अध्याय 25. दिशा-केन्द्रित विचार

9 दिसंबर का ज्ञानप्रसाद- अध्याय 25. दिशा-केन्द्रित विचार

आज का ज्ञानप्रसाद लगभग चार पन्नों का है ,इसलिए शब्द  सीमा को देखते हुए हम सीधे लेख को ओर ही चलते हैं।

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25.दिशा-केन्द्रित विचार 

काम, क्रोध, लोभ, या द्वेष अथवा किसी प्रकार के प्रलोभन के अचानक उपस्थित हो जाने से साधक के अध्यात्म- जगत् में जो एक आपातकालीन स्थिति पैदा होती है, उसका सामना करना के लिए अन्य दूसरे भी उपाय हैं, जिनका प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सकता है। यदि साधक उपर्युक्त रिपुओं में से किसी एक के द्वारा भी पराजित हुआ , तो मन का निग्रह असम्भव हो जाता है। 

जिस समय हम देखें कि हम एक बड़े प्रलोभन में फंस गये हैं, तो ऐसे समय में हमें क्या करना चाहिए। इस बात की शिक्षा देते हुए एक विदेशी सन्त निम्नलिखित व्यवहारिक बातों के पालन का सुझाव देते हैं, इनका अभ्यास संसार के किसी भी भाग का व्यक्ति कठिनाइयों में पड़ने पर कर सकता है। ये सिद्धांत यथोचित परिवर्तनों के साथ सभी प्रकार की आभ्यन्तरिक आपातकालीन अवस्थाओं में सहायक सिद्ध होंगे:

1.जब बच्चे गांवों में भेड़िया या भालू देखते हैं, तो उनकी जो अवस्था होती है उनका अनुसरण करो। वे तुरंत दौड़कर अपने पिता या माता की बांहों में समा जाते हैं या फिर कम से कम सहायता या रक्षा के लिए उन्हें जोरों से पुकारते हैं। इसी प्रकार तुम ईश्वर की ओर मुड़ो और उनकी कृपा और सहायता की याचना करो। हमारे प्रभु ने रक्षा का यही उपाय सिखाया है कि ‘प्रार्थना करो, ताकि प्रलोभन तुम में प्रवेश न कर सके।’ 

2.प्रलोभन के आने पर विरोध प्रदर्शित करते हुए घोषणा करो कि तुम कभी उसके फेर में नहीं पड़ोगे। प्रलोभन के विरोध में ईश्वर से सहायता मांगो। लगातार यह घोषणा करते रहो कि जबतक यह प्रलोभन बना रहेगा, तब तक तुम उसकी कुछ न सुनोगे।

3. जब तुम ये घोषणाएं करते हो और प्रलोभन की मांग को स्वीकार नहीं करते, तब सीधे प्रलोभन की ओर मत देखो, बल्कि तुम्हारी आंखें अपने प्रभु पर टिकी हों। यदि तुम प्रलोभन की ओर देखने लगो, विशेष कर तब जब वह बलवान है, तो वह तुम्हारे साहस को डिगा सकता है। 

4. अपने विचारों को किसी अच्छी और प्रशंसनीय बात की ओर मोड़ दो। जब अच्छे विचार तुम्हारे हृदय में घुसकर भर जाते हैं तो वे प्रत्येक प्रलोभन और अशुभ- मन्त्रणा को बाहर खदेड़ देते हैं। 

5. जिनपर तुम्हारी गुरुवत् श्रद्धा है, उनके समक्ष अपने हृदय को खोल देना और मन में जो भी सुझाव, भावनाएँ या स्नेह की लहरियां उठती हैंं उन सबको उन्हें बता देना -यह छोटे या बड़े सभी प्रकार के प्रलोभनों के लिए रामबाण दवा है। 

6. इस सबके बाद भी यदि प्रलोभन बना ही रहे और हमें सताता रहे, तो अब हमें कुछ नहीं करना है ; केवल उसके विरोध में हम अपनी आवाज को बुलन्द किये रहें। जैसे, जबतक लड़कियाँ ‘ना’ कहती हैं तबतक उनका विवाह नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार यह जीव भी जबतक ‘न ‘ कहता रहता है तबतक किसी प्रकार का पाप नहीं कर सकता, भले ही प्रलोभन लम्बी अवधि तक क्यों न बना रहे। 

मनोवैज्ञानिक शब्दों में कहा जाय तो ऐसी भीतरी दशा में हमें जो करना चाहिए वह यह है कि हम इस शक्तिशाली विरोधी लहर को, जो मन में उठ गयी है, धीरे धीरे शान्त करने का प्रयास करें। यदि हम अनवरत रूप से भगवान को पुकारेंगें, तो हमारी प्रत्येक सांस ही मानो पुकार बन जाती है और वह एक दूसरी पुकार को जन्म देती है। इस प्रकार बीच में कहीं कोई छिद्र नहीं रह जाता, जिसमें से होकर यह विरोधी विचार मन में घुसे और उसे अपने अधिकार में करे। अपने आप विस्फोट होने वाले विरोधी विचार का सामना करने के लिए यह आवश्यक है कि हम सहयोगी विचार का अधिक शक्तिशाली विस्फोट साधित करें।  लगातार, या अस्त-व्यस्त होकर ही सही, ईश्वर या अपनी उच्चतर आत्मा, को पुकारते रहने से, अथवा भगवान के किसी नाम का या दीक्षित हों तो मन्त्र का अनवरत जाप करते रहने से मन के भीतर एक उच्चतर संवेग उत्पन्न किया जा सकता है , जो आपातकालीन स्थिति में बागडोर संभाल लेगा। 

इस बात के लिए हमें विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए कि भले ही विरोधी प्रवृतियाँ हम पर हावी हो जायंं, पर हम भीतर से कभी उनको स्वीकारेंगे नहीं। प्रवृतियों का उठना कोई पाप नहीं है; गलत प्रवृतियों को मन से स्वीकार करना पाप को जन्म देता है। 

श्रीरामकृष्ण उपदेश देते हैं:

“उनका नाम- गुण -गान करने से देह से सब पाप भाग जाते हैं।  देहरूपी वृक्ष में पाप-पक्षी हैं -उनका नाम-कीर्तन माने ताली बजाना है। ताली बजाने से जिस प्रकार वृक्ष के ऊपर के सभी पक्षी भाग जाते हैं, उसी प्रकार उनके नाम-कीर्तन गुण -कीर्तन से सभी पाप भाग जाते हैं।”

इस सहज उदाहरण के द्वारा श्रीरामकृष्ण एक कठिन परिस्थिति में हमारे लिए एक सरल निदान प्रस्तुत करते हैं। जो लोग सचमुच ऐसी परिस्थिति से बाहर निकलना चाहते हैं, उनके द्वारा इसका सरलतापूर्वक अभ्यास किया जा सकता है। 

ठीक इसी प्रकार स्वामी ब्रह्मानन्द उपदेश देते हैं:

“जप, जप, जप…….. l ईश्वर के नाम का चक्र समस्त क्रियाओं के बीच चलता रहे..,… l हृदय की सारी जलन शान्त हो जायगी। क्या तुम नहीं जानते कि ईश्वर के नाम की शरण लेकर कितने पापी-तापी शुद्ध और मुक्त हो गये हैं। मन पर तीक्ष्ण दृष्टि बनाये रखो, जिसमें कोई अवांछनीय विचार या विक्षेप उसमें न घुस जाय। जब कभी ऐसे विचार तुम्हारे मन को घेर लेने की कोशिश करें, तो तुम उसे ईश्वर की ओर मोड़ दो और हृदय से प्रार्थना करो। विध अभ्यास के फलस्वरूप मन नियन्त्रण में आता है और पवित्र बन जाता है।”

ऊपर जितने भी उपाय बतलाये गये, वे सभी भगवान की शरण जाने की सार्थकता प्रदर्शित करते हैं। फिर भी यहाँ इस बात पर बल देना आवश्यक है कि जो ईश्वर में विश्वास करते हैं, उनके लिए ऐसी परिस्थिति में अचूक निदान भगवान के चरणों में पूरी तरह शरण जाना ही है। ईश्वर के सामने अपने हृदय को खोल दो और उनकी कृपा पाने के लिए व्याकुल होकर रोओ। भगवान स्वयं भक्त से अपनी शरण में आने के लिए कहते हैं और यह भरोसा देते हैं -मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। वे और भी घोषणा करते हैं – मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता। एक दूसरा सुप्रसिद्ध हिन्दू शास्त्र यह विश्वास दिलाता है कि जो दुखी और हताश होकर जगन्माता की शरण जाते हैं, माता उनके दुखों को दूर करती है। वही शास्त्र जगन्माता की स्तुति करते हुए कहता है :

“जहाँ राक्षस, जहाँ भयंकर विषवाले सर्प, जहाँ शत्रु, जहाँ लुटेरों की सेना, जहाँ दावानल हो, वहाँ तथा समुद्र के बीच में भी साथ रहकर तुम विश्व की रक्षा करती हो”

यदि यह सत्य है-और हम विश्वास करते हैं कि यह सत्य है- तो हमारी विपत्ति और व्यक्तिगत जीवन में दावानल के समय क्या वह हमारी रक्षा के लिए नहीं आयेगी, यदि हम उसकी शरण जायें ?

ठीक इसी प्रकार ईसा मसीह भी पीड़ितों को पुकार कर कहते हैं:

“तुम लोग जो परिश्रम करते हो और भारी बोझ से लदे हो, मेरे पास आओ, तुम सभी आओ; मैं तुम्हें आराम दूंगा।” 

भक्तों के लिए भगवान की ओर से स्पष्ट निमंत्रण प्राप्त हैं। यदि हम यह निमंत्रण स्वीकार न कर दुखी बनें रहें तो इसमें किसका दोष ?

अतएव भक्त को भीतरी आपातकालीन स्थिति का सामना करने के लिए पर्याप्त और बहुत से उपाय उपलब्ध हैं। उसे अपनी योग्यता और आवश्यकतानुसार इनमें से किसी एक उपाय को अथवा कुछ उपायों को मिलाकर काम में लाना मात्र होगा। 

अब प्रश्न उठता है, यदि कोई व्यक्ति नास्तिक है, तो उसे ऐसी आभ्यंतरिक आपातकालीन स्थितियों में क्या करना चाहिए ? 

वह सबसे पहले अपने को उस स्थिति से अलग कर ले और अपनी उच्चतर आत्मा के साथ मानो दूर तक वेग से टहलने निकल जाय; साथ ही वह अपने मन को किसी उदात्त और उन्नयन करनेवाली वस्तु में लगाने की कोशिश करे। यदि विश्वास के अभाव में वह ईश्वर के सामने नहीं रो सकता और अपने अन्त:करण को दैवी निरीक्षण के लिए नहीं खोल सकता, तो वह प्रकृति के पास जाय, किसी कलकल करती हुई नदी, नीला- वितान ओढ़े आकाश, सर- सर बहती हुई हवा, गगनचुम्बी पर्वत-शिखर, लहराता सागर अथवा उदीयमान मरीचिमाली(सूर्य) के पास चला जाय और अपनी सारी गाथा निष्कपट भाव से निवेदित कर दे तथा अपनेआप को लांघ जाने के लिए  समझ और क्षमता की याचना करे। 

इससे भी अच्छा उपाय तो यह होगा कि वह किसी बुद्धिमान, विश्वसनीय और चरित्रवान् नि:स्वार्थी व्यक्ति के पास चला जाय तथा उनको अपनी सारी भीतरी दशा बताकर उनसे सलाह व सहायता की याचना करे। पर ऐसे व्यक्ति का चुनाव बहुत सावधानीपूर्वक करना चाहिए। यदि कोई विश्वसनीय व्यक्ति नहीं मिला, तो अपने भीतर की लड़ाई को अपने अकेले ही लड़ना श्रेयस्कर है।

आपातकालीन स्थिति में एक नास्तिक व्यक्ति को भीतरी कठिनाइयों की मानसिक चारदीवारी के बाहर निकल आना चाहिए। ऐसे खुले में, जहाँ वह पंख लगाकर उड़ सके और विक्षोभ को अपनी हालत पर छोड़ दे। जब कभी उसके सामने ऐसी मनोवैज्ञानिक अवस्था उत्पन्न हो, तो झट उसे अपने ही बनाये गये चोर- दरवाजे से निकालकर इस बृहत्तर अर्थपूर्ण विश्व में चले आना चाहिए। वह किसी कविता की कोई प्रेरक कड़ी पकड़कर, गीत के द्वारा, किसी महान कलाकृति का स्मरण करके अथवा किसी मनीषी के प्रेरणापूर्ण शब्दों को मन में उठाकर उपर्युक्त परिस्थितियों में से निकलने का चोर-दरवाजा बना सकता है। इनमें से कोई भी एक उसके लिए शाश्वत में जाने की खिड़की बन सकता है और उसे अपनी उच्चतर आत्मा तक ऊपर उठने की शक्ति प्रदान कर सकता है। 

किन्तु हम स्मरण रखें कि संत्रस्त करनेवाली भीतरी अवस्था से बचाव एक अस्थायी निदान के रूप में भले ही अपरिहार्य है, तथापि वह समस्या का मूलभूत या अन्तिम निदान नहीं है। इसके लिए तो अविश्वासी या नास्तिक को पतंजलि द्वारा उपदिष्ट इन निम्नलिखित चिकित्सीय और आध्यात्मिक मूल्य रखनेवाले अनुशासनों का नियमित अभ्यास लाभप्रद होगा:

“अथवा वह उस ज्योतिर्घन प्रकाशपुंज पर ध्यान करने की कोशिश कर सकता है, जो समस्त शोकों के परे है ; अथवा ऐसे हृदय पर जिसने इन्द्रिय-विषयों के प्रति समस्त आसक्तियों का त्याग कर दिया है; अथवा अन्य किसी पर भी, जो उसे अच्छा मालूम पड़ता है।” 

जय गुरुदेव ,धन्यवाद् 

कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को  ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से  चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।

अगला लेख: अध्याय 26. विचार-संयम का रहस्य 

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 24 आहुति   संकल्प  सूची:आज के ज्ञानप्र्साद में 10 युग सैनिकों ने 24 आहुति डाल कर परम पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक व क्रान्तिकारी विचारों को साकार रूप देने के लिए 10 सूत्रीय कार्यक्रमों की याद दिलाने का सराहनीय कार्य किया है।  इसके लिए आप सभी को आनलाइन ज्ञान रथ परिवार की तरफ से बहुत-बहुत साधुवाद व  हार्दिक बधाई हो। सभी पर आद्यिशक्ति जगत् जननी माँ  गायत्री की असीम अनुकम्पा सदैव बरसती रहे, यही आनलाइन ज्ञान रथ परिवार की गुरु सत्ता से विनम्र प्रार्थना व मंगल कामना है l वह 10 युग सैनिक हैं: (1) सरविन्द कुमार पाल – 59, (2) संध्या बहन जी – 28, (3) रजत कुमार जी – 28, (4) नीरा बहन जी – 27, (5) रेनू श्रीवास्तव बहन जी – 25, (6) धीरप बेटे – 25, (7) डा.अरुन त्रिखा जी – 24, (8) अरुण कुमार वर्मा जी – 24, (9) प्रेरणा कुमारी बेटी – 24, (10) निशा दीक्षित बहन जी – 24

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