवा मोह ममता न छोड़ सकने वाली अज्ञानी जैसी लगती भर है वस्तुतः वैसी है नहीं। डर या कायरता की मंज़िल पार हो चुकी। सुख सुविधा की इच्छा के लिये अब मरने के दिनों गुंजाइश भी कहाँ रही? शौक मौज को आयु डल गई। अब तो और कोई न सही अपना जराजीर्ण शरीर भी पग-पग पर असुविधाएं उत्पन्न करेगा ऐसी दशा में सुविधाओं की कामना, असुविधाओं को अनिच्छा भी रोने-कलपने का कारण नहीं है। कारण एक ही है हमारी भावुकता और छलछलाते प्यार से भरी मनोभूमि। जिनका रत्तीभर भी मोह हमने पाया है उनका बदला पहाड़ जैसा प्रतिदिन देने के लिये मन मचलता रहता है। अपनों के साथ अपनेपन भरा भावनात्मक आदान प्रदान अन्तःकरण मे जो उल्लास उमगता रहता है उसका रस छोड़ते नहीं बनता। प्रियजनों के विछोह की कल्पना न जाने क्या कलेजे को मरोड़ डालती है। ब्रह्मज्ञान की दृष्टि मे यदि इसे मानवीय दुर्बलता कहा जाय तो हमें अपनी यह त्रुटि स्वीकार है। आखिर एक नगण्य से तुच्छ मानव ही तो हैं हम । कब हमने दावा किया है योगी यती होने का। हमारी दुर्बलता, ममता, बुद्धि यदि हमें आज बेतरह कचोटती है तो उसे हम छिपायेगें भी नहीं। एक दुर्बल मानव प्राणी को भाव भरी दर्बलता से उसके प्रियजनों को परिचित होना ही चाहिए।यह एक तथ्य है कि हमारा हर कदम अपने छोटे से भाव भरे परिवार से विलुप्त होने की दशा में बढ़ रहा है। जब साठ वर्ष एक एक करके देखते-देखते सामने बैठे पखेरुओं की तरह उड़ गये तो अब इन बेचारे दो वर्षों की क्या चलेगी। आज कल करते देखते देखते वह दिन भी आ ही रहा है जब हमें अपनी झोला और कम्बल पीठ पर लादे किसी अज्ञात दिशा में पदार्पण करते हुए देखा जाएगा और अन्तिम अभिवादन की एक कसक भर स्मृति लेकर हम सब अपने-अपने बन्धक क्षेत्रों की ओर लौट जायेंगे और एक सुखान्त कथानक का दुखान्त पटाक्षेप हो जाएगा। अब उस स्थिति को न तो टाला जा सकता है और न बदला। यह दर्द भरा दुखान्त पटाक्षेप हमारे लिये कितना असली होगा और छाती पर कितना बड़ा पत्थर बाँध कर हम अपना मानसिक सन्तुलन फिर स्थिर कर सकेगें इस सम्बन्ध में अभी कुछ कह सकना कठिन है। समय ही बतायेगा कि उस समय कैसी बीतेगी और उसका समाधान कैसे सम्भव होगा?

अभी तो इतनी ही आवश्यकता प्रतीत होती है कि एक बार अपने मन की दबी हुई व्यथाएँ अपने स्वजन परिजनों के सामने बैठकर खोलते। कहते है कि मन खोलकर कह लेने में चित्त हलका हो जाता है। परिजनों को अनावश्यक भी लगे पर हमारे लिये यह सुखद ही होगा। जो हमे थोड़ी राहत दे सके, ऐसा कुछ निरर्थक हो तो भी उदारता पूर्वक उसे सुन भी लिया जाना चाहिए। यह पक्तियाँ लिखते हुए सोचा यही गया है कि पाठक इसे बिना ऊँचा पढ़ते, सुनते रहेगे, जो काफी लम्बी हैं और कई अंकों तक चलेगी।

सबसे बड़ा भार हमारे ऊपर उन भाव भरी सद्भावनाओं का है जिन्हें ज्ञात और अज्ञात व्यक्तियों ने हमारे ऊपर समय-समय पर बरसाया है। सोच नहीं पाते कि इनका बदला कैसे चुकाया जाय। ऋण हमारे ऊपर बहुत है। जितना असीम प्यार, जितनी आत्माओं का, कितनी आत्मीयता और सौजन्यता से हमने पाया है उसकी स्मृति से जहाँ एक बार रोम-रोम पुलकित हो जाता है वहीं दूसरे ही क्षण यह सोचते हैं कि उनका बदला कैसे चुकाया जाय। प्रेम का प्रतिदान भी तो दिया जाता है, लेकर के ही तो नहीं चला जाना चाहिए। जिससे पाया है उसे देना भी तो चाहिए। अपना नन्हा-सा कलेवर, नन्हा-सा दिल, नन्हा-सा प्यार, किस किस का कितना प्रतिदान चुका सकना इससे सम्भव होगा यह विचार आते ही चित्त बहुत भारी और बहुत उदास हो जाता है।जिसने हमारी कुछ सेवा सहायता की है उनकी पाई-पाई चुका देंगे। न हमे स्वर्ग जाना है और न मुक्ति लेनी है। चौरासी लाख योनियों के चक्र मे एक बार भगवान से प्रार्थना करके इसलिये प्रवेश करेगे कि इस जन्म मे जिस-जिस ने हमारा जितना-जितना उपकार किया हो, जितनी सहायता की हो उसका एक-एक कण ब्याज सहित हमारे उस चौरासी चक्र में भुगतान करा दिया जाये। घास, फूल, पेड़, लकड़ी, बैल , गाय, गधा, भेड़ आदि बन कर हम किसी न किसी से अपने उपकारियों के अनुदान का बदला पूरे अधूरे रूप मे चुकाते रह सकते हैं। सद्भावना का भार ही क्या कम है जो किसी की सहायता का भार और ओड़ा जाय? यह सुविधा भगवान से लड़ झगड़कर प्राप्त कर लेंगे पर जिसने समय-समय पर ममता भरा प्यार हमें दिया है, हमारी तुच्छता को भुलाकर जो आदर, सम्मान, श्रद्धा, सद्भाव मोह एवं अपनत्व प्रदान किया है उनके लिये क्या कुछ किया जाय समझ में नहीं आता। इच्छा प्रबल है कि अपना हृदय कोई बादल जैसा बना दे और उसमे प्यार का इतना जल भर दे कि जहाँ से एक बूँद स्नेह की मिली हो वहाँ एक प्रहर की वर्षा कर सकने का सुअवसर मिल जाय मालूम नहीं ऐसा सम्भव होगा कि नहीं , यदि सम्भव हो सके तो हमारी अभिव्यक्ति उन सभी तक पहुंचे जिनकी सद्भावना किसी रूप मे हमे प्राप्त नई हो। वे उदार सज्जन अनुभव करें कि उनके प्यार को भुलाया नहीं गया वरन उसे पूरी तरह स्मरण रखा गया। बदला न चुकाया जा सका तो भी अपरिमित कृतज्ञता की भावना लेकर विदा हो रहे है। यह कृतज्ञता का ऋण भार तब तक सिर पर उठाये रहेंगे जब तक हमारी सत्ता कही बनी रहेगी। प्रत्युपकार प्रतिदान न बन सका हो तो प्रेमी परिजन समझें कि उनकी उदारता को कृतज्ञणता पूर्वक भुलाया नहीं गया। हमारा कृतज्ञ मस्तक उनके चरणों मे सदा विनम्र और विनयावत बना रहेगा जिन्होंने हमारे दोष दुर्गणों के प्रति घृणा न करके केवल हमारे सदगुण देखे और सद्भावनापूर्ण स्नेह और सम्मान प्रदान किया।

मन की दूसरी व्यथा जो खोलकर रखनी है यह है कि यह शरीर साठ वर्ष की लम्बी अवधि तक अगणित मनुष्यों और जीव जन्तुओं की सेवा सहायता से लाभ उठाता रहा है। जीवन धारण करने की क्रिया मे असंख्यों को ज्ञात-अज्ञात सहायता का लाभ मिला है। अन्त में ऐसे शारीर का क्या किया जाय? सोचते है यह मरते-मरते नष्ट होते-होते किसी के कुछ काम आ सके तो इसको कुछ सार्थक बन जाय। मौत सबको आती है-जरा जीर्ण शरीर के तो वह और भी अधिक निकट होती है। आज नहीं तो कल हमें भी मरना है। कही अज्ञात स्थिति में यह जल जाय तो बात दूसरी है अन्यथा मनुष्यों की पहुँच के भीतर स्थिति में प्राण निकले तो उस विकृत कलेवर का धूमधाम से संस्कार प्रदर्शन बिल्कुल न किया जाय हमने वसीयत कर दी है और इस घोषणा को ही वसीयत मान लिया जाय कि मरने से, पूरी मृत्यु से पहले ही जब तक जीवन विद्यमान रहे सारा रक्त निकाल लिया जाय और उसे किसी आवश्यकता वाले रोगी को दे दिया जाय। अब आँख, फेफड़े, गुर्दा, दिल आदि अंग दूसरों के काम आने लगे हैं, तब तक शायद चमड़ी, माँस, हड्डी आदि का भी कुछ उपयोग दूसरे रोगियों को यह अंग लगाने में होने लगे। जो भी अंग किसी के काम आ सकता हो तो उसे सरकारी संरक्षण में रखा जाए। 

क्रमशः जारी -To be continued 

हर बार की तरह आज भी कामना करते हैं कि प्रातः आँख खोलते ही सूर्य की पहली किरण आपको ऊर्जा प्रदान करे और आपका आने वाला दिन सुखमय हो। धन्यवाद् जय गुरुदेव

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24 आहुति संकल्प सूची :

10 जनवरी 2022 के ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करने के उपरांत एक बार फिर से आनलाइन ज्ञानरथ परिवार के 13 समर्पित साधकों ने 24 आहुतियों का संकल्प पूर्ण कर हम सबका उत्साहवर्धन व मार्गदर्शन कर मनोबल बढ़ाने का परमार्थ परायण कार्य किया है। इस पुनीत कार्य के लिए सभी युगसैनिक बहुत-बहुत बधाई के पात्र हैं और हम कामना करते हैं और परम पूज्य गुरुदेव की कृपा दृष्टि आप और आप सबके परिवार पर सदैव बनी रहे। वह देवतुल्य युगसैनिक निम्नलिखित हैं :

 (1) अरूण कुमार वर्मा जी – 42, (2) सरविन्द कुमार पाल – 38, (3) डा.अरुन त्रिखा जी – 35, (4) पिंकी पाल बिटिया रानी – 32, (5) रेनू श्रीवास्तव बहन जी – 31, (6) प्रेरणा कुमारी बिटिया रानी – 28, (7) रेणुका बहन जी – 28, (8) संजना कुमारी बिटिया रानी – 27, (9) निशा दीक्षित बहन जी – 25, (10) संध्या बहन जी – 24, (11) निशा भारद्वाज बहन जी – 24, (12) कुसुम बहन जी – 24,(13) रजत कुमार जी -27

उक्त सभी सूझवान व समर्पित युग सैनिकों को आनलाइन ज्ञान रथ परिवार की तरफ से बहुत बहुत साधुवाद व हार्दिक शुभकामनाएँ व हार्दिक बधाई हो जिन्होंने आनलाइन ज्ञान रथ परिवार में 24 आहुति संकल्प पूर्ण कर आनलाइन ज्ञान रथ परिवार में विजय हासिल की है अरुण वर्मा भाई साहिब दूसरी बार 24 आहुति संकल्प सूची में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए हैं जो कि बहुत ही सराहनीय व प्रशंसनीय कार्य है। भाई साहिब को हमारी व्यक्तिगत और परिवार की सामूहिक बधाई। जय गुरुदेव

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