3 दिसंबर 2021 का ज्ञानप्रसाद – अध्याय 16 ,17 एवम 18
मनोनिग्रह लेखों की श्रृंखला के अध्ययन का आज13वां दिन है। 30 लेखों की इस अद्भुत श्रृंखला में आज प्रस्तुत हैं अध्याय 16 ,17 और 18 अध्याय। अध्याय 17 तो केवल 5 ही लाइनों का है, लेकिन हम यही कहेंगें कि शब्दों और लाइनों पर न जाते हुए इन लेखों के गूढ़ ज्ञान का अमृतपान करना चाहिए। अनिल जी ने कल ही कहा था “ लेख द्वारा अपने मन को नियंत्रित करने की ओर बढ़ जाइए , बस मेरी तो इतनी सी विनती है सबसे। “ वैसे तो पुस्तक के अंत में कठिन शब्दों की डिक्शनरी शामिल की गयी है, लेकिन हम फिर भी गूगल का सहारा लेते हुए पूरी तरह से समझने का प्रयास कर रहे है ,आप की सहायता के लिए भी गूगल उपस्थित है। हर लेख की तरह आज भी हम लिखना चाहेंगें यह अद्भुत श्रृंखला आदरणीय अनिल कुमार मिश्रा जी के स्वाध्याय पर आधारित प्रस्तुति है।ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार रामकृष्ण मिशन मायावती,अल्मोड़ा के वरिष्ठ सन्यासी पूज्य स्वामी बुद्धानन्द जी महाराज और छत्तीसगढ़ रायपुर के विद्वान सन्यासी आत्मानंद जी महाराज जी का आभारी है जिन्होंने यह अध्भुत ज्ञान उपलब्ध कराया। इन लेखों का सम्पूर्ण श्रेय इन महान आत्माओं को जाता है -हम तो केवल माध्यम ही हैं।
तो प्रस्तुत हैं आज के तीन लेख ,मन के बर्ताव ,प्राणायाम और प्रत्याहार।
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16. मन को उचित बर्ताव सिखलाना
मनोनिग्रह का एक अर्थ यह भी है कि मन को उचित बर्ताव करना सिखाया जाय। यह मानो एक उच्छृंखल और अनियंत्रित घोड़े को सर्कस के करतब दिखलाने जैसा है। यह कैसे किया जाय ?
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं :
“मन को वश में करने की शक्ति प्राप्त करने के पूर्व हमें उसका भली प्रकार अध्ययन करना चाहिए। चंचल मन को संयत करके उसे विषयों से खींचना होगा और उसे एक विचार में केन्द्रित करना होगा। बार- बार इस क्रिया को करना आवश्यक है। इच्छाशक्ति द्वारा मन को वश में करके उसकी क्रिया को रोककर ईश्वर की महिमा का चिंतन करना चाहिए। मन को स्थिर करने का सबसे सरल उपाय है, चुपचाप बैठ जाना और उसे कुछ क्षण के लिए वह जहाँ जाना चाहे जाने देना। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो -मैं मन को विचरण करते हुए देखने वाला साक्षी हूँ। मैं मन नहीं हूँ। पश्चात मन को ऐसा सोचता हुआ कल्पना करो कि मानो वह तुमसे बिलकुल भिन्न है। अपने को ईश्वर से अभिन्न मानो, मन अथवा जड़-पदार्थ के साथ एक करके कदापि न सोचो। सोचो कि मन तुम्हारे सामने एक विस्तृत तरंग हीन सरोवर है और आने-जानेवाले विचार इसके तल पर उठनेवाले बुलबुले हैं। विचारों को रोकने का प्रयास न करो, वरन् उनको देखो और जैसे-जैसे वे विचरण करते हैं वैसे वैसे तुम भी उनके पीछे चलो। यह क्रिया धीरे- धीरे मन के वृत्तों को सीमित कर देगी। कारण यह है कि मन विचार की विस्तृत परिधि में घूमता है और ये परिधियां विस्तृत होकर निरन्तर बढ़नेवाले वृत्तों में फैलती रहती हैं ठीक वैसे ही जैसे किसी सरोवर में ढेला फेंकने पर होता है। हम इस क्रिया को उलट देना चाहते हैं और बड़े वृत्तों से प्रारंभ करके उन्हें छोटा बनाते चले जाते हैं यहाँ तक कि अंत में हम मन को एक बिन्दु पर स्थिर करके उसे वहीं रोक सकें। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो – मैं मन नहीं हूँ , मैं देखता हूँ कि मैं सोच रहा हूँ। मैं अपने मन तथा अपनी क्रिया का अवलोकन कर रहा हूँ। प्रतिदिन मन और भावना से अपने को अभिन्न समझने का भाव कम होता जायगा यहाँ तक कि अन्त में तुम अपने को मन से बिल्कुल अलग कर सकोगे और वास्तव में इसे अपने से भिन्न जान सकोगे। इतनी सफलता प्राप्त करने के बाद मन तुम्हारा दास हो जायेगा और उसके ऊपर इच्छानुसार शासन कर सकोगे। इन्द्रियों से परे हो जाना योगी की प्रथम स्थिति है। जब वह मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है।”
जब हम यह अभ्यास प्रारंभ करते हैं तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि कितने प्रकार के घिनौने विचार हमारे मन में उठते रहते हैं। ज्यों ज्यों अभ्यास आगे बढ़ता है त्यों त्यों कुछ समय के लिए मन की चंचलता बढ़ती-सी मालूम पड़ती है। किन्तु जितना ही हम अपने आप को मन से अलग करने का प्रयास करेंगे मन के ये खेल उतना ही कम होते जायेंगे। धीरे- धीरे उसकी चंचलता साधक के अध्यवसाय और सजगता के फलस्वरूप शक्तिहीन होती जायेगी और अन्त में मन सर्कस के घोड़े के समान सध जायेगा। वह अनुशासन में रहता हुआ भी बली बना रहेगा। हमें कुछ समय तक प्रतिदिन कई बार समय बांधकर नियमित रूप से मन का पीछा करना चाहिए। इस अभ्यास को तबतक चलाना चाहिए जबतक मन उचित वर्तन करना नहीं सीख जाता।
17.प्राणायाम का अभ्यास:
हम यह देखेंगे कि जब हमारा मन विक्षिप्त होता है, हमारी सांस जल्दी-जल्दी और अनियमित रूप से चलने लगती है। मन को शान्त करने का एक उपाय है श्वास-प्रश्वांस को नियमित करना। गहरे स्वांस-प्रश्वांस का अभ्यास मन को स्थिर करने में सहायक होता है।
उल्लेखनीय है कि प्राणायाम (श्वांस-प्रश्वांस के द्वारा प्राणशक्ति का संयम) का अभ्यास मनोनिग्रह में बहुत सहायक होता है। किन्तु प्राणायाम की शिक्षा किसी जानकार शिक्षक से ग्रहण करनी चाहिए। फिर जो ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते, या जिनका हृदय , फेंफड़ा या स्नायु-जाल कमजोर या रोगी है, उन्हें प्राणायाम का अभ्यास नहीं करना चाहिए।
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18. प्रत्याहार का अभ्यास:
सामान्यतया हमारी दशा ऐसी है कि हम कतिपय चीजों पर मन को केन्द्रित करने के लिए विवश हो जाते हैं। बाहर के विषयों में आकर्षण- शक्ति होती है जिसके कारण बरबस हमारा मन उनमें जाकर लग जाता है। इस प्रकार हम प्रलोभित करने वाले विषयों के दास बन जाते हैं। हमारी यथार्थ दशा तो ऐसी हो कि जब हम चाहें इच्छानुसार मन को कहीं लगा लें और बाहर की चीज़ें हमारे मन पर जबरजस्ती न कर सकें। यह पाठ मनोनिग्रह की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदम है। वास्तव में जब तक हम यह सबक नहीं सीखते तबतक मनोजय की दिशा में हम तनिक भी आगे नहीं बढ़ पाते। अब प्रश्न यह है कि यह सधे कैसे ? स्वामी विवेकानंद बतलाते हैं:
“हम संसार में सर्वत्र देखते हैं कि सभी यह शिक्षा दे रहे हैं -अच्छे बनो ,अच्छे बनो, अच्छे बनो। संसार में शायद किसी देश में ऐसा बालक नहीं पैदा हुआ जिसे मिथ्या भाषण न करने, चोरी न करने आदि की शिक्षा नहीं मिली। परन्तु कोई उसे यह शिक्षा नहीं देता कि वह इन अशुभ कर्मों से किस प्रकार बचे। केवल बातें करने से काम नहीं बनता। वह चोर क्यों न बने ? हम तो उसको चोरी से निवृत होने की शिक्षा नहीं देते ,उससे बस इतना ही कह देते हैं – ‘चोरी मत करो’ यदि उसे मन:संयम का उपाय सिखाया जाय तभी वह यथार्थ में शिक्षा प्राप्त कर सकता है और वही उसकी सच्ची सहायता और उपकार है। जब मन इन्द्रिय नामक भिन्न-भिन्न स्नायु केन्द्रों में संलग्न रहता है तभी समस्त बाह्य और आभ्यन्तरिक कर्म होते हैं। इच्छापूर्वक अथवा अनिच्छापूर्वक मनुष्य अपने मन को भिन्न भिन्न (इन्द्रिय नामक) केन्द्रों में संलग्न करने को बाध्य होता है। इसलिए मनुष्य अनेक प्रकार के दुष्कर्म करता है और बाद में कष्ट पाता है। मन यदि अपने वश में रहता तो मनुष्य कभी अनुचित कर्म नहीं करता. मन को संयत करने का फल क्या है ? यही कि मन संयत हो जाने पर वह फिर विषयों का अनुभव करनेवाली भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के साथ अपने को संयुक्त नहीं करेगा। और ऐसा होने पर सब प्रकार की भावनाएँ और इच्छाएँ हमारे वश में आ जायेगी। यहाँ तक तो बहुत स्पष्ट है। अब प्रश्न यह है कि -क्या यह सम्भव है ? हाँ , यह सम्पूर्ण रूप से सम्भव है।”
पतंजलि द्वारा उपदिष्ट प्रत्याहार के अभ्यास द्वारा यह साधा जा सकता है। प्रत्याहार क्या है ? प्रत्याहार वह रोक है जिसके फलस्वरूप इन्द्रियाँ अपने विषय के सम्पर्क में नहीं आ पातीं हैं और मानो ( नियन्त्रित) मन के स्वभाव का अनुवर्तन करती हैं। जब मन को इन्द्रिय-विषयों से हटा लिया जाता है तो इन्द्रियाँ भी अपने विषय से हट जातीं है और मन का अनुवर्तन करने लगती हैं। इसी को प्रत्याहार कहते हैं।
इन्द्रिय-विषयों और इन्द्रियों के बीच मन ही कड़ी है। जब मन इन्द्रिय-विषयों से हट जाता है, तो इन्द्रियाँ भी मन की नकल करती हैं, अर्थात् वे भी विषयों से हट जातीं हैं। – “यह बहुत ही आवश्यक वाक्य है”. जब मन नियन्त्रित होता है, तो इन्द्रियाँ भी अपने आप नियन्त्रित हो जातीं हैं। जैसे रानी-मधुमक्खी के उड़ने से अन्य मधुमक्खियाँ भी उड़ती हैं और उसके बैठने पर वे भी बैठ जाती हैं, ठीक इसी प्रकार मन के नियंत्रण में आ जाने पर इन्द्रियाँ भी नियन्त्रित हो जाती हैं। इसे प्रत्याहार कहते हैं। प्रत्याहार का रहस्य है इच्छाशक्ति, जिसका विकास हर सहज व्यक्ति करने में समर्थ है ; पर बहुत से लोगों में वह अविकसित अवस्था में रहती है। प्रत्याहार में स्थिति हो जानेपर साधक अपनी इन्द्रियों, विचारों और भावनाओं पर अधिकार प्राप्त कर लेता है। प्रत्याहार का अभ्यास इच्छाशक्ति के विकास में सहायक है और इच्छाशक्ति प्रत्याहार के विकास में सहायक होती है।
जय गुरुदेव
कामना करते हैं कि सविता देवता आपकी सुबह को ऊर्जावान और शक्तिवान बनाते हुए उमंग प्रदान करें। आप हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम हंसवृत्ति से चुन -चुन कर कंटेंट ला सकें।
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24 आहुति संकल्प के आज के विजेता :
(1) डा अरुण त्रिखा -24, (2 )आद सरविन्द कुमार जी-24, (3 )आद अरुण कुमार वर्मा जी-24, (4 )आद रजत कुमार जी -24, (5 ) बिटिया प्रेरणा कुमारी-24, (6 )राधा त्रिखा जी -25, (7 )संध्या कुमार जी-25, (8 )उमा सिंह जी -25, (9 )निशा भरद्वाज जी-24, (10 )नीरा त्रिखा जी -24,(11 ) रेनू श्रीवास्त्व जी -27
ऊपरलिखित सभी सहकर्मियों को ह्रदय से शुभकामना एवं बधाई। आशा करते हैं कि अधिक से अधिक सहकर्मी इस पुण्य कार्य में भाग लेते हुए ऑनलाइन ज्ञानरथ को ऊंचाइयों तक ले जायेंगें।- यह हम सबका सामूहिक प्रयास है।