29 नवम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद- बधाइयों से भरा है आज का ज्ञानप्रसाद
रविवार के अवकाश के उपरांत सप्ताह के प्रथम दिन सोमवार के प्रथम पलों में आप सबका हार्दिक स्वागत है ,अभिनन्दन है। आइये सब पहले सामूहिक तौर से अपने दो सहकर्मियों – एक हमारी सबकी प्रेरणा बिटिया और दूसरे हमारे सबके वरिष्ठ आदरणीय संध्या कुमार बहिन जी – को बधाई दें जिन्होंने ऑनलाइन ज्ञानरथ की प्रगति में एक कीर्तिमान स्थापित किया है। दोनों को हमारी व्यक्तिगत भी शुभकामना, बधाई। संध्या कुमार बहिन जी ने लगभग 4000 शब्दों का लेख हमें आज प्रातः भेजा। भेजने के उपरांत हमारी जो message के माध्यम से बातचीत हुई उसे तो “अपनों से अपनी” के लिए छोड़ देते हैं लेकिन उनकी लेखनी ने हमें इतना प्रभावित किया कि – “हम एक ही वाक्य में ऐसे कह सकते हैं।” बहिन जी ने जो कुछ भेजा हमने 3 -4 बार पढ़ा , अपनी पत्नी नीरा जी को सुनाया तो उन्होंने कहा -इसे आज ही बिना किसी देरी के पोस्ट करना चाहिए क्योंकि स्वाध्याय और सत्संग की बात हम सब सहकर्मियों के दिल में ताज़ा है। अगर मनोनिग्रह की श्रृंखला के समाप्त होने पर पोस्ट करते हैं तो लिंक नहीं बनेगा। आशा करते हैं कि हमारे सहकर्मी विशेषकर आदरणीय अनिल मिश्रा भाई साहिब हमें क्षमा करेंगें।
प्रेरणा बिटिया जल्दी ही हम सबके लिए ऑडियो बुक लेकर आ रही हैं जिसके दो सैंपल क्लिप उन्होंने हमें भेजें हैं।
तो आओ चलें,आनंद उठायें संध्या बहिन जी की खूबसूरत रचना का।
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महाकाल गुरुदेव की केवल 24 पन्नों की लघु पुस्तक “स्वध्याय और सत्संग” अपने में असीम ज्ञान समेटे हुए है। इस पुस्तक के स्वाध्याय से एक कुशल मार्ग दर्शन मिलता है। आइये परम पूज्य गुरुदेव के हम सभी शिष्य, ऑनलाइन ज्ञान रथ के माध्यम इस लघु पुस्तक पर चर्चा करते हुए आनंद एवं लाभ प्राप्त करते हैं ।
जीवन में सत्संग का स्थान :
सत्संग का मनुष्य के जीवन में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है,जीवन को समुन्नत एवं सुधारने के लिए सत्संग मुलाधार है।सत्य कहा जाये तो “सत्संग मनुष्य की आत्मा का भोजन है।” जिस तरह शरीर को पुष्ट एवं निरोग रखने के लिए भोजन आवश्यक है ,उसी प्रकार आत्मा को पुष्ट एवं निरोग अर्थात् आत्मा को पवित्र एवं निर्मल बनाने के लिये सत्संग आवश्यक है क्योंकि सत्संग से बुद्धि का विकास होता है, इससे बुद्धि परिपक्व एवं विस्तृत होती है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है,वह स्वभाव से स्वतः ही, अन्य व्यक्तियों से घुलता-मिलता है किन्तु इस विषय में सतर्कता निहायत आवश्यक है कि एक व्यक्ति कैसे व्यक्तियों से संगति कर रहा है।यह सर्व विदित है कि जिस प्रकार सुसंगति का प्रभाव सकारात्मक होता है उसी प्रकार कुसंगति का प्रभाव नकारात्मक होता है। अक्सर कहा गया है :
” जैसा हो संग,वैसा चढ़े रंग ”
अतः सुसंगति को सदैव ही महत्व दिया जाना चाहिए। इस हेतु अपना व्यवसाय,व्यवहार,काम-काज सदैव ही योग्य एवं उन्नत लोगों के साथ करना चाहिये जिससे उनके संग- साथ,सहचर्य का सुप्रभाव मिले। यह प्रश्न स्वतः ही उठता है कि सत्संग इतना महत्वपूर्ण क्यों है ? इसका स्पष्ट कारण यह है कि संसार के तीन तथ्य “ईश्वर”, “जीव” एवं “प्रकृति” , इन तीनों का एकदम सही एवं सटीक ज्ञान सत्संग में प्राप्त होता है इसलिए सत्संग का मनुष्य जीवन में गहरा प्रभाव पड़ता है। सत्संग मनुष्य के जीवन को सुगम,समुन्नत एवं उत्कृष्ट बनाने में मुख्य भूमिका निभाता है।
यह सत्संग प्रत्यक्ष रूप से किसी योग्य,महान, संत-जन के साथ हो सकता है अर्थात् एक व्यक्ति का दिव्य,श्रेष्ठ,महान,सात्विक जनों के साथ समय व्यतीत करना; उनके उपदेश,प्रवचन सुनना, जानना, समझना; य सद-साहित्य,उत्तम पुस्तकों के सम्पर्क में रहना,स्वाध्याय करना;उसका चिंतन, मनन, पठन- पाठन, दोनों ही माध्यमों से वह व्यक्ति उतने समय सुसंगति में रहता है। अतः उसके दिल-दिमाग में उच्च विचारों का प्रवाह होने लगता है,उच्च विचारों का संकलन होने लगता है। यही योग्य,सत्संगी जनों या सद साहित्य का “संसर्ग” ही तो सत्संग होता है। संसर्ग शब्द किसी छूत की बीमारी के फैलने के लिए प्रयोग लिया जाता है। जैसे अक्सर कहा जाता है -Smile is Contagious.
प्रसिद्ध विद्वान बेकन ने मनुष्य को “कोरा कागज” की संज्ञा दी है और यह सर्व सिद्ध भी है कि मनुष्य पर वातावरण,परस्थिति,संगति का व्यापक प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ एक माता-पिता के दो बच्चों की परवरिश,यदि दो भिन्न-भिन्न् परिवारिक परिवेश में की जाए जैसे कि एक बच्चा पंजाबी परिवार में पल रहा है तथा दूसरा बच्चा बिहारी परिवार मे पल रहा है। दोनों बच्चे स्वतः ही भिन्न-भिन्न् परिवारों में पलने के कारण वहाँ की भाषा,वेशभूषा, खान-पान, तीज त्योहार अपनाकर भिन्न-भिन्न तैयार हो जाएंगे। अफ्रीका के जंगलों की एक एक कथा है : एक बार एक भेड़िया,नजदीक के गांव से दो बालकों को उठाकर ले गया। उसने उन्हें खाया नहीं बल्कि पाल पोस कर बड़ा किया। नतीजा यह हुआ कि दोनों बालक स्वतः ही भेड़िये जैसी आवाज़ करने लगे तथा कच्चा मांस खाने लगे।
“इसलिए यह सर्वमान्य सत्य है कि मनुष्य “कोरा कागज “होता है।”
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने आस-पास के वातावरण,परिस्थिति एवं संगति का मनुष्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि दुर्भाग्यवश यह सब बुरा प्रभाव डाल देते हैं तो मनुष्य का मन मलिनता और कटुता आदि नकारात्मक दुर्गुणों से भर जाता है। उस विषम स्थिति मे भी सुसंगति और सत्संग व्याप्त नकारात्मकता को नष्ट करने हेतु औषधि उसके जीवन में,उसके व्यक्तित्व में औषधि के समान कार्य करते हुए सकारात्मकता का संचार करती है। राजा भर्तृहरि ने लिखा है:
“सत्संगति मूर्खता को हर लेती,वाणी में सत्य का संचार करती है,चिंता में प्रसन्नता का संचार करती है, चारों दिशाओं में मान- सम्मान बढ़ाती है।”
अतः यह सत्य है कि सत्संगति हर तरह से मनुष्य का कल्याण करती है। मन-मस्तिष्क में छायी नकात्मकता को पुनः सकारात्मकता,उत्कर्ष की ओर अग्रसर करती है। ऐसा प्रतीत होता है मानों अमृत की तरह विष का हरण कर रही हो । मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर प्रोत्साहित करती है। विद्वानों का मत है कि “सत्संगति से विवेक जागृत होता है”, जिससे मनुष्य को नैतिक-अनैतिक का भेद स्पष्ट रूप से समझ में आने लगता है जो उसके जीवन के लिए लाभकारी होता है।
जीवन में शिक्षा का स्थान :
शिक्षा का जीवन में विशेष स्थान है। शिक्षा से ही मनुष्य पढ़ना-लिखना सीख कर जीवन में कुछ अर्जन करने लायक बनता है। अपने सामर्थ्य के अनुसार पढ़-लिख कर व्यापार या नौकरी करता है। आजकल माता-पिता बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाने के पक्षधर रहते हैं,अपना सब कुछ दांव पर लगाकर,यहाँ तक कि जमीन-जायदाद बेचकर,उधार लेकर भी बच्चे को उच्च शिक्षा दिलवाते हैं। उनका बच्चा उच्च शिक्षित हो भी जाता है किन्तु सुसंगति का महत्व न जानने के कारण कुसंगति में पड़ जाता है। यह सभी बच्चों के संदर्भ में नहीं कहा जा रहा है लेकिन कुछ ऐसे उदाहरण मिल ही रहे हैं। आजकल हम देख-सुन रहे हैं कि कुछ विद्यार्थी,यहाँ तक कि कुछ शिक्षक भी बुरी संगत में पड़ कर कैसे-कैसे कुकर्म कर गुजरते हैं। कई बार ऐसा भी सुनने को मिलता है कि कुछ माता-पिता अत्याधिक दुःखी होकर कहते हैं:
“हमने अपने बच्चे की उच्च शिक्षा हेतु कोई कसर नहीं छोड़ी पर वह बुरी संगत में पड़ कर खुद को बर्वाद कर बैठा। कुसंगति के कारण न काम में मन लगाता है न और किसी जिम्मेदारी में।”
ऐसी परिस्थिति में कभी-कभी बुरी संगत के अवसाद के कारण माता पिता कठिन बीमारी में भी घिर जाते हैं और उनके पास पछतावे के अलावा कुछ भी नहीं रह जाता है। अतः विद्वान बेकन का कथन “मनुष्य कोरा कागज” के समान होता है स्पष्ट होता दिखता है। अक्सर देखा गया है कि जिन परिवारों के बच्चे नौकर-चाकर या बिगड़ेल पड़ोसियों की संगति में रहते हैं वह उन्हीं के आशिष्ट व्यवहार सीख जाते हैं । इसके विपरीत जिन परिवारों में प्रारम्भ से ही सुसंगति का महत्व समझा दिया जाता है, ऐसे परिवारों के बच्चे योग्य एवं शिष्ट व्यवहार के होते हैं । अतः प्रारम्भ से ही सुसंगति पर बल दिया जाना चाहिये। बच्चों को सुसंगति के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिये जिससे उन्हें सुसंगति का ही अभ्यास हो जाये।
जीवन में स्वाध्याय का स्थान :
जीवनोत्थान के लिए स्वाध्याय का विशेष महत्व है। स्वाध्याय जिसका अर्थ है विवेकशील या एकग्रता से अनुशील अध्ययन। इससे बुद्धि का विकास होता है। परम पूज्य गुरुदेव ने कहा है कि बुद्धि की देवी “माता गायत्री का सच्चा भोजन स्वाध्याय ही है।” अतः नित्य स्वाध्याय किया जाना चाहिये एवं इसका प्रयास एवं अभ्यास नित्य ही होना चाहिये। विद्वानों ने स्वाध्याय को तप की संज्ञा देते हुए कहा है कि स्वाध्याय भी तप की भांति “प्रमाद मुक्त ( लापरवाही मुक्त ) होना चाहिये क्योंकि “प्रमाद मुक्त” होने पर ही एकाग्रता सम्भव है जो स्वाध्याय के लिये नितांत आवश्यक है। जिस तरह तप से तपस्वी का व्यक्तित्व,कृतित्व निखरता है,उसी प्रकार स्वाध्याय से स्वाध्यायी व्यक्ति का भी व्यक्तित्व-कृतित्व निखरता है। स्वाध्याय को शिक्षा की पूर्णता की संज्ञा दी जाती है। शिक्षा से मनुष्य पढ़ना- लिखना, अनुशासन सीखता है किन्तु उसमें निखार स्वाध्याय से सम्भव होता है। इससे मनुष्य में आत्म शिक्षण,आत्म परीक्षण की बुद्धि का विकास होता है। स्वाध्याय के संबंध में युगतीर्थ शांतिकुंज के श्री शरद परिधि जी लोकमान्य तिलक जी के उदाहरण से बताते हैं:
जब तिलक जी को जेल हुई तो उनके पास कोई पुस्तक,ग्रंथ कुछ नहीं था। उन्हें तीन इंच की एक पेन्सिल एवं एक पतली सी कॉपी दी गई थी। जेल की परिस्तिथि भी कष्टप्रद थी। उस विषम परिस्तिथि में भी उन्होंने गीता-रह्स्य की रचना की जो आधारभूत ग्रंथ माना गया। तिलक जी के स्वाध्याय का ही परिणाम है कि जब वह जेल से छूटे और 6 माह तक उन्हें उनकी रचना नहीं दी गयी तब उनके मित्रों ने शंका जाहिर की कि लगता है सरकार उनकी रचना उन्हें वापस नही करेगी। तब तिलक जी ने बेबाकी से जवाब दिया कि तुमलोग चिंता मत करो, एक माह का इंतजार करता हूँ फिर भी सरकार ने वापिस नहीं की तब हूबहू वही ग्रंथ पुनः लिख दूँगा, मेरे दिमाग़ में पूरा ग्रंथ छप चुका है। यह होता है स्वाध्याय का बल क्योंकि यह बारम्बार अध्ययन,मनन,चिंतन के बाद स्वयं से अर्जित किया हुआ होने के कारण स्थायी होता है। संसार में जितने भी अविष्कार हुए हैं सब स्वाध्याय द्वारा ही सम्भव हुए हैं। फल को पृथ्वी पर गिरते हुए सभी देखते थे किन्तु पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है इसकी खोज आइजैक न्यूटन ने की। यह मात्र शिक्षा से सम्भव नहीं वरन स्वाध्याय का प्रतिफल है। एक स्वाध्यायी व्यक्ति किसी क्रिया का बारम्बार, अध्ययन, चिंतन, मनन,करने के बाद ही किसी नतीजे पर पहुँचता है। तब कहीं जाकर एक सिद्धांत का जन्म होता है। इस तरह एक स्वाध्यायी व्यक्ति स्वयं का परिष्कार करते हुए सम्पूर्ण मानव जाति को लाभान्वित करने में सफल होता है।
क्रमशः जारी :
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27 नवंबर 2021 के ज्ञानप्रसाद में सात सहकर्मी 24 आहुति संकल्प के विजेता घोषित हुए हैं :(1) सरविन्द कुमार पाल – 33, (2) रेनू श्रीवास्तव बहन जी – 27, (3) संध्या बहन जी – 27, (4) डा.अरुन त्रिखा जी – 26, (5) अरूण कुमार वर्मा जी – 26, (6) प्रेरणा कुमारी बेटी – 26, (7) रजत कुमार जी – 24 उक्त सभी सूझवान व समर्पित सहकर्मियों को आनलाइन ज्ञान रथ परिवार की तरफ से बहुत बहुत साधुवाद व अनंत हार्दिक शुभकामनाएँ व हार्दिक बधाई हो और सभी पर आद्यिशक्ति जगत् जननी माँ भगवती गायत्री माता दी की असीम अनुकम्पा सदैव बरसती रहे यही हमारी गुरू सत्ता से विनम्र प्रार्थना व पवित्र शुभ मंगल कामना है l धन्यवाद l जय गुरुदेव जय माता दी