27 नवम्बर 2021 का ज्ञानप्रसाद- अध्याय 12 – सत्संग मनोनिग्रह में बड़ा सहायक है ; अध्याय 13 -.सत्व का शोधन कैसे हो
आज का ज्ञानप्रसाद स्वामी आत्मानंद जी द्वारा लिखित पुस्तक “मन और उसका निग्रह” के अध्याय12 और 13 हैं । मनोनिग्रह की यह अद्भुत श्रृंखला आदरणीय अनिल कुमार मिश्रा जी के स्वाध्याय पर आधारित प्रस्तुति है।ऑनलाइन ज्ञानरथ परिवार रामकृष्ण मिशन मायावती,अल्मोड़ा के वरिष्ठ सन्यासी पूज्य स्वामी बुद्धानन्द जी महाराज और छत्तीसगढ़ रायपुर के विद्वान सन्यासी आत्मानंद जी महाराज जी का आभारी है जिन्होंने यह अध्भुत ज्ञान उपलब्ध कराया। इन लेखों का सम्पूर्ण श्रेय इन महान आत्माओं को जाता है -हम तो केवल माध्यम ही हैं। लेखों के अंत में कामिनी और कंचन को समझने के लिए श्री रामकृष्ण परमहंस देव जी के जीवन की एक घटना प्रस्तुत की है जिसने हमारे अन्तःकरण को अतिप्रभावित किया है, आप सबको भी यह घटना प्रभावित किये बिना न रह पायेगी।
अध्याय 12 – सत्संग मनोनिग्रह में बड़ा सहायक है
हमने कुछ विस्तार से इस पर विचार किया है कि मन पर नियंत्रण पाने के लिए उसमें गुणों के अनुपात को कैसे बदला जाय। यह शास्त्रों में उपदिष्ट एक प्रामाणिक पद्धति है। यदि उसका समुचित रूप से अभ्यास किया जाय तो किसी को भी उसका फल प्रत्यक्ष हो सकता है। फिर भी ऐसे कई लोग होंगे जो अपनी प्रवृत्ति के कारण इतनी सूक्ष्मता के साथ अपनी भीतरी संभाल नहीं कर पाते, या फिर वे जिस वातावरण में रहते हैं, वह इस साधना के अभ्यास में अनुकूल नहीं पड़ता। तो क्या ऐसी कोई दूसरी साधना पद्धति है जिसका अभ्यास अपेक्षाकृत सरल हो और जो पहले ही के समान फल देनेवाली हो ? हाँ, वैसी एक पद्धति है जिसका अभ्यास सरलता से हो सकता है और पहली ही की अपेक्षा,अगर अधिक नहीं, तो बराबर फल देनेवाली अवश्य है।
किन्तु इस अति सरल तरीके के सम्बन्ध में बताने में एक कठिनाई है। एक उदाहरण से हमारा अभिप्राय स्पष्ट हो जायेगा। ऐसे कुछ रोगी होते हैं, जो दीर्घकाल तक एक ज़िद्दी व्याधि से त्रस्त रहने के कारण उस चिकित्सक पर विश्वास नहीं कर पाते, जो एक सरल निदान प्रस्तुत करता है। वे सम्भवतः यह समझते हैं कि जटिल रोग ज्ञान का निदान भी अनुपात में जटिल ही होगा। ठीक यही बात इस सरल उपाय पर भी लागू होती है, जिसकी हम चर्चा करने जा रहे हैं ; कुछ लोग इसे अति सरल मान लेते हैं।
उपाय है सत्संग। यह है तो सरल, पर अन्य उपायों से अधिक फलदायी है। भगवान कृष्ण उपदेश देते हैं :
“जगत् में जितनी आसक्तियां हैं, उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है। यही कारण है कि सत्संग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है वैसा साधन न योग है, न सांख्य, न धर्मपालन, न स्वाध्याय। तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँ तक मैं कहूँ -व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम- नियम भी सत्संग के समान मुझे वश में करने में समर्थ नहीं हैं।”
हमारी अधिकांश आसक्तियां हमारे स्वभाव में रजोगुण के आधिक्य के कारण हें। जब हम किसी तत्वज्ञ साधु पुरुष के सानिध्य में होते हैं तो उनकी पवित्रता के शक्तिमान स्पन्दन हमारे भीतर घुस जाते हैं और हमारे मन के त्रिगुणात्मक उपादान में शीघ्र परिवर्तन ला देते हैं, जिससे उस समय सत्व की प्रधानता हो जाती है। सत्व की इस प्रधानता का लम्बे समय तक टिकना इस पर निर्भर करता है कि हम सत्संग कितनी मात्रा में करते हैं। श्रीरामकृष्ण कहते हैं :
“संसारी मनुष्यों के लिए तो सदा ही साधु-स़ंग की आवश्यकता है। यह सबके लिए है, सन्यासियों के लिए भी; परन्तु संसारियों के लिए तो विशेषकर यह आवश्यक है। उन्हें तो रोग लगा ही हुआ है — कामिनी-कांचन में सदा ही रहना पड़ता है।”
सत्संग मनोनिग्रह को सरल बना देता है। अतएव हमें उसके लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। परन्तु जब हमें सत्संग उपलब्ध न हो सके तो क्या करना चाहिए ? तब तो हमें अपने ही साधनों पर निर्भर रहकर प्रणाली बद्ध रूप से आगे बढ़ चलना चाहिए। उपर्युक्त निर्देशों में से जो हमारे अनुकूल हो, उसका अनुसरण करते हुए हमें अपने मन में सत्वगुण की प्रधानता लानी चाहिए और अन्त में सत्वगुण का शोधन कर उसे भी लांघ जाने का उपाय सीखना चाहिए।
अध्याय 13 -.सत्व का शोधन कैसे हो
वेदान्त के अनुसार, नित्य और अनित्य में सतत् विवेक, अनित्य का त्याग और आत्मा के यथार्थ स्वरूप पर गम्भीर ध्यान के द्वारा सत्व का शोधन होता है। यहाँ पर मन:संयम के लिए श्री शंकराचार्य का यह अप्रत्यक्ष निर्देश हमारे लिए सहायक होगा:
“आत्मसाक्षात्कार की इच्छा अनात्म-वस्तुओं की असंख्य कामनाओं से ढक जाती है। जब सतत् आत्मनिष्ठा के द्वारा वे कामनाएँ नष्ट होती हैं, तब आत्मा स्वयमेव अपने को स्पष्ट रूप से प्रकट कर देता है। ज्यों ज्यों मन प्रत्यगात्मा में अवस्थित होता है, त्यों त्यों वह बाह्य विषयों की वासना को त्यागता जाता है और जब इस वासना का सर्वथा त्याग हो जाता है, तब आत्मा की निर्बाध अनुभूति होती है।
योगी का मन अपनी ही आत्मा में सदैव स्थित होने के कारण, नाश को प्राप्त होता है। उससे वासना का क्षय होता है। अतएव अपने अध्यास (Superimposition) को दूर करो।”
मन के नाश का मतलब उसका खात्मा नहीं है, बल्कि उसका तात्पर्य है पूर्ण ज्ञान पावित्रय। इस अवस्था में मन आत्मा से एक हो जाता है। जब मनुष्य अपनी आत्मस्वरूपता को जान लेता है तो फिर नियंत्रण करने को कोई मन नहीं रह जाता है।
मनोनिग्रह करते समय हमें इस उच्चतम अवस्था को प्राप्त करने का लक्ष्य अपने सामने रखना चाहिए। जबतक मन में एक से अधिक वासनाएं बनी हुई हैं, या यों कहें कि आत्म-साक्षात्कार की वासना के अतिरिक्त अन्य वासनाएं विद्यमान हैं, तबतक मनोनिग्रह कठिन होगा क्योंकि तबतक मन एक बिखरी हुई अवस्था में होगा। सभी चीजें जहां जाकर एक हो जाती हैं उस उच्चतम से यदि हम कुछ नीचे के लिए कोशिश करें , तो मन मानो विभक्त हो जाता है l विभक्त मन को वश में लाना कठिन होता है l दूसरे शब्दों में, जो लोग पूर्ण ज्ञान की अवस्था या आत्म-साक्षात्कार की अपेक्षा कुछ कम को पाने की कोशिश करते हैं, वे कभी भी अपने मन को वश में नहीं कर सकते। उनके मन में आत्म-ज्ञान के अलावा और कोई वासना बनी रहती है और इसलिए वे वस्तुतः अविद्या को ही बनाये रखने का उपक्रम करते हैं। इस प्रकार मनोनिग्रह के लिए जो बातें आवश्यक होतीं हैं, उनकी पूर्ति में वे अपने को असमर्थ पाते हैं। वेदान्त में अशुद्ध मन को अविद्या से एकरूप बताया गया है। अतएव अविद्या को दूर करने के लिए जिन साधनाओं की आवश्यकता होती है, वे ही मनोनिग्रह पर लागू होती हैं। इनमें से विशेषकर एक साधना मन:संयम में बड़ी सहायक होती है। इस साधना को वेदान्त की भाषा में “स्वाध्यास- अपनय” कहते हैं। जो अज्ञान हमने स्वयं अपने ऊपर लाद लिया है उसे दूर करना और इस प्रकार अनात्म- वस्तुओं से अपने तादात्म्य को समाप्त कर देना।
आत्मा पर अध्यास कैसे हुआ और उसे दूर करने के उपाय क्या हैं , इस पर चर्चा करते हुए श्री शंकराचार्य कहते हैं:
“शरीर, इन्द्रियाँ आदि अनात्म- वस्तुओं के प्रति ‘मैं’ और ‘मेरा’ का भाव ही अध्यास है। बुद्धिमान को चाहिए कि वह आत्मा से एकत्व की अनुभूति करता हुआ इस अध्यास को निरस्त कर दे।
अपनी बुद्धि और उसकी वृत्तियों के साक्षी अपने इस प्रत्यगात्मा को जानकर तथा ‘ सोहम् ‘ इस सद्वृत्ति को सतत् भीतर उठाते हुए अनात्मा के साथ अपने एकत्व को जीत ले”
मनुष्य की सारी अशान्ति, तनाव और मानसिक समस्याओं का बस एक ही कारण है और वह है उसके यथार्थ आत्मा का अनात्मा से मिथ्या एकत्व। इसी से शरीर और इन्द्रियों आदि के प्रति ‘ मैं’ और ‘मेरे’ की भावना उपजती है। इन समस्त विकारों का निदान ‘सोहम’ मन्त्र की प्रयत्नपूर्वक साधना करना है। सोचो कि ‘मैं आत्मस्वरूप हूँ’। सत्य पर केन्द्रित मन को नियंत्रित किया जा सकता है। वेदान्त के अन्तर्गत, ज्ञान की प्राप्ति के लिए साधन -चतुष्टय का जो अभ्यास किया जाता है , उस अभ्यास की प्रक्रिया में ही मनोनिग्रह की समस्या का समाधान स्वत: हो जाता हैl
मन को वश में करने के लिए उपर्युक्त साथन-चतुष्टय के साथ योग के अभ्यास को जोड़ देना अधिक सहायक होता हैl अब हम इस योगाभ्यास पर विचार करेंगे
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कामिनी और कंचन का अभिप्राय
जिस समय श्री रामकृष्ण परमहंस देव को दिव्य-ज्ञान हुआ उसी समय उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि सब वस्तुओं का सार ईश्वर ही है और उसी को पाने का प्रयत्न करना चाहिए। इसके पश्चात उन्होंने इस भावना को दढ करने का अभ्यास करना आरंभ किया। उन्होंने एक हाथ में रुपया और दूसरे में मिट्टी का ढेला लिया और मन को संबोधन करके कहने लगे :
“हे मन, तू इसको रुपया कहता है, और इसको मिट्टी। रुपया चाँदी का गोल टुकड़ा है जिस पर एक ओर रानी (विक्टोरिया) की तस्वीर छपी है। यह जड़ पदार्थ है। रुपया से चावल, कपड़ा, घर, हाथी, घोड़ा आदि पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं, दस-बीस मनुष्यों को भोजन कराया जा सकता है, तीर्थ-यात्रा, देवता और संतों की सेवा की जा सकती है। पर इसके द्वारा सच्चिदानंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि इसके रहते हुए अहंकार सर्वथा नष्ट नहीं हो सकता और न मन आसक्तिहीन हो सकता है। देवता और साधु की सेवा आदि धर्म-कार्य किए जा सकने पर भी यह मन में रजोगुण और तमोगुण ही उत्पन्न करता है और इस दशा में सच्चिदानंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।”
मिट्टी को देखकर वे कहते:
“यह भी जड़ पदार्थ है, पर इससे अन्न उत्पन्न होता है जिससे मनुष्य के शरीर की रक्षा होती है। मिट्टी के द्वारा ही घर बनाया जाता है, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी बनाई जा सकती हैं। द्रव्य के द्वारा जो कार्य होते हैं वे मिट्टी द्वारा भी हो सकते हैं। दोनों एक ही श्रेणी के जड़ पदार्थ हैं और दोनों का परिणाम एक ही तरह का होता है। अरे मन! तू इन दोनों पदार्थों को लेकर तृप्त होगा अथवा सच्चिदानंद को प्राप्त करने का प्रयत्न करेगा।”
इस प्रकार कहकर उन्होंने नेत्र बंद कर लिए और ‘रुपया-मिट्टी’ ‘रुपया-मिट्टी’ इस प्रकार की ध्वनि करने लगे। अंत में उन्होंने रुपया और मिट्टी दोनों को गंगाजी में फेंक दिया। इस प्रकार बारबार अभ्यास करके उन्होंने अपने मन को धातु (रुपया) के प्रति इतना विरक्त बना लिया कि किसी धातु के छूने से बड़ा कष्ट जान पड़ता था। इसी प्रकार उन्होंने स्त्री के संबंध में विचार किया कि उसकी वासना किसी भी प्रकार से क्यों न रखी जाए, उससे मस्तिष्क और मन दुर्बल ही होते हैं और परमात्म-चिंतन में बाधा पड़ती है। माना कि उसे लोग सुख के लिए ग्रहण करते हैं, पर वह सुख क्षणिक ही रहेगा ,कभी स्थाई नहीं होगा और परिणाम हानिकारक ही होगा।
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24 आहुति-संकल्प के आज के विजेता (1) सरविन्द कुमार पाल – 42, (2) अरुण कुमार वर्मा जी – 31, (3) डा.अरुन त्रिखा जी – 29, (4) रेनू श्रीवास्तव बहन जी – 29, (5) प्रेरणा कुमारी बेटी – 27, (6) पिंकी पाल बेटी – 27, (7) संध्या बहन जी – 26, (8) सुमन लता बहन जी – 26, (9) रजत कुमार जी – 25
आनलाइन ज्ञान रथ परिवार की तरफ से सभी को साधुवाद व अनंत हार्दिक शुभकामनाएँ व हार्दिक बधाई।